Friday, 20 November 2020

Resolution regarding CBSE examination fees


सीबीएसई ने 2019-20 में कक्षा 9वीं और 12वीं के छात्रों की परीक्षा शुल्क में ज़बरदस्त वृद्धि की थी। यदि छात्रों को 2014-15 में 125 / 250 रु का भुगतान करना था, तो 2020-21 में उनसे 1500+ रुपये मांगे गए। SC / ST पृष्ठभूमि के छात्रों के लिए यह फीस 50 रु (2017-18) से बढ़ाकर 1200 रु कर दी गई। इस साल वैसे ही लोग 'कोरोना-लॉकडाउन' से उपजे वित्तीय संकट से ग्रस्त थे, ख़ासकर मजदूर वर्ग के परिवार और सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले उनके बच्चे। ऐसे में इस फ़ीस वृद्धि ने उनकी क़मर ही तोड़ दी। बिगड़ी स्थिति के बावजूद, इस साल न तो राज्य या केंद्र सरकार ने छात्रों को कोई रियायत/सहायता दी और न ही फ़ीस माफ़ की। नतीजतन, परिवारों को अपने बच्चों का साल बचाने के लिए अपनी सूक्ष्म पूँजी तोड़नी पड़ी, पैसे उधार लेने पड़े, सामान गिरवी रखना पड़ा आदि । यह शर्मनाक है कि दिल्ली सरकार को 'जरूरतमंद बच्चों' को निजी दान के सहारे छोड़ना स्वीकार था लेकिन उनकी फ़ीस का भुगतान करना नहीं। वहीं सीबीएसई और केंद्र सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने इस मुद्दे पर एक उदासीन व आपराधिक चुप्पी बनाई हुई है। इस सबके बीच छात्रों, अभिभावकों, शिक्षकों और अन्य लोगों का सड़कों पर संघर्ष जारी है ताकि शिक्षा का अधिकार सुरक्षित रहे। कम-से-कम दो संस्थाओं द्वारा इस लड़ाई को अदालत तक भी ले जाया गया है। हालाँकि कोई अंतिम फ़ैसला नहीं आया है, मामला अदालत में विचाराधीन है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 की घोषणा के 2 महीने के भीतर सीबीएसई ने यह फ़रमान जारी किया, यानी कि इस नीति में ऐसा कुछ नहीं है जो बढ़ती फ़ीसों पर रोक लगाए। जब इस नीति ने अनिवार्य और निःशुल्क शिक्षा का दायरा ही नहीं बढ़ाया, तो फ़िर इसने अधिकतम/बहुजन बच्चों के लिए किया क्या? असल में इस नीति ने फ़ीस लगाने और बढ़ाने का रास्ता साफ़ ही किया है। 
 हम, अधोहस्ताक्षरी, 10 नवंबर 2020 को संयुक्त रूप से आयोजित गोष्ठी में प्रस्तुत इस प्रस्ताव को शिक्षा मंत्री (भारत सरकार), दिल्ली के शिक्षा मंत्री और अध्यक्ष, सीबीएसई को सौंपे जाने के लिए सर्वसम्मति से पारित कर रहे हैं- 
 1. सीबीएसई द्वारा इकट्ठा की गई 2020-21 परीक्षा फ़ीस एक महीने के भीतर सभी छात्रों को वापस की जाए.
 2. किसी भी छात्र को फ़ीस भुगतान नहीं करने के आधार पर परीक्षा में बैठने के अवसर से वंचित नहीं किया जाए.  3. भारत सरकार और राज्य सरकार ऐसा कानून बनाए जो 12वीं कक्षा तक की मुफ़्त शिक्षा को सुनिश्चित करे. 
4. जब तक इस ऐसा कानून लागू नहीं हो जाता, तब तक किसी भी बच्चे से 12वीं कक्षा तक, सीबीएसई फ़ीस सहित, कोई फ़ीस न ली जाए. 

 अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच (प्रोफ़ेसर जगमोहन सिंह), आईकैन (दीपक धोलकिया), दिशा छात्र संगठन (योगेश), पीडीएसयू (जयदीप), लोक शिक्षक मंच (फ़िरोज़) 

 It is to be noted that CBSE had increased examination fees for Class X & XII students manifold in 2019-20. If students had to pay Rs.125/250 in 2014-15, they were made to pay Rs 1500 in 2020-21. For students from SC/ST backgrounds, this fees was increased from Rs 50 in 2017-18 to Rs 1200 in 2020-21. Given the 'corona-lockdown' financial emergency being faced by the people this year, with much more severe implications for the working class families and their children studying in government schools, this fee hike has proved back-breaking. Irrespective of the worsened situation this year, no fee waiver, relief or support was provided to students by the State or Central government this year. As a result, families have pawned their belongings and borrowed money to pay the fees or children have suffered losing an year. It is shameful that Delhi government has asked schools to accept private donations for 'needy children' unable to pay their fees and the CBSE/MoE(GoI) has maintained a studied and indifferent silence on the issue. Students, parents, teachers and others continue to fight on roads against this blatant attack on the right to education of children. At least two organisations have taken the matter to court. Though no final decision has come yet, the matter is under the consideration of the court. Within 2 months of the declaration of National Education Policy 2020, CBSE issued this decree, which means that there is nothing in this policy to curb the problem of rising fees. If this policy couldn't extend the scope of compulsory and free education to all students, then what did it do worth mentioning for the children from working class/Bahujan backgrounds? Indeed, what this policy does is clear the path for charging and increasing fees. 
We, the undersigned, are passing this unanimous resolution, which was placed before the house in a co-organised webinar on 10th November 2020, to be submitted to the Minister of Education (GoI), Delhi Education Minister and Chairperson CBSE. 
 1. CBSE exam fees collected for 2020-21 should be returned to all the students within a month.
 2. No student should be denied an opportunity to appear in exams on the grounds of non-payment of fees at any level. 
3. GoI and state government should enact a law guaranteeing free education for all children upto Class XII. 
 4. Till such a law is brought into action, no fees, including for CBSE exams, should be charged from any child till class 12. 

 All India Forum for Right to Education (Prof. Jagmohan Singh), Disha Students' Organisation (Yogesh), Indian Community Activists' Network (Dipak Dholakia), Lok Shikshak Manch (Firoz) and Progressive Democratic Students' Union (Jaydeep)

Sunday, 15 November 2020

सीबीएसई फ़ीस सर्वे: विद्यार्थियों के अनुभव

यह सर्वे दिल्ली सरकार के स्कूलों की कक्षा 10 व 12 के विद्यार्थियों के साथ किया गया है। इसे शिक्षकों के माध्यम से और फ़ेसबुक के ज़रिये विद्यार्थियों तक पहुँचाया गया। 1-10 नवंबर, 2020 के बीच 273 विद्यार्थियों ने इस गूगल सर्वे फॉर्म को भरा। इसमें अधिकतर सवाल बहु-विकल्प क़िस्म के थे, हालाँकि कहीं-कहीं 'अन्य' के रूप में लिखने या ख़ुलासा करने की गुंजाइश भी थी। सर्वे हिंदी में था। कुछ सवाल ऐसे भी थे जिनके लिए एक से ज़्यादा विकल्प भरे जा सकते थे। 

यह सर्वे फ़ॉर्म, कुछ फ़र्क़ के साथ, तीन रूपों में तैयार किया गया था। ऐसा इसलिए क्योंकि शिक्षक साथियों ने कुछ बारीक संशोधन अपने स्तर पर किये थे ताकि उनके विद्यार्थी अधिक सहज होकर फ़ॉर्म भर सकें। एक रूप 26 विद्यार्थियों ने भरा, एक अन्य रूप 94 विद्यार्थियों ने भरा और तीसरा रूप 153 विद्यार्थियों ने भरा। 
आप सर्वे फ़ॉर्म का मौलिक रूप इस लिंक पर देख सकते हैं। 


क्योंकि इस सर्वे फॉर्म को भरने के लिए ईमेल आईडी जैसी किसी निजी पहचान के संकेत की ज़रूरत नहीं रखी गई थी, इसलिए एक व्यक्ति द्वारा एक से अधिक बार फ़ॉर्म भरने की संभावना को रोकने का इसमें कोई पुख़्ता उपाय नहीं था। यह इसकी कमी/सीमा है। हालाँकि, इस कारण सर्वे के विश्लेषण की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठ सकता है, लेकिन फ़ॉर्म को सरल-से-सरल रूप में रखने की ज़रूरत भी थी,

