28 अगस्त को सार्ड (सोसाइटी फ़ॉर ऑल राउंड डेवलपमेंट) संस्था द्वारा एक विभागीय वेबिनार आयोजित किया गया। इस वेबिनार का विषय लाइफ़ स्किल्ज़ (जीवन कौशल) था। यह लगभग साढ़े तीन घंटे चला और इसमें संभवतः 500 के क़रीब शिक्षक 'शामिल' थे।
यह विषय पिछले एक-डेढ़ दशक से शिक्षा के औपचारिक क्षेत्र में काफ़ी स्थान बना चुका है। स्कूली शिक्षा के संदर्भ में इस पर नियमित रूप से सेमिनार कराये जाते रहे हैं। कई सरकारी रपटों व दस्तावेज़ों में इसे अहमियत दी गई है। असल में लाइफ़ स्किल्ज़ का पूरा विमर्श ही शैक्षिक रूप से संदिग्ध ज़मीन पर खड़ा है और इसके दर्शन व उद्देश्य सामाजिक चेतनापरक व परिवर्तनकामी शिक्षा के विपरीत हैं। हालाँकि आकादमिक जगत में इसकी विस्तृत आलोचना हो चुकी है, फिर भी हम यहाँ इस वेबिनार की प्रस्तुति के आधार पर इसकी एक सरसरी टिप्पणी करेंगे।
यहाँ यह कहना ज़रूरी होगा कि वेबिनार के विषय की राजनीति व उन व्यक्तियों के इरादों के बीच कोई सीधा व सरल संबंध निकालना ठीक नहीं होगा जिन्होंने इसे प्रस्तुत किया। जबकि यही उदारता हम आयोजकों या संस्था के प्रबंधन के प्रति नहीं बरत सकते। कम-से-कम एक प्रस्तुतकर्ता ने सामाजिक न्याय के आंदोलन की अग्रदूत सावित्रीबाई व फ़ातिमा शेख़ के सकारात्मक उदाहरण साझा किये, बग़ैर यह समझते हुए कि कैसे इनकी राजनीति लाइफ़ स्किल्ज़ जैसी सतही अवधारणा के पार ही नहीं जाती बल्कि उसे उलट देती है। इस नाते उनका सावित्रीबाई के संघर्ष से जाति के संदर्भ को पूरी तरह ग़ायब कर देना इसी नकारवादी वैचारिकता का परिचायक है।
प्रारंभ में कुछ ऐतिहासिक व्यक्तित्वों के चित्र प्रदर्शित किये गए जिनमें सावित्रीबाई फुले, मोहनदास गाँधी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, भगत सिंह, 'मदर' टेरेसा, सचिन तेंदुलकर, अब्दुल कलाम, पी.टी. उषा, कल्पना चावला शामिल थे। ज़ाहिर है कि इन्हें मशहूर या 'कामयाब' हस्ती की श्रेणी में एक साथ रखकर पिरोया गया था। आगे प्रस्तुतियों में भी इनका ज़िक्र इनकी 'कामयाबी' के सिलसिले में किया गया। थोड़ा विचार करने से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि यह एक लुभावना किन्तु अतार्किक व झूठा चित्रण है। इनमें से कुछ समाज और दुनिया को अधिक न्यायसम्मत बनाने की जद्दोजहद में लगे रहे तो कुछ ने अपने शौक़ और हुनर को साधने का रास्ता चुना। इन्हें एक जैसे आदर्श के उदाहरण मानना बेईमानी नहीं तो बेमानी ज़रूर है।
लाइफ़ स्किल्ज़ के केंद्रीय विचार, व्यक्तिगत सफलता को इस वेबिनार में भी प्रमुखता से पेश किया गया। 'सफलता' के ये आदर्श और इसके पैमाने - ख्याति, प्रतियोगिता के संदर्भ में नेतृत्व, बेतहाशा अमीरी हासिल करना आदि - लाइफ़ स्किल्ज़ के पूरे विमर्श को विरोधाभासी बनाते हैं। लाइफ़ स्किल्ज़ का पहला और आख़री पाठ है प्रतिस्पर्धा की भागम-दौड़ और आपाधापी में हार न मानना और हताश-निराश न होना, बल्कि देर-सवेर कामयाबी पाना। इस सबक़ में यह भुला दिया गया है कि जिस व्यवस्था के आधार में ही अलगाव हो उसमें अपने-अपने तनाव कम करने के मंतर सीखना अलगाव को स्वीकार करना ही है। बजाय इसके कि हम अपने तनावों से निपटने के एकाकी उपाय ढूँढें, शिक्षा का असल काम यह सवाल पूछना होना चाहिए कि आख़िर हमारी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था बेजा तनाव और अलगाव निर्मित करने के लिए अभिशप्त क्यों है। इस समस्या के सामूहिक उपाय की ओर बढ़ना ही शिक्षा का सही काम हो सकता है, नाकि अपने निज हित साधने का प्रशिक्षण देना। इस मायने में लाइफ स्किल्ज़ का विमर्श सामाजिक प्रतिबद्धता के बदले आत्म-केंद्रित विचार-चेतना प्रेरित करता है।
