ऑनलाइन कक्षाओं व पढ़ाई की नीति के हालिया संदर्भ में लोक शिक्षक मंच ने स्कूलों के शिक्षक साथियों व विद्यार्थियों से सलाह-मश्विरा करके कुछ चिंताएँ व सवाल चिन्हित किये हैं। इसे हम संवाद और आंदोलन को आगे ले जाने के लिए एक प्रारंभिक दस्तावेज़ की तरह प्रस्तावित कर रहे हैं।
1. ऊँचे लटकते फलों को तोड़ना
व्हाट्सऐप पर न होने और पढ़ाई न कर पाने के विद्यार्थियों ने अनेक कारण दिए -
"पापा का फ़ोन है, ज्वाइन नहीं कर सकती .. क्या ऑनलाइन क्लास के पैसे लगते हैं? .. दुकान खुलने पर पैसे डलवाऊँगी .. रिचार्ज नहीं है, दिक्कत चल रही है .. दूध और गैस के भी पैसे नहीं हैं .. घर में टच वाला फ़ोन नहीं है .. एक स्मार्ट फ़ोन है जो भैया काम पर ले जाते हैं .. घर में बहुत तरह की ज़िम्मेदारियाँ हैं .. भाई-बहन की भी कक्षाएँ हैं, तो उन्हें भी फ़ोन चाहिए होता है .. कॉपी और किताब नहीं है और लॉकडाउन के चलते दुकान नहीं खुली .. जो आप भेजते हैं वो समझ नहीं आता .. इतनी देर फ़ोन नहीं देख पाते, पूरा दिन मैसेज आते रहते हैं .. मैम, हमारी जो पढ़ाई छूट रही है, उसका क्या होगा .. "
जिनके फोन स्विच ऑफ़ (बंद) हैं उनके बारे में हम सिर्फ़ अनुमान लगा सकते हैं; क्या वे गाँव चले गए, क्या उनका गुज़ारा हो पा रहा है...। जो विद्यार्थी दबी आवाज़ में बताते हैं कि घर पर पैसों की दिक्कत है, उस पर हम असहाय महसूस करते हैं। ऐसे विद्यार्थी जो दिल्ली में आश्रमों/निजी छात्रावासों में या रिश्तेदारों के घरों में रहकर पढ़ते हैं, उनके लिए ऑनलाइन दूर के ढोल है।
ऑनलाइन कक्षाओं की ढाँचागत ज़रूरतें बहुत हैं, जैसे – स्मार्टफ़ोन और यह कम-से-कम इतनी देर के लिए होना चाहिए कि वे इस पर क्लास कर सकें या भेजी गयी सामग्री पढ़-लिख सकें या विडियो देख सकें, डाटा डलवाने का पैसा, घर में एकांत और शांत जगह, 1 कमरे के घर में 7-8 सदस्य न हों, उनके पास इतना समय हो कि वो ऑनलाइन पढ़ाई कर सकें (खासकर लड़कियों के लिए), उनका मन तथाअधिकतम समय और ऊर्जा राशन-पानी-गैस की चिंता में न लगा रहता हो| भले ही घर में एक स्मार्टफोन हो लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं कि वो घर में सभी बच्चों की पढ़ाई के लिए उपलब्ध होगा। विद्यार्थियों के पास जियो के ऐसे भी फोन हैं जिनमें व्हाट्सऐप चल जाता है लेकिन वीडियो ठीक से नहीं चल पाती। इनकी गिनती कहाँ की जाएगी? ये न्यूनतम परिस्थितियाँ जुटा लेने के बाद भी ये डिजिटल दुनिया एक ख़ास तरह का आत्मविश्वास/नेटवर्किंग/सामाजिक -सांस्कृतिक पूँजी भी मांगती है जो उनके पास होनी चाहिए।
लेकिन राष्ट्रीय शिक्षा नीति का प्रारूप यह मानकर चलता है कि 2025 तक सभी विद्यार्थियों के पास निजी कम्प्यूटरिंग यंत्र, जैसे स्मार्टफोन, होगा स्कूल जिसका इस्तेमाल करेंगे। इस नीति के तहत इन ढाँचागत ज़रूरतों का खर्चा ग्राहकों यानी कि छात्रों को खुद उठाना है। सरकार जो पैसे ढाँचागत ज़रूरतें देने में बचाएगी, उसे कॉरपोरेट घरानों के साथ गठबंधन करने में खर्च करने के लिए मुक्त होगी। नीति का ड्राफ्ट इसका ढोल खुलकर पीटता है।
