लोक शिक्षक मंच द्वारा शिक्षकों के साथ एक सर्वेक्षण किया गया जिसका उद्देश्य यह समझना था कि शिक्षकों का ऑनलाइन 'शिक्षा' को लेकर क्या अनुभव रहा है, उन्होंने किन समस्याओं का सामना किया, वे स्कूल खुलने के बारे में क्या सोचते हैं और शिक्षा में किन बदलावों की जरूरत महसूस करते हैं। सर्वे में हिस्सा लेने वाले सभी शिक्षकों का धन्यवाद करते हुए मंच यह रिपोर्ट साझा कर रहा है।
20 जून से लेकर 10 जुलाई तक चले इस ऑनलाइन सर्वेक्षण में सवाल अंग्रेज़ी में थे। इसमें 60 शिक्षकों ने हिस्सा लिया जिनमें से 50% शिक्षक दिल्ली शिक्षा विभाग के स्कूलों में कार्यरत हैं, 37.9% निजी विद्यालयों में पढ़ाते हैं व कुछ दिल्ली से बाहर कार्यरत हैं।
सर्वेक्षण में हिस्सा लेने वाले 91.7% शिक्षक ऑनलाइन शिक्षण से जुड़े थे। इनमें से 30.4% शिक्षकों ने व्हाट्सऐप के माध्यम से, 23.2% ने यूट्यूब या अन्य वीडियो माध्यमों से तथा 6% शिक्षकों ने ज़ूम के माध्यम से क्लास ली थी। इसके अलावा शिक्षकों ने गूगल मीट, माइक्रोसॉफ्ट टीम, गूगल हैंगआउट जैसे माध्यमों का भी प्रयोग किया। एक शिक्षक ने लिखित नोट्स और एक ने टेलीफोन माध्यम का भी ज़िक्र किया।
ऑनलाइन 'शिक्षा' के बारे में 41.7% शिक्षकों ने कहा कि ऑनलाइन शिक्षा आज की जरूरत है, 35% शिक्षकों का मानना था कि ऑनलाइन शिक्षा में समस्यायें तो हैं लेकिन इन्हें सुधारा जा सकता है और 33.3% शिक्षकों के अनुसार ऑफलाइन और ऑनलाइन 'शिक्षा' एक दूसरे के पूरक हो सकते हैं।
33.3% शिक्षकों का कहना था कि ऑनलाइन शिक्षा इतनी ताकतवर है कि इसे रोका नहीं जा सकता, जबकि 5% शिक्षक इसे पूरी तरह नकारने के पक्ष में थे।
Who do you think is promoting online education the most?
46.7% शिक्षकों का कहना था कि ऑनलाइन 'शिक्षा' के पीछे सरकार का प्रोत्साहन है (राष्ट्रीय शिक्षा नीति ड्राफ्ट 2019 में प्रस्तावित) और 25% शिक्षकों का मानना है कि एनजीओ और प्राइवेट कंपनियाँ ऑनलाइन 'शिक्षा' को बढ़ावा देने के पीछे हैं। 16.7% शिक्षकों के अनुसार शिक्षक और 11.7% शिक्षकों के अनुसार विद्यार्थी और अभिभावक ऑनलाइन शिक्षा को प्रोत्साहित कर रहे हैं। 31.7% शिक्षकों ने सभी को ऑनलाइन शिक्षा के पीछे माना।
ऑनलाइन शिक्षण के दौरान आपको किन मुद्दों का सामना करना पड़ा, इस सवाल के जवाब में 60 में से 6 शिक्षकों ने ऑनलाइन शिक्षण को अच्छा बताया और इसके लाभ गिनाए, जैसे एक शिक्षक का कहना था कि इसमें नयापन लाया जा सकता है। एक शिक्षिका के शब्दों में, "Online teaching is not a replacement for offline/actual classroom teaching. However, in the given circumstances, online teaching can be a solution to not just deliver lessons but also to connect to students and give them a semblance of calmness, anchor their feelings and be with each other. The model adopted by Kerala is inspiring, where the government and all political parties, citizens, companies have got together to ensure that every student has access to online learning. That kind of mobilisation is essential now."
11 शिक्षकों ने यंत्र की अनुपलब्धता और 8 ने आर्थिक समस्याओं को गिनाया, जैसे गरीबी, समय और जगह की अनुपलब्धता, एक फोन पर कई भाई-बहनों का पढ़ना आदि। 5 ने नेटवर्क की समस्या बताई।
"Maximum students are unable to afford the net pack and android phone. They use parents' phone for online education and they are often working class people who need to be out of home for livelihood."
