एक शिक्षक की कलम से
जब मैं छोटा था, चौथी-पाँचवीं में, तब मेरे दिलो-दिमाग़ पर अपने 'भविष्य' को लेकर तीन ख़याल छाये थे - क्रिकेट खिलाड़ी बनना, फ़ौज में जाना और (प्राइवेट) जासूस बनना। ज़ाहिर है कि इसमें मेरे परिवेश-काल की मुख्य भूमिका थी। मेरे पिता ख़ुद फ़ौज में थे, स्कूल व फ़ौजी इलाक़ों के पुस्तकालयों के माध्यम से बच्चों-किशोरों के लिए लिखे गए रोमांचकारी (अंग्रेज़ी व हिंदी कॉमिक, दोनों प्रकार के) क़िस्से-कहानियों की दुनिया से मेरा परिचय हो रहा था और पुरुष क्रिकेट टीम के मैच व खिलाड़ी शहरी-मध्यवर्गीय जीवन नहीं तो कमसकम चर्चा के केंद्र में स्थापित हो चुके थे। हमारी मित्रमंडली भी एक तरफ़ तो मनगढ़ंत ख़ुफ़िया रास्तों, ठिकानों और रहस्यों को बुन-बुन कर रोमांचकारी खेलों में मग्न रहती थी, वहीं दूसरी तरफ़ स्कूल व आस-पड़ोस के नुक्क्ड़-मैदानों पर घंटों क्रिकेट मैचों में ख़ुद को मशग़ूल रखती थी। उस वक़्त यह सब मुमकिन भी था क्योंकि एक तो खेल के मैदानों, खुले स्थानों की कोई कमी नहीं थी और दूजे बड़ों व शासन-प्रशासन की रोकटोक भी नहीं। इस तरह के अस्पष्ट विचार उस सवाल की प्रतिक्रिया में ही बने होंगे जिसमें, हमारे वर्गीय संदर्भ में, बच्चों से उनके 'बड़े' होने व अभिलाषा के बारे में नियमित रूप से पूछा जाता था/है।
जब मैं नौवीं-दसवीं में आया तो मुझमें प्राथमिक शिक्षक बनने की इच्छा जागृत हुई। इसका कोई एक कारण बताना मुश्किल है। मुझे याद है कि उस समय के हमारे शिक्षक निश्चित ही बढ़िया थे। मेरे स्कूल में एक समृद्ध व सुलभ पुस्तकालय था जिससे हम दोस्त पुस्तकें जारी करके पढ़ते और आपस में चर्चा भी करते। यह कुछ-कुछ कॉमिक की दुनिया से साहित्य की ओर एक क़दम था। हालाँकि, यह सच है कि कॉमिक की दुनिया का स्वाद आजतक भी छूटा नहीं है! उस ज़माने में रेडियो पर बीबीसी सुनना आम बात थी और हम दोस्त अंतर्राष्ट्रीय ख़बरों पर अक़्सर कुछ बातचीत करते ही थे। हम इस मामले में ख़ुशक़िस्मत थे कि वो झूठी-उत्तेजक रिपोर्टिंग करने वाले कूपमंडूक निजी चैनलों का दौर नहीं था। दूरदर्शन का संयमित सरकारी मंच हो या बीबीसी सरीखे अधिक विश्वसनीय प्रसारण, अंतर्राष्ट्रीय ख़बरें हमें गुटनिर्पेक्ष आंदोलन से लेकर साम्राज्यवादी ताक़तों के विरुद्ध अफ़्रीकी-एशियाई एकजुटता के मूल्यवान अस्तित्व का एहसास कराती थीं। (हालाँकि ये भी सच है कि देश के भीतर वो समय, सांस्कृतिक व अन्य रूपों से, साम्प्रदायिक, लैंगिक, जातिगत, कई क़िस्मों के दमन-शोषण पर पर्दा डालने का युग भी था। फिर चीन की तथाकथित जनवादी सत्ता का हिंसक चेहरा तियानेनमेन चौक के दमन ने हमारे विश्वासों के लिए असहज रूप से उघाड़ कर रख दिया था।)
