Tuesday, 13 October 2020

दान नहीं, सम्मान चाहिए, उपकार नहीं, अधिकार चाहिए !

  

दिल्ली सरकार के शिक्षा निदेशालय द्वारा जारी आदेश, जिसमें सरकारी स्कूलों को उन विद्यार्थियों के लिए निजी दानदाताओं से दान स्वीकार करने के लिए कहा गया है जो सीबीएसई फ़ीस नहीं दे पा रहे हैं, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का स्पष्ट आग़ाज़ है। इस ग़ैर-ज़िम्मेदाराना व अपमानजनक आदेश से यह भी साफ़ होता है कि स्कूली शिक्षा के संदर्भ में केंद्र सरकार एवं दिल्ली सरकार की नीतियों के बीच काफ़ी सामंजस्य है: मेहनतकश और वंचित-शोषित वर्गों के लिए अधिकार के बदले दान, कल्याणकारी राज्य के बदले पीपीपी (सार्वजनिक निजी साझेदारी)/सीएसआर (कॉर्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी) तथा आत्म-सम्मान व स्वाभिमान के बदले लाचारी और अहसान।    

एक ओर केंद्र सरकार शिक्षा उपकार के नाम पर जमा जनता के लाखों करोड़ रुपयों पर कुंडली मारकर बैठी ही नहीं सोई हुई है; दूसरी ओर शिक्षा बजट में भारी बढ़ोतरी करने का दम भरने वाली राज्य सरकार के पास घोर आर्थिक संकट झेल रहे परिवारों के बच्चों की फ़ीस माफ़ करने के लिए पैसे नहीं हैं। हालिया वर्षों में सीबीएसई के तौर-तरीक़ों को देखकर यह तय करना मुश्किल है कि ये एक अकादमिक संस्था है या पैसे ऐंठने वाला साहूकार। नाम आदि में सुधार हो या स्कूल में बदलाव या छूटी परीक्षा/वर्ष दोहराना, ऐसे तमाम कामों के लिए सीबीएसई की फ़ीस की सूची न केवल बोर्ड की व्यापारी गिद्ध-दृष्टि उजागर करती है, बल्कि भारत के आमजन की हक़ीक़त से आपराधिक स्तर पर असंवेदनशील है। वहीं, दिल्ली सरकार की शिक्षा बजट का ख़ासा हिस्सा सीसीटीवी, एनजीओ की सामग्री के प्रचार-प्रसार व ईएमसी-हैप्पीनेस जैसे हल्के, दिखावटी व शिक्षा-विरोधी कार्यक्रमों की भेंट चढ़ रहा है। ऐसे विद्यार्थी-विरोधी विश्वगुरु और शिक्षा की झूठी क्रांति का ढोल पीटने वालों से जनता को क्या लेना-देना! जिस शिक्षा नीति के दस्तावेज़ की प्रायोजित चर्चाओं में शिक्षा अधिकार अधिनियम को बारहवीं कक्षा तक बढ़ाने के जुमले प्रचारित किये जा रहे हैं, उसी की आहट-भर से स्कूली फ़ीस कई गुना बढ़ा दी जाती हैं। आत्मनिर्भरता की अपरिभाषित लफ़्फ़ाज़ी जनता के बीच फेंककर सरकारी (जनता के) स्कूलों को ख़ैराती स्थिति में ढकेल दिया जाता है। आज विद्यार्थियों की फ़ीस के लिए दान जमा करने को कहा जा रहा है। कल को यही नुस्ख़ा स्कूलों के भवनों, संसाधनों व कर्मचारियों की तनख़्वाहों के लिए भी पेश किया जायेगा।    

क्या अब सरकारें इस बात पर अपनी पीठ ठोकेंगी कि जनता के पैसों और संसाधनों को जनता के बच्चों की शिक्षा के लिए लौटाने के बदले उन्होंने 'बेचारे ग़रीब बच्चों' के लिए निजी दानदाताओं से चंदा इकट्ठा करने की नायाब प्रक्रिया लागू की है? क्या पता, कल को वो इन दानदाताओं के इस 'अहसान' के बदले हमें उनके समक्ष घुटने टेकने को मजबूर कर दें तथा सार्वजनिक स्कूलों में निजी हस्तक्षेप के अवसर बढ़ा दें!

हमें इन मॉडल नव-उदारवादी राज्यों के हथकंडों से, जो राज्य की जवाबदेही तो ढीली करते जा रहे हैं मगर विचार पर राज्य का शिकंजा कसते जा रहे हैं, आगाह होना व लड़ना होगा। सीबीएसई/शिक्षा मंत्रालय और दिल्ली सरकार तो बेशक शर्म नहीं करेंगे, इस चोरी और सीनाजोरी का मुँहतोड़ जवाब देने के लिए विद्यार्थियों और जनता को ही कमर कसनी होगी!

        सीबीएसई, विद्यार्थियों को प्रताड़ित करना बंद करो! 
        बारहवीं तक की शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा देकर शिक्षा मुफ़्त करो! 

Monday, 5 October 2020

डिजिटल-ऑनलाइन पढ़ाई के वायरस का एक्स-रे

 फिरोज़

आज कोरोनावायरस के नाम पर थोपे गए देशव्यापी 'लॉकडाउन' को 6 महीने से ज़्यादा का समय बीत गया है। प्रशासनिक भाषा में अब हम 'अनलॉक' की प्रक्रिया में हैं। इस प्रक्रिया के भी कुछ चरण ग़ुज़र चुके हैं, लेकिन देश की सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों ने अपनी असंवेदनशीलता और मूर्खता से आमजन की ज़िंदगी में जो त्रासदी उत्पन्न की थी उसके ख़त्म होने के आसार नज़र नहीं आ रहे हैं। जिन्हें आम लोगों की ज़िंदगियों तथा देश की सामाजिक-आर्थिक विविधता/विषमता के बारे में न कोई इल्म हो और न कोई फ़िक्र, ऐसे 'मज़बूत' सत्ताधारी ही ऐसा बर्बर व मनमाना फ़ैसला ले सकते हैं। ये बात अलग है कि स्वास्थ्य के राज्य-विषय होने के चलते व 1897 के महामारी संबंधी क़ानून तथा 2005 के आपदा प्रबंधन क़ानून के तहत भी ऐसा करने का कोई संवैधानिक आधार ही नहीं था। फिर राज्यों व स्वास्थ्य तथा अन्य विशेषज्ञों से सलाह-मशवरा करने की न्यूनतम लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ग़ुज़रना उनके व्यक्तित्व को शोभा नहीं देता। तो वही हुआ जो होना था - भुखमरी, काम-धंधे चौपट होना, ऐतिहासिक पलायन/विस्थापन, स्वास्थ्य सेवाओं का ठप हो जाना, पुलिसिया दमन, प्रशासनिक चालबाज़ी व ग़ैर-जवाबदेही। 