11 ने ऑनलाइन पढ़ाई में एकतरफा भाषण की सीमा, 3 ने विषयों की सैद्धांतिक समझ पर चर्चा न कर पाने, 3 शिक्षकों ने इस माध्यम से दैनिक स्तर पर विद्यार्थियों के काम की जांच नहीं कर पाने, 3 ने बच्चों के साथ व्यक्तिगत संबंध न बना पाने तथा 1 शिक्षक ने इस माध्यम से बच्चों की समस्याओं का पता नहीं चल पाने की समस्या बताई। 1 शिक्षिका ने adaptability issues को रेखांकित किया
1 शिक्षक का कहना था कि बच्चे एक दूसरे से भी सीखते हैं जो इस माध्यम में नहीं हो पा रहा है। 1 शिक्षक ने कहा कि जो बच्चे धीरे सीखते हैं वे छूट रहे हैं और 1 ने विद्यार्थियों के बीच व्यक्तिगत विभेद के साथ न्याय न कर पाने की बात की। 1 शिक्षक का कहना था कि ऑनलाइन माध्यम से अकाउंट जैसे प्रैक्टिकल विषय पढ़ाने में ज्यादा मुश्किल आ रही है। एक शिक्षिका ने इन चुनौतियों से जूझने के अपने संघर्ष को इन शब्दों में बयान किया: "Since some of my students are residing in Himalayan region and Border area, they are not able to connect to the regular online class because of internet issue, but in between weeks I make sure to connect with them through calling, so I keep on giving them tasks."
2 ने कहा कि न शिक्षक ऑनलाइन शिक्षण के लिए तैयार और प्रशिक्षित थे और न विद्यार्थियों को इतना स्वतंत्र और प्रशिक्षित किया गया था कि वे ऑनलाइन शिक्षा के लिए तैयार हों। 6 ने अत्याधिक स्क्रीन समय और 1 ने इंटरनेट पर आपत्तिजनक सामग्री मौजूद होने की समस्या बताई।
6 शिक्षकों ने अनुशासन, प्रेरणा तथा सतर्कता की कमी को चिन्हित किया।
Do you support the demand of providing free device to students ?
इस सवाल के जवाब में 60 में से 55.9% शिक्षकों का मत था कि हाँ ऐसा करने से सभी विद्यार्थियों के साथ समानता का पालन होगा जबकि 42.4% शिक्षकों का कहना था कि ऑनलाइन 'शिक्षा' ऑफलाइन शिक्षा की जगह कभी नहीं ले सकती क्योंकि बच्चे एक दूसरे से और उस माहौल से भी सीखते हैं जो उन्हें कक्षा में मिलता है। 13.6% शिक्षकों का मत था कि सभी बच्चों को व्यक्तिगत यंत्र मिले ऐसा कभी नहीं होगा और असमानता बनी रहेगी जबकि 5.1% शिक्षकों का कहना था कि ऐसा नहीं होना चाहिए क्योंकि इसकी पर्यावरणीय कीमत बहुत ज़्यादा होगी।
क्या ऑफलाइन शिक्षा का मौजूदा रूप शिक्षा अधिकार का हनन करता है (2009 अधिनियम के तहत)? इस सवाल के जवाब में 39% शिक्षकों ने हाँ कहा जबकि 22% ने कहा नहीं। 32.2% ने जवाब दिया कि वे कह नहीं सकते।
लॉक डॉउन-कोरोना के बाद स्कूल खुलने के बारे में 93.3% शिक्षकों का मत यह था कि स्कूलों को तब खोला जाना चाहिए जब वायरस का प्रभाव कम हो जाए अथवा/और टीके का निर्माण हो चुका हो।
क्या 2020-21 को ज़ीरो सत्र घोषित किया जाए? इस सवाल पर 34.4% शिक्षकों का कहना था कि हाँ, ऐसा किया जाना चाहिए जबकि 40.8% शिक्षकों का कहना था नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए। 7.5% शिक्षकों का कहना था कि जैसी जरूरत पड़ती है वैसा किया जाना चाहिए।
जिन शिक्षकों का मत यह था कि 2020-21 को ज़ीरो सत्र घोषित नहीं किया जाना चाहिए उन्होंने विभिन्न कारण दिए, जैसे कि वे पहले से ही अपना पाठ्यक्रम पूरा कर चुके हैं, सीखना ऐसी प्रक्रिया है जो हमेशा चलती रहती है और बच्चों का साल बर्बाद करना उनके लिए हानिकारक होगा, अन्य आंतरिक तरीकों से भी मूल्याँकन किया जा सकता है तथा अभी भी साल की पढ़ाई करने में बहुत समय बाकी है।
Any suggestions to check the likely drop out of students after reopening?