इस बीच, खेलना-कूदना रुका नहीं था, बल्कि बढ़ा ही था। अब हम, मोहल्ले-कॉलोनी की टीम में खेलने के साथ-साथ स्कूल का भी प्रतिनिधित्व करते थे, जिसके लिए कभी दूसरे शहर भी जाना होता था। मगर इन सब के बावजूद, क्रिकेट खिलाड़ी बनने वाली बात दिल से निकल चुकी थी। हो सकता है कि इसका एक यथार्थवादी कारण वो सख़्त मैच व दौरे भी रहे हों जिनसे हमें अपने नौसीखिया हुनर व प्रतियोगिता के कठिन स्तर का पता चला। उस दौर में मैं क्रिकेट सम्राट नाम की एक पत्रिका पढ़ा करता था जिसमें खेल के इतिहास का भी विवरण होता था। उसमें इंग्लिश क्रिकेट के उस ऐतिहासिक पक्ष के बारे में पढ़ने को मिलता था जिसमें अमेचर (amateur, जिन्हें मैं हमेशा 'शौक़िया' मानता रहा) बनाम प्रोफ़ेशनल (professional, जिन्हें मैंने पेशेवर समझा) टीमों के बीच मुक़ाबला होता था। शायद इसे ही पढ़कर मुझे लगने लगा - और आज तक लगता है - कि क्रिकेट जैसे (किसी भी) इश्क़िया शौक़ को पैसा कमाने का ज़रिया बनाना कितना ओछा है। मेरे लिए शौक़िया खिलाड़ी पेशेवर खिलाड़ी से श्रेष्ठ धरातल पर था। इसलिए आज मैं उन शुद्धतावादी/दक़ियानूसी लोगों में से हूँ जिन्हें खिलाड़ियों की आईपीएल-नुमा नीलामी से घृणा होती है। ख़ैर, यह समझ में आने लगा कि खेल कर पैसे कमाना कोई तर्कसंगत या समाजहित का काम नहीं है। ये तो मौज-मस्ती और आनंद की गतिविधि है, प्रतियोगिता और पूँजी का (राष्ट्रवाद के बचकाने मिश्रण के साथ) निवेश करके जिसे फूहड़, अस्वस्थ तथा हिंसक बना दिया गया है। इसलिए अपने शिक्षण जीवन में मैंने विद्यार्थियों को खेलने-कूदने को ख़ूब प्रेरित करना चाहा है, लेकिन विभागीय प्रतियोगिताओं के प्रति मेरा उदासीनता का ही नहीं बल्कि आलोचना-बहिष्कार का रवैया रहा है। जब कोई छात्रा आगे की कक्षाओं या कॉलेज स्तर पर नियमित खिलाड़ी के रूप में खेलते हुए मिलती है तो उसके लड़की होने के कारण तो ख़ुशी होती है मगर उसकी सहज मानवीय संवेदनाओं पर अतिक्रमण होने की संभावना को लेकर चिंता भी होती है। यह प्रश्न स्वाभाविक तौर पर मन में स्थापित रहा कि क्या वयस्कों के खेलने-कूदने को काम के रूप में लेना एक सामाजिक अपराध, विलासिता नहीं। यह यक़ीनन एक ख़ूबसूरत चीज़ है, मगर उत्पादक भी नहीं है और समाज के लिए उपयोगी भी नहीं।
ख़ैर, कुछ और बड़ा होने पर दो बार फ़ौज में शामिल होने के लिए दूसरे चरण की परीक्षा देने ज़रूर गया, मगर तब तक यह भी समझ आ गया था कि मुझे वो ज़िंदगी नहीं बितानी है जिसमें आराम और मौसम से बेमेल कपड़े (वर्दी) पहनने पड़ते हैं, वक़्त-बेवक़्त उठना-जागना पड़ता है, निरर्थक काम करने पड़ते हैं और मन हो या न हो, दूसरों को सैल्यूट करना पड़ता है। उन साक्षात्कारों में जाने के पीछे दो-तीन कारण थे - दोस्तों का साथ, घूमना-फिरना (एक तरह का रोमाँच) व बेरोज़गारी की स्थिति में परिवार को बहलाना। इस बीच न सिर्फ़ विश्वशांति के पक्ष में और युद्ध के मूल्य के ख़िलाफ़ विचारों से परिचय बढ़ता गया था, बल्कि जॉर्ज बर्नार्ड शॉ जैसे मनीषी के उस कथन ने भी बहुत प्रभावित किया जिसमें वो ऐलान करते हैं कि सैनिक से सोचने की उम्मीद नहीं की जाती। और अगर सोचने-विचारने पर ही पाबंदी हो तो मानव जीवन का क्या मज़ा!
