Sunday, 15 November 2020

सीबीएसई फ़ीस सर्वे: विद्यार्थियों के अनुभव

यह सर्वे दिल्ली सरकार के स्कूलों की कक्षा 10 व 12 के विद्यार्थियों के साथ किया गया है। इसे शिक्षकों के माध्यम से और फ़ेसबुक के ज़रिये विद्यार्थियों तक पहुँचाया गया। 1-10 नवंबर, 2020 के बीच 273 विद्यार्थियों ने इस गूगल सर्वे फॉर्म को भरा। इसमें अधिकतर सवाल बहु-विकल्प क़िस्म के थे, हालाँकि कहीं-कहीं 'अन्य' के रूप में लिखने या ख़ुलासा करने की गुंजाइश भी थी। सर्वे हिंदी में था। कुछ सवाल ऐसे भी थे जिनके लिए एक से ज़्यादा विकल्प भरे जा सकते थे। 

यह सर्वे फ़ॉर्म, कुछ फ़र्क़ के साथ, तीन रूपों में तैयार किया गया था। ऐसा इसलिए क्योंकि शिक्षक साथियों ने कुछ बारीक संशोधन अपने स्तर पर किये थे ताकि उनके विद्यार्थी अधिक सहज होकर फ़ॉर्म भर सकें। एक रूप 26 विद्यार्थियों ने भरा, एक अन्य रूप 94 विद्यार्थियों ने भरा और तीसरा रूप 153 विद्यार्थियों ने भरा। 
आप सर्वे फ़ॉर्म का मौलिक रूप इस लिंक पर देख सकते हैं। 


क्योंकि इस सर्वे फॉर्म को भरने के लिए ईमेल आईडी जैसी किसी निजी पहचान के संकेत की ज़रूरत नहीं रखी गई थी, इसलिए एक व्यक्ति द्वारा एक से अधिक बार फ़ॉर्म भरने की संभावना को रोकने का इसमें कोई पुख़्ता उपाय नहीं था। यह इसकी कमी/सीमा है। हालाँकि, इस कारण सर्वे के विश्लेषण की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठ सकता है, लेकिन फ़ॉर्म को सरल-से-सरल रूप में रखने की ज़रूरत भी थी,

ताकि ज़्यादा-से-ज़्यादा विद्यार्थी अपने अनुभव दर्ज करा सकें। जहाँ विद्यार्थियों के पास विकल्प था कि अगर वे इस सर्वे की रिपोर्ट जानना चाहें तो अपना संपर्क दे सकते हैं, वहाँ ~60% ने अपने संपर्क दिए। पिछले दो वर्षों से बढ़ी हुई सीबीएसई फ़ीस के संदर्भ में यह लघु ऑनलाइन सर्वे विद्यार्थियों के अनुभव दर्ज करने का एक छोटा-सा प्रयास है। हम यह भी स्वीकारते हैं कि ऑनलाइन माध्यम की अपनी सीमा है और यह सर्वे उन विद्यार्थियों व उनके परिवारों तक नहीं पहुँच पाया जिनके पास स्मार्टफ़ोन नहीं है, जो व्हाट्सऐप पर नहीं हैं तथा डिजिटल-ऑनलाइन संसार के बाहर अथवा उसके हाशिये पर हैं। 

इस सर्वे की एक फ़ौरी व संक्षिप्त रपट इस प्रकार है - 

1.)  गूगल फॉर्म भरने वाले विद्यार्थियों में 20% कक्षा 10 के थे और 80% कक्षा 12 के थे। इनमें 55.3% लड़कियाँ और 44.7% लड़के हैं। 

2.) 89.3% विद्यार्थियों ने कहा कि उन्हें सीबीएसई फ़ीस भरने में 'मुश्किल' आई; 50.54% ने कहा कि उन्हें 'बहुत मुश्किल' आई और 38.8% ने कहा कि उन्हें 'थोड़ी मुश्किल' आई। केवल 10.6% विद्यार्थियों ने कहा कि उनके लिए इस साल फ़ीस भरना सामान्य ('normal') अनुभव था। 

3.) इस सवाल के जवाब में कि उन्होंने सीबीएसई फ़ीस का इंतज़ाम कैसे किया, लगभग 50% विद्यार्थियों ने कहा कि पैसों का इंतज़ाम परिवार ने कर लिया था; जबकि 32.6% ने कहा कि उन्होंने उधार लिया; 10.6% ने कहा कि उन्हें रिश्तेदार/दोस्त/जानकार से मदद लेनी पड़ी; और 4% ने कहा कि उन्हें सामान बेचना/गिरवी रखना पड़ा। 1.6% छात्रों ने कहा कि उन्हें स्कूल/टीचर से मदद मिली। 