भले ही आज बहुत से बच्चों के पास स्मार्टफ़ोन न हो या वे ऑनलाइन क्लास न ले पा रहे हों पर क्या इससे भावी नीतियों पर कुछ फ़र्क पड़ता है? पिछले कुछ सालों के अनुभव तो यही दिखाते हैं कि सरकार की नीतियों से मिलने वाले लाभ ऊँचे पेड़ों पर लटके हुए वे फल हैं जिन तक पहुँचने के लिए जनता को उछलना, कूदना, एक दूसरे पर चढ़ना, अपनी मेहनत की कमाई झोंक कर ख़ुद को इन नीतियों के लायक साबित करना होता है| जिस तेज़ी से भारत के नीति-निर्माताओं ने अधिकारों का डिजिटलीकरण किया है उसमें वो बच्चे जो बिना आधार के स्कूल में दाखिला, मिड-डे-मील, वज़ीफ़ा नहीं ले पाते या बोर्ड की परीक्षा नहीं दे पाते या वो बच्चे जो सरकारी विश्वविद्यालयों के ऑनलाइन फॉर्म नहीं भर पाते, हमेशा अकेले ही पड़ते गए हैं| उन पर लापरवाह या 'क़िस्मत के मारे' होने का इलज़ाम लग सकता है| इसमें कोई शक नहीं कि जो बच्चे सबसे पहले छाँट कर बाहर कर दिए जाते हैं, वे वही होते हैं जो शिक्षा तक सबसे आख़िर में पहुँच पाए होते हैं - दलित, लड़कियाँ, मुसलमान, विकलाँग, ग्रामीण और शहरी गरीब| शुरु में भले ही ऐसे विद्यार्थियों से सहानुभूति रखी जाए जिनके पास स्मार्टफ़ोन नहीं है लेकिन बहुत जल्द वो अकेले पड़ेंगे, पिछड़ जाएँगे और अपने पिछड़ने के लिए खुद को ही दोषी पाएँगे|
बच्चों के बीच असमानता की खाई को दरकिनार करते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय ने ऑनलाइन प्रवेश परीक्षा तक की घोषणा कर दी थी| अगर ऐसा होता है तो क्या हम शिक्षक अपने विद्यार्थियों के साथ अन्याय के खिलाफ एकजुट होंगे या इसे समय का पहिया मानकर सही ठहरायेंगे? हालांकि सरकारी स्कूल के बच्चों ने कहा कि सरकार हमें स्कूल में कंप्यूटर सिखाने के बाद भी तो ऑनलाइन परीक्षा की शर्त रख सकती थी लेकिन सत्ता के लिए वो तकनीकी किस काम की जो सबके पास मुहैया हो!
आज के भारत में तकनीकी ‘छँटाई’ को जारी रखने का ज़रिया है; चाहे वो रेगुलर शिक्षा से विद्यार्थियों को हटाना हो या ऑनलाइन कक्षाओं से उन बच्चों को हटाना हो जो संसाधनों से लैस नहीं हैं या राशन की लाइनों से बिना आधार वालों को हटाना हो, या रेल-मेट्रो-हवाई यात्रा से आरोग्य सेतु ऐप न रखने वालों को हटाना हो| देश भर से मज़दूर रेलवे स्टेशन पहुँच कर जान पाते हैं कि टिकट का आवेदन ऑनलाइन ही होगा। वे सैकड़ों किलोमीटर पैदल चल रहे हैं लेकिन ट्रेनें और बसें चलाने के लिए सरकार पर बहुत दबाव नहीं बना पा रहे। हम बौद्धिक मज़दूर भी इसी 'सहनशीलता' के शिकार हैं जो नवउदारवाद ने पिछले 30 सालों से हमारे अंदर भरी है।
सवाल यह है कि ऑनलाइन शिक्षा के दौर में हम शिक्षकों की क्या ज़िम्मेदारी है। भले ही आज बहुत से संवेदनशील शिक्षक भी अपने विद्यार्थियों से जुड़े रहने के इस माध्यम को पूरी तरह नकारने के पक्ष में न हों लेकिन हमारी राजनीतिक माँग क्या होनी चाहिए? क्या कुछ या बहुत बच्चों को छोड़कर आगे बढ़ जाना सही है?