ताकि ज़्यादा-से-ज़्यादा विद्यार्थी अपने अनुभव दर्ज करा सकें। जहाँ विद्यार्थियों के पास विकल्प था कि अगर वे इस सर्वे की रिपोर्ट जानना चाहें तो अपना संपर्क दे सकते हैं, वहाँ ~60% ने अपने संपर्क दिए। पिछले दो वर्षों से बढ़ी हुई सीबीएसई फ़ीस के संदर्भ में यह लघु ऑनलाइन सर्वे विद्यार्थियों के अनुभव दर्ज करने का एक छोटा-सा प्रयास है। हम यह भी स्वीकारते हैं कि ऑनलाइन माध्यम की अपनी सीमा है और यह सर्वे उन विद्यार्थियों व उनके परिवारों तक नहीं पहुँच पाया जिनके पास स्मार्टफ़ोन नहीं है, जो व्हाट्सऐप पर नहीं हैं तथा डिजिटल-ऑनलाइन संसार के बाहर अथवा उसके हाशिये पर हैं। 

इस सर्वे की एक फ़ौरी व संक्षिप्त रपट इस प्रकार है - 

1.)  गूगल फॉर्म भरने वाले विद्यार्थियों में 20% कक्षा 10 के थे और 80% कक्षा 12 के थे। इनमें 55.3% लड़कियाँ और 44.7% लड़के हैं। 

2.) 89.3% विद्यार्थियों ने कहा कि उन्हें सीबीएसई फ़ीस भरने में 'मुश्किल' आई; 50.54% ने कहा कि उन्हें 'बहुत मुश्किल' आई और 38.8% ने कहा कि उन्हें 'थोड़ी मुश्किल' आई। केवल 10.6% विद्यार्थियों ने कहा कि उनके लिए इस साल फ़ीस भरना सामान्य ('normal') अनुभव था। 

3.) इस सवाल के जवाब में कि उन्होंने सीबीएसई फ़ीस का इंतज़ाम कैसे किया, लगभग 50% विद्यार्थियों ने कहा कि पैसों का इंतज़ाम परिवार ने कर लिया था; जबकि 32.6% ने कहा कि उन्होंने उधार लिया; 10.6% ने कहा कि उन्हें रिश्तेदार/दोस्त/जानकार से मदद लेनी पड़ी; और 4% ने कहा कि उन्हें सामान बेचना/गिरवी रखना पड़ा। 1.6% छात्रों ने कहा कि उन्हें स्कूल/टीचर से मदद मिली। 

4.) इस सवाल के जवाब में कि क्या फ़ीस न दे पाने की स्थिति में उन्हें स्कूल से नाम काटे जाने का डर था, 40.9% विद्यार्थियों ने कहा कि उन्हें डर था जबकि 50.6% ने कहा कि उन्होंने फ़ीस समय से दे दी थी। 

5.) इस सवाल के जवाब में कि क्या "आपको लगता है कि सीबीएसई को बोर्ड के पेपर की फ़ीस नहीं लेनी चाहिए?" (इसमें विद्यार्थी एक से ज़्यादा विकल्प चुन सकते थे); 74% विद्यार्थियों का मत था कि नहीं लेनी चाहिए क्योंकि कोरोना संकट के चलते काम ठप हैं; 31% ने कहा कि नहीं लेनी चाहिए क्योंकि कोरोना संकट के चलते पढ़ाई हुई ही नहीं है; तथा 20% का कहना था कि नहीं लेनी चाहिए क्योंकि पेपर चेक करने के अलग से पैसे नहीं होने चाहिए। 

जहाँ 48.9% ने कहा कि कुछ फ़ीस तो होगी पर इतनी ज़्यादा नहीं होनी चाहिए, वहीं ~35% का कहना था कि पेपर की फ़ीस नहीं लेनी चाहिए क्योंकि पढ़ाई तो मुफ़्त होनी चाहिए। केवल 1.8% विद्यार्थियों को इस साल की फ़ीस 'ठीक' लगी।  