बच्चों के ड्रॉपआउट से संबंधित इस सवाल के जवाब में 75.4% शिक्षकों ने कहा कि जो बच्चे स्कूल नहीं लौटें उनका पूरा फॉलो-अप होना चाहिए, 42.1% शिक्षकों ने राज्य सरकारों के साथ मिलकर उनकी शिक्षा सुनिश्चित करने की ज़रूरत को चिन्हित किया और 43.9% शिक्षकों ने कहा कि उन्हें आर्थिक मदद दी जानी चाहिए।
कुछ शिक्षकों ने बच्चों के माता-पिता की काउंसलिंग का सुझाव दिया और एनजीओ के साथ मिलकर काम करने की सलाह दी।
Any suggestions on improving nutrition and immunity of students (for example, in terms of mid day meal, health check up etc)
49.2% शिक्षकों का कहना था कि पोषण और प्रतिरोधक क्षमता सुधारने के लिए मिड-डे-मील की गुणवत्ता में सुधार होना चाहिए, 40.7% शिक्षकों का मत था कि मिड डे मील कक्षा XII तक के विद्यार्थियों को दिया जाए और 45.8% का कहना था कि मिड डे मील में फल और दूध का बंदोबस्त भी किया जाना चाहिए। यहाँ यह याद रखना ज़रूरी है कि इस सर्वे में 69.5% शिक्षकों ने बच्चों की नियमित स्वास्थ्य जाँच और 52.5% शिक्षकों ने बच्चों के लिए स्थानीय स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार के विकल्प को चुना। इसके अलावा 1 शिक्षक ने प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाली टैबलेट देने तथा 1 ने मिड डे मील की बेहतर निगरानी की सलाह दी।
स्कूल खुलने के बाद क्या पढ़ाया जाना चाहिए इस सवाल पर अनेक सुझाव आए। 13 शिक्षकों ने कहा कि पाठ्यक्रम को घटाया जाना चाहिए, 5 शिक्षकों ने स्वच्छता, स्वास्थ्य और कोरोनावायरस संबंधित जानकारी पर ज़ोर दिया, तीन ने कहा कि मानसिक आघात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। 3 शिक्षकों के अनुसार इस संदर्भ में पर्यावरण हित पर ध्यान दिया जाना चाहिए तथा 4 शिक्षकों ने आपदा संकट और महामारी आदि विषयों पर विद्यार्थियों को शिक्षित करने की जरूरत को चिन्हित किया। 4 शिक्षकों का कहना था कि वही पाठ्यक्रम जारी रहना चाहिए जो अभी है, 2 ने कौशल-आधारित शिक्षा की बात कही। एक शिक्षक ने मौलिक सिद्धान्तों को पढ़ाने, एक ने पुराने पाठ्यक्रम की पुनरावृत्ति, एक ने संपूर्ण पाठ्यक्रम को रखने और एक शिक्षक ने मानवता तथा समानता जैसे मूल्यों पर ध्यान देने पर ज़ोर दिया। एक शिक्षक ने वैज्ञानिक तथा पंथनिरपेक्ष शिक्षा पर ज़ोर दिया।
शिक्षकों के शब्दों में, "More focus on life skills.. stress management, sustainable growth, environment conservation, disaster management, compassion, equality ... resilience, positivity and the ability to adjust to a situation no one is familiar with or prepared for. That needs to be strengthened by teachers for their children. Time for social emotional bonding, finding security in the school community is the most important need for children and teachers ... Adding new concepts about one's responsibilities towards environment and other creatures, the fallouts of pandemic ... [Knowledge about] building immunity through local and indigenous foods and practices ... disparity [experienced during pandemic] in terms of resources, health facilities, systemic situations and its challenges, issues of migration, hygiene, spread of disease etc."
Long Term changes in education
इस सवाल पर शिक्षकों द्वारा कई तरह के सुझाव दिए गए।
8 शिक्षकों ने परीक्षा अंकों के बजाय प्रयोग-आधारित, संकल्पनात्मक शिक्षा पर ज़्यादा ज़ोर देने का सुझाव दिया। 7 शिक्षकों ने तकनीकी सुधार पर ज़ोर दिया, जैसे कक्षा में ICT का इस्तेमाल। 4 शिक्षकों ने ऑनलाइन को भविष्य कहते हुए इसे सुधारने की बात कही।
3 शिक्षकों ने ढाँचागत सुविधाओं में बेहतरी का सुझाव दिया, जैसे बेहतर PTR। "More space in classrooms, health checkup facilities in school premises, rationalised content, focus on continuous evaluation, extending facilities for mental health conversations, extension of online facilities in the school premises and support for the same at home and strengthening of all stakeholders of the school community for helping children come into the post pandemic world."