बिना इस बात को संज्ञान में लिए कि हर राज्य, हर ज़िले के हालात एक-से नहीं हैं, देशभर के स्कूल बंद कर दिए गए। उसके बाद, बिना इसका ख़याल करे कि देश की लगभग तीन-चौथाई आबादी डिजिटल उपकरणों व इंटरनेट के तारों से जुड़ी हुई नहीं है, सभी स्कूलों और विद्यार्थियों पर ऑनलाइन कक्षायें थोप दी गईं। कक्षाएँ शुरु करने के हफ़्तों बाद डिजिटल उपकरणों/इंटरनेट की उपलब्धता के बारे में सर्वे किये गए और दिशा-निर्देश जारी किये गए। मगर ये भी महज़ एक दिखावटी क़दम था क्योंकि इसके प्रकाश में विद्यार्थियों के हक़ में ज़मीन पर कोई मौलिक बदलाव नज़र नहीं आया। 8वीं कक्षा तक के विद्यार्थियों के संदर्भ में तो यह सीधा-सीधा शिक्षा अधिकार अधिनियम का उल्लंघन है क्योंकि उन्हें अपनी स्कूली पढ़ाई के लिए राज्य द्वारा दी जाने वाली अनिवार्य सहायता से वंचित करके अपने निजी ख़र्चे के सहारे छोड़ दिया गया। देश के अलग-अलग हिस्सों से डिजिटल उपकरणों की अनुपलब्धता के चलते पढ़ाई से वंचित हो जाने की पीड़ा और हताशा के नतीजतन विद्यार्थियों की आत्महत्याओं की ख़बरें आईं। कुछ उच्च-न्यायालयों में ऑनलाइन कक्षाओं के ख़िलाफ़ मुक़दमे दायर किये गए। विरोध के चलते कहीं राज्य सरकार ने ख़ुद इन कक्षाओं पर आंशिक रोक लगाई। दिल्ली उच्च-न्यायलय ने हाल ही में इन कक्षाओं के लिए विद्यार्थियों को ज़रूरी आर्थिक/सामग्री सहायता नहीं दिए जाने को क़ानून का उल्लंघन क़रार दिया, हालाँकि अख़बारों में इस फ़ैसले को निजी स्कूलों के आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के बच्चों के संदर्भ में ही अधिक व्याख्यायित किया गया। इतने अर्से में अधिकतर शिक्षक साथी व विद्यार्थी अपने अनुभव के आधार पर भी इस बात को पहचान चुके हैं कि इसमें निहित नाइंसाफ़ी के अलावा, ऑनलाइन पढ़ाई एक दोयम दर्जे की प्रक्रिया है। इधर विद्यार्थी अपनी आर्थिक परिस्थितियों के संकट के दौरान इस असंभव चुनौती से उपजे मानसिक तनाव का शिकार हो रहे हैं; उधर कभी न रुकने वाले डिजिटल संदेशों-आदेशों व त्वरित कार्यवाही की माँग के अधीन होकर शिक्षक अपने निजी जीवन, स्वास्थ्य, सुकून और न्यूनतम अधिकारों तक को खो रहे हैं। डिजिटल पढ़ाई की कामयाबी के झूठे आँकड़ों को पेश करने का प्रशासनिक दबाव इस क़दर हावी हो गया कि कुछ सार्वजनिक स्कूलों ने उन बच्चों को दाख़िला तक देने से मना कर दिया जिनके परिवार के पास स्मार्टफ़ोन नहीं था! तथ्यों व इंसाफ़ के उसूलों से परे जाकर डिजिटल-ऑनलाइन पढ़ाई को थोपने और कामयाब सिद्ध करने की इस ज़िद के चलते शिक्षा के अधिकार के बचे-खुचे दम का निकलना भी तय ही था। इन तमाम क़ानूनी व शैक्षिक विसंगतियों के बावजूद व्यवस्था बदस्तूर अपनी हाथी की चाल चली जा रही है। उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। सीबीएसई ने फ़ीस की माँग करके यह साफ़ कर दिया है कि चाहे कुछ हो जाये, उसे पैसे वसूलने से मतलब है और परीक्षायें वैसे ही कराई जाएँगी। विभिन्न परीक्षाओं को टालने की याचिकाओं पर सरकार व कोर्ट के अबतक के रुख़ ने भी यह साफ़ कर दिया है कि इंसाफ़ या बराबरी जैसे तुच्छ मूल्यों को देश के सुविधा संपन्न वर्गों के विकास तथा वैश्विक सूपरपॉवर बनने की महत्वाकांक्षा के रास्ते में आने नहीं दिया जायेगा। यह एक क्रूर विडंबना नहीं तो क्या है कि लक्षद्वीप जैसी जगहों के, जहाँ कोरोना के कोई प्रामाणिक केस नहीं हैं, सभी स्कूलों को जबरन बंद रखकर वहाँ के बच्चों का शिक्षा का अधिकार छीन लिया जाता है, मगर वंचित विद्यार्थियों की स्थिति से बेफ़िक्र होकर ऑनलाइन पढ़ाई को प्रामाणिक स्थापित करके शैक्षिक सत्र को नियमित परीक्षा तक अंजाम देने का फ़ैसला लिया जाता है! यानी सत्ता वंचित-शोषित वर्गों के बच्चों से साफ़तौर से कह रही है कि उन्हें तो अपनी पढ़ाई रोकनी होगी मगर उनका ख़याल रखने के लिए सुविधा संपन्न व शोषक वर्गों के बच्चों की पढ़ाई क़तई रोकी नहीं जाएगी। 

आख़िर क्या हो जाता जो बराबरी और इंसाफ़ की ख़ातिर सभी राज्य इस साल को ज़ीरो सत्र घोषित कर देते? जब सबके साथ एक जैसा बर्ताव होता तो सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावकों को भी अपने बच्चों के 'पिछड़' जाने का डर नहीं सताता। जब स्कूल खुलते तो सब बच्चे औपचारिक ढाँचे में उसी जगह होते जहाँ वो पहले थे। और कुछ नहीं तो इत्मीनान तो होता! सभी स्थानीय निकाय, राज्य और केंद्र बच्चों की सेहत पर पूरा ध्यान दे सकते थे। यह घोषित किया जा सकता था कि जिस भी तरह से और जो भी पढ़ाई होगी उसके आधार पर न ही मूल्याँकन किया जायेगा और न ही उसे पूर्ण माना जायेगा। इसे दोहराव एवं सुधार का सत्र घोषित किया जाता तो शैक्षिक सार्थकता भी होती और इंसाफ़ भी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी जिस अनुभवजनित अधिगम का जुमला इस्तेमाल किया गया है, ज़ीरो सत्र के संदर्भ में उसे पर्याप्त रूप से आज़माया व अपनाया जा सकता था - बच्चों से उनके अनुभवों को लेकर बातचीत की जाती और उसे संवेदना, सहानुभूति, समानुभूति व सामाजिक विश्लेषण के लिए प्रयोग में लाया जाता। सत्र ज़ीरो होता, शिक्षा नहीं। बल्कि सत्र व परीक्षा की सीमाओं से बाहर आकर वो गहरा जाती। मगर शायद यही तो उन्हें बर्दाश्त नहीं है। इसका क्या मतलब है कि जो राज्य सरकारें व केंद्र सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश व क़ानूनी बाध्यता के बावजूद स्कूली बच्चों को मिड-डे-मील तक मुहैया नहीं करा सकीं, वो ऑनलाइन कक्षाओं की चिंता में दिन-रात लगी रहीं? एक सीधा व बड़ा कारण शिक्षा से दूर, डिजिटल उपकरणों, इंटरनेट व डाटा कंपनियों के बढ़ते राजनैतिक शिकंजे तथा व्यापारी हितों में नज़र आता है। आज देश के मेहनतकश वर्ग को मजबूर किया जा रहा है कि वो अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए डिजिटल साधनों में निवेश/ख़र्चा करे, चाहे इसके लिए उसे अपना पेट काटना पड़े या उधार लेना पड़े। इसके बाद भी 'सफलता' की कोई गारंटी नहीं है। कुछ दिनों बाद शिक्षा के प्रति अपना समर्पण व जज़्बा साबित करने के लिए उससे एक नई माँग की जाएगी। शर्तें बदलती रहेंगी, बेदख़ली का नियम वही रहेगा। कभी सीधा प्रतिबंध, कभी अँगूठा काटने की दक्षिणा, कभी अनजान भाषा तो कभी 'बेजान' भाषा, कभी सुदूर संस्थान, कभी संस्थानों में अपमान, कभी ऊँची फ़ीस, कभी मूर्त-अमूर्त बलिदान। ऑनलाइन व डिजिटल पढ़ाई इस परंपरा का ताज़ा हथकंडा है। इसे ख़ारिज किये बिना शिक्षा आज सबकी मुक्ति का साधन नहीं बन सकेगी। 

पुनश्चः 
एक रेल है जिसे ए सी डिब्बों में बैठे कुछ लोग तेज़, और तेज़ दौड़ाना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें दूसरी रेलों से मुक़ाबला करना है, क्योंकि उन्हें तेज़ रफ़्तार में मज़ा आता है। इस रेल के कुछ डिब्बों में लोग बिना खाना-पानी के ठुँसे हुए हैं, उन्हें बीच-बीच में ए सी वाली सवारियों की सेवा के लिए बुलाया जाता है। कुछ लोग लटके हुए हैं और तेज़ गति के चलते अपना संतुलन खोकर गिर रहे हैं, मर रहे हैं। कुछ लोग बाहर, रास्ते में इंतज़ार कर रहे हैं मगर रेल उनके लिए रोकी नहीं जा रही है। कुछ चलती रेल में चढ़ने की कोशिश करने में अपनी निष्ठा प्रकट कर रहे हैं। इनमें से अधिकतर चढ़ नहीं पाते, कई मारे जाते हैं। जो चढ़ जाते हैं वो अपनी व नीचे रह गए दूसरों की नज़र में रेल की रफ़्तार और मंज़िल को जायज़ ठहराते हैं। रेल के ए सी डिब्बों में पहले-से बैठे लोग उन्हें बताते हैं कि वो भी एक दिन इसी तरह जद्दोजहद करके और जान की बाज़ी लगाकर चढ़े थे, जबकि सच तो यह है कि वो शुरु से ही वहाँ सवार हैं। कुछ सरफिरे रेल के रास्ते में आकर उसे रोकना चाहते हैं। इनमें से भी अधिकतर को रेल के नीचे कुचल दिया जाता है। वहीं कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इस रेल से कोई नाता नहीं रखना चाहते हैं, जोकि बस अपनी दुनिया में अमन-चैन से रहना चाहते हैं। मगर ये रेल इन्हें भी नहीं बख़्शती। इनके खेत-खलिहानों को रौंदती हुई, जंगल, पहाड़ों, नदियों से अपनी हवस मिटाती हुई, तबाही मचाते हुए, उन्हें उजाड़ते हुए ग़ुज़रती है। हमें इस दुष्ट रेल को रोकना होगा, इसकी रफ़्तार, दिशा और मंज़िल बदलनी होगी। हम अंदर ठुँसे, लटके, नीचे खड़े और रास्ता रोकना चाह रहे लोग ए सी डिब्बों में बैठे लोगों से कहीं ज़्यादा हैं, और एक हो जायें तो कहीं मज़बूत। हमें इसे अपने क़ब्ज़े में लेना होगा, इसका इंजन, इसके संचालक, इसकी संरचना को बदलकर इसे सबके लिए आरामदायक बनाना होगा। यह मद्धम चाल चलेगी, सबके लिए रुकेगी, किसी से होड़ नहीं करेगी, तो दुर्घटना भी नहीं होगी तथा पर्यावरण की क्षति भी न्यूनतम होगी। रही बात इसके अंदर की जगह की, तो ए सी डिब्बों को सुंदर, सर्वजन डिब्बों में बदलकर हमें पता चलेगा कि इसमें सबके लिए गरिमापूर्ण जगह है। हमें शिक्षा की अन्यायपूर्ण और विध्ध्वंसकारी रेल के भी नक़्शेक़दम को बदलकर उसे बराबरी, न्याय और मेल-मिलाप की ख़ूबसूरती पर लाना होगा। अन्यथा इस रेल का पटरी से पूरी तरह उतरना तय है।    