और जासूसी? उसका ख़याल जाने कब और कैसे ज़हन से धीरे-धीरे काफ़ूर होता गया। शायद यह एहसास हो गया था कि या तो वो फ़िल्मों-अफ़सानों की एक कृत्रिम दुनिया है, या फिर उसके असली रूप को भी पहचान के झूठ की तरह जीना पड़ता है। हाँ, यह याद है कि नौवीं या दसवीं में एक दिन प्राथमिक कक्षा में 'शिक्षक' के रूप में ग़ुज़ारने का अनुभव इतना प्यारा रहा कि इस भूमिका को अपनाने का ख़याल मन में कहीं बस गया। यह बात अलग है कि आगे जाकर कई सालों तक मैंने यह जानने की कोशिश नहीं की कि इसके लिए कौन-सा अध्ययन करना पड़ता है। परिवार की आर्थिक स्थिति सुरक्षित होने और उस वक़्त तक कम-से-कम मध्यवर्ग के लिए उच्च-शिक्षा सुलभ-सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होने के कारण मैं, बहुत-कुछ भेड़चाल में, बिना योजना के पढ़ता गया। बेरोज़गारी के बोझिल होते काल के दौरान जब समझ आया कि शिक्षक बनने के लिए अमुक कोर्स करना पड़ता है तब भी, जाने-अनजाने, एक ऐसा कोर्स किया जो प्राथमिक शिक्षण के लिए योग्य नहीं बनाता था। ग़नीमत थी कि मैं उस अंतिम बैच का हिस्सा था जिसे अयोग्य डिग्री के आधार पर भी प्राथमिक शिक्षक की नौकरी मिल गई!
अब प्राथमिक शिक्षण करते हुए लगभग बीस वर्ष होने को आ रहे हैं। इस बीच मेरे पढ़ाये कई छात्र-छात्रायें बड़े होकर कामकाज की दुनिया में प्रवेश कर चुके हैं। ये बात अलग है कि उनमें से अधिकतर अपने बचपन से ही काम का वो बोझ उठाते रहे हैं जो मैंने शायद वयस्क जीवन में भी नहीं उठाया। फिर उनमें से अधिकतर की उच्च-शिक्षा या तो पूरी ही नहीं हुई या फिर कामकाज के साथ अनियमित, दूरस्थ व्यवस्था के हत्थे चढ़ गई। अपने हर बैच के साथ, जिसे हम पहली से पाँचवीं तक पढ़ाते हैं, लगभग हर साल, मैं एक ब्यौरा रखते आया हूँ। उनकी अभिलाषा का। शुरु-शुरु में यह रोचक लगता था और मैं इसे बच्चों के मनोवैज्ञानिक विकासक्रम के रूप में देखता था। फिर धीरे-धीरे यह साफ़ होता गया कि इसमें इन बच्चे-बच्चियों की आर्थिक-पारिवारिक पृष्ठभूमि, इनका समाजशास्त्र काम कर रहा है। अब, धीरे-धीरे, यह एक रोचक नहीं, बल्कि पीड़ादायक प्रयोग होकर रह गया है। चाहे वो अपने बचपन में पढ़ने व 'बनने' की अभिलाषा के बारे में कुछ भी अभिव्यक्त (यक़ीन?) करें, नियमित कॉलेज में दाख़िला लेकर पढ़ने वाली छात्रायें अपवाद ही हैं। और इस नियमित-अनियमित उच्च-शिक्षा को पूरा करने वाली उससे भी कम। सैकड़ों में से दो शिक्षक का नियमित कोर्स कर पाई हैं और एक अब भी डॉक्टरी के कोर्स की तैयारी में लगी हुई है। पहली दो से अब मुलाक़ात होती है तो उसमें इक बिरादराना एहसास भी होता है। हम पेशे के कर्म और विचार की चुनौतियों से जुड़ी बातें भी करते हैं, कुछ पर्चों, पुस्तक-पुस्तिकाओं का आदान-प्रदान भी होता है। उनसे मिलकर, एक पक्षपात भरी अतिरिक्त ख़ुशी होती है।