2 शिक्षकों ने विकेंद्रीकरण को आगे का रास्ता बताया; जैसे कि, शिक्षकों के हाथ में पाठ्यक्रम और मूल्याँकन पद्धति निर्धारित करने की ज़्यादा स्वायत्तता, शिक्षकों को गैर-शैक्षणिक कामों में न खींचा जाना आदि। "An education system, where authorities ponder over students' opinions/feedback while formulating policies rather than just imposing theirs on the learners ... Teachers should be made part of every decision making process."
एक शिक्षक के शब्दों में, "In the past few months the whole discourse and discussion in the media was on examination system as if this is the core of education. The focus must be on experience, exposure and learning."
हमारी अपील
1. ऑनलाइन शिक्षण करने वाले अधिकतम शिक्षक एक से ज़्यादा माध्यमों का इस्तेमाल कर रहे हैं। जहाँ व्हाट्सऐप सामग्री भेजने का सबसे सरल माध्यम है वहीं इसमें पढ़ने-पढ़ाने की जीवंत संस्कृति नहीं है। चूँकि कई विद्यार्थी कम डाटा तथा जिओ फोन की सीमाओं के चलते वीडियो नहीं देख पाते इसलिए वे व्हाट्सऐप पर निर्भर हैं, लेकिन अनेक शिक्षक ऐसे भी हैं जो ज़ूम मीटिंग आदि द्वारा अंतर्क्रियात्मक कक्षाएँ ले पा रहे हैं।
वर्तमान ऑनलाइन कक्षाओं को केवल एक तात्कालिक/आकस्मिक उपाय घोषित किया जाना चाहिए। सरकार को यह वादा करना चाहिए कि वर्तमान ऑनलाइन कक्षाओं में भाग न ले पा रहे या उनसे समझ नहीं बना पा रहे विद्यार्थियों को अध्ययन तथा मूल्याँकन में कोई नुक़सान नहीं होने दिया जायेगा। इसके लिए यह तुरंत घोषित किया जाए कि इन कक्षाओं में फ़ोकस पाठ्यक्रम को दोहराने/पुनरावृत्ति, मौलिक अवधारणाओं को मुड़कर देखने और विद्यार्थियों से संपर्क बनाये रखने पर रहेगा। साथ ही, स्कूलों के दोबारा खुलने पर ऑनलाइन/डिजिटल पढ़ाई के हिस्से को क्लास में दोहराया जायेगा। यह अपराधिक नहीं तो क्या है कि पिछले महीनों में कुछ विद्यार्थियों - अधिकतम लड़कियों - ने इसलिए आत्महत्याएँ कर लीं क्योंकि उनके पास डिजिटल यंत्र नहीं था! इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है कि उन तक यह संदेश नहीं पहुँचाया गया कि भले ही वे ऑनलाइन कक्षाएँ नहीं ले पा रही हैं पर उनकी पढ़ाई का नुकसान नहीं होगा?