एक शिक्षक के 'लॉकडाउन' नोट्स

 फिरोज़

प्राथमिक शिक्षक

 कोरोनावायरस की महामारी और उसके नाम पर लागू किया गया 'लॉकडाउन' ऐसी परिघटनाएँ हैं जो हमारे काल के इतिहास को चिन्हित करेंगी। इनका राजनैतिक विश्लेषण हुआ है और आगे भी जारी रहेगा। मगर यहाँ एक शिक्षक होने के नाते मैं एक चश्मदीद गवाह के रूप में अपनी न्यूनतम भूमिका निभाने की कोशिश कर रहा हूँ। 'लॉकडाउन' के जिन दिनों मैं स्कूल में दी गई भोजन/राशन वितरण की ड्यूटी निभा रहा था, उन दिनों कुछ ऐसे विशिष्ट अनुभव हुए थे और आर्थिक-सामाजिक आयाम को दर्शाते कुछ ऐसे अवलोकन हुए थे जिन्हें दर्ज करने का फ़ैसला मैंने तभी कर लिया था। ऐसा नहीं है कि ये दृष्टान्त चौंकाने वाले हैं या कोई रहस्योद्घाटन करते हैं। मगर साधारण व सर्वज्ञात चीज़ों की गवाही भी एक ऐतिहासिक फ़र्ज़ है क्योंकि यह आने वाले समय को वर्चस्वशाली वर्गों के बयानों से अलग, हमारे समय की एक तरह से प्रामाणिक हक़ीक़त सौंपता है तथा हमें सामूहिक विस्मृति से बचाता है। उम्मीद तो यही है। इस दौरान कई साथियों से इनके बारे में बात भी की, इन्हें मौखिक रूप से साझा किया, मगर लिखना टलता गया। आज महीनों बीत जाने के बाद उन दिनों और हमारे सच को ज़िंदा रखने की लड़खड़ाती कोशिश करने बैठा हूँ।    


दिल्ली के एक नगर निगम स्कूल में शिक्षक होने के कारण मुझे 'लॉकडाउन' लागू होने के कुछ दिनों बाद ही स्कूल में ड्यूटी निभाने का मौक़ा मिल गया था। (इन नोट्स को लिखने में इतनी देर हो गई है कि अब पत्रकारों, शोधार्थियों एवं इतिहासकारों का पहला सबक़ कि आँखो-देखी को जल्द-से-जल्द दर्ज कर लेना चाहिए वरना स्मृति धोखा देने लगती है, मुझे मुँह चिढ़ा रहा है! इसलिए मैं ठीक से याद नहीं कर पा रहा हूँ कि ये दिन कितने थे। हालाँकि, स्कूल रिकॉर्ड से तो पता चल ही जायेगा।) आपदा-प्रबंधन की इस ड्यूटी को हाथों-हाथ लेने का मुख्य कारण मेरी सहूलियत और मेरा स्वार्थ ही था। बहुत-से लोगों की तरह मुझे भी घर पर क़ैद रहने के विचार से कोफ़्त हो रही थी। फिर मेरा घर मेरे स्कूल के बहुत पास है, पैदल की दूरी पर। चूँकि मेरे घर पर उन दिनों मेरे चचेरे भाई के सिवा कोई नहीं था, इसलिए भी मेरे लिए यह एक आसान निर्णय था। बाद में एक बड़ा कारण यह भी बना कि मुझे इस काम में लोगों से मिलने, उनसे राजनैतिक बात करने का मौक़ा भी दिखाई दिया और मैंने इसका थोड़ा-बहुत फ़ायदा भी उठाया। बल्कि, कुछ समय के बाद ही मुझे यह भी महसूस होने लगा कि मुझे इस तरह से 'पब्लिक डीलिंग' करना अच्छा लगता है, इसमें मैं लोगों से, ख़ासतौर से वृद्ध महिलाओं और बच्चों से, हल्की-फुल्की, हँसी-मज़ाक की बातें करके, उन्हें ख़ुश करके ख़ुश होता हूँ।  