हाल ही में पता चला कि मेरी पसंदीदा छात्राओं में से एक पुलिस में कांस्टेबल के पद पर भर्ती हो गई है। उसके बारे में जो भी ख़याल था और उसे जितना भी जानता था, उस लिहाज़ से यह चौंकाने वाली ख़बर थी। वो बेहद नर्म मिज़ाज की और भोले क़िस्म की इंसान थी। है। दो अन्य छात्रायें भी उसी तरह की नौकरी की तैयारी कर रही हैं। उनसे मिलकर उन्हें छेड़ता भी रहता हूँ कि अब उन्हें विद्यार्थियों, ग़रीबों पर लाठियाँ बरसानी होंगी, रेहड़ी-पटरी वालों से पैसे उगाहने पड़ेंगे। वो हमेशा ऐतराज़ करती हैं कि वो ये सब करने के लिए पुलिस में नहीं जा रही हैं। मैं उन्हें सत्ता की वास्तविकता की दलील देता हूँ। सच कहूँ, तो उनके पुलिस में जाने के विचार से मन ख़ुश नहीं है। लगता है कि न सिर्फ़ वो विचारों के जगत से दूर हो जाएँगी बल्कि उनकी कोमलता भी कुचली जाएगी। शायद उनके लड़की होने के कारण मुझे ज़्यादा परेशानी होती हो। वैसे, जब कभी क्लास में भी आजीविका के रूप में वयस्क जीवन के संभावित कामों की चर्चा होती है, शासन, पुलिस व सशस्त्र बलों को लेकर मैं अपनी तरफ़ से उनके सामने आलोचनात्मक तर्क रखता हूँ। अक़्सर ये तर्क इन विद्यार्थियों के लिए अजनबी भी नहीं होते हैं क्योंकि मुझसे कहीं ज़्यादा इन्होंने अपने जीवन की वर्गीय अवस्था में सत्ता की हिंसा का स्वाद चखा होता है।
शिक्षण में आने का एक आकर्षण मेरा यह अनुमान भी था कि इसमें पहनने की ही आज़ादी नहीं है, बल्कि फ़ौजनुमा अनुशासन से मुक्ति भी है और विचारों के जगत में खुलकर विचरने की गुंजाइश भी है। मेरे लिए यह फ़ौज के नज़दीक से देखे निर्जीव व रूढ़िबद्ध अनुशासन के विरुद्ध एक प्रकार की प्रतिक्रिया भी थी। फिर विश्वविद्यालयी जगत में पढ़ने-लिखने का जो दृश्य देखा था, ख़ुद जो उदार अनुभव किया था, उसने शिक्षण के कर्म को, शिक्षा के संस्थान को, एक आज़ाद-ख़याल, रूमानी शक्ल दे दी। यही तस्वीर मन में बैठी हुई थी। इतना सब बयान करने के पीछे कुछ हालिया संदर्भ हैं जो हमारे लिए परेशानी का सबब होने चाहिए। 17 फ़रवरी 2019 को द हिंदू में छपी एक ख़बर के अनुसार पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में एक स्कूल का रजिस्ट्रेशन सज़ा के तौर पर इसलिए रद्द कर दिया गया क्योंकि उसके एक जलसे में कुछ विद्यार्थी एक भारतीय गाने पर नाच रहे थे और भारत का राष्ट्रीय ध्वज फहरा रहे थे। रिपोर्ट के अनुसार स्कूल पर भारतीय संस्कृति को प्रोत्साहित करने का इल्ज़ाम लगाया गया। सिंध प्रान्त के निजी स्कूलों के निरीक्षण और रजिस्ट्रेशन करने वाले निदेशालय के अधिकारी को यह कहते हुए उद्धृत किया गया कि शिक्षा संस्थानों में भारतीय तहज़ीब को प्रोत्साहित करना पाकिस्तान की राष्ट्रीय गरिमा के विरुद्ध है और इसे किसी भी परिस्थिति में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है। इन दो देशों के इतिहास के चलते, यह कहना मुश्किल है कि भारतीय गाने को कैसे परिभाषित किया जायेगा। उस राष्ट्रीय गरिमा के बारे में भी मुतमईन नहीं हुआ जा सकता जो बच्चों के द्वारा मासूम गानों और दूसरे मुल्क़/लोगों के प्रति प्यार के इज़हार से ही घायल हो जाती है। हमें आगे की ख़बर का पता नहीं है मगर इस स्कूल और इसके शिक्षकों को सलाम भेजने का मन करता है।