2. सर्वे में शिक्षकों की बड़ी संख्या ने यह मत दिया कि ऑनलाइन 'शिक्षा' आज की ज़रूरत है और इसमें मौजूद कमियों को सुधारा जा सकता है। करीब 33% शिक्षकों ने यह भी कहा कि यह इतना ताक़तवर परिवर्तन है जिसे रोका नहीं जा सकता। केवल 5% शिक्षकों ने ही इसे पूरी तरह नकारा। हम ऑनलाइन 'शिक्षा' को ऐसे मौलिक बदलाव करने वाली ताक़त के रूप में देखने की अपील करेंगे जो शिक्षा के उद्देश्यों और माध्यमों में मूलभूत परिवर्तन कर देगा। इसके असर बहुआयामी और दूरगामी होंगे। एक उदाहरण से समझें, तो हम अभी तक यूट्यूब वीडियो के द्वारा पढ़ाई को विभिन्न प्रतियोगिताओं की परीक्षाओं के लिए चल रहे सैकड़ों चैनल्स के रूप में जानते थे। हम इन्हें एजुकेशन/शिक्षा नहीं, कोचिंग कहते थे। इसका एक कारण यह भी था कि कोचिंग सीमित उद्देश्य से दी जाती है जबकि शिक्षा के उद्देश्य विस्तृत होते हैं। खतरा यह है कि ऑनलाइन कक्षाएँ भी अपनी आंतरिक सीमाओं के चलते शिक्षा के उच्च व्यापक/सर्वांगीण उद्देश्यों को सीमित कर देंगी। 'विद्यालय' 6 साल से 18 साल तक के छात्रों को सिर्फ परीक्षा पास करने के लिए नोट्स देने का संस्थान नहीं है। शिक्षा का मतलब ही है गुणवत्तापूर्ण जीवन जीने का अभ्यास कर पाना, सामूहिक ढंग से अपने पर्यावरण से सीखना, सहपाठियों के साथ विचारों का आदान-प्रदान करना आदि। विद्यालय का मतलब वो जगह भी होता है जहाँ शिक्षकों और विद्यार्थियों का व्यक्तिगत रिश्ता बनता है, जहाँ कई छात्राएँ अपनी घरेलू, भावनात्मक, यौनिक समस्याओं को साझा करना और इनसे लड़ना सीखती हैं। आज खतरा यह है कि क्योंकि डिजिटल कक्षाएँ ये सब नहीं कर पायेंगी इसलिए ये हमारी शिक्षा की परिभाषा ही बदल देंगी। जितना ज़रूरी शिक्षा की पहुँच का सवाल है उतना ही ज़रूरी 'क्या पढ़ाया जा रहा है' का सवाल भी है। आज दोयम दर्जे की सामग्री वर्कशीट के रूप में परोसी जा रही है क्योंकि तकनीकी के लिए यह सुविधाजनक है। विभिन्न विषयों की अकादमिक गहराई और उद्देश्यों को यह कहकर गैर-ज़रूरी बताया जा रहा है कि 'something is better than nothing' (कुछ न होने से कुछ होना तो बेहतर है)। पर हमें यह इसलिए मंज़ूर नहीं है क्योंकि गरीब तबकों से आने वाले बच्चों को यह something/कुछ परोसने का सिलसिला हमेशा से जारी रहा है। शिक्षाविदों और शिक्षाशास्त्रीय विशेषज्ञों द्वारा उच्च-शैक्षिक उद्देश्यों को (जिनकी कुछ झलक NCF-2005 जैसे दस्तावेज़ों में दिखती है) नज़रअंदाज़ करके मेहनतकश के बच्चों को लगातार कामचलाऊ साक्षरता और छद्म कौशल-विकास से संतुष्ट करने का मॉडल गढ़ा जा रहा है।
संसाधनों से लैस बड़े प्राइवेट स्कूलों के बच्चे जिस ऑनलाइन 'शिक्षा' को पा रहे हैं और सरकारी स्कूलों के बच्चों को जो ऑनलाइन 'शिक्षा' नामी something/कुछ परोसा जा रहा है, वो जाति व्यवस्था का पुनरुत्पादन मात्र है।
इसलिए हम ऑनलाइन शिक्षा के मौजूदा स्वरूप को बेहद समस्यात्मक मानते हैं और इसपर व्यापक नीतिगत, राजनैतिक, शिक्षाशास्त्रीय बहस की माँग करते हैं।
