पिछले कुछ सालों से दिल्ली सरकार द्वारा लगातार स्कूलों के चमत्कारिक सुधारों के दावे किये जाते रहे हैं। दूसरी तरफ़ लोक शिक्षक मंच ने दिल्ली व केंद्र दोनों सरकारों की शिक्षा-विरोधी नीतियों का विरोध जारी रखा है। हमारे विरोध का एक बड़ा आधार स्कूलों पर थोपे गए आदेशों से सैद्धांतिक असहमति का रहा है। हमारा मानना है कि बच्चों को अप्रमाणित टेस्टों के आधार पर बाँटकर पढ़ाने, कक्षाओं में सीसीटीवी कैमरे लगाने, टेस्ट परिणामों के आधार पर शिक्षकों व स्कूलों का मूल्याँकन करने, सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों पर वोकेशनल कोर्स थोपने, शिक्षकों व स्कूलों की कार्य-योजना को केंद्रीकृत आदेशों से संचालित करने जैसे फ़ैसले शिक्षा के चरित्र को विकृत कर रहे हैं। ज़ाहिर है कि ये नीतियाँ कॉरपोरेट जगत से आ रही हैं और बाज़ार में प्रतिस्पर्धा करने वाली कंपनियों के प्रबंधन मॉडल पर आधारित हैं। इन्हें वैश्विक पूँजी के शक्तिशाली तत्व, जिनमें 'शिक्षा में काम करने वाले एनजीओ' प्रमुखता से शामिल हैं, प्रस्तावित-प्रायोजित कर रहे हैं। इनका मक़सद अंततः सरकारी स्कूलों के सार्वजनिक चरित्र को बर्बाद करना और निजी मुनाफ़े के विस्तार के लिए शिक्षा के बाज़ार की ज़मीन तैयार करना है। इसके अलावा इन नीतियों को लागू करके सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों व मेहनतकश तबक़े के साथ दूरगामी धोखा किया जा रहा है। इसके बावजूद लोगों तक यह बात पहुँचाना चुनौतीपूर्ण रहा है कि चीज़ों को disrupt (उलट-पलट) करके, सूचना प्रसार प्रौद्योगिकी (ICT) को अंधाधुंध थोपकर और मीडिया के कुशल प्रबंधन के सहारे जो बदलाव उन्हें क्रांति के नाम पर परोसा जा रहा है वो जनहित में नहीं है। चूँकि मीडिया में भी गिने-चुने स्कूलों की ऊपरी चमक-धमक और इन तथाकथित सुधारों को सकारात्मक कवरेज मिला है, इसलिए यह चुनौती और मुश्किल हो गई है। हम जानते हैं कि प्रचार व प्रबंधन का यह जाल कोई दिल्ली मात्र की परिघटना नहीं है। पूँजीवाद ने इस दौर में पोस्ट-ट्रुथ के सम्मोहन व आत्म-छद्म के माध्यम से कई देशों में झूठ, पूर्वाग्रहों, नफ़रत व हिंसा का सामान्यीकरण कर दिया है। कई देशों में तो इसी बदौलत सरकारें बन-बदल गई हैं।
इसी कड़ी में हमने कुछ ऐसे ठोस पैमानों को जाँचकर तथ्यों को सामने लाने का फ़ैसला किया जिनकी मदद से लोगों द्वारा सरकार के दावों को आसानी से परखा जा सके। इस दिशा में हमने स्कूलों में नामाँकन को एक मुख्य बिंदु के रूप में चुना। हम जानना चाह रहे थे कि स्कूलों के बेहतर होने के दावों का उनमें पढ़ने वाले बच्चों की संख्या से क्या संबंध है। क्या यह संभव है कि सरकारी स्कूल जनता के लिए बेहतर होते जा रहे हों मगर उनमें पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या इसकी गवाही न दे रही हो? अगर ऐसा है तो फिर हमें सुधार/विकास के इस मॉडल पर ही सवाल खड़े करने होंगे।
