Tuesday, 13 October 2020

दान नहीं, सम्मान चाहिए, उपकार नहीं, अधिकार चाहिए !

  

दिल्ली सरकार के शिक्षा निदेशालय द्वारा जारी आदेश, जिसमें सरकारी स्कूलों को उन विद्यार्थियों के लिए निजी दानदाताओं से दान स्वीकार करने के लिए कहा गया है जो सीबीएसई फ़ीस नहीं दे पा रहे हैं, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का स्पष्ट आग़ाज़ है। इस ग़ैर-ज़िम्मेदाराना व अपमानजनक आदेश से यह भी साफ़ होता है कि स्कूली शिक्षा के संदर्भ में केंद्र सरकार एवं दिल्ली सरकार की नीतियों के बीच काफ़ी सामंजस्य है: मेहनतकश और वंचित-शोषित वर्गों के लिए अधिकार के बदले दान, कल्याणकारी राज्य के बदले पीपीपी (सार्वजनिक निजी साझेदारी)/सीएसआर (कॉर्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी) तथा आत्म-सम्मान व स्वाभिमान के बदले लाचारी और अहसान।    

एक ओर केंद्र सरकार शिक्षा उपकार के नाम पर जमा जनता के लाखों करोड़ रुपयों पर कुंडली मारकर बैठी ही नहीं सोई हुई है; दूसरी ओर शिक्षा बजट में भारी बढ़ोतरी करने का दम भरने वाली राज्य सरकार के पास घोर आर्थिक संकट झेल रहे परिवारों के बच्चों की फ़ीस माफ़ करने के लिए पैसे नहीं हैं। हालिया वर्षों में सीबीएसई के तौर-तरीक़ों को देखकर यह तय करना मुश्किल है कि ये एक अकादमिक संस्था है या पैसे ऐंठने वाला साहूकार। नाम आदि में सुधार हो या स्कूल में बदलाव या छूटी परीक्षा/वर्ष दोहराना, ऐसे तमाम कामों के लिए सीबीएसई की फ़ीस की सूची न केवल बोर्ड की व्यापारी गिद्ध-दृष्टि उजागर करती है, बल्कि भारत के आमजन की हक़ीक़त से आपराधिक स्तर पर असंवेदनशील है। वहीं, दिल्ली सरकार की शिक्षा बजट का ख़ासा हिस्सा सीसीटीवी, एनजीओ की सामग्री के प्रचार-प्रसार व ईएमसी-हैप्पीनेस जैसे हल्के, दिखावटी व शिक्षा-विरोधी कार्यक्रमों की भेंट चढ़ रहा है। ऐसे विद्यार्थी-विरोधी विश्वगुरु और शिक्षा की झूठी क्रांति का ढोल पीटने वालों से जनता को क्या लेना-देना! जिस शिक्षा नीति के दस्तावेज़ की प्रायोजित चर्चाओं में शिक्षा अधिकार अधिनियम को बारहवीं कक्षा तक बढ़ाने के जुमले प्रचारित किये जा रहे हैं, उसी की आहट-भर से स्कूली फ़ीस कई गुना बढ़ा दी जाती हैं। आत्मनिर्भरता की अपरिभाषित लफ़्फ़ाज़ी जनता के बीच फेंककर सरकारी (जनता के) स्कूलों को ख़ैराती स्थिति में ढकेल दिया जाता है। आज विद्यार्थियों की फ़ीस के लिए दान जमा करने को कहा जा रहा है। कल को यही नुस्ख़ा स्कूलों के भवनों, संसाधनों व कर्मचारियों की तनख़्वाहों के लिए भी पेश किया जायेगा।    

क्या अब सरकारें इस बात पर अपनी पीठ ठोकेंगी कि जनता के पैसों और संसाधनों को जनता के बच्चों की शिक्षा के लिए लौटाने के बदले उन्होंने 'बेचारे ग़रीब बच्चों' के लिए निजी दानदाताओं से चंदा इकट्ठा करने की नायाब प्रक्रिया लागू की है? क्या पता, कल को वो इन दानदाताओं के इस 'अहसान' के बदले हमें उनके समक्ष घुटने टेकने को मजबूर कर दें तथा सार्वजनिक स्कूलों में निजी हस्तक्षेप के अवसर बढ़ा दें!

हमें इन मॉडल नव-उदारवादी राज्यों के हथकंडों से, जो राज्य की जवाबदेही तो ढीली करते जा रहे हैं मगर विचार पर राज्य का शिकंजा कसते जा रहे हैं, आगाह होना व लड़ना होगा। सीबीएसई/शिक्षा मंत्रालय और दिल्ली सरकार तो बेशक शर्म नहीं करेंगे, इस चोरी और सीनाजोरी का मुँहतोड़ जवाब देने के लिए विद्यार्थियों और जनता को ही कमर कसनी होगी!

        सीबीएसई, विद्यार्थियों को प्रताड़ित करना बंद करो! 
        बारहवीं तक की शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा देकर शिक्षा मुफ़्त करो! 

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