3. सर्वे में 46.7% शिक्षकों ने सरकार को और 25% शिक्षकों ने एनजीओ और प्राइवेट कंपनियों को ऑनलाइन 'शिक्षा' के पीछे प्रमुख ताक़त माना। राष्ट्रीय शिक्षा नीति का प्रारूप (2019) यह मानकर चलता है कि 2025 तक सभी विद्यार्थियों के पास स्मार्टफ़ोन जैसे निजी कम्प्यूटरिंग यंत्र होंगे, स्कूल जिनका इस्तेमाल करेंगे। इस नीति के तहत इन ढाँचागत ज़रूरतों का खर्चा ग्राहकों यानी कि छात्रों को खुद उठाना है। सरकार जो पैसे ढाँचागत ज़रूरतें देने में बचाएगी, उसे कॉरपोरेट घरानों के साथ गठबंधन करने में खर्च करने के लिए मुक्त होगी। नीति का ड्राफ्ट इसका ढोल खुलकर पीटता है। ऑनलाइन 'शिक्षा' का मौजूदा स्वरूप इसी राजनीति का कार्यान्वयन है। आज दिल्ली सरकार के स्कूलों में ऑनलाइन 'शिक्षा' का जो मॉडल चल रहा है उसमें शिक्षकों की भूमिका में ज़बरदस्त बदलाव आया है। शिक्षा विभाग द्वारा अधिकतम शिक्षकों की ज़िम्मेदारी यह तय नहीं की गई है कि वे पढ़ायें (वे अपनी मर्ज़ी से भले ही पढ़ा रहे हों) बल्कि उनकी यह ज़िम्मेदारी है कि वे बने बनाए कंटेंट को डिलीवर करें और बच्चों का रिकॉर्ड रखें कि वे उस काम को कर रहे हैं या नहीं। अन्य मज़दूरों की तरह शिक्षक भी सृजन और चिंतन नहीं करेंगे बल्कि अपनी श्रम शक्ति बेचेंगे। इस तरह हमारा भी अपने काम से अलगाव होता चला जायेगा। ज़ाहिर है कि अगर हर शिक्षक सिर्फ कंटेंट डिलीवर करेगा तो कोई तो कंटेंट को बनाएगा भी। आज कंटेंट बनाने वाले ऐसे हज़ारों एनजीओ राज्य सरकारों और केंद्र सरकार के दफ्तरों में बैठते हैं। इसमें चिंताजनक यह है कि ये एनजीओ प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से पूंजी के एजेंट होते हैं जो शिक्षा को अधिकार के दायरे से खींचकर बाज़ार में ला खड़ा करना चाहते हैं। हार्डवेयर यंत्र बनाने वाली कंपनियों के CSR के तार ऑनलाइन 'शिक्षा' के लिए कंटेंट बनाने वाले NGOs से जुड़े होते हैं। आज निजी से लेकर सरकारी विद्यालयों तक अभिभावक और विद्यार्थी परेशान हैं क्योंकि उनके पास समय और संसाधनों की कमी है लेकिन ऑनलाइन कक्षाओं का दबाव बना हुआ है। एक स्वस्थ शिक्षा व्यवस्था में डिजिटल/ऑनलाइन कक्षाओं की प्रक्रिया अनिवार्य नहीं हो सकती, बल्कि शिक्षकों की आकादमिक समझ व ज़रूरत से तय होगी। शिक्षक हमेशा से ही अपनी कक्षाओं में तकनीकी का इस्तेमाल करते आए हैं/करना चाहते हैं। शिक्षकों को इस बात की पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वे अपनी तैयार की हुई सामग्री विद्यार्थियों की कक्षा के लिए इस्तेमाल कर सकें, नाकि विभागों द्वारा, 'ऊपर' से भेजी गई सामग्री से पढ़ाने को बाध्य हों।
4. सर्वे में 60% शिक्षक बच्चों को व्यक्तिगत यंत्र उपलब्ध कराने के पक्ष में थे जबकि अन्यों ने किसी न किसी तरह की शंका जताई - असमानता तथा/अथवा पर्यावरणीय क्षति। विद्यार्थियों व शिक्षकों को डिजिटल तकनीकी व यंत्रों की सीमाओं व ख़तरों तथा उनके अपने अधिकारों के बारे में शिक्षित-प्रशिक्षित करने की ज़रूरत है। इसके बिना इस माध्यम को थोपना अन्यायपूर्ण भी है और ख़तरनाक भी। इस विषय में डिजिटल तकनीकी व यंत्रों के उत्पादन से लेकर इस्तेमाल से जुड़े स्वास्थ्य, पर्यावरणीय संदर्भ व संकट, निजता के अधिकार, डाटा की लूट व उसकी सुरक्षा, साइबर बुलींग जैसे मुद्दों को विशेष रूप से चुना जा सकता है।
एक तरफ प्रत्येक विद्यार्थी को बराबर इनपुट्स/संसाधन देने की ज़िम्मेदारी है (कानूनी रूप से भी) और दूसरी तरफ ऐसे विकल्प खड़े करने की चुनौती जो पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से कारगर हों। टैबलेट जैसे व्यक्तिगत यंत्र को विकल्प के रूप में अपनाने से पहले उसके पर्यावरणीय असर को तीन स्तरों पर समझना होगा - 1. कच्चे माल और ऊर्जा का प्रयोग (जिसमें खनन शामिल है) 2. इसको चलाने में जो बिजली लगेगी और 3. जो कूड़ा इससे निकलेगा, जैसे बैटरी