यह साफ है कि व्यवस्था ऑनलाइन शिक्षा देने को ही अपनी उपलब्धि मानेगी। छूटते हुए हजारों-लाखों बच्चे कल भी ओपन स्कूल के दूरस्थ प्रोग्राम में भेजे जाते थे, आज भी भेज दिए जाएँगे। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का ड्राफ्ट कहता भी है कि बहुत से बच्चों को आठवीं के बाद वोकेशनल शिक्षा में भेजना है। ऑनलाइन पढ़ाई की प्रक्रिया छँटाई करने का ऐसा 'सफल और निष्पक्ष ' माध्यम है जो किसी को कटघरे में खड़ा नहीं करती। अन्याय तो जारी रहता है लेकिन इसका इलज़ाम किसी पर नहीं आता।
यंत्र/तकनीकी के कंधे पर गोली रखकर सरकार विद्यार्थियों के पुश-आउट की ज़िम्मेदारी से अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती। प्रत्येक विद्यार्थी की शिक्षा उसका संवैधानिक अधिकार और सरकार की ज़िम्मेदारी है। एक अहम सवाल यह भी है कि क्या तकनीकी की इस मार से बचा जा सकता है। पूँजीवादी व्यवस्था में यह छँटाई/बहिष्करण तकनीकी का अन्तर्निहित तत्व है। ऐसे में तकनीकी से लड़ाई को व्यवस्था से लड़ाई में कैसे तब्दील करें? हमें सचेत रहना होगा और सुनिश्चित करना होगा कि वैकल्पिक व्यवस्था में तकनीकी बहिष्करण का काम नहीं करे।
2. तोड़कर जो फल हाथ भी आया, वो सड़ा हुआ था
मान लेते हैं सरकार ने सभी बच्चों को टैब और इन्टरनेट डाटा दे दिया, तब क्या?
5-6 सालों से दिल्ली सरकार के शैक्षिक हस्तक्षेपों के चलते बहुत से स्कूल रिकॉर्ड में अधिकतम बच्चों के नाम के आगे एक फ़ोन नंबर डाटाबेस में मौजूद है। भले ही अनेक विद्यार्थी यूट्यूब वीडियो देख भी पा रहे हों, तब भी क्या यह शिक्षा है? एक शिक्षिका के शब्दों में, "ऑनलाइन क्लास में बच्चे डिसकनेक्ट और ग़ायब होते रहते थे| इतना समय भी नहीं होता था कि इस ऑनलाइन ड्रॉपिंग-आउट को क़ुबूल सकें| शोर के कारण हर समय उन्हें म्यूट रखना पड़ता था जिसका मतलब होता था एक-तरफ़ा बोलना| सवाल सिर्फ स्पष्टीकरण में बदल गए। मौजूदा संख्या में 10% से ज़्यादा छात्र जवाब नहीं देते, सवाल नहीं पूछते या किसी भी रूप में अपनी मौजूदगी महसूस नहीं कराते| वो ये नहीं बताते कि उन्हें व्हाट्सऐप पर भेजी जा रही सामग्री समझ आ भी रही है या नहीं| बिना विद्यार्थियों के फीडबैक के आगे पढ़ाना अँधेरी गुफ़ा में चलने जैसा है जिसके छोर का कुछ न पता हो|"
मान लें कि विद्यार्थियों को समझ आ भी रहा हो, तो भी समझ के क्या करना है अगर वो उस समझ को अपनी ज़िन्दगी से जोड़ न पा रहे हों? क्या करना है यह जानकर कि मौर्य साम्राज्य की स्थापना कब और कैसे हुई अगर वे यह चर्चा न कर पाएँ कि वर्तमान साम्राज्य कैसे बनते-बिगड़ते हैं; जाति व्यवस्था की समझ अधूरी है अगर वे अपने मन में आरक्षण और सामाजिक न्याय से जुड़े सवालों को न पूछ पाएँ| ऐसे गहन सिद्धाँत सवाल-जवाब की निरंतर प्रक्रिया और बातचीत माँगते हैं जिनके लिए विद्यार्थियों को रेडीमेड विडियोज़ के सहारे नहीं छोड़ा जा सकता| कक्षा में छात्र एक-दूसरे के विचार सुनकर सीखते भी हैं और अपने विचारों को जाँचते भी हैं| यहाँ, ऑनलाइन पटल पर, वो अकेले हैं| डर है कि यह अस्थाई कामचलाऊ माध्यम हमारी पढ़ाई को स्थाई