उपरोक्त संदर्भ में जनवरी 2019 के प्रारंभ में दिल्ली सरकार के शिक्षा निदेशालय में सूचना का अधिकार अधिनियम (2005) के तहत एक अर्ज़ी डाली गई। इसमें 2013-14 से 2017-18 तक के बीच के सभी सत्रों में दिल्ली सरकार के सभी स्कूलों में मिलाकर क्रमशः कक्षा एक, छह व नौ में हुए प्रवेशों की सत्रवार संख्या पूछी गई थी। हमने इन तीन कक्षाओं को इसलिए चुना था क्योंकि इन्हीं स्तर पर सबसे ज़्यादा प्रवेश होने की गुंजाइश होती है। अर्ज़ी के जवाब में जो पत्र प्राप्त हुआ उसमें लिखा था कि विभाग के पास ऐसा कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है। फिर भी, 2 जनवरी 2019 के दिन का कक्षावार नामाँकन उपलब्ध करा दिया गया। यह शोचनीय विषय है कि स्कूलों से एक-एक बात का डाटा माँगती सरकार को यही पता नहीं है कि उसके स्कूलों की कौन-सी कक्षाओं में हर साल कितने बच्चे प्रवेश ले रहे हैं। आख़िर, इस आधारभूत तथ्य के बिना कोई सरकार शिक्षा की योजना ही कैसे बना सकती है? अगर सरकार ये आँकड़े सचमुच इकट्ठा नहीं करती है तो वो नाकारा है, और अगर सार्वजनिक नहीं करना चाह रही है तो यह उसकी तानाशाही का ही सबूत है। इसके बाद, सवालों की भाषा में कुछ बदलाव करके, वही जानकारी फ़रवरी के मध्य में एक बार फिर माँगी गई। इस बार भी विद्यार्थियों के एक दिन की कुल नामांकित संख्या की सूची पकड़ा दी गई और साथ में लिख दिया गया कि RTI Act के नियम 2F के तहत ये जानकारी नहीं दी जा सकती है। जबकि यह नियम व्याख्यायित करता है कि जो रिकॉर्ड विभिन्न तरीक़ों से किसी सरकारी महकमे के पास उपलब्ध है वो सूचना के दायरे में आएगा! अव्वल तो इस तरह की मोटी जानकारी तो विभाग की वेबसाइट पर ही उपलब्ध होनी चाहिए। इससे न केवल आवेदनकर्ता के संसाधनों की, बल्कि जनकोष की भी बर्बादी नहीं होगी। मगर सच तो यह है कि सूचना के अधिकार एक ढकोसला बनकर रह गया है। हाथी के दाँत दिखाने के और हैं और खाने के और। सरकार अपने ख़िलाफ़ जाने वाली कोई जानकारी आसानी से सार्वजनिक नहीं करना चाहती है।
बहरहाल, 2 जनवरी 2019 के दिन के नामाँकन संख्या की सूची भेजने के अलावा इस बार अर्ज़ी को ज़िला स्तर के अन्य दफ़्तरों को भी अग्रेषित कर दिया गया। कुछ ज़िलों से जवाब आया कि नियम के तहत यह सूचना नहीं दी जा सकती है। कुछ ज़िलों ने अर्ज़ी को उनके अधीन ज़ोन्स (क्षेत्रों) को अग्रेषित कर दिया गया। कुछ क्षेत्रीय दफ़्तरों ने जवाब दिया कि माँगी गई सूचना उनके पास उपलब्ध नहीं है, जोकि सच था क्योंकि हमने उनके क्षेत्र की नहीं बल्कि दिल्लीभर की जानकारी माँगी थी। एक ज़िले के दफ़्तर ने 84 पृष्ठों के बदले 168 रुपये जमा कराकर जानकारी लेने का निमंत्रण दिया। एक अन्य ज़िले के दफ़्तर ने अर्ज़ी को उसके अधीन स्कूलों तक अग्रेषित करने का संदेशा भिजवाया, लेकिन उन स्कूलों से कोई जवाब प्राप्त नहीं हुआ। अंततः हमें पश्चिम-B की ज़ोन 17, मध्य ज़िले की ज़ोन 26 व 27, तथा उत्तर-पश्चिम-B की ज़ोन 11, 12 व 13 से आँकड़े प्राप्त हुए। इन क्षेत्रों ने भी कोई एकीकृत सूचना नहीं दी, बल्कि हर स्कूल का अलग-अलग आँकड़ा भिजवाया जिसे हमें अपने स्तर पर जोड़ना पड़ा। ज़ोन 11 से 29, 12 से 43, 13 से 31, 26 से 4, 27 से 19 और 17 से 33 स्कूलों,के आँकड़े प्राप्त हुए। इस तरह, हमारे पास कुल मिलाकर 159 स्कूलों के आँकड़े हैं जिनके आधार पर हम कुछ विश्लेषण कर सकते हैं।
