पिछले कुछ समय से हमने दिल्ली सरकार द्वारा सुधार के नाम पर अपने स्कूलों में तरह-तरह के आदेश लागू करते देखा है। इनमें से कई आदेश तकनीकी और शिक्षा की ख़तरनाक रूप से भ्रामक संकल्पना पर आधारित हैं। वैश्विक पूँजीवाद के अजेंडे और केंद्र सरकार की नीति का अनुसरण करते हुए इनमें न सिर्फ़ शिक्षा के दर्शन की खुली अवहेलना की गई है, बल्कि अकादमिक विमर्श तथा चिंतन का मज़ाक उड़ाया गया है। शिक्षा के अंदरूनी अनुशासन का यह मखौल ख़ुद को व्यवहारिकता के बखान पर खड़ा करके जनता में स्वीकार्यता पाने की कोशिश करता है। शिक्षा की जिस फूहड़ और असभ्य समझ को लोकप्रियता पाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है उसके दो उदाहरणों के रूप में बच्चों को 'मौलिक कौशलों' के टेस्टों के आधार पर बाँटकर अलग-अलग स्तरों पर पढ़ाना तथा कक्षाओं तक में कैमरे लगाना शामिल है। जहाँ पहले 'प्रयोग' के पीछे शिक्षा की बाज़ारवादी राजनीति करने वाले एनजीओ सक्रिय हैं, वहीं दूसरा हथकंडा निरंकुश होती राज्य-सत्ता के नए प्रबंधकीय प्रशासन की निशानी है। लोक शिक्षक मंच ने प्रति-शिक्षा के इन उपायों का लगातार विरोध किया है। इस बीच गुजरात सरकार ने घोषणा की है कि शिक्षकों पर हर पल निगरानी रखने के लिए उन्हें जीपीएस युक्त फ़ोन दिए जायेंगे, जिसे उन्हें ड्यूटी के अलावा समय-स्थान में भी ऑन रखना होगा। इस संदर्भ में हम दिल्ली के सरकारी स्कूलों पर थोपी गई नीतियों को दी गई दो अदालती चुनौतियों से जुड़ी ख़बरें साझा कर रहे हैं ताकि हम यह याद रखें कि हमारे विरोध के आधार काल्पनिक नहीं हैं बल्कि संवैधानिक मूल्यों के उल्लंघन की चिंता से जुड़े हैं। और हमारे लिए यह सीख की बात भी है और प्रेरणा की भी कि बच्चों की गरिमा और अधिकारों की रक्षा के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाने वाले याचियों में एक माता-पिता का संगठन है और दूसरा क़ानून के छात्रों का समूह..................................
चुनौती कार्यक्रम को उच्च-न्यायालय में चुनौती
(प्रीतमपाल सिंह, नई दिल्ली, मई 15, द इंडियन ऐक्सप्रेस)
बुधवार को दिल्ली हाई कोर्ट ने दिल्ली सरकार के स्कूलों में 'चुनौती 2018 योजना' के तहत विद्यार्थियों को उनकी अधिगम क्षमता के आधार पर बाँटने के पीछे कारण जानना चाहा।
वह एक याचिका की सुनवाई कर रहा था जिसमें चुनौती कार्यक्रम को - जिसे कि विद्यार्थियों के ड्रॉप-आउट दर पर लगाम लगाने और शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के उद्देश्य से, कमज़ोर विद्यार्थियों पर ख़ास ध्यान केंद्रित करते हुए, लागू किया गया था - रद्द करने की माँग की गई है।
न्यायाधीश सी हरि शंकर ने दिल्ली सरकार व उसके शिक्षा निदेशालय को प्रति-हलफ़नामा दायर करने को कहा।
पेरेंट्स फ़ोरम फ़ॉर मीनिंगफ़ुल एजुकेशन ने, अधिवक्ता पी एस शारदा के माध्यम से, कोर्ट में यह इल्ज़ाम लगाते हुए दस्तक दी थी कि यह नासमझी भरी योजना शिक्षा अधिकार अधिनियम, विकलाँगों के अधिकार अधिनियम और राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत बच्चों की शिक्षा को कारगर बनाने के लिए लाये गए क़ानून के भी ख़िलाफ़ है।
न्यायालय ने यह टिप्पणी करते हुए कि उसके सम्मुख प्रस्तुत यह विषय 'बेहद गंभीर' है और तत्काल सुनवाई की माँग करता है, मामले की अगली तारीख़ 28 मई की रखी है।