तौर पर कामचलाऊ न बना दे| स्कूल का मतलब सिर्फ किताब के अध्याय की पढ़ाई नहीं है और पढ़ाई का मतलब सिर्फ़ अध्याय को पूरा करना नहीं है| बच्चों से शैक्षिक गतिविधियाँ कराना शिक्षा का उद्देश्य नहीं हैं, शैक्षिक गतिविधियों के माध्यम से संवैधानिक मूल्यों और आलोचनात्मक चिंतन को सींचना उद्देश्य है| हम तकनीकी की सीमाओं के चलते अपने उद्देश्यों को नीचे खींच कर नहीं ला सकते| ये कुछ ऐसा है जैसे अस्पतालों ने कोरोना के चलते अन्य बीमारियों के मरीज़ों को देखना बंद कर दिया।
एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाले 10 साल के बच्चे ने (जिसके घर में लैपटॉप, इन्टरनेट डाटा, अलग कमरा, सारी सुख-सुविधायें मौजूद हैं और बचपन से ही स्मार्टफ़ोन जिसकी ज़िन्दगी का हिस्सा है) बताया, “मैं ऑनलाइन पढ़ाई इसलिए समझ पाता हूँ क्योंकि मेरी मम्मी मुझे पहले से ही चैप्टर करा देती है लेकिन सभी बच्चे शायद नहीं समझ पाते होंगे| मैं पूरा दिन लिखते और याद करते-करते थक जाता हूँ और नींद आती है| स्कूल में दोस्तों के साथ प्रैक्टिकल देखने और डिस्कस करने में मजा आता था| स्कूल में तो हम खेलते भी थे|”
सवाल यह है कि क्या हम मानते हैं कि ऑनलाइन पढ़ाई की शिक्षाशास्त्रीय सीमाएँ ऐसी हैं जो शिक्षा के उद्देश्यों को हमेशा के लिए नीचे ला देंगी। क्या कंप्यूटरीकृत मूल्याँकन ने प्रश्नों को MCQs में बदलकर यही नहीं किया था?
वैसे भी प्रस्तावित राष्ट्रीय शिक्षा नीति में आठवीं तक के लिए साक्षरता का ही पैमाना रखा गया है और दिल्ली के सरकारी स्कूलों में मिशन बुनियाद जैसे सतही प्रोग्राम ही प्राथमिक हो गए हैं, ऐसे में ऑनलाइन माध्यम शिक्षा के इस निम्नीकरण को और आसान कर देगा। क्या शिक्षक होने के नाते हम यह लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हैं कि हम शिक्षा के उच्च उद्देश्यों के साथ कोई समझौता नहीं करेंगे?
विद्यार्थियों से बिना रू-ब-रू हुए दी जाने वाली शिक्षा अलगाव को गहरा करेगी। यह विद्यार्थियों का अपने सहपाठियों और शिक्षक से तथा शिक्षकों का विद्यार्थियों और उनके संदर्भों से अलगाव करेगी।
ऑनलाइन पढ़ाई को लेकर कोई नियमावली नहीं है; शिक्षकों और विद्यार्थियों की शिकायत बढ़ रही है कि पूरे दिन व्हाट्सऐप पर मैसेज आते रहते हैं। यह व्यवस्था हमारी कार्यक्षमता बढ़ाने का नहीं, घटाने का काम कर रही है। यह मेडिकल शोध का भी विषय है कि इतने स्क्रीन टाइम का विद्यार्थियों व शिक्षकों के स्वास्थ्य - आँखों, दिमाग, कमर - पर क्या असर पड़ रहा है।
3. डिलीवरी पर्सनल में तब्दील होते शिक्षक
अधिकतर सरकारी स्कूलों में शिक्षक अपने विद्यार्थियों की नियमित कक्षाएँ नहीं ले पाते हैं| पिछले कुछ समय से हो यह रहा है कि सीबीएसई और दिल्ली शिक्षा विभाग से विभिन्न आदेश, कार्यक्रम और गतिविधियाँ आती हैं और टीचरों का काम होता है उन्हें बच्चों तक डिलीवर करना|
कुछ गैर-अकादमिक संदेशों के उदहारण -