सर्वे से प्राप्त आँकड़ों व जवाबों के आधार पर यह साफ़ है कि विद्यार्थियों की बहुत बड़ी संख्या के लिए फ़ीस भरना एक असामान्य अनुभव था। यह उन परिवारों पर भी लागू है जिन्होंने फ़ीस का इंतज़ाम अपने स्तर पर किया। हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इन परिवारों ने भी अपनी कौन-सी ज़रूरतों और ख़र्चों की बलि देकर यह फ़ीस चुकाई होगी। आँकड़े यह भी बताते हैं कि कोरोना-लॉकडाउन की प्राकृतिक-निर्मित विपदा के चलते ये परिवार जिस आर्थिक आपातकाल की परिस्थिति में थे उसके चलते उन्हें सरकार से राहत की उम्मीद थी, जोकि धाराशायी हो गई।
हम यह भी पाते हैं कि सीबीएसई-विभाग के प्रशासनिक दबाव के चलते फ़ीस का नकारात्मक असर केवल विद्यार्थियों व उनके परिवारों पर ही नहीं होता, बल्कि इससे स्कूल व शिक्षक भी प्रभावित होते हैं। फ़ीस का होना और उसे जमा करके समय से 'ऊपर' भेजना कई शिक्षकों को भी तनावग्रस्त करता है, जिसका असर धमकी जैसे तौर-तरीक़ों में प्रकट होता है। जितनी ज़रूरत थी उसके सामने कई शिक्षकों ने भी ख़ुद को असहाय और अपने प्रयासों को नाकाफ़ी पाया।
अंत में, यह सर्वे इस चुनौती की तरफ़ भी इशारा करता है कि स्कूली विद्यार्थियों की चेतना में शिक्षा के अधिकार की संकल्पना बहुत सहज या व्यापक नहीं है। शायद यह हमारे चारों ओर फैले उस विमर्श का परिणाम है जिसमें 'मुफ़्त' की वस्तु-सेवा की आलोचना की जाती है, भले ही वो शिक्षा जैसे सार्वजनिक क्षेत्र व अधिकार का विषय हो और राज्य की संवैधानिक ज़िम्मेदारी। यह नव-उदारवादी विमर्श की पहुँच का परिणाम है। इसका एक कारण स्कूली विद्यार्थियों में संगठनों की ग़ैर-मौजूदगी भी हो सकता है। स्कूलों और राष्ट्रीय शिक्षा नीति द्वारा मौलिक अधिकारों की पूर्णतः अनदेखी करते हुए केवल और केवल मौलिक कर्तव्यों पर ज़ोर देना इस जन-विरोधी वस्तुस्थिति को मज़बूत करने का ही काम करेगा। हमें अपने स्कूलों में व आसपास इसके प्रति सचेत होकर काम करने की ज़रूरत है।         
सीबीएसई द्वारा 2019-20 में परीक्षा फ़ीस के नाम पर जो लूट शुरु की गई थी, उसके ख़िलाफ़ विभिन्न संगठनों, समूहों व व्यक्तियों ने अलग-अलग ढंग से विरोध दर्ज किया है। दिल्ली के सरकारी स्कूलों के छात्रों ने पिछले साल फ़ीस वापस लेने की माँग को लेकर हस्ताक्षर अभियान चलाया और सीबीएसई दफ़्तर पर प्रदर्शन किया।  

कोरोना-लॉकडाउन की भीषण परिस्थितियों में जनता व मेहनतकश वर्गों से आने वाले विद्यार्थियों पर सीबीएसई फ़ीस का यह हमला और वीभत्स रूप में प्रकट हुआ। पिछले साल से उलट इस साल दिल्ली सरकार की ओर से भी विद्यार्थियों को कोई राहत नहीं दी गई। इस साल भी छात्रों ने जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन किया। घरबंदी के कारण उपजे आर्थिक संकट के सन्दर्भ में कुछ समाचार पत्रों और मीडिया ने इस मुद्दे को उजागर भले ही किया लेकिन जब तक यह लड़ाई पूरी तरह से नि:शुल्क स्कूली और उच्च शिक्षा की लड़ाई नहीं बनेगी तब तक हालातों का बदलना मुश्किल है। 

केंद्र सरकार की नव-उदारवादी नीतियों व राष्ट्रीय शिक्षा नीति के फ़लसफ़े के तहत सीबीएसई का ये फ़ैसला क़तई हैरान करने वाला नहीं है। आख़िर इन्हीं नीतियों के तहत तो एक तरफ़ सार्वजनिक निकायों व शिक्षा संस्थानों को - सीबीएसई जिनका एक उदाहरण मात्र है - अपने फ़ंड ख़ुद जुटाने के लिए कहा जा रहा है और दूसरी तरफ़ जनता को भी 'आत्मनिर्भर' बनने का पाठ पढ़ाया जा रहा है! 