व अंत में डिवाइस। यह जाँचना होगा कि घर पर रहने से छात्रों और शिक्षकों द्वारा यातायात में लगने वाला जो ईंधन बचाया जाएगा उसके मुकाबले इसकी पर्यावरणीय कीमत क्या है। यहाँ पड़ोसी स्कूल व्यवस्था का यह पहलू भी मायने रखता है कि आज भी सरकारी विद्यालयों में अधिकतम विद्यार्थी आसपास से आते हैं। हमें यह भी देखना होगा कि समाज के किस तबके को पर्यावरण क्षति में अपना हिस्सा कम करना होगा ताकि दूसरों की मौलिक ज़रूरतें पूरी हो सकें। आज हम देख रहे हैं कि जब इंसान ने अंधाधुंध आर्थिक तरक्की और पर्यावरण में से किसी एक को चुना, विकास और समानता में से किसी एक को चुना, तो दुनिया आपदाओं और गैर-बराबरी का गढ़ बन गई। इसी से सीखते हुए हम वर्तमान परीक्षा आधारित शिक्षा प्रणाली को चलाए रखने के लिए पर्यावरण और समानता के सवाल को नज़रंदाज़ नहीं कर सकते।
5. शिक्षकों के अतिरिक्त व निजी समय, उनके निजी डिजिटल यंत्र, बिजली व डाटा आदि के उपयोग को सीमित व स्वीकार करने की ज़रूरत है। इसके लिए वर्क फ़्रॉम होम के घंटों की सीमा निर्धारित करने की भी उतनी ही ज़रूरत है जितनी विद्यार्थियों की ऑनलाइन कक्षाओं के घंटे तय करने की (अंततः जिसका संज्ञान लेते हुए एनसीईआरटी ने हाल ही में दिशा-निर्देश जारी किये हैं)। शिक्षकों के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य, मानव व श्रम अधिकारों तथा गरिमा की सुरक्षा के लिए समय संबंधी मापदंड बनाने के अलावा डिजिटल भत्ता जैसे उपायों को लागू करने की सख़्त ज़रूरत है।
6. सर्वे में 39% शिक्षकों ने कहा कि ऑनलाइन कक्षाओं का मौजूदा स्वरूप शिक्षा अधिकार का हनन करता है जबकि 22% ने इसे नकारा। 32.2% ने जवाब दिया वे कह नहीं सकते। पड़ोसी स्कूल व्यवस्था इस विचार पर आधारित थी कि हर बच्चे के पड़ोस में स्कूल पहुँचाना सरकार की ज़िम्मेदारी है और आज हम देखते हैं कि यह विचार ही विमर्श से गायब हो गया है क्योंकि ऑनलाइन कक्षाओं जैसे सरल सतही बाजारू उपायों को अंतिम उपायों के रूप में पेश किया जा रहा है। इतिहास में यह विवाद प्रत्येक तकनीकी के साथ उत्पन्न हुआ है कि इसके फायदे ज़्यादा हैं या नुकसान। जिस देश या समाज में जनता तय करती है कि उसे कौन-सी तकनीक, किसलिए इस्तेमाल करनी है, उस समाज में तकनीकी जनता का हुक्म भरती है, जबकि जिस देश में तकनीकी मुठ्ठीभर शासक वर्ग के इशारों पर चलती है उसमें यह जनता को लूटने में शासक वर्ग की मदद ही करती है।
आज हमारी शिक्षा नीतियाँ ऐसी हैं कि बच्चे लगातार ओपन/दूरस्थ शिक्षा व्यवस्था की तरफ धकेले जा रहे हैं। अगर ऐसी नीतियाँ ऑनलाइन 'शिक्षा' को गढ़ेंगी तो मेहनतकश व शोषित वर्गों से आने वाले बच्चों का बहिष्करण जारी रहेगा। हम यहाँ यह ज़ोर देकर कहना चाहेंगे कि ऑनलाइन शिक्षण डिजिटलीकरण की व्यापक प्रक्रिया का एक हिस्सा मात्र है। 'आधार' से लेकर राशन के ई-कूपन में भी हम यही देखते हैं कि तकनीकी जनता की ज़िन्दगी सरल करने के बजाय जनता के बड़े हिस्से को उसके अधिकारों से बेदख़ल करने के लिए प्रशासन की सुविधा का जरिया बन गई है। आज मेहनत करके कमाने-खाने वाली बहुमत डिजिटलीकरण की मार से पीड़ित है और उसके बच्चे डिजिटल शिक्षा की मार से।