· लॉकडाउन के बाद 3 अप्रैल को MHRD का सर्कुलर आता है कि बच्चों को आरोग्य सेतु ऐप डाउनलोड करने, दीये आदि जलाने और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए कुछ नुस्खे अपनाने के लिए प्रोत्साहित करें| क्योंकि सीबीएसई ने स्कूलों से इस सर्कुलर के पालन की रिपोर्ट माँगी इसलिए सक्रिय स्कूलों के सक्रिय शिक्षकों ने बच्चों को मैसेज भेजकर या फ़ोन करके ‘पालन करने वाले बच्चों’ की अच्छी संख्या इकट्ठी कर ली|
· शिक्षकों द्वारा उन्हें सुबह 9.30 बजे फिट इंडिया के लाइव विडियो देखने के मैसेज भेजे गए |
· सीबीएसई ने स्कूलों के प्रधानाचार्यों को चिट्ठी लिखी कि, “यह परिवारों के अन्दर रिश्ते मज़बूत करने का मौका है| अभिभावक बच्चों से प्रकृति को महसूस करने और जुड़ने से संबंधित प्रोजेक्ट करवा सकते हैं| घरेलू मशीनों का विज्ञान समझा सकते हैं| इससे अच्छा मौका नहीं हो सकता कि बच्चे रसोई में काम करना सीखें और शुरु करें| इससे उनके मन में ‘सेवा देने वालों’ के प्रति आदर बढ़ेगा| भारतीय संस्कृति के बारे में सिखाएं जैसा कि इसके नए चिन्ह ‘नमस्ते’ की सफ़लता से साबित हुआ है [हालाँकि अभिवादन के बहुत से तरीके हैं जिनमें हाथ नहीं मिलाया जाता, जैसे सलाम]|”
· हम उन्हें ऐसी गतिविधियाँ भेजते हैं जिनमें उनसे पूछा जाता है कि “अब डिजिटल EMC लाया है नई ऐक्टिविटी, "अपना मज़ेदार वर्णन"! आपको बताना है कि आप किचन के कौन से बर्तन जैसे हैं और क्यों। आप यह लिखकर, फ़ोटो खींचकर, वीडियो बनाकर या कोई और मज़ेदार तरीके से हमारे साथ व्हाट्सऐप या सोशल मीडिया पर शेयर कर सकते हैं। फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम पर शेयर करते हुए #myemc इस्तेमाल करना मत भूलना|”
· हैप्पीनेस कक्षा के रोज़ाना लिंक
जब हम किसी से मिलने उनके घर या अस्पताल जाते हैं तो सबसे पहले उनकी खैरियत पता करते हैं| पर अब यह वैसा रिश्ता नहीं है जिसमें हम विद्यार्थियों की खैरियत पूछते हों| हमने उत्तरी-पूर्वी दिल्ली में साम्प्रदायिक हिंसा और लॉकडाउन के बाद उनकी खैरियत पूछने के लिए फ़ोन या मैसेज नहीं किए| कुछ शिक्षकों ने अपवादस्वरूप यह अपने स्तर पर ज़रूर किया लेकिन इसे स्कूल शिक्षक वर्ग का चरित्र और वास्तविकता नहीं कहा जा सकता| सीबीएसई ने यह साफ़ कर दिया है कि उसे सिर्फ़ वो बच्चे दिखाई देते हैं जो लॉकडाउन के खाली समय में रसोई के काम सीखने का फ़ायदा उठा सकते हैं नाकि वो जो 6-8 साल की उम्र से ही रसोई और छोटे भाई-बहन की ज़िम्मेदारी ले लेते हैं; जो खुद ‘सेवा देने वाले परिवारों’ से होते हैं और शायद अभी घंटों खड़े होकर लाइन में खाना ले रहे होंगे|
सवाल यह है कि ऐसी मानसिकता से उपजी गतिविधियों से हम मज़दूर वर्ग के बच्चों की बची-खुची वर्ग चेतना भी ख़त्म कर देंगे या इस मौके पर उन्हें अपने सच बोलने और बताने देंगे - क्या हैप्पीनेस की कक्षा में वो यह रिकॉर्ड करके भेज पा रहे हैं कि उनके परिवार के क्या हालात हैं, वे खाना कैसे खा पा रहे हैं, कितने दिन का राशन बचा है और उनके बड़े किन चिंताओं से घिरे हैं, या उन्हें सरकार से क्या मदद चाहिए? क्या समाजशास्त्र में वे लॉकडाउन के दौरान अपने घर/पड़ोस में बढ़ती घरेलू हिंसा की जाँच कर पा रहे हैं और उससे लड़ने के लिए हिम्मत जुटा पा रहे हैं? क्या विज्ञान की कक्षा में वे