शुरु-शुरु में मुझे स्कूल में बँट रहे पके भोजन के वितरण से जुड़ी ड्यूटी दी गई थी। ये भोजन दो वक़्त बँटता था लेकिन क्योंकि शाम में दूसरी पाली के स्कूल की ज़िम्मेदारी थी, इसलिए मैं सुबह 11 बजे के आसपास वाले वितरण में ही जाता था। इस पूरे विवरण में हमें याद रखना होगा कि ये अप्रैल, मई और जून की भीषण गर्मी के दिन थे। चूँकि हमारे स्कूली प्राँगण में हमारे स्कूल के अलावा दो स्कूल और चलते हैं, इसलिए दोनों वक़्त दो-दो स्कूल के हिसाब से भोजन आता था तथा साथ ही बँटता था। शायद आख़री कुछ दिन एक स्कूल के ज़िम्मे का भोजन बग़ल में स्थित उनके नए भवन के प्राँगण में बँटने लगा था। एक वक़्त में 300-300 के हिसाब से कुल मिलाकर 600 लोगों का आहार आता था। प्रायः 200-300 लोग 4-6 लाइनों में बँटकर लगते थे और भोजन वितरण 30-45 मिनट में समाप्त हो जाता था। अमूमन शाम (6-7 बजे) में भी सुबह वाले लोग ही आते थे। लगता था कि स्कूलों के आसपास की बस्तियों में रहने वाले ज़रूरतमंद लोगों ने अपने-अपने हिसाब से अपने भोजन-वितरण केंद्र तय कर लिए थे। जबकि अधिकांश समय ऐसा नहीं हुआ, लेकिन आख़ीर के कुछ हफ़्तों में यह सुनने-देखने में आया कि खाना लेने वालों की शिनाख़्त के लिए 'आधार' कार्ड व/या फ़ोन नंबर नोट किये जाने के निर्देश दिए गए हैं। इसमें भी हमारे स्कूल में प्रारंभिक काग़ज़ी खानापूर्ति के बाद कोई पाबंदी नहीं लगाई गई, न किसी को रोका-लौटाया गया। मुझे याद है कि लाइन में लगे कुछ लोग ऐसे थे जिनके पास फ़ोन नहीं था। अच्छी बात यह थी कि खाने की मात्रा को लेकर कोई सख़्त पाबंदी नहीं बरती जाती थी क्योंकि यह बात सहज ही समझ आती थी कि न सिर्फ़ कइयों ने सुबह का नाश्ता भी नहीं किया होगा, बल्कि एक व्यक्ति अपने परिवार के अन्य सदस्यों के हिस्से का भोजन भी तो ले जायेगा। लोग अपने बर्तनों में अपनी ज़रूरत/माँग के हिसाब से खाना ले जाते थे। कभी-कभी ज़रूर यह निर्देश सख़्ती से सुनाया जाता था कि पन्नी में खाना नहीं मिलेगा। बताया गया कि कोरोना की रोकथाम के मद्देनज़र यह निर्देश 'ऊपर' से प्राप्त हुआ है, मगर हमारे स्कूल में, लोगों की वास्तविक स्थिति देखते हुए, इस निर्देश को 'ऊपर-ही-ऊपर' उड़ा दिया गया। कई लोग, जिनमें बच्चे भी शामिल थे, निर्धारित वक़्त से एक घंटा पहले ही आकर लाइन में अपनी जगह 'रोक' लेते थे। काफ़ी लोगों को यह शिकायत थी कि हर रोज़ चावल-आधारित खाना ही मिलता था, रोटी का कोई इंतेज़ाम नहीं था। सब्ज़ी-फल तो भूल ही जाइये। शायद बाद में लोगों की संख्या कुछ कम हो जाने के पीछे यह भी एक वजह रही होगी। लाइन में लगने वालों में कुछ हमारे नए-पुराने स्कूली विद्यार्थी और उनके अभिभावक, मुख्यतः माताएँ, भी होती थीं। अधिकतर लोग नियमित रूप से आते थे। इनमें से ज़्यादातर लोग मेहनत-मज़दूरी करने वाले वर्ग से होते थे, हालाँकि कुछ ऐसे लोग भी आते थे जिनकी आर्थिक स्थिति बाहरी तौर से थोड़ी बेहतर दिखती थी। हमारे स्कूल के पड़ोस में दिल्ली सरकार के तीन स्कूलों के प्राँगण हैं। इन तीनों में भी लगभग उसी वक़्त खाना वितरित होता था मगर एक स्कूल में लोगों के ठहरने की व्यवस्था हो जाने के बाद वहाँ यह सिलसिला बंद हो गया। कुछ दिनों बाद यह भी पता चला कि आसपास स्थित इन स्कूलों में खाना बाँटने के वक़्त को कुछ आगे-पीछे कर दिया गया है। सुनने में आता था कि इन पड़ोस वाले दिल्ली सरकार के स्कूलों में व्यवस्था कुछ सख़्त थी। एक तो उनमें लाइन गेट के बाहर ही लगती थी, अंदर जाने से पहले मास्क आदि की जाँच होती थी, फिर अक़सर बच्चों को हतोत्साहित किया जाता था, पन्नी वर्जित थी और खाना भी सीमित मात्रा में मिलता था। इसीलिए उन स्कूलों के बाहर अक़सर, सड़क तक, बहुत लंबी लाइनें लगती थीं। आख़िर क्या वजह थी कि हमारे स्कूल में ऐसा नहीं था? सबसे अव्वल तो यह सुखद तथ्य कि निगम स्कूलों में दोपहर के समय चौकीदार गेट पर पहरेदारी नहीं करते हैं। तो लोग अपनी सुविधानुसार अंदर आने के लिए आज़ाद हैं/थे। इससे वो एक खुली जगह पर आराम से इधर-उधर बैठ पाते थे और लाइन में तभी लगते थे जब खाना बँटना असल में शुरु होता था। 'लॉकडाउन' के बीच यह एक ऐसी जगह थी जहाँ वो आराम से खुले में बैठ सकते थे। बारिश के दिनों में तो कुछ बच्चे-बच्चियाँ ख़ूब मज़े करते थे, धमा-चौकड़ी मचाते थे। हमारे स्कूल में शुरुआती हफ़्तों में पुलिस क्या, सिविल डिफ़ेंस के कर्मियों की भी तैनाती नहीं थी। इससे माहौल और भी तनावरहित व सुकून का बना हुआ था। बाद में, जब हमारे स्कूल में भी एक-दो पुलिस वाले तथा सिविल डिफ़ेन्स के 2 कर्मी नियमित रूप से आने लगे तो माहौल थोड़ा असहज हो गया। हालाँकि अधिक नियमितता से आने वाला पुलिस कर्मी स्वभाव से बहुत दबंग नहीं था फिर भी आमजन के प्रति उसकी भाषा व रवैया अनुदार ही था। लोगों को बेबात की नसीहत देना, डाँटना, उलाहना देना, ये सब यदाकदा प्रकट हो ही जाता था। मगर शिक्षकों की तरफ़ से कोई विशेष प्रोत्साहन व सहमति न मिलने के कारण वो अपना राउंड-सा लगाकर चला जाता था। वैसे, उसकी अधिक जवाबदेही वाली ड्यूटी शायद दिल्ली सरकार के पड़ोसी स्कूल में थी। हाथों में लकड़ी या डंडेनुमा कुछ पकड़े रहना, आते ही लोगों को बिना वजह डाँटने लगना, यह साफ़ था कि पुलिस का संविधान नाम की चीज़ में कोई प्रारंभिक प्रशिक्षण भी नहीं है जिससे वो लोगों को नागरिक के रूप में देखें। उनके लिए आम, मेहनतकश लोग कोई हैसियत नहीं रखते। वो सिर्फ़ फ़्री का पाने वाले, कामचोर हैं; जिनके ऊपर सरकार दया और अहसान कर रही है। संविधान चाहिए नागरिक बोध के लिए, मगर इंसानी बोध के लिए तो सभ्यता मात्र चाहिए! विडंबना तो यह है कि सरकार का वो घोर अपराध नज़र नहीं आता है जिसके परिणामस्वरूप लोगों के जीवन में आर्थिक संकट रूपी आपदा घिर आई, लेकिन संकट सहकर भी लाइन में चुपचाप खड़े लोग अपराधी लगते हैं! शायद सर झुकाकर खड़े रहना ही इनका अपराध है। सिविल डिफ़ेंस के दोनों कर्मियों से बाद में अच्छी दोस्ती हो गई थी क्योंकि एक तो वो लंबे समय तक ड्यूटी देते थे और दूसरे दबंगई के रंग में ढले न होने के कारण अभी उनकी नज़र पूरी तरह तंग नहीं हुई थी। हालाँकि, लोगों के प्रति उनका व्यवहार अच्छा था तथा उन्होंने कइयों की अपने स्तर पर मदद भी की लेकिन उनमें एक सरकारी/सामंती नज़रिया भी पैठा हुआ था। फिर भी, वक़्त के साथ उनकी भाषा भी अधिक उदार होती गई। यह बात रेखांकित करने योग्य है कि जब तक स्कूल में केवल शिक्षक व अन्य स्कूली स्टाफ़ इस व्यवस्था की ज़िम्मेदारी इकलौते रूप से संभालते रहे तब तक वो अधिक कोमल व लोकतांत्रिक बनी रही। कुल मिलाकर, हम शिक्षक व स्कूल के अन्य सभी कर्मी बिना पुलिस की उपस्थिति के अपना काम शानदार ढंग से ही कर रहे थे। मास्क और दूरी को लेकर कभी शिक्षक शिक्षकीय अंदाज़ में बोल भी देते थे, मगर उनकी भाषा और व्यवहार सहानुभूतिपूर्ण रहता था। एक अच्छी बात यह भी थी कि कुछ शिक्षकों की आपसी बातचीत में व्यक्त होने वाले अनुदार विचार भी व्यवहार में प्रकट नहीं हुए। उस दौरान मुझे शिक्षक साथियों के बीच होने पर जितनी ख़ुशी व गर्व हुआ उतना शायद कभी नहीं हुआ होगा। इसी तरह, लोगों की ज़रूरत के समय स्कूल का एक सहज-दोस्ताना रूप में उपलब्ध होना भी मेरे लिए पड़ोसी स्कूल की अवधारणा के प्रति गर्व का संदर्भ था। ये वो जगह थी और वो लोग थे जिनसे वो परिचित ही नहीं थे, बल्कि एक रिश्ते से जुड़े थे। एक पड़ोसी स्कूल में पुराने शिक्षक होने की भूमिका को लेकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई। एक जुड़ाव था जो साबित भी हुआ और मज़बूत भी। लोगों का आपसी व्यवहार भी बेहद संतुलित व ख़ुशनुमा था। स्थान या मात्रा को लेकर कभी किसी की लड़ाई नहीं हुई, किसी ने अपने बर्तन या झोले के स्थान को लेकर प्रतिद्वंद्वी दावा नहीं किया। जिन एक-दो दिन स्कूल में कुछ गहमा-गहमी हुई भी तो उसके पीछे गेट का देर तक बंद रहना व खाने का देर से आना था। उन दिनों भी वो महिलाओं का ही ग़ुस्सा था जो इस क़दर प्रकट हुआ कि डराने के लिए एक पुलिस की जीप आ गई। यहाँ यह भी दर्ज करना प्रासंगिक होगा कि चाहे वो पुलिस के ख़िलाफ़ ग़ुस्से का इज़हार करना हो या राज्य व देश के शीर्ष नेतृत्व को नाम लेकर कोसना, वो महिलायें ही थीं जिन्होंने 'लॉकडाउन' के दौरान और उसके बारे में अन्यत्र भी अपना रोष सार्वजनिक रूप से, निःसंकोच और मुखरता से प्रकट किया। उस इलाक़े में, उदाहरण के लिए हमारे पड़ोसी स्कूल के बाहर भी, स्कूलों में सार्वजनिक वितरण के अलावा निजी प्रयासों से भी पका भोजन बँटता था। शायद उस खाने की विविधता/नए स्वाद की वजह से कुछ लोग उधर भी लाइन लगाते थे। इनमें से ज़्यादातर प्रयास दिन के एक वक़्त तक सीमित थे और अपने काल तथा मात्रा को लेकर उतने व्यापक नहीं थे। इन स्थलों के आसपास दोने-पत्तलों-प्लास्टिक प्लेटों का कूड़ा भी बिखरा रहता था मगर प्रशासन की तरफ़ से इन्हें इस कारण या कोरोना संक्रमण के ख़तरे के नाम पर हतोत्साहित नहीं किया गया। इनमें से अधिकतर प्रयास इलाक़े के गली-मोहल्ले के लोग आपसी चंदे-सहयोग से कर रहे थे। एक-दो जगह पूछने पर पता लगा कि खाना महिलाएँ/हलवाई बनाते हैं और वितरण का काम पुरुष करते हैं। एक दिन मैंने पड़ोसी स्कूल के बाहर किसी हिंसक हिंदूवादी संगठन के पोस्टर वाली वैन भी देखी जिसपर कोरोना राहत सामग्री जैसा कुछ लिखा था। मेरे स्कूली साथी ने भी आरएसएस से जुड़ी एक संस्था द्वारा बहुत व्यवस्थित ढंग से ज़रूरतमंद परिवार को चिन्हित करके उसके घर तक राहत सामग्री पहुँचाने के कार्य का ज़िक्र किया। मैं जानता था/हूँ कि अनेकों प्रगतिशील व वामपंथी कार्यकर्ता भी, निजी व सामूहिक दोनों तौर से, राहत काम में, बिना प्रचार-प्रसार के, दिन-रात लगे थे।      