वेबिनार में मशहूर हस्तियों को कुशल व कामयाब नेतृत्व की मिसाल के तौर पर पेश किया गया। अव्वल तो यह पटल पर रखे गए उदाहरणों से ही मेल नहीं खाता क्योंकि रवीन्द्रनाथ जैसे मनीषी-कलाकारों ने ऐकला चलो का गान गाया जिसमें न किसी के पीछे चलना था और न ही किसी के आगे। जैसे एक स्वस्थ इंसान में नेतृत्व की कामना स्वाभाविक रूप से नहीं होती, उसी तरह एक स्वस्थ समाज में ऐसी ऊँच-नीच या प्रतियोगितावादी व सत्ताभिलाषी कामनायें नहीं होंगी जो कुछेक को कामयाबी और नेतृत्व सौंपें तथा बाक़ी को भीड़ में बदलकर हाशिये पर डाल दें। शिक्षा की नैतिक ज़िम्मेदारी ऐसे स्वस्थ इंसानों और एक स्वस्थ समाज का निर्माण करना है, बीमार समाज में फ़िट होने या उसका नेतृत्व करने के लिए बीमार इंसान तैयार करना नहीं। इस मायने में लाइफ़ स्किल्ज़ के नाम पर भगत सिंह, सावित्रीबाई, गाँधी और टैगोर जैसे लोगों के उदाहरण देना एक बौद्धिक छल है जिसके तहत इनकी प्रायः सर्वमान्य छवि को संकीर्ण विचारों के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
वेबिनार में दशरथ माँझी जैसे उदाहरणों को सतत संघर्ष के सुखद परिणाम की प्रेरणा के तौर पर पेश किया गया। ऐसी मिसालों को निश्चित ही राज्य-व्यवस्था की नाकामी और जवाबदेही पर पर्दा डालने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। एक स्तर पर चुनौतीपूर्ण व विकट परिस्थितियों में भी अपने जीवट से पार पाने वाले ये उदाहरण एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था को वैधता भी प्रदान करवाते हैं, कि देखो मेहनत व योग्यता बेकार नहीं जातीं, इनका मोल है। ये रूमानी और नायकवादी चित्रण न सिर्फ़ उत्पीड़ित व हाशियेकृत वर्गों के उन बहुसंख्यक सदस्यों के सतत, असफल जीवन-संघर्ष पर से हमारा ध्यान हटाने का काम करते हैं, बल्कि यह 'यथार्थवादी' संदेश भी देते हैं कि यह सामाजिक व्यवस्था तो यूँ ही अन्यायपूर्ण व विषमतापूर्ण रहेगी, हाँ आप अपनी चिंता कर सकते हैं, सो करें। हमें औरों से या इस बुरी व्यवस्था को इंसाफ़ के रास्ते पर लाने से मतलब नहीं रखना चाहिए, यही लाइफ़ स्किल्ज़ का अघोषित संदेश है। दूसरी तरफ़, लाइफ़ स्किल्ज़ के इन व्यक्तिवादी पाठों में सामूहिकता की ज़रूरत और उसकी ताक़त की हक़ीक़त को पूरी तरह नकार दिया जाता है। ऐसा करते हुए हम न केवल अलगाव के मानस को मज़बूत करते हैं, बल्कि वंचित-शोषित वर्गों की चेतना से उनकी मानवता व ताक़त भी ओझल करने की कोशिश करते हैं। यह शिक्षा का नहीं, कुशिक्षा का ही उद्देश्य हो सकता है।
अधिक स्थापित व्यक्तियों के अलावा वेबिनार में उभरते हुए अरबपतियों को भी आदर्श मिसाल की तरह पेश किया गया। जैसे कि अपार दौलत कमाना कोई शैक्षिक उद्देश्य या कसौटी हो। यहाँ तक कि सृजनशील चिंतन की वकालत भी यह करते हुए की गई कि एक शोध के अनुसार कॉर्पोरेट कंपनियाँ ऐसे व्यक्तियों को नौकरी पर रखना चाहती हैं, लेकिन वो उन्हें मिलते नहीं हैं! प्रकृति के विनाश, संसाधनों की लूट व इंसानी श्रम के दोहन से मुनाफ़ा कमाने वाली कंपनियों को कितनी तथा कैसी सृजनशीलता चाहिए, आज हमारे सामने यह कोई गूढ़ पहेली नहीं होनी चाहिए। इस पाठ में हम शिक्षकों को परोक्ष-प्रत्यक्ष रूप से यह समझाया गया कि हम अपने विद्यार्थियों को सृजनशीलता के अलावा अन्य लाइफ़ स्किल्ज़ में दीक्षित करें ताकि वो आगे चलकर कॉर्पोरेट दफ़्तर में नौकरी करने के क़ाबिल बनें तथा पूँजीपतियों की सेवा करें। जैसे कि यह हमारा आदर्श, विद्यार्थियों का सपना और शिक्षा का औचित्य हो। शायद वो यह भूल गए कि अभी हमने सृजनशीलता के मायने पलट नहीं दिए हैं और न ही पूँजी की चाकरी स्वीकार की है। यह पहचानते हुए कि लाइफ़ स्किल्ज़ का विमर्श शिक्षा के उदात्त आदर्शों के लिए घातक है और पूँजीवाद के नव-उदारवादी स्वरूप के दीक्षा-मंत्र का हिस्सा है, हम शिक्षकों को इसे बेपर्दा और खारिज करना होगा।
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