तालिका 1
सत्र कुल प्रवेश
कक्षा प्रथम कक्षा छठी कक्षा नौवीं
2013-14 2,561 36,145 11,679
2014-15 2,424 34,026 14,362
2015-16 2,284 34,582 15,831
2016-17 2,511 33,026 15,546
2017-18 2,283 31,255 15,959
1) अगर क्षेत्रवार देखें, तो हम पाते हैं कि 5 में से 4 में पहली कक्षा में प्रवेश लेने वाले बच्चों की संख्या में कमी आई है। छठी कक्षा में यह कमी निर्विवाद है और सभी पाँच क्षेत्रों में दिखती है। इन दोनों चलन के उलट, पाँच से चार क्षेत्रों में नौवीं कक्षा में प्रवेश लेने वालों की संख्या में वृद्धि हुई है।
2) अगर कक्षावार देखें, तो हम पाते हैं कि इन 159 स्कूलों में पहली कक्षा में प्रवेश में 10.85% (कुल 278) की कमी आई है, जबकि छठी कक्षा के स्तर पर यह कमी 13.52% (कुल 4,890) है। नौवीं कक्षा में अलबत्ता प्रवेश में 36.64% (कुल 4,280) की वृद्धि हुई है, मगर जब हम तीनों स्तर के आँकड़ों को जोड़ते हैं तो पाते हैं कि दाख़िलों में 1.76% (कुल 888) की कमी आई है।
3) उपरोक्त तालिका से यह भी पता चलता है कि इन तीनों स्तर पर मिलाकर होने वाले कुल प्रवेश में से प्रथम कक्षा का हिस्सा 5% से भी कम है, वहीं दो-तिहाई से अधिक दाख़िले छठी कक्षा में होते हैं और नौवीं में एक-चौथाई से ज़रा अधिक।4) अगर हम इन 159 स्कूलों के इन आँकड़ों को आधार बनाकर दिल्ली सरकार के कुल लगभग 1,000 स्कूलों के आँकड़ों का अंदाज़ा लगायें तो कहा जा सकता है कि पिछले पाँच सत्रों में पहली कक्षा में दाख़िला लेने वालों की संख्या में लगभग 1,750 बच्चों की कमी आई है। इसी तरह, छठी कक्षा में यह अनुमानित कमी लगभग 31,000 है! इसके दो ही मतलब हो सकते हैं - या तो नगर निगम व निजी स्कूलों से पाँचवीं पढ़कर आने वाले बच्चे अब पहले जितनी बड़ी संख्या में दिल्ली सरकार के स्कूलों में प्रवेश नहीं ले रहे हैं, या फिर उनके प्रवेश लेने की प्रक्रिया में रोड़े अटकाये जा रहे हैं। दोनों ही निष्कर्ष सरकार के दावों की पोल खोलते हैं।
अब हम 2-1-19 के नामाँकन के आँकड़े प्रस्तुत करते हैं जोकि हमें इसी अर्ज़ी के जवाब में प्राप्त हुए थे।
तालिका 2
कक्षा नामाँकन
पहली 23,687
पाँचवीं 26,146
छठी 2,07,803
सातवीं 2,04,609
आठवीं 2,11,393
नौवीं 2,83,688
दसवीं 1,75,016
ग्यारहवीं 1,35,213
बारहवीं 1,30,561
(दसवीं के बाद लगभग 70% विद्यार्थी आर्ट्स में, 16-17% कॉमर्स में, 8% विज्ञान में और 5% वोकेशनल में पढ़ रहे हैं।)
इन आँकड़ों से हम निम्नलखित निष्कर्षों पर पहुँचते हैं -