शुरु में तो हमारे स्कूल से प्रिंसिपल मैडम, सफ़ाई कर्मचारी, ऑफ़िस अटेंडेंट के अलावा एक-दो शिक्षक ही आते थे लेकिन कुछ दिनों बाद अन्य शिक्षकों की भी बारी-बारी से ड्यूटी लगा दी गई। हमारे साथ वाले स्कूल से भी उनके प्रिंसिपल व ऑफ़िस अटेंडेंट रोज़ आते थे, जबकि बाक़ी बारी-बारी से। खाना परोसने का काम वही महिलायें करती थीं जो स्कूल में मिड-डे-मील वितरण में लगी हुई थीं। उन्होंने लगभग डेढ़ महीने यह काम किया लेकिन उन्हें इसका मेहनताना नहीं मिला। स्कूल के ज़िम्मेदार लोग उन्हें बुलाते रहे और वो एक विश्वास में आती रहीं लेकिन अंततः सरकार ने उनसे बेगार कराया। अनुचित साबित हुई उम्मीद के पीछे एक कारण यह भी था कि यह भोजन वही संस्था पहुँचा रही थी जो स्कूल में मिड-डे-मील पहुँचाती है। तो हमने सोचा कि उनके भुगतान की संभावना ज़्यादा है। बीच-बीच में हम खाने की गाड़ी के साथ आने वाले आदमियों से इस बारे में पूछते भी रहते थे, मगर कई दिनों तक आश्वासन देते रहने के बाद अंततः उन्होंने भी असमर्थता जता दी। असल में आपदा प्रबंधन की अपारदर्शिता और तिलिस्म के पीछे हममें से कोई यह जान ही नहीं सका कि यह काम नियमानुसार किसके ज़िम्मे है, इसका भुगतान होगा तो कैसे और कौन करेगा आदि। अलग-अलग स्कूलों की स्थिति पता करने पर भी कोई स्पष्ट तस्वीर नहीं उभर रही थी। जब उन्हें और हमें भी यह साफ़ हो गया कि इस काम का भुगतान होने की कोई ठोस उम्मीद नहीं है तो उन्होंने आना बंद कर दिया तथा खाना अटेंडेंट, सफ़ाई कर्मचारी परोसने लगे। हालाँकि, दूसरे स्कूल में मिड-डे-मील का काम करने वाली दो महिलायें कुछ समय बाद तक भी आती रहीं। हमारे स्कूल की महिला कर्मियों का भुगतान स्कूल स्टाफ़ ने अपने स्तर पर किया। यह सरकार द्वारा अंजाम दी गई श्रम की खुली लूट थी। और, एक बार फिर, ठगे जाने वाली महिलायें थीं। इसी तरह, एक दिन अचानक पके भोजन का बँटना बंद हो गया। उस समय तक, पहले से कम लेकिन फिर भी कई लोग नियमित रूप से आ रहे थे। यह उनके साथ धोखा था। इनमें बच्चे भी थे। दो-चार दिन तक आने के बाद इन लोगों ने आना छोड़ दिया। दूसरे, 'लॉकडाउन' समाप्त या ढीला कर देने से लोगों का काम-धंधा और जीवन अगले ही पल से पूर्व की तरह 'सामान्य' तो नहीं हो गया। तो फिर, ऐसा निर्णय पूरी तरह जनविरोधी और ग़ैर-ज़िम्मेदाराना था। मुझे नहीं पता कि इस निर्णय तक पहुँचने में प्रशासन ने स्कूलों से माँगी गई दैनिक रपटों का कितना या कैसा इस्तेमाल किया। सभी स्कूलों में यह अंत एक-साथ नहीं आया।           