दूसरी तरफ़, पिछले कुछ समय से हमारे देश में यह निर्देश कार्यान्वित हो रहे हैं कि स्कूलों में स्थानीय मूल के उन सशस्त्र सेना बलों के जवानों/अफ़सरों की मूर्तियाँ लगाई जायें जिनकी मौत सैनिक कार्रवाइयों में हुई है। इसका उद्देश्य स्कूली बच्चों में देशभक्ति की भावना जागृत करना बताया गया है। गोया अपने मुल्क़ से प्यार कोई ऐसी कृत्रिम चीज़ है जो नैसर्गिक रूप से नहीं पनपती है, बल्कि जिसे सायास (ज़ोर-ज़बरदस्ती से भी) निर्मित करना पड़ता है। (वैसे, भक्ति, किसी की भी हो, मूल रूप से शिक्षा के उसूलों के विरुद्ध है; और प्यार एक आदर्श है, मगर इसे जबरन नहीं किया जा सकता है।) इस आदेश का मुख्य केंद्र न सिर्फ़ केंद्र सरकार के अधीन संचालित स्कूल रहे हैं, बल्कि दूर-दराज़ के उन आदिवासी इलाक़ों के स्कूल भी हैं जिनके समुदायों-बच्चों को राष्ट्र जैसी हस्ती से सबसे ज़्यादा बेग़ानापन और हिंसा झेलनी पड़ी है। यह क्रूर नहीं तो विचित्र ज़रूर है कि जिनका घर-बार, जल-जंगल-ज़मीन, जीवन-संसार छीना जा रहा है, उन्हें ही इस निर्मम व्यवस्था के प्रति निष्ठा-क़ुर्बानी का पाठ पढ़ाया जा रहा है।
उधर राजस्थान के शिक्षा मंत्री ने राज्य में नए कोर्स तैयार करने के लिए गठित समितियों को यह आदेश दिया है कि वो सेना व सशस्त्र सेना के कर्मियों की बहादुरी व बलिदान को स्कूली पाठ्यचर्या का हिस्सा बनायें। (द हिंदू, 18 फ़रवरी, 2019) इधर 16 मई को इंडियन ऐक्सप्रेस में आई एक ख़बर के अनुसार राजस्थान बालाकोट हवाई हमले को पाठ्यचर्या में स्थान देने वाला देश का पहला राज्य बन गया है। इसमें विंग कमांडर अभिनंदन की भूमिका का भी ज़िक्र है। ऐसा नहीं है कि इस तरह के पाठ या हिस्से पहले की किताबों में शामिल नहीं रहे हैं। वीर अब्दुल हमीद पर, संभवतः राही मासूम रज़ा द्वारा लिखित, एक पाठ बरसों से हिंदी की किताब का हिस्सा रहा है। मगर आज का संदर्भ अलग है। उस वक़्त किताबों में इस पाठ के साथ प्रेमचंद की ईदगाह भी थी और टैगोर का क़ाबुलीवाला भी। फिर दलगत तात्कालिक राजनैतिक दबाव की वो परिस्थितियाँ भी नहीं थीं जो आज शिक्षा के अंदर भी एक विचारशून्यता के मूल्य का निर्माण कर रही हैं। उस ज़माने में न सिर्फ़ भारत की सरकार ने परमाणु हथियार होने का ऐलान नहीं किया था, बल्कि हमें एहसास था कि हमारे देश की नैतिकता-युक्त, शाँति और देशों के बीच बराबरी के आग्रहों पर टिकी नीति दुनियाभर से परमाणु हथियार ख़त्म करने की दिशा में प्रतिबद्ध है। वो पोखरण के विध्वंस के जश्न में डूबी भक्ति का नहीं, देश के नैतिक रुख़ के गर्व का दौर था। ज़ाहिर है कि ये एहसास उस वक़्त भी सबके लिए सच नहीं था और आज भी नहीं है। देश और भक्ति की जिस परिभाषा से दुनियाभर के अति-राष्ट्रवादी संचालित होते हैं, उसमें यही देशभक्ति है। अगर आपकी देश की परिभाषा ग़लत होगी तो फिर उसके प्रति वफ़ादारी का तरीक़ा भी ग़लत कैसे नहीं होगा? ये देशभक्ति देश और इसके लोगों से प्यार में नहीं, दूसरों के प्रति नफ़रत से प्रेरित, निर्मित होती है। घृणित हिंसा इसका अपरिहार्य फल है।