हमें लामबंद होना होगा ताकि - 
- इस साल किसी भी कारण से किसी भी बच्चे का नाम स्कूलों से न काटा जाए। (स्कूलों में लगातार Long Absent/NSO करने की प्रक्रिया अन्यथा भी जारी है।)
- बिना संतोषजनक कक्षाई शिक्षण-अधिगम के कोई बोर्ड या अन्य परीक्षा आयोजित न की जाये। 
-  उच्च शिक्षा तक हर विद्यार्थी को अनिवार्य, निःशुल्क और एक-समान शिक्षा मिले। 


Appeal to remove obstacles hindering children's right to gain admission and complete school education

 To,

The Education Minister
GNCT of Delhi
 
Subject: Appeal to remove obstacles hindering children's right to gain admission and complete school education 

Sir, 
Lok Shikshak Manch would like to highlight some issues causing denial of admission to students in government schools - 

1. There seems to be a lack of proper orientation of school teachers, especially admission in-charges and class teachers, on childrens' right to education. It has been found in several cases that students are being denied admission or re-admission at school level on various grounds; namely, inadequate information of the concerned in-charges, ambiguity in DoE's own process of admission, at places, leading to varying interpretation, lack of sympathy towards children from deprived/difficult backgrounds etc. For example, if a student does not have a Delhi-based residence-proof, then s/he is often denied admission. Very often, infrastructural constraints, like lack of adequate number of classrooms, too lead to such denials. Minor mismatches of student's details in Aadhar, Birth Certificate, SLC also often lead to harassment and denial in admissions. 

Just like workshops and trainings have been conducted on issues like POCSO & gender sensitisation, a similar drive should be conducted for educating teachers about admission rules and guidelines. There needs to be a platform where teachers can share and clarify issues they face on ground and feel empowered enough to ensure admissions to all children, across all grades. Such a platform will go a long way in informing the authorities as to what kinds of rules-regulations and practices are coming in the way of the constitutional obligation of the state towards ensuring children's rights. This will then help in reforming any anti-child and anti-constitutional bias in rules and practices. 

2. In order to build confidence among parents regarding their child's right to education, regular advertisements should be broadcast on radio and TV, display boards outside all schools should carry prominently details about the RTE Act provisions, the mandate and contact details of the DCPCR, and contact details of concerned offices/officials in case of any violation of children's rights to admission and education. Empowerment of parents in this regard is the key to counter any bureaucratic high-handedness, whether at the school level or at other offices.

3. The education department should seek information from schools on the number of students whose names have been struck off in the last four-five years in Class IX-XII, study reasons behind the same and take steps to curb malpractices in this regard and guide schools to contact and make effort to bring back all students willing to continue and complete their studies.
What could be more unfortunate than the fact that the trend of striking off studentes' names has been rising in the context of increasing pressure upon schools to give 100% board result. There is no dearth of students in our schools who or whose families are struggling with medical or financial difficulties. We need to provide them greater academic and administrative support, instead of pushing them out of the school system for garnishing our results. 
A clear message that schools should leave no stone unturned in ensuring retention of children in the regular system will be of great help in checking any violation and insensitivity in this regard.

4. Though the department has made efforts to enroll two-times failed/one time failed students of Class IX and one-time failed students of Class X under NIOS, many parents are rightly wary of enrolling their children in this parallel layer of education system where the child is denied timely admission and various grants and scholarships etc. Many students, especially girls, are not in a position to travel to the assigned NIOS nodal school centres which are far off from their homes. 
Moreover, a whole category of students whose names get struck off mid-session are ineligible to get admission under the system of NIOS on the ground that they had not appeared in the final exams. This leaves them, due to a lack of information and options, vulnerable to harassment and exploitation at the hands of middlemen who charge high amount of money for enrolling them privately in NIOS. 
 
We hope that your office would look into the above-mentioned issues and take suitable steps to ensure children's right to regular and complete school education.

Thanking you 

Copy to
Chairperson, DCPCR
President, GSTA