पका भोजन बँटना शुरु होने के क़रीब दो-चार हफ़्ते बाद हमारे स्कूल में कच्चा राशन वितरण केंद्र भी बन गया। यह दोपहर के स्कूल के ज़िम्मे था मगर इसमें भी हमने काम और वक़्त बाँट लिया। जब मैं इस काम में ज़िम्मेदारी निभाने लगा तो फिर पके हुए खाने की ज़िम्मेदारी से दूर होता गया। वैसे भी इस काम में वक़्त भी ज़्यादा लगता था और काग़ज़ी कार्यवाही भी ज़्यादा थी। शुरु में हम - मैं, प्रिंसिपल मैडम और दोनों ग़ैर-शैक्षणिक कर्मी - 11 बजे काम शुरु करते थे और दो-ढाई बजे तक, दोपहर के स्टाफ़ के आने तक काम करते थे। बाद में हमारा समय सुबह 9 बजे से हो गया और दो-तीन की टीम में बाक़ी शिक्षकों की भी ड्यूटी लगने लगी। इस राशन को लेने के लिए ग़ैर-कार्डधारकों को ऑनलाइन आवेदन करना था जिसके लिए स्मार्टफ़ोन के अलावा 'आधार' संख्या ज़रूरी थी। नतीजतन, एक ही प्राँगण में बँट रहे पके भोजन और राशन को लेने वालों की पृष्ठभूमि में फ़र्क़ साफ़ नज़र आता था। ऐसा नहीं था कि राशन लेने वाले बहुत सम्पन्न परिवारों से थे, मगर उनके वस्त्रों को देखकर तो यही लगता था कि वे बिलकुल निचले पायदान के लोग नहीं थे। ये वो लोग थे जिनके पास जानकारी थी, स्मार्टफ़ोन था या उस तक पहुँच थी। यक़ीनन ज़रूरतमंद थे, तभी यहाँ थे। फिर महज़ कुछ किलो गेहूँ-चावल प्राप्त करने के लिए उतनी गर्मी में, 3-3, 4-4 घंटे तक लाइन में लगने वाला हर इंसान ज़रूरतमंद ही था। कुछ शिक्षक साथियों व अन्य लोगों ने भी अलबत्ता उनको निशाना बनाते हुए तंज़ कसा जो बाइक या किसी अन्य गाड़ी में आते थे। मगर मेरा मानना था कि हमें इसे संकट व अनहोनी के जायज़ डर के रूप में ही देखना चाहिए। सरकारी दुष्प्रचार के चलते जिसमें 'आधार' से राशन बँटने का चालाकी भरा दावा किया गया था, कई ऐसे लोग भी आते थे जिन्हें इसकी ऑनलाइन प्रक्रिया का पता नहीं होता था। उन्हें लगता था कि महज़ 'आधार' कार्ड पेश करने से राशन मिल जायेगा। हमें उन्हें सच्चाई और निराशा से अवगत कराना होता था। हालाँकि बहुत बाद में विधायक कूपन के नाम से कुछ लोगों को ऑफ़लाइन कार्ड बाँटे गए जिनके पास घोषित तौर पर 'आधार' और/या फ़ोन नंबर नहीं था। इस कार्ड पर केवल एक व्यक्ति का राशन मिलता था। हमारे स्कूल में ऐसे कार्ड वाले ज़्यादा लोग नहीं आये - 40-50 से कम ही रहे होंगे। वैसे तो यह कोर्ट के निर्देशानुसार उठाया गया क़दम था जिसके तहत हर विधान सभा क्षेत्र में शायद ऐसे 2000 कूपन बँटने थे, लेकिन वितरित कार्डों की संख्या और उन तक पहुँच यक़ीनन विधायकों की सक्रियता पर निर्भर रही होगी। ऐसे कुछ-एक कार्डधारकों के बारे में हमें पता चला कि उनके पास 'आधार' व/या नियमित राशन कार्ड भी था मगर 'सही' जान-पहचान की वजह से उन्हें यह उपलब्ध हो गया था। शुरु में ज़्यादा भीड़ नहीं रहती थी मगर बाद में निर्धारित समय से घंटों पहले से ही लोग स्कूल में पहुँचने लगे और सैकड़ों लोगों की सर्पाकार लाइनें लगने लगीं। ऐसे में कभी-कभी शाम की पाली का वक़्त या अनाज ही ख़त्म हो जाता था और लोग लाइन में बचे रह जाते थे। उस समय बहुत कहा-सुनी होती थी। चूँकि हमारे पास कोई स्पष्ट निर्देश नहीं थे और इस वितरण में परिस्थितियाँ दिन-प्रतिदिन बदलती रहती थीं, इसलिए हमारी व्यवस्था भी तालमेल नहीं बिठा पाती थी। अव्वल तो जो डिजिटल तराज़ू हमें दिया गया था वो बार-बार रुक जाता था और इस तरह बहुत वक़्त ज़ाया हो सकता था। ऐसे में हमने दी गई दो बाल्टियों में एक किलो चावल व चार किलो गेहूँ के निशान लगा दिए। (प्रति व्यक्ति यही अनुपात था।) इससे काम सुगम और तेज़ हो गया। मगर इसमें समस्या यह थी कि अनाज निशान से ऊपर-नीचे हो जाता था और 15-20 दिनों पर मग-डिब्बे-बाल्टी टूट जाते थे। बहरहाल, इसके बावजूद कि एक-दो बार लोगों ने माप को लेकर घोर आपत्ति व्यक्त की, अपनी नीयत और जोश में हम काम चलाते रहे। शुरु में तो हमने लोगों से ई-कूपन की काग़ज़ी प्रति माँगी! कुछ दिनों में ही हमें अपनी ग़लती समझ आ गई और लोगों की शिकायत से समझा भी दी गई। जब लोगों को आने-जाने की मुश्किल हो, काम-धंधा चौपट हो, साइबर कैफ़े बंद हों और सबसे बढ़कर उनके फ़ोन में ही कूपन हो, तो फिर काग़ज़ माँगना बेवक़ूफ़ी भी थी और बदतमीज़ी भी। इस दौरान हमें एक दैनिक सूची मिलती थी जिससे हम कूपनधारकों के कूपन नंबर आदि का मिलान करते थे। बाद में यह सूची आनी बंद हो गई और प्रिंसिपल के फ़ोन पर एक ऐप डाउनलोड किया गया जिससे कूपन को स्कैन करने पर कूपन की बाक़ी जानकारी आ जाती थी। कुछ कमी हमारी थी तो कुछ बदलते और ग़लत निर्देशों की भी। एक दिन अचानक यह निर्देश जारी हुआ कि अमुक तारीख़ से पुराने कूपनों पर राशन नहीं मिलेगा। इससे लोगों में जायज़ ग़ुस्सा पैदा हुआ क्योंकि कुछ के कूपन ही बहुत देर में मिले थे, कुछ दूर रहते थे और कुछ जब समय से अये थे तो राशन नहीं था। बाद में इसमें कुछ ढील दी गई मगर फिर भी कुछ लोग अपने पिछले कूपन से राशन नहीं ले पाए क्योंकि एक तारीख़ के बाद वो स्कैन ही नहीं होता था। इस लाइन में भी स्कूल के पुराने विद्यार्थी, अपने परिवारजनों के साथ, नज़र आते थे। व्यक्तिगत रूप से तो इस काम के दौरान अपने सबसे पुराने विद्यार्थियों से मिलना मेरे लिए सबसे ज़्यादा ख़ुशी का मौक़ा था। इनमें से एक मेरा पहले बैच का, 20 साल पूर्व पढ़ाया हुआ, प्यारा विद्यार्थी भी था और उसके अगले बैच की प्यारी छात्रायें भी। वो लोग भी बेहद अपनेपन से मिले। यह रोचक था कि उन्होंने कोई अतिरिक्त सुविधा नहीं माँगी। बाद में मैंने सोचा कि हम स्कूल या किसी शैक्षिक संस्थान में नए-पुराने कर्मचारियों तथा उनके जान-पहचान वालों को भी जिस तरह से तरजीह देते हैं, फ़ायदा पहुँचाते हैं, उस तरह से नए-पुराने विद्यार्थियों से तो व्यवहार नहीं करते! उनके पढ़कर निकलने के पहले-ही हम उनसे उनकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति के अनुकूल दूरी बना चुके होते हैं। कई बार राशन ख़त्म होने के 5-5, 10-10 दिन तक राशन नहीं आया। लोग पूछने आते थे और हमें ख़ुद ही पता नहीं होता था कि राशन की अगली खेप कब आएगी। जब लाइन लंबी होती थी तो इस काम में सर उठाने तक की मोहलत नहीं मिलती थी। मुझे याद है, कई बार हमने अपनी पाली में 150 से ज़्यादा कूपनों पर राशन बाँटा था। उस दिन बड़ा सुकून मिलता था। मैं ज़्यादातर शीट में विस्तृत जानकारी दर्ज करने और हस्ताक्षर लेने का काम ही करता था। करते-करते इसमें रम गया था। हमने एक नियम-सा बना लिया था कि अगर उनके द्वारा पेश किये गए 'आधार' कार्डों में किसी की संख्या हमारे फ़ोन पर स्कैन होने पर आई पूर्व दर्ज संख्या से पूरी तरह नहीं ,मिलेगी तो हम उस सदस्य का राशन न दर्ज करते थे, न देते थे। कुछ समय बाद, दूसरे स्कूल में काम कर रहे साथियों से बात करके भी, महसूस हुआ कि यह एक तरह की जनविरोधी अफ़सरशाही है, मगर तब तक हमें लगा कि नियम को अब बदलना अन्याय होगा! बेशक, एक अन्यायपूर्ण प्रक्रिया को सुधारने के बदले हम उसे नियम की तरह निभाने की ग़लती करते रहे। लोगों के नामों की ग़लतियों पर हम ध्यान नहीं देते थे मगर मुझे याद है कि कूपन में कितने ही लोगों के नाम कुछ के कुछ चढ़ा दिए गए थे। शायद यह भाषा की जानकारी की कमी, साइबर कैफ़े वालों की लापरवाही और ऑटोस्पेल का मिलाजुला परिणाम था। हालाँकि, इस प्रक्रिया में मेरा सीधा दख़ल नहीं होता था और मेरे बाक़ी दोनों साथी ज़रा उदार रवैया रखते थे जिसे वो तब प्रदर्शित करते थे जब कोई परिवार के किसी सदस्य का 'आधार' कार्ड लाना भूल जाता था। असल में शुरु के दिनों में सिर्फ़ मुखिया के 'आधार' को मिलाने और नोट करने की प्रक्रिया निर्देशित की गई थी, मगर बाद में यह सभी सदस्यों के लिए करना पड़ा। इससे एक कूपनधारक पर लगने वाला वक़्त काफ़ी बढ़ गया। इसके उलट, शुरु में हम हस्ताक्षर करवाते थे, मगर बाद में संक्रमण के नाम पर उसे बंद कर दिया। ये सभी निर्देश देखादेखी और मौखिक ही लागू होते थे। मेरे अन्य साथियों की बदौलत एक अन्य मामले में हम अधिक न्यायपूर्ण थे। हम 'आधार' कार्ड की प्रतिलिपि जमा नहीं करते थे, सिर्फ़ उसके नंबर से मतलब रखते थे, चाहे वो उसे लिखकर लाये हों या व्हाट्सऐप पर मँगा लें। इसके अतिरिक्त भी मेरे दोनों नियमित साथी (और सिविल डिफ़ेंस कर्मी भी) लोगों की मदद करने को तैयार रहते थे - चाहे वो वृद्ध व्यक्तियों को लाइन में आगे लाना हो या किसी के ई-कूपन के लिए ऑनलाइन आवेदन करना या उनके कूपन से जुड़ी समस्या पहचानकर उन्हें समझाना या अन्य ज़रूरी जानकारी बाँटना। हमने किसी दबाव में काम नहीं किया। स्थानीय प्रतिनिधियों के परिचितों व कार्यकर्ताओं के शालीन दबाव को भी झेला मगर वितरण में समझौता नहीं किया। अगर कोई किसी की जान-पहचान का आता भी था तो हम कोशिश करते थे कि उसे लंच में राशन दे दें ताकि लाइन में लगे लोगों को आपत्ति न हो। हाँ, स्टाफ़ के एक-दो लोग जब ख़ुद राशन ले गए या अपने 'रसूख़' से उन्होंने किसी 'ज़रूरतमंद' को 'काम के बदले' राशन दिला दिया तो मैंने दबी ज़बान से विरोध बेशक दर्ज किया हो, मगर अपनी नज़र फेर ली। (स्कूल के इन कामों में ऐसे लोगों का नियमित-अनियमित सहयोग लिया जाता था/रहा है जो औपचारिक रूप से स्कूल की कर्मचारी नहीं थीं।) ये उस हल्की प्रवृत्ति का ही सबूत था जिसके तहत 'ताक़तवर' अपनी निजी मेहनत या पूँजी से नहीं, बल्कि सार्वजनिक कोष/सामग्री में से कमज़ोर को 'कुछ दिलाकर' अपनी सस्ती उदारता दिखाता है। इसके अलावा, राशन वितरण में सबसे दुखद अनुभव रहा दो-तीन बार किट का चोरी हो जाना। पहले महीने के बाद राशन के साथ प्रति परिवार एक किट भी मिल रही थी। इसमें तेल, दाल, नमक, साबुन, हल्दी आदि वस्तुएँ थीं। जब हम कूपन की प्रविष्टियाँ दर्ज कर लेते थे, उसके बाद उन्हें पहले किट दी जाती थी, फिर दूसरे कमरे में राशन। अधिकतर लोग किट लेकर राशन वाले कमरे के बाहर रख देते थे और राशन लेने अंदर चले जाते थे। जबकि बाहर भी अच्छी-ख़ासी भीड़ होती थी, फिर भी पता नहीं कैसे दो-तीन बार लोगों की किट कोई और लेकर चला गया। यह बहुत बुरा अनुभव था क्योंकि इससे जनता के बीच में आपसी अविश्वास का संदेश तो जाता ही था, हमारी अपनी कार्यकुशलता पर भी सवाल खड़ा होता था। इतनी मेहनत-मशक़्क़त करके किट से वंचित हो जाने का अन्याय तो था ही। इनमें एक दादी भी थीं जिनकी पोती को लेकर मैं उनसे एक ख़ुशनुमा हँसी-मज़ाक कर रहा था। बाद में, जब वो शिकायत करती हुई चली गईं, तो लगा कि हम उनके नुक़सान की भरपाई कर सकते थे। मुझे अपने हँसी-मज़ाक को लेकर अपराधबोध भी हुआ। मगर तब तक देर हो चुकी थी, वो जा चुकी थीं। बहुत से परिवार ऐसे भी थे जिन्हें किट मिली ही नहीं। वैसे तो ऐसे परिवार अपवाद स्वरूप ही थे जिन्हें तीनों महीने राशन मिला हो। किसी-किसी परिवार का कूपन उनके घर से दसियों मील दूर के केंद्र का भी आ जाता था। सीमित राशन के लिए, बिना सार्वजनिक वाहन की सुविधा के और पुलिसिया कहर के माहौल में, इतनी दूर के केंद्र देना एक भद्दा मज़ाक ही था।  