मगर हम शिक्षण में बच्चों को मूक आदेशपालक, अनुशासित रोबोट या घृणा करने वाले देशभक्त तैयार करने नहीं आये थे। यह कोई मेरा निजी ऐलान नहीं है, बल्कि दुनियाभर में कहीं भी, किसी भी इज़्ज़तदार व बौद्धिक रूप से स्वाभिमानी शिक्षा व्यवस्था में इसकी संकल्पना नहीं की गई है, न ही ऐसी तैयारी सिखाई जाती है। ये जरासीम हमारे स्कूलों, हमारी पाठ्यचर्या, हमारी किताबों में, शिक्षा के बाहर से, डर और दंड के ज़ोर पर, प्रविष्ट कराये जाते हैं। मगर डर और दंड भी तो शिक्षा के लिए अजनबी, दुश्मन तत्व होने चाहिए। हमारी कक्षाओं में साहस का पाठ पढ़ाया जायेगा तो उसमें मख़दूम मोहिउद्दीन की नज़्म का वो सवाल भी पूछा जायेगा कि आख़िर जाने वाला सिपाही कहाँ जा रहा है, क्या ये उसको भी ख़बर है। साहस का ज़िक्र आएगा तो उन निहत्थे लोगों को सम्मान और प्यार से याद किया जायेगा जो अपने से कहीं ताक़तवर और निर्मम शक्ति से बिना किसी व्यावहारिक उम्मीद के लड़ रहे थे तथा जिनको पता था कि वो वतन से दूर, बेजनाज़ा और गुमनाम मरेंगे। वीरता सिर्फ़ जंग में मिलने वाली कोई पौरुषय वस्तु नहीं, बल्कि ये तो इंसाफ़ और बराबरी के हक़ में अपने ही निज़ाम, अपने ही लोगों से, देशद्रोही क़रार दिए जाने, झूठे मुक़दमों में बरसों जेलों में ठूस दिए जाने, क्रूर यातनायें सहने और फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में मार दिए जाने की संभावनों के बीच, तमाम तरह के संघर्षों में प्रकट होने वाली चीज़ है। इसके एवज़ में कोई पुरस्कार नहीं मिलेगा, कोई फूल नहीं चढ़ाएगा, किसी को पेंशन नहीं मिलेगी, कोई स्मारक नहीं बनेगा, शायद कोई जानेगा भी नहीं कि आप कौन थे, किस लिए लड़े और क्यों व कैसे मौत के घाट उतार दिए गए। वीरता बेशक इंसान का एक ख़ूबसूरत पहलू है और इसलिए इसे शिक्षा का अभिन्न हिस्सा भी होना ही चाहिए। मगर हम अपने विद्यार्थियों को सिखाते आये हैं कि बदला लेने की कामना एक श्रेष्ठ भाव नहीं है, कि जान बचाने वाला लेने वाले से बेहतर होता है और जान देने वाला जान लेने वाले से अधिक बहादुर।
हमें यह भी जानना चाहिए कि भारतीय सेना अकादमी का कोड ऑफ़ वारियर (योद्धा की संहिता) हमेशा कमज़ोर की रक्षा करने, सत्यनिष्ठ, मानवीय, सुसंस्कृत और दयालु रहने का प्रण सामने रखता है। युद्ध को रक्त-पिपासा बनाकर पेश करने और अपने निजी स्वार्थों के लिए लोगों के बीच बदले-नफ़रत की भावना को उकसाने वाले ख़ुद सेना और सैनिक के इतिहास की बेहतर धारा से अज्ञानता के स्तर तक अपरिचित हैं। हमारे स्कूल, हमारी कक्षाएँ नफ़रत और अज्ञानता का स्थल नहीं हो सकतीं। विभिन्न देशों की राजनैतिक-सांस्कृतिक सत्ता पर क़ाबिज़ होती मूढ़, घृणा फैलाने वाली और हिंसक ताक़तों की विनाशकारी प्रगति के सामने हमारी ये ज़िम्मेदारी आज और भी बढ़ चुकी है।
No comments:
Post a Comment