Wednesday, 3 June 2020

लॉकडाउन की आड़ में ऑनलाइन "पढ़ाई" को थोपना बंद करो !


कोरोनावायरस को महामारी घोषित करके राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 के तहत मार्च के अंतिम सप्ताह में केंद्र सरकार द्वारा देशभर में 'लॉकडाउन' (घरबंदी) लागू करने का एकतरफ़ा फ़ैसला लिया गया, जबकि स्वास्थ्य राज्यों के अधिकार क्षेत्र का विषय है। वैसे, दिल्ली जैसे राज्यों ने स्कूलों की कई कक्षाएँ केंद्र सरकार की घोषणा से पहले ही बंद कर दी थीं। घरबंदी लागू होने के बाद समस्त राज्यों के - चाहे वो उस वक़्त संक्रमण से प्रभावित रहे हों या न रहे हों - सभी स्कूलों को पूरी तरह बंद करने के केंद्रीकृत आदेश भी जारी हो गए। यह 'एक देश, एक निज़ाम' का मानसिक दिवालियापन और तानाशाही का फ़ितूर ही था जो स्थानीय संदर्भ और हक़ीक़त से बेपरवाह होकर पूरे देश के लिए एक ही आदेश जारी करवा रहा था। 

यद्यपि अधिकतर राज्यों में अमूमन मार्च में स्कूलों में सत्र की अंतिम परीक्षायें हो रही होती हैं और उसके बाद, प्रवेश प्रक्रिया तथा पुस्तकों की अनुपलब्धता के चलते, अप्रैल में पढ़ाई गति पर नहीं होती है व मई आते-आते गर्मियों की छुट्टियाँ पड़ जाती हैं, फिर भी कुछ दिन बाद ही मानव संसाधन विकास मंत्रालय और राज्य सरकारों के शिक्षा विभागों से पढ़ाई के नुक़सान की चिंता का शोर सुनाई देने लगा। चूँकि यह शोर उन गलियारों से आ रहा था जहाँ से पिछले कुछ सालों से स्कूली शिक्षा के आकादमिक चरित्र को निरंतर कमज़ोर करने वाले आदेश जारी होते रहे हैं, इसलिए इसकी नीयत पर विश्वास करना मुश्किल था। चाहे वो स्कूली कैलेंडर की गरिमा के परे जाकर चुनावों के लिए स्कूलों को बंद करना व शिक्षकों को चुनावी दायित्व सौंपना हो या मौक़ा-बेमौक़ा स्कूलों को प्रधानमंत्री के (दिल्ली जैसे राज्य में मुख्यमंत्री के भी) आत्म-प्रचारी कार्यक्रम दिखाने का बंदोबस्त करने के आदेश देना हो या फिर तमाम तरह के अवसरों को अपने ढंग से मनाने/नहीं मनाने के अधिकार छीनकर स्कूलों को केंद्रीकृत आयोजनों व कार्यक्रमों के तयशुदा स्वरूप के अधीन लाना हो, शिक्षकों को यह साफ़ होता गया है कि कम-से-कम शिक्षा में बेहतरी तो सरकार की योजना में शामिल नहीं है। सरकार की नीयत को संदेह का लाभ देने की गुंजाइश की रही-सही कसर राष्ट्रीय शिक्षा नीति के विभिन्न संस्करणों में वोकेशनल 'शिक्षा' व तकनीकी पर उस विशेष ज़ोर ने निकाल दी जिसको हम नीति के औपचारिक रूप से पारित होने के कहीं पहले से स्कूलों में लागू होता देख रहे हैं। एक तरफ़ सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों पर वोकेशनल कोर्स थोपकर उन्हें उच्च व अकादमिक शिक्षा से बाहर रखने, स्कूली शिक्षा के बौद्धिक चरित्र को कमज़ोर करने, काम की संकल्पना को ज्ञान के निर्माण व संघर्ष से काटने तथा जातिगत-लैंगिक असमानताओं को बरक़रार रखने की योजना अमल में लाई जा रही है, तो दूसरी तरफ़ तकनीकी के इस्तेमाल से स्कूलों व शिक्षकों पर प्रशासनिक शिकंजा मज़बूत किया जा रहा है। दोनों ही चलन सरकार द्वारा पढ़ाई की दुहाई दिए जाने की पोल खोलने के लिए काफ़ी हैं। इस पृष्ठभूमि में विशेषकर केंद्र सरकार द्वारा पढ़ाई के नुक़सान को कम करने और उसकी भरपाई के नाम पर ऑनलाइन माध्यम प्रस्तावित करना नौ सौ चूहे खाकर हज पर जाने वाली बिल्ली की याद दिला गया।