इस दौरान मैंने स्कूल में कुछ छोटे-बड़े पोस्टर भी लगाए थे जिनमें आपदा क़ानूनों, राशन प्रणाली, कोरोना के आँकड़ों, अफवाहों-पूर्वाग्रहों के नकार की जानकारियाँ पेश की गई थीं। यह कहना मुश्किल है कि कितने लोग इन्हें पढ़ते थे या समझते थे। एक काम जिसपर मैंने कई बार विचार किया मगर अमल में नहीं ला सका वो था राशन की उपलब्धता के बारे में अपने स्तर पर प्राँगण में सार्वजनिक सूचना मुहैया कराना। इससे लोगों को जानकारी भी मिलती, उनका विश्वास भी बढ़ता और ये क़ानूनन भी ज़रूरी था। लेकिन आपसी तालमेल की कमी और कुछ मेरी अपनी लापरवाह कार्यशैली के चलते यह हो नहीं पाया। जब हमारी पाली ख़त्म होती थी तो इंतज़ार कर रहे लोगों से बात करने का समय भी मिलता था। ये सब बहुत रोचक व ऊर्जा देने वाला अनुभव था। अधिकतर लोग ग़ैर-बराबरी के सवाल पर सहमत होते थे, वरना उनकी चुप्पी भी उनकी सोच की दिशा बताती थी। पहली बार मैंने आम लोगों को - जिनमें महिलायें भी थीं - सार्वजनिक रूप से भगवान पर सवाल उठाते, शंका करते सुना। 

एक रोचक तथ्य यह था कि शिक्षकों के बीच और व्यापक समाज में भी इस बात को लेकर तो बड़ा महिमामंडन था कि कोई शिक्षक रोज़ स्कूल आ रहा है, लेकिन प्रिंसिपल व सफ़ाई कर्मचारी के रोज़ आने को लेकर कोई समतुल्य भाव नहीं था। जबकि हमारे स्कूल के संदर्भ में तो प्रिंसिपल मैडम कई हफ़्तों तक, उस गर्मी में, अपने घर से स्कूल तक की और वापसी की भी 3 किलोमीटर की दूरी पैदल ही तय करती थीं। मेरा घर तो बग़ल में ही था, फिर भी मैं 'लॉकडाउन' में ड्यूटी के आदेश की चिट्ठी जेब में रखता था। कई लोग बताते थे कि शुरु-शुरु में पुलिस और पुलिस से भी ज़्यादा सशस्त्र बलों के जवान राशन लेने जा रहे लोगों तक को रोककर वापस भेज देते थे। वो कुछ नहीं सुनते थे। हमारे स्कूल के सफ़ाई कर्मचारी ने भी बताया कि कोरोना की ड्यूटी का पत्र दिखाने पर भी उसके मोहल्ले के आसपास तैनात जवान उसे जाने नहीं देते थे तथा उसे इधर-उधर के रास्तों से होकर आना पड़ता था। हालाँकि, वक़्त के साथ ये मनमर्ज़ी की रोकाटोकी कम होती गई।      

अब मैं उन तीन प्रसंगों का ज़िक्र करूँगा जिन्हें साझा करने के विचार ने मुझे इस गवाही को दर्ज करने की प्रारंभिक प्रेरणा दी। 

यह पके भोजन के वितरण के शुरुआती दिनों की घटना है। कुछ मज़दूर एक पड़ोसी बस्ती में किराये पर रह रहे थे और घर (बिहार) जाने का इंतेज़ाम होने तक के लिए राशन आदि की मदद ढूँढ रहे थे। इनमें दो महिलायें भी थीं और दो-चार छोटे बच्चे भी। एक दोस्त ने इनका संपर्क दिया था, तो मैंने यह सोचकर उन्हें स्कूल बुलाया था कि उनके ई-कूपन भी साथियों की मदद से भर दिए जायेंगे। इस सिलसिले में वो 8-10 लोग एक-दो बार स्कूल आये थे। ऐसे ही एक दिन, जब मैं उनसे स्कूल के बाहर बात कर रहा था तो उसी इलाक़े में रहने-कमाने वाली एक परिचित महिला हमारे पास आकर खड़ी हो गई। वो हमारे स्कूल के बाहर बच्चों के खाने की चीज़ें बेचती रही है और बड़े अधिकार और अपनेपन से स्कूलों में आती रहती है। अचानक, बिना किसी संदर्भ या संकेत के, वो उन्हें संबोधित करके बोल पड़ी, ''तुम लोग मुसलमान तो नहीं हो! दूर [खड़े] हो जाओ सर से, इन्हें कोरोना लगा दोगे।'' मैं स्तब्ध रह गया मगर मैंने फ़ौरन ही उसे डाँटा कि वो इस तरह की ग़लत बात बोलकर पहले-ही परेशान लोगों को और दुखी कर रही है। शायद वो थोड़ी-ही देर में चली गई थी। हम भी ज़्यादा देर नहीं रुके होंगे। उनमें से कोई आदमी कुछ नहीं बोला। वो सुनकर ख़ामोश रह गया। मुझे नहीं याद कि मैंने उन्हें क्या समझाया या कोई दिलासा दिया या नहीं। अगले दिन उस महिला ने मुझसे माफ़ी माँगी। उसने मुझे बताया कि उसकी बेटियों ने भी, जो 4-6 साल पहले हमारे स्कूल से पढ़कर निकली थीं और अभी सीनियर सेकेंडरी स्कूल में पढ़ रही थीं, उसे उसकी ग़लती का अहसास कराया था। उसके बाद उसने बताया कि वो बहराइच की रहने वाली है और वो लोग वहाँ की मशहूर दरगाह पर होने वाले सालाना उर्स में बहुत चाव से हिस्सा लेते हैं, कुएँ से पानी निकालते हैं, सफ़ाई करते हैं आदि। यह दरगाह उन्हीं मसूद ग़ाज़ी की है पिछले कुछ वर्षों से जिनके ख़िलाफ़ दक्षिणपंथी लेखक, फ़िल्मकार व प्रचारक इतिहास-संबंधी क़िस्से और लोकप्रिय विमर्श में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण फैलाते रहे हैं। हालाँकि वो महिला ख़ुद को भाजपा की कार्यकर्ता बताती है और पार्टी के स्थानीय नेताओं से अपने परिचय का ज़िक्र करती रहती है, मुझे उसकी बातों में कोई झूठ या बनावटीपन नहीं लगा। बल्कि उसके बाद भी कई बार वो इस दरगाह और उर्स का इज़्ज़त तथा आत्मीयता से ज़िक्र करती रही है। असल में वो एक ऐसी महिला है जो, पति की अनियमित व असहयोगी मौजूदगी में, मेहनत और तिकड़मों से अपनी बेटियों को पाल और पढ़ा रही है। तब्लीग़ी जमात को लेकर उसने मुसलमानों के बारे में जो सुना वो उसके सीधे-सरल दिमाग़ ने दोहरा दिया। अच्छी बात यह है कि मेरे द्वारा बार-बार टोके जाने पर अब उसने हिंदू-मुस्लिम वाली टिप्पणियाँ (जिनमें वो अधिकतर मुसलमानों की ही श्रेष्ठता साबित करती रहती है/थी!) और स्थानीय वर्चस्वशाली जातिगत वर्ग (त्यागी) के प्रति (जिसके एक-दो परिवारों के किरायेदार के रूप में उसका अनुभव अच्छा नहीं रहा है) सामूहिक आलोचना करनी काफ़ी कम कर दी है। दूसरा, चिंताजनक पक्ष यह भी है कि साम्प्रदायिकता का झूठ फैलकर इतना आम हो गया है कि एक सीधी-सादी, मेहनतकश, ग़ैर-साम्प्रदायिक महिला भी सहज रूप से उसकी भाषा बोलने लगती है। जबकि एक हक़ीक़त ये भी है कि तब्लीग़ी जमात के ख़िलाफ़ चले प्रारंभिक दुष्प्रचार के फ़ौरन बाद वाले एक दिन को छोड़कर, जब मैंने स्कूल के बाहर बैंक के ग्राहक सेवा केंद्र के बाहर लगी लाइन में खड़ी एक महिला को उनपर दिल्ली में केस बढ़ाने का दोष मढ़ते हुए सुना, मैंने इन तीन-चार महीनों में, स्कूल के एक कर्मचारी को छोड़कर स्टाफ़ या राशन लेने आये किसी भी व्यक्ति के मुँह से साम्प्रदायिक टिप्पणी नहीं सुनी। हालाँकि, एक सच यह भी है कि इलाक़े में जिस अनुपात में मुस्लिम पृष्ठभूमि के लोग रहते हैं और जो पहनावा उनमें से कुछ अपनाते हैं, दो-तीन महीनों तक उस अनुपात में और उस पहचान को उजागर करने वाली वेशभूषा में लोग बाहर, राशन-भोजन की लाइनों में नज़र नहीं आये।