याचिका के अनुसार, "योजना के अंतर्गत अधिगम क्षमता जाँचने के लिए एक मन-गढ़ंत उथली परीक्षा आयोजित की जाती है।"याचिका में कहा गया कि "परीक्षण व बँटवारे को प्रत्येक स्कूल के प्रधानाचार्य की मनमर्ज़ी पर छोड़ दिया जाता है। अवैज्ञानिक, अवैध, तदर्थ परीक्षाओं से तैयार अविश्वसनीय परिणामों के आधार पर बच्चों को 'प्रतिभा' (बेहतर) और 'निष्ठा' (कमतर) के रूप में चिन्हित किया व बाँटा जाता है।" उसने आगे इल्ज़ाम लगाया कि "इस तरह चिन्हित व निशक्त कर दिए जाने के बाद बच्चों को एक ही स्कूल में अलग-अलग समूहों या अनुभागों में बिठाया जाता है।"
याचिका में कहा गया कि क्षमता-आधारित बँटवारे के तथाकथित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए योजना को 2018 के मनमाने आदेशों के अधीन घोषित किया गया था और यह "समेकित शिक्षा" के मूलभूत तत्व के विरुद्ध है।
उसने कहा कि अपने निर्माणात्मक दिनों में ही बाँटे गए विद्यार्थियों को हर ग़ुज़रते पल नीची नज़रों से देखा जाता है और अंततः उन्हें तुच्छ प्रकार से एक खूँटे से बाँध दिया जाता है। याचिका में कहा गया कि "बँटवारे से उत्पन्न यह भेदभाव एक अपरिवर्तनीय वर्गभेद; वर्ग-घृणा; ख़ुशी का ह्रास; हीन भावना और दोस्ती का विच्छेद पैदा कर रहा है।"
याचिका में कहा गया कि "इस पागलपन के प्रयोग ने उससे कहीं ज़्यादा तबाही मचाई है जितना इसने इलाज करना चाहा है। इससे पहले कि बहुत देर हो जाये, इसे रोकना होगा। सीखने के कम-स्तरीय परिणामों को जायज़ ठहराने के लिए बच्चों को गिनी-पिग्स बनाने की इजाज़त नहीं दी जा सकती है।"
आगे जोड़ते हुए कहा गया कि "यह अफ़सोसनाक है कि ड्रॉप-आउट दर में बढ़ोतरी को नज़रंदाज़ किया जा रहा है और सरकारी स्कूलों में शिक्षा की ध्वस्त हालत की हक़ीक़त को तोड़-मरोड़ के पेश किया जा रहा है।
सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार से जवाब माँगा
(द हिंदू, 11 मई, 2019)
विधिक संवाददाता, नई दिल्ली
दिल्ली सरकार द्वारा कक्षाओं में डेढ़ लाख सीसीटीवी कैमरे लगाने की नीति को चुनौती देती हुई एक याचिका पर शुक्रवार को सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार से जवाब माँगा।
नैशनल लॉ यूनिवर्सिटी में क़ानून के तृतीय वर्ष के छात्र अंबर टिक्कू ने कहा कि कैमरे "किशोरावस्था के विद्यार्थियों की फ़ूटेज को किसी भी अजनबी को सीधे प्रसारित करेंगे"।
सुश्री टिक्कू ने, जिनका प्रतिनिधित्व अधिवक्ता जय देहाद्रई और सृष्टि कुमार ने किया, कहा कि यह नीति विद्यार्थियों की निजता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।
नीति को लागू करने पर रोक लगाने के सवाल पर सर्वोच्च न्यायालय ने नोटिस जारी किया। मामले की अगली सुनवाई छः हफ़्ते बाद होगी।
याचिका में दिल्ली सरकार के 11 सितंबर 2017 के उस निर्णय को रद्द करने की माँग की गई है जिसमें कक्षाओं में सीसीटीवी कैमरे लगाने और उनका सीधा प्रसारण बच्चों के माता-पिता को भेजने की बात की गई है।
याचिका में दावा किया गया है कि ये निर्णय उच्चतम न्यायालय के उस फ़ैसले के सीधे उल्लंघन में हैं जिसमें संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत निजता के अधिकार को निर्विवादित रूप से मान्य ठहराया गया है।
याचिका में कहा गया कि, "यूज़र पहचान संख्या और पासवर्ड रखने वाले किसी भी व्यक्ति को सीधा प्रसारण उपलब्ध कराना किशोरियों की सुरक्षा तथा सलामती को ख़तरे में डालता है....और यह हिंसक ढंग से पीछा करने व अश्लील ताँकझाँक की घटनाओं को सीधे बढ़ावा देगा।"
याचिका में इल्ज़ाम लगाया गया है कि सीसीटीवी में दर्ज डाटा को सुरक्षित रखने के लिए कोई क़दम नहीं उठाये गए हैं।
याचिका में कहा गया है कि "इस डाटा के हैक किये जाने की संभावना है और यह बच्चों के साथ-साथ शिक्षकों की निजता तथा सुरक्षा के लिए भी एक गंभीर ख़तरा है।"
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