ऑनलाइन पढ़ाई की दुर्व्यवस्था व कुविचार को समझने के लिए कुछ तथ्यों व उदाहरणों को बानगी के तौर पर लिया जा सकता है। एक आँकलन के अनुसार, भारत के उत्तर-पूर्व के राज्यों में सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों में से 30% से अधिक के घर पर न टीवी है और न स्मार्टफ़ोन। उत्तर-प्रदेश, मध्य-प्रदेश, बिहार व झारखंड जैसे राज्यों में यह संख्या 50% तक पहुँच जाती है। वहीं, उत्तर-प्रदेश, मध्य-प्रदेश, बिहार, झारखंड व ओड़िसा जैसे राज्यों में सरकारी स्कूलों के लगभग 80% विद्यार्थियों के परिवारों के पास स्मार्टफ़ोन नहीं है। बिहार के किसी भी ज़िले में सरकारी स्कूलों के उन विद्यार्थियों की संख्या जिनके परिवारों के पास न टीवी है और न ही स्मार्टफ़ोन 40% से कम नहीं है, और कहीं-कहीं यह 80% तक पहुँच जाती है (देखें  https://www.biharedpolcenter.org/post/atlas-of-ict-access-for-government-school-students-in-india)। यहाँ हम नेट उपलब्धता, नेट चलाने के लिए ज़रूरी पैसों आदि की तो बात ही नहीं कर रहे हैं। इस ज़मीनी हक़ीक़त से परे जाकर बिहार सरकार के शिक्षा विभाग के एक अंग, बिहार शिक्षा योजना परिषद (BEPC) ने 70,000 से अधिक सरकारी स्कूलों के छठी से लेकर बारहवीं तक के विद्यार्थियों के लिए ''उन्नयन: मेरा मोबाइल, मेरा विद्यालय'' नाम से एक ऐप जारी किया जिसे UNICEF, बिहार सरकार व इकोवेशन नाम की निजी संस्था द्वारा संयुक्त रूप से तैयार किया गया बताया गया (Bihar launches app for govt. school students, The Hindu, 13 April, 2020)। जबकि बिहार के लाखों मज़दूर जिनके बच्चे इन स्कूलों में पढ़ते हैं, उस दौरान रोज़ी-रोटी से महरूम थे और दर-दर की ठोकरें खाकर तथा सैकड़ों मील पैदल चलकर किसी तरह अपने देस वापस आने की जद्दोजहद में लगे हुए थे। उधर दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर एक जनहित याचिका में निजी स्कूलों में शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 के तहत आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों से प्रवेश पाए बच्चों के लिए लैपटॉप व मुफ़्त इंटरनेट की माँग की गई है क्योंकि इनके बिना वो स्कूलों की ऑनलाइन कक्षाओं में भाग नहीं ले पा रहे हैं ('Children need laptops to access online classes'', The Hindu, 9 May, 2020)। दिल्ली सरकार के तेज़तर्रार शिक्षा निदेशालय को भी ऑनलाइन पढ़ाई करवाने के बाद यह सूझा कि वो स्कूलों को यह पता लगाने के लिए कहे कि कितने विद्यार्थियों के परिवारों के पास स्मार्टफ़ोन, इंटरनेट है! यह दीगर बात है कि आज हमारी लोकतांत्रिक सरकारों ने यह मान लिया है - और नागरिकों से भी मनवा लिया है - कि लोग फ़ोन जैसी निजी चीज़ को सार्वजनिक व्यवस्था की ज़िम्मेदारी व सरकारी आदेशों के पालन के लिए बिना चूँ-चपड़ किये, बल्कि एहसानमंद होकर, पेश करते रहेंगे! इसी तरह मानव संसाधन विकास मंत्रालय की मंशा के पालन में दिल्ली विश्वविद्यालय ने भी ऑनलाइन परीक्षाओं के आदेश जारी किये। विद्यार्थियों की पढ़ाई के बारे में चिंता जताकर उनपर ऑनलाइन परीक्षाओं को थोपने वाला यह वही विश्वविद्यालय है जिसने घरबंदी की आहट पाते ही तमाम छात्रावासों को ख़ाली करने का दबाव बनाकर विद्यार्थियों को उनके हाल पर छोड़ दिया था, फिर चाहे वो किसी भी राज्य से रहे हों और चाहे सरकारी बंदी ने उनके घर लौटने का कोई साधन न छोड़ा हो। DUTA व विभिन्न छात्र संगठनों द्वारा कराये गए तमाम सर्वे यह साबित करते रहे हैं कि तीन-चौथाई से अधिक विद्यार्थी इस माध्यम को पढ़ाई व परीक्षाओं के लिए अनुचित मानते हैं तथा इस फ़ैसले के विरोध में हैं, लेकिन प्रशासन अपनी ज़िद पर आमादा है। यह एक विचित्र विरोधाभास है कि व्यक्ति की मर्ज़ी के उसूल की उत्कृष्टता का ढोल पीटकर शिक्षा के बाज़ारीकरण-निजीकरण का समर्थन करने वालों को सत्ता के ख़िलाफ़ विद्यार्थियों की परेशानियों व माँगों की आवाज़ बेमानी लगती है।