7. सर्वे में 40% शिक्षकों ने 2020-21 को ज़ीरो सत्र घोषित न करने के पक्ष में मत दिया जबकि 34% ने इसे सही माना। हमारा मत है कि 'साल की बर्बादी' बाज़ार से जुड़ा सिद्धांत है। चूँकि स्कूल के बाद होने वाली परिक्षाओं में 'अधिकतम उम्र' का प्रावधान होता है इसलिए यह डर बच्चों और अभिभावकों में भी होता है कि बच्चों का साल बर्बाद न हो जाए। बिना उचित पढ़ाई हुए बच्चों को प्रोन्नत करने में जो अकादमिक नुक्सान है उसकी बनिस्बत उच्च शिक्षा की परीक्षाओं में एक साल की छूट बढ़ाना ज़्यादा उचित प्रतीत होता है। इससे बच्चों के ऊपर अनुचित मानसिक दबाव भी समाप्त होगा।
8. सर्वे में 75.4% शिक्षकों ने कहा कि जो बच्चे स्कूल नहीं लौटें उनका पूरा फॉलो-अप होना चाहिए और 43.9% शिक्षकों ने कहा कि उन्हें आर्थिक मदद दी जानी चाहिए। 49.2% शिक्षकों का कहना था कि मिड-डे-मील की गुणवत्ता में सुधार होना चाहिए। 69.5% ने बच्चों के नियमित स्वास्थ्य जांच के विकल्प को चुना। कोरोना व आर्थिक संकट में स्कूलबंदी के संदर्भ में बारहवीं कक्षा तक के सभी विद्यार्थियों की शिक्षा पूर्णतः मुफ़्त करने, सबको पाठ्यपुस्तकें-कॉपियाँ उपलब्ध कराने तथा मिड-डे-मील मुहैया कराने की ज़रूरत है। (उच्च-न्यायालय में दाख़िल हलफ़नामे के अनुसार मिड-डे-मील के एवज़ में विद्यार्थियों के खातों में भेजने के लिए तय गई राशि शर्मनाक ढंग से मामूली है। इसके बदले हर पड़ोस/स्कूल में सभी बच्चों के लिए पके हुए भोजन की व्यवस्था की जाये एवं इच्छुक परिवारों के बच्चों के खातों में इसके विकल्प के तौर पर पोषणयुक्त आहार के लिए उचित राशि हस्तांतरित की जाये और उन्हें हाथ में नक़द लेने का विकल्प दिया जाये।) इसी तरह, विद्यार्थियों के निजी यंत्रों व उनके इस्तेमाल की लागत को देखते हुए उन्हें इसके लिए सहयोग राशि भी दी जानी चाहिए तथा अन्य वज़ीफ़ों का वक़्त से भुगतान सुनिश्चित किया जाना चाहिए। बैंकों में लगी लंबी लाइनों व विशेष पाबंदियों के संदर्भ में विद्यार्थियों/अभिभावकों को सीधे हाथ में नक़द लेने का विकल्प भी उपलब्ध होना चाहिए। संभव है कि छात्रों के ड्राप आउट की समस्या इसलिए भी बढ़े क्योंकि लॉकडाउन ने असंख्य परिवारों की आर्थिक स्थिति को डाँवाडोल कर दिया है और बेरोज़गारी की समस्या बढ़ी है। हमारी वर्तमान आर्थिक व्यवस्था के अंदर इस समस्या के इलाज के नाम पर मरहम-पट्टी तो संभव है लेकिन कोई दूरगामी सुधार संभव नहीं है क्योंकि यह पूंजीवादी व्यवस्था ही इस समस्या की जड़ है। Oxfam 2020 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में सबसे अमीर 1% के पास नीचे के 70% से चौगुना पैसा है। जब पूंजीवादी व्यवस्था का पूरा ढाँचा इस लूट और गैर-बराबरी पर खड़ा है तो गरीबी और बेरोज़गारी उन्मूलन की नीतियाँ भी इनके मुनाफ़े की दर को बनाए रखने के लिए बनाई जाएँगी, नाकि हमारे बहुजन विद्यार्थियों के जीवन की गुणवत्ता को ध्यान में रखकर।
9. ऑनलाइन/डिजिटल कक्षाओं के बारे में या इससे जुड़े जमा किये जा रहे सभी आँकड़े पारदर्शी ढंग से व बिना किसी दबाव/पूर्व-धारणा के दर्ज होने चाहिए। साथ ही, इनकी नियमित रपटें सार्वजनिक करके शिक्षकों व आमजन से साझा की जानी चाहिए ताकि हक़ीक़त सबके सामने रहे और नीतियाँ/निर्देश भी तथ्यों के आलोक में बनें/लागू किये जायें।
हम इस भूल को स्वीकारना व साझा करना चाहेंगे कि इस सर्वे में विशेष ज़रूरतों वाले बच्चों की समस्याओं से संबंधित सवाल नहीं जोड़ा गया था। लेकिन जिन बच्चों की समस्या के प्रति हमारे स्कूल संवेदनशील बनना अभी शुरु ही हुए थे, उनकी खबर तो ऑनलाइन 'शिक्षा' ने अभी लेना भी शुरु नहीं की है।
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