1) पाँचवीं का नामाँकन पहली से मात्र 1.57% ज़्यादा है, जबकि छठी में पढ़ने वालों की संख्या पाँचवीं से 8 गुना अधिक है! इससे साफ़ होता है कि दिल्ली सरकार के स्कूलों में सबसे अधिक संख्या में विद्यार्थी छठी कक्षा में प्रवेश लेते हैं। इनमें से अधिकाँश विद्यार्थी नगर निगम के स्कूलों की पाँचवीं कक्षा से पढ़कर आने वाले हैं। इस बात का महत्व यह है कि अगर इसी कक्षा में प्रवेश के स्तर पर गतिरोध पैदा कर दिया जाये या गिरावट आ जाये तो फिर दिल्ली सरकार के स्कूलों में पढ़ने वालों की कुल संख्या में देर-सवेर निश्चित ही एक नकारात्मक असर पड़ेगा।
2) आठवीं के मुक़ाबले नौवीं में पढ़ने वालों की संख्या 33% ज़्यादा है। चूँकि इस कक्षा में दिल्ली के बाहर से या निजी स्कूलों से पढ़कर आये बिलकुल नए विद्यार्थियों का प्रवेश इतनी बड़ी संख्या में नहीं होता है, इसलिए इसका एक कारण पिछले वर्षों में नौवीं में फ़ेल कर दिए गए या स्कूल से निकाल दिए गए विद्यार्थियों का दोबारा प्रवेश लेना भी हो सकता है। हालाँकि हम यहाँ इस अनुमान के पक्ष में आँकड़े रखने की स्थिति में नहीं हैं।
3) हमारे ऊपर के अनुमान को इस बात से बल मिलता है कि नौवीं की तुलना में दसवीं में 38% कम विद्यार्थी नामाँकित हैं तथा ग्यारहवीं में दसवीं के मुक़ाबले इस संख्या में लगभग 23% की और कमी है।
4) वैसे तो ये सिर्फ़ एक साल के ही आँकड़े हैं, किन्तु इनसे कुछ रुझान का पता चलता है। मोटे तौर पर, दिल्ली सरकार के स्कूलों की छठी कक्षा को आधार मानें तो, बारहवीं तक आते-आते लगभग 77,000 विद्यार्थियों 'ग़ायब' हो रहे हैं। यह 37% की कमी इस स्कूली व्यवस्था की नाकामी नहीं तो और क्या दिखाती है?
5) दूसरी तरफ़, पहली के मुक़ाबले पाँचवीं में महज़ 10% (कुल 2,459) विद्यार्थी अधिक हैं। इससे साबित होता है कि दिल्ली सरकार के स्कूलों की प्राथमिक कक्षाओं में या तो लोग प्रवेश लेने को उतने आतुर नहीं हैं, या फिर यह आसानी से मिलता नहीं है। दोनों ही स्थितियों में सरकार को कामयाब नहीं माना जा सकता है।
ऊपर प्रस्तुत तालिकायें और उनपर आधारित विश्लेषण यह बयान कर रहा है कि तमाम तामझाम और प्रचारी दावों के बावजूद कम-से-कम दाख़िलों व नामाँकन को लेकर दिल्ली सरकार के स्कूलों की ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और ही है। इससे यह भी संकेत मिलता है कि एक लोकतंत्र में किसी भी चुनी हुई सरकार के काम को परखने के लिए चंद विशिष्ट संस्थानों की जगमगाहट से चौंधियाना या सम्मोहित होना सही नहीं है। सरकार के दावों, उसके कार्य का मूल्याँकन हमें उन लोगों से पूछकर करना होगा जिनके बच्चों को दाख़िला नहीं मिला, जिनके बच्चों को विभिन्न कारणों से स्कूल से बाहर निकाल दिया गया। आख़िर हम ऐसे पाँच-सितारा स्कूल लेकर क्या करेंगे जिनके परिसर में हमारे बच्चे घुस ही नहीं सकते? ये आधुनिक-अति-विकसित स्कूल, विदेशी पर्यटन की ज़रूरतों को पूरा करने पर केंद्रित अस्पताल, खाये-पिये लोगों की महँगी व जीवन-विरोधी गाड़ियों के लिए टोल-युक्त हाईवे, बुलेट ट्रेन, ये हमारे विकास का मॉडल नहीं हो सकते। हाँ, ये हमारी दरिद्रता को मुँह चिढ़ाती और हमारी जीवन की बचीखुची उम्मीदों का विनाश करती पूँजीवादी लीला ज़रूर है। हम इसे ख़ारिज करते हैं।
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