यह पूछ पा रहे हैं कि अगर कोरोना से लड़ने के लिए प्रतिरोधक शक्ति चाहिए जो पौष्टिक आहार से आती है तो उनका देश सभी बच्चों को दूध और फल क्यों नहीं दे रहा? क्या अंग्रेज़ी की कक्षा में वे अभिव्यक्ति की ताकत सीख रहे हैं ताकि कोटा के बच्चों की तरह वे भी सोशल मीडिया पर लिख पाएँ कि जब प्रधान और मुख्य मंत्री के बोलने के बाद भी मालिकों ने न तनख्वाह माफ़ की और न किराया तो इसमें किसकी गलती है और इसे कैसे ठीक किया जाए? क्या राजनीति विज्ञान में वे यह चर्चा कर पा रहे हैं कि ये सभी देश आपस-में हमेशा इतना लड़ते क्यों रहते हैं और क्या कोरोना के संकट के बाद इनका स्वभाव कुछ बदलेगा? क्या वे हिंदी की कक्षा में यह लिख पा रहे हैं कि उनके हिसाब से ऐसा क्या होता कि वो भी लॉकडाउन में कम-से-कम उतने निश्चिन्त होते जितने कि उनके मध्यवर्गीय देशवासी हैं| (बहुत से शिक्षक अपने विद्यार्थियों को इस दिशा में बढ़ा भी रहे हैं।) हैप्पीनेस क्लास शून्य में माइंडफुलनेस नहीं सिखा सकती जैसे कोई शून्य में इतिहास नहीं सिखा सकता| अगर हम फिर भी ऐसा कर रहे हैं तो हम उन्हें सच्चाई से दूर ले जाकर वैचारिक ख़ालीपन परोस रहे हैं। चित्रकला में वे अपने दर्द बयाँ नहीं कर रहे बल्कि सरकारी विज्ञापन बनाकर अपने मध्यम-वर्गीय शिक्षकों को या तो खुश कर रहे हैं या उनके रंग में ढलते जा रहे हैं|
यहाँ सबूत के तौर पर लॉकडाउन व ऑनलाइन पढ़ाई के संदर्भ में दिल्ली सरकार के स्कूलों में आये कुछ अकादमिक संदेशों के उदाहरणों को देखना भी उपयोगी होगा। :
- करियर लांचर के पोर्टल पर बारहवीं कक्षा की साप्ताहिक कक्षाओं के लिए कुछ चुने गए टीचर कक्षा लेंगे और उसका लिंक सभी बच्चों को भेजा जाएगा| इसके लिए सभी बच्चों के व्हाट्सऐप फ़ोन नंबर इकट्ठे किए जाएँ|
- इंग्लिश के लिए Macmillan Education से गठबंधन
- नौवीं कक्षा से गणित की कक्षा के लिए खान अकैडमी से गठबंधन
- यहाँ तक कि एक सर्कुलर में शिक्षकों को यह कहकर अपनी खुद की सामग्री भेजने से मना कर दिया गया कि इससे अकादमिक एकरूपता नहीं बन पा रही!
अगर क्या पढ़ाना है और कैसे पढ़ाना है, सब कुछ ऊपर से बनकर आएगा तो शिक्षकों की क्या ज़रूरत है? क्लास टीचर का काम तो सिर्फ़ मैनेज करने का हो गया| एक प्राथमिक शिक्षिका के शब्दों में, “हमारी ज़िम्मेदारी है 80 बच्चों को काम भेजना/फॉरवर्ड करना और अगर 1-2 बच्चे भी काम कर लें तो उसका रिकॉर्ड रखना ताकि आगे भेजने के काम आए|'' उनके ग्रुप पर 80 में से 15-18 बच्चे एक्टिव हैं| वो खुद स्कूल से संबंधित 10 अलग-अलग व्हाट्सऐप ग्रुप से जुड़ी हैं जिससे उन्हें बेहद झुँझलाहट होती है| उन्हें नहीं पता कि कुछ बच्चों के माता-पिता ने खुद वो व्हाट्सऐप ग्रुप से क्यों हटा लिया।
सवाल यह है कि हम शिक्षक अपनी इस भूमिका को कैसे देखते हैं। क्या इस बने-बनाये कंटेंट को डिलीवर करने से हमारा काम आसान हो रहा है या हमारी ज़रूरत ही ख़त्म हो रही है? अगर दिमाग का काम कुछ शिक्षकों की टीम या एनजीओ से करवा लिया जाएगा तो हमारे दिमाग से क्या अपेक्षित होगा? क्या अगर आज हमारे बिना पढ़ाई चल सकती है तो कल नहीं चल पाएगी?