इस बीच अपने पति से बच्चों की ऑनलाइन पढ़ाई के लिए नया फ़ोन ख़रीदने को लेकर हुई लड़ाई के त्रासद परिणामस्वरूप दिल्ली में एक महिला द्वारा ख़ुद पर तेल डालकर जलने और मर जाने की ख़बर आती है (Woman sets herself ablaze over phone, The Hindu, 29 May, 2020)। इसके एक हफ़्ते के अंदर ही, 2 जून को केरल की दलित-मज़दूर पृष्ठभूमि की एक 14 वर्षीय छात्रा स्मार्टफ़ोन नहीं होने की वजह से ऑनलाइन पढ़ाई से वंचित रह जाने के दर्द से आहत होकर ख़ुद को आग लगाकर आत्महत्या कर लेती है। इस देश की सत्ता पर काबिज़ लोग इसकी रेल को गोली की रफ़्तार से कहीं ले जाने की धुन में इस बात से बेफ़िक्र हैं कि टूटे-फूटे डिब्बों में ठुँसे लोग रेल से गिरकर और रेल के नीचे आकर मर रहे हैं। ज़ाहिर है कि जबतक हम संगठित होकर ख़ुद अपनी नीतियाँ बनाने और लागू करने की स्थिति में नहीं आयेंगे तबतक जनता के ख़िलाफ़ खड़ी और विवेकहीन सरकारों की बेरहम नीतियों की बलि चढ़ते रहेंगे। उनकी शर्तों से पिसकर ख़ुद को आग लगाना कोई विकल्प नहीं है। हमें ख़ुद को नहीं, बल्कि इस बेपरवाह और बेरहम व्यवस्था को आग लगानी होगी।       

2 comments:

Ravi Nitesh said...

I support and endorse the statement.

LOK SHIKSHAK MANCH said...

thanks for your support