दूसरी घटना राशन वितरण के शुरुआती दिनों की है। उन दिनों ज़्यादा भीड़ नहीं होती थी। कभी-कभी कोई ऐसा व्यक्ति राशन माँगने आ जाता था जिसके पास कूपन नहीं होता था। मैं अफ़सरशाही वाली नैतिकता दिखाते हुए उनके सामने अपनी विवशता जता देता था। कभी किसी की निजी मदद भले ही कर दी हो, मगर बिना प्रक्रिया के राशन नहीं दिया, दिल पर पत्थर रख लिया। एक दिन एक बूढ़ी औरत आई। सत्तर-अस्सी के बीच की रही होंगी, हाथ में लाठी, आँखों पर चश्मा, भाषा में ठेठपन। राशन के लिए बहुत ही प्यार से दो-चार बार बोलीं। मैंने सार्वजनिक और निजी का वही भेद बताते हुए मना तो कर दिया लेकिन काम में लगा होने के चलते सोचा कि बाद में इनसे बात करूँगा। इस बीच वो अपनी पारिवारिक मजबूरी और घर की दूरी का हवाला देती रहीं। थोड़ी देर बैठने के बाद जब उन्हें अहसास हो गया कि मैं तठस्थ हूँ तो उन्होंने एक बार फिर आग्रहपूर्वक पूछा तथा इंकार सुनकर उठकर चल दीं। मैं उनके स्कूल के गेट से बाहर हो जाने का इंतज़ार करके उनके पीछे गया और उनसे खेद व्यक्त करते हुए उनकी निजी मदद करने की पेशकश की। उन्होंने, यह कहते हुए कि उन्हें पैसा नहीं सरकारी अनाज चाहिए, उसी प्यार से उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया जिस प्यार से वो सरकारी अनाज माँग रही थीं। उनके लिए अगर वो अनाज सरकारी था तो उसपर उनका सहज और जायज़ हक़ था, इसमें प्रक्रिया के रूप में 'आधार' और स्मार्टफ़ोन की शर्त कहाँ से आ गई! मुझे महसूस हुआ कि वो उस समय, संस्कृति और समझ से संबंध रखती हैं जिसमें सार्वजनिक सहायता सरकार की ज़िम्मेदारी है और उनके जैसे आम लोगों का हक़। और उनसे कहीं कम उम्र के कई लोगों से, जो राशन वितरण को एहसान की तरह ले रहे थे, बात करते हुए मुझे लगा कि वो समय बीता जा रहा है। अफ़सोस कि मुझमें उनके घर का पता पूछकर नोट करने तक की समझदारी नहीं थी। मैं उन्हें जाते हुए देखता रहा और वापस अपनी कुर्सी पर आकर काम करने बैठ गया। 

अंतिम घटना राशन वितरण के लगभग अंतिम चरण में हुई थी। जैसा कि मैंने कहा, हम जोश और नीयत के आधार पर काम कर रहे थे। ये नाकाफ़ी ही नहीं, ख़तरनाक भी था। बाल्टियों में अनाज भरने के लिए हमने मग्गे व डिब्बे इस्तेमाल किये थे। इनपर निशान बने थे मगर ये टूटते रहते थे और हमें दूसरी पाली की टीम के साथ तालमेल बनाकर ही काम करना था। इसलिए भी क्योंकि असल में राशन वितरण के लिए औपचारिक रूप से वो ही ज़िम्मेदार थे। वो लोग थोड़ा देर से आते थे और संभवतः लोगों के प्रति उनका जुड़ाव भी उतना उम्दा नहीं था। कभी-कभार उनसे फ़ोन पर बात होती थी, वरना सामान्यतः तो हमारी मुलाक़ात होती ही थी। बीच में कोई बर्तन टूट जाता था तो वो नया इस्तेमाल करना शुरु कर देते थे। एक बार एक नया मग इस्तेमाल में तो आया मगर उसमें चावल कितना आएगा इसे लेकर सूचना का सटीक आदान-प्रदान नहीं हुआ। मुझे लगा कि इस मग में एक किलो चावल नहीं आ रहा है, लेकिन, कुछ लोगों के मुलायम ऐतराज़ के बीच, हम 2-3 दिन उसी मग से चावल बाँटते रहे। फिर एक दिन हमें, याद नहीं किस तरह, यह अहसास हुआ कि इस ग़लती को सुधारा जाये तो हमने नया डिब्बा काम में लेकर उसपर निशान बना दिया। बाद में, निशान के चलते होने वाली शिकायतों के चलते, हमने उस डिब्बे को उस निशान तक काटकर 'समाधान' कर लिया। एक दिन कुछ लोगों ने घोर ऐतराज़ जताया और हमपर चोरी-धोखाधड़ी का इल्ज़ाम लगाया। उनमें से कुछ लोग स्थानीय मुहल्लों की समितियों के सदस्य थे, कोई ख़ुद को पत्रकार बता रहा था। उन्होंने कहा कि वो बाहर राशन तौलकर देख रहे हैं और वो बहुत कम निकल रहा है। उस दिन जो तीन शिक्षिकायें आई थीं, वो इस बात को नहीं समझ पाईं और उनमें से दो ने यह कहकर काम रोक दिया कि वो इस ख़तरनाक माहौल में काम नहीं कर सकतीं। इत्तेफ़ाक़ से, उस दिन राशन मैं मापकर दे रहा था! जब लाइन में उत्तेजना फैली तो बाक़ी लोग ऑफ़िस में चले गए और मैं राशन के पास रह गया। किसी ने मुझसे पुराने मग को लेकर आरोपनुमा सवाल पूछने शुरु किये और फ़ोन पर वीडियो बनाने लगा। मेरे चारों ओर भीड़ जमा हो गई थी। मैं भी जो बन पड़ा बोलता गया। हाँ, उस माहौल में भी कुछ लोग हमसे सहानुभूति रख रहे थे, मगर यह कहकर कि चोरी तो ऊपर वाले करते हैं! किसी ने शायद पुलिस बुला ली थी मगर जो पुलिस वाला आया उसने कोई ख़ास भूमिका नहीं निभाई, बस हल्की सी पूछताछ करके और हिदायत देकर चला गया। हमारे स्कूल की तराज़ू ख़राब थी और इतने हफ़्तों से हमने इधर-उधर की और मुख्यतः आपस में ही मौखिक शिकायत करने के अलावा उच्चाधिकारियों को औपचारिक शिकायत या माँग की एक भी अर्ज़ी नहीं दी थी। हमने उसी भवन में चलने वाले दूसरे स्कूल के ऑफ़िस में रखी इलेक्ट्रॉनिक तराज़ू का सहारा लिया और एक वरिष्ठ शिक्षिका ने उन दो-चार लोगों को अंदर आकर देखने के लिए आमंत्रित किया। सबने देखा कि गेहूँ वाली बाल्टी तो लगभग सही थी, और चावल का नया डिब्बा भी लबालब भरने पर सही वज़न देता था, मगर पुराना मग सचमुच 250 ग्राम तक छोटा था। हमने अपनी ग़लती मानी, उसका कारण भी बताया और शिकायतकर्ताओं की कमी पूरी की। पता नहीं कैसे, वो वीडियो आगे नहीं बढ़ा! नहीं तो सच हमारे साथ होते हुए भी हमारे साथ नहीं था। मुझे समझ में आया कि एक समझदार कारीगर पहले सभी ज़रूरी और सटीक औज़ारों की माँग करता है, उसके बाद काम शुरु करता है। यह एक समझदार व क़ाबिल कारीगर का हक़ ही नहीं, उसके काम की ज़रूरत भी है।