जब भविष्य में हर क्षेत्र में ऑटोमेशन होने के आसार हैं तो क्या टीचिंग में नौकरियाँ बचेंगी? (ये वैसे भी हो ही रहा है और संगठित क्षेत्र में औपचारिक नौकरियाँ सिकुड़ती जा ही रही हैं।) ऐसे में हमें क्या करना चाहिए? क्या हमें अपने विद्यार्थियों को खुद पढ़ाने की माँग करनी चाहिए और उपलब्ध सामग्री को अपने अनुसार इस्तेमाल करना चाहिए| या यही भविष्य की दस्तक है कि स्कूल के टीचर को रजिस्टर पूरे करने हैं और तयशुदा सामग्री डिलीवर करनी है? वैसे भी पिछले काफ़ी समय से हम विद्यार्थियों पर आधार बनवाने का दबाव बनाने, बैंक खाते खुलवाने, अलग-अलग राजनीतिक दिन मनाने आदि काम बखूबी करते आ रहे हैं! उधर ऑनलाइन के दौर में दिल्ली सरकार के स्कूलों के गेस्ट शिक्षक 11 मई के बाद पे-रोल पर तो नहीं है लेकिन क्योंकि स्कूल उनके बिना नहीं चल सकते इसलिए बहुत से गेस्ट शिक्षकों से, बिना मेहनतनाने के, स्कूल के रोज़ाना के काम, ख़ासतौर से डाटा इकट्ठा करने संबंधी, लिए जाते रहे हैं।
लॉकडाउन के बहाने से ऑनलाइन के माध्यम को थोपकर निजी कंपनियों के कारोबार को बढ़ावा देने वाली नीति से साफ़ होता है कि 'सामग्री की एकरूपता' कंपनियों की ज़रूरत है ताकि बाज़ार में अपने शैक्षिक उत्पाद बेचते समय उन्हें कोई दिक्कत न हो। अगर उनके किए विविधता एक समस्या है, तो हमारे लिए वो शिक्षा का आधार और अनिवार्य अंग है। इस टकराव को स्वीकार करके और इस शिक्षा-विरोधी नीति को ख़ारिज करके ही हम अपने संघर्ष को आगे बढ़ा सकते हैं।
4. शिक्षा का बाज़ार
जैसे नोटबंदी के समय पर पेटीएम ने कमाया था, अब घरबंदी के दौर में ये प्राइवेट एडूकॉम्प जैसी कंपनियाँ कमा रही हैं। इस दौरान प्रशासन के ज़रिये विद्यार्थियों को रोज़ नए-नए एनजीओ और निजी कंपनियों के शैक्षिक पोर्टल के लिंक भेजे जाते रहे हैं, जैसे 'idream'।
बच्चों को सीधे प्राइवेट संस्थाओं और कॉलेजों के मैसेज भी आने शुरु हो गए हैं| हालाँकि रोज़ के इन संदेशों में उन्हें यह नहीं पता चलता कि KIIT कॉलेज जैसे प्राइवेट कॉलेज का मैसेज कौन-सा है और इसका क्या मतलब है|
प्रस्तावित राष्ट्रीय शिक्षा नीति निजी कंपनियों को शिक्षा से संबंधित सॉफ्टवेयर बनाने और भरपूर विज्ञापन करने का प्रोत्साहन देती है। होगा यह कि लॉकडाउन के बाद जब स्कूल खुलेंगे तब भी यह ऑनलाइन जरिया जारी रहेगा। विद्यार्थियों को तरह-तरह के अभ्यास , गृह-कार्य, प्रोजेक्ट करने के लिए ऑनलाइन माध्यमों के सहारे छोड़ दिया जाएगा। न ढाँचागत निवेश करने की जरूरत पड़ेगी और न ही शिक्षा के प्राइवेट खिलाड़ियों को कोई नुकसान होगा।
विडंबना यह है कि यह नीति छोटे-छोटे स्कूल ख़तम करके बड़े और दूर-स्थित स्कूल कॉम्प्लेक्स की मदद से हर बच्चे तक पहुँचने का दम भरती है, जबकि आज इस संकट ने हर पड़ोस में आसान पहुँच वाले छोटे-छोटे स्कूलों के महत्व को रेखांकित कर दिया है; नीति विज्ञान के लिए वर्चुअल लैब के सपने दिखाती है, जबकि सरकारी स्कूलों में आधारभूत न्यूनतम विज्ञान पढ़ाने के संसाधन ख़त्म किये जा रहे हैं।
हमें शिक्षा के निजीकरण और बाजारीकरण के इस नए हमले से लड़ने के लिए तैयार रहना होगा।
हमारी माँगें
सरकार घोषित करे कि किसी भी तरह की ऑनलाइन शिक्षा को क्लासरूम शिक्षा का विकल्प मानकर नीतियाँ नहीं बनाई जाएँगी।
जो विद्यार्थी ऑनलाइन शिक्षा नहीं ले पा रहे हैं, वे इस मनोवैज्ञानिक दबाव/चिंता से गुज़र रहे हैं कि उनकी पढ़ाई का नुक़सान हो रहा है। सभी विद्यार्थियों तक यह संदेश पहुँचाया जाए कि ऑनलाइन पढ़ाई मुख्य पढ़ाई का विकल्प नहीं है और स्कूल खुलने के बाद इस दौरान कराई गई पढ़ाई दोबारा कराई जाएगी।
प्रवेश, परीक्षा आदि के लिए फ़ॉर्म भरने के लिए ऑनलाइन/तकनीकी माध्यम को पूर्णतः वैकल्पिक रखा जाये।
अर्थ-व्यवस्था में रोज़गार की सुरक्षित व सम्मानजनक बहाली तक सभी विद्यार्थियों को दिन में दो बार पोषक मिड-डे-मील दिया जाए और फल -दूध का प्रावधान भी किया जाये।
वज़ीफ़ों के भुगतान की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जाए। फिलहाल विद्यार्थियों की शिकायतों के निपटान के लिए कोई जगह नहीं है। वज़ीफों की ऑनलाइन प्रक्रिया की जटिलता व अपारदर्शिता के संदर्भ में हर संस्थान में तुरंत एक जवाबदेह ऑफलाइन शिकायत तंत्र का बंदोबस्त किया जाये।
डिजिटल उपकरणों के उत्पादन व इस्तेमाल से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं तथा पर्यावरण की क्षति को देखते हुए स्कूलों के प्रशासन व शिक्षा में अपनाई जाने वाली सभी नीतियों में मानव के समग्र स्वास्थ्य व पर्यावरण सुरक्षा की चिंता को केन्द्र में रखा जाये।
मज़दूर विरोधी और वास्तविकता विरोधी कृत्रिम प्रशासनिक उपायों, कार्यक्रमों व योजनाओं पर तुरंत रोक लगाई जाए।
ऑनलाइन पढ़ाई के बहाने से शिक्षकों की बौद्धिकता और स्वायतता के ऊपर चल रहे आघात को रोका जाए ।
ऑनलाइन शिक्षण ने कार्य के घंटों की समय-सीमा को अस्त-व्यस्त कर दिया है। शिक्षकों के स्वास्थ्य व कार्य-युक्त अन्य अधिकारों की सुरक्षा निश्चित करते हुए ऑनलाइन काम करने के लिए नियमावली बनाई जाए।
केंद्र सरकार और दिल्ली का शिक्षा विभाग जिस तेज़ी से नई-नई कॉरपोरेट संस्थाओं के साथ गठबंधन कर रहे हैं, वो गहरी चिंता का कारण है। एनजीओकरण का सीधा रिश्ता शिक्षा के निजीकरण से है। इसे बंद किया जाए।
प्रस्तावित राष्ट्रीय शिक्षा नीति पड़ोसी स्कूल व्यवस्था को कमज़ोर करने और स्कूल कॉम्प्लेक्स की बात करती है। इस आपदा ने यह साबित किया है कि पड़ोसी स्कूल व्यवस्था का क्या महत्व है। इसी तरह चाहे वो लॉकडाउन हो या ऑनलाइन पढ़ाई के निर्देश, केंद्र सरकार द्वारा संविधान के संघीय ढाँचे के ख़िलाफ़ जाकर राज्यों के अधिकार क्षेत्रों में दख़ल देने और उन्हें हथियाने के फ़ासीवादी मंसूबों का जनविरोधी चरित्र आज हमारे सामने उजागर है। राज्य सरकारों द्वारा उनके जायज़ अधिकारों व कर्तव्यों को पाने की दिशा में केंद्र राज्यों को संविधानसम्मत समुचित वित्तीय व राजनैतिक स्वायत्तता दे और राज्य सरकारें पड़ोस पर आधारित और पूरी तरह से राज्य द्वारा वित्त-पोषित स्कूल व्यवस्था लागू करें।
2 comments:
https://navyanal.blogspot.com/2020/06/covid-pandemic-excuse-to-intensify.html
Thank you for this very important note. We must understand difficulties of students, teachers and that this most modern corporatisation of education will be destroying social ethos and shouldnt be part of our education policy.
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