4.) इस सवाल के जवाब में कि क्या फ़ीस न दे पाने की स्थिति में उन्हें स्कूल से नाम काटे जाने का डर था, 40.9% विद्यार्थियों ने कहा कि उन्हें डर था जबकि 50.6% ने कहा कि उन्होंने फ़ीस समय से दे दी थी। 

5.) इस सवाल के जवाब में कि क्या "आपको लगता है कि सीबीएसई को बोर्ड के पेपर की फ़ीस नहीं लेनी चाहिए?" (इसमें विद्यार्थी एक से ज़्यादा विकल्प चुन सकते थे); 74% विद्यार्थियों का मत था कि नहीं लेनी चाहिए क्योंकि कोरोना संकट के चलते काम ठप हैं; 31% ने कहा कि नहीं लेनी चाहिए क्योंकि कोरोना संकट के चलते पढ़ाई हुई ही नहीं है; तथा 20% का कहना था कि नहीं लेनी चाहिए क्योंकि पेपर चेक करने के अलग से पैसे नहीं होने चाहिए। 

जहाँ 48.9% ने कहा कि कुछ फ़ीस तो होगी पर इतनी ज़्यादा नहीं होनी चाहिए, वहीं ~35% का कहना था कि पेपर की फ़ीस नहीं लेनी चाहिए क्योंकि पढ़ाई तो मुफ़्त होनी चाहिए। केवल 1.8% विद्यार्थियों को इस साल की फ़ीस 'ठीक' लगी।  

सर्वे से प्राप्त आँकड़ों व जवाबों के आधार पर यह साफ़ है कि विद्यार्थियों की बहुत बड़ी संख्या के लिए फ़ीस भरना एक असामान्य अनुभव था। यह उन परिवारों पर भी लागू है जिन्होंने फ़ीस का इंतज़ाम अपने स्तर पर किया। हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इन परिवारों ने भी अपनी कौन-सी ज़रूरतों और ख़र्चों की बलि देकर यह फ़ीस चुकाई होगी। आँकड़े यह भी बताते हैं कि कोरोना-लॉकडाउन की प्राकृतिक-निर्मित विपदा के चलते ये परिवार जिस आर्थिक आपातकाल की परिस्थिति में थे उसके चलते उन्हें सरकार से राहत की उम्मीद थी, जोकि धाराशायी हो गई।
हम यह भी पाते हैं कि सीबीएसई-विभाग के प्रशासनिक दबाव के चलते फ़ीस का नकारात्मक असर केवल विद्यार्थियों व उनके परिवारों पर ही नहीं होता, बल्कि इससे स्कूल व शिक्षक भी प्रभावित होते हैं। फ़ीस का होना और उसे जमा करके समय से 'ऊपर' भेजना कई शिक्षकों को भी तनावग्रस्त करता है, जिसका असर धमकी जैसे तौर-तरीक़ों में प्रकट होता है। जितनी ज़रूरत थी उसके सामने कई शिक्षकों ने भी ख़ुद को असहाय और अपने प्रयासों को नाकाफ़ी पाया।
अंत में, यह सर्वे इस चुनौती की तरफ़ भी इशारा करता है कि स्कूली विद्यार्थियों की चेतना में शिक्षा के अधिकार की संकल्पना बहुत सहज या व्यापक नहीं है। शायद यह हमारे चारों ओर फैले उस विमर्श का परिणाम है जिसमें 'मुफ़्त' की वस्तु-सेवा की आलोचना की जाती है, भले ही वो शिक्षा जैसे सार्वजनिक क्षेत्र व अधिकार का विषय हो और राज्य की संवैधानिक ज़िम्मेदारी। यह नव-उदारवादी विमर्श की पहुँच का परिणाम है। इसका एक कारण स्कूली विद्यार्थियों में संगठनों की ग़ैर-मौजूदगी भी हो सकता है। स्कूलों और राष्ट्रीय शिक्षा नीति द्वारा मौलिक अधिकारों की पूर्णतः अनदेखी करते हुए केवल और केवल मौलिक कर्तव्यों पर ज़ोर देना इस जन-विरोधी वस्तुस्थिति को मज़बूत करने का ही काम करेगा। हमें अपने स्कूलों में व आसपास इसके प्रति सचेत होकर काम करने की ज़रूरत है।         
सीबीएसई द्वारा 2019-20 में परीक्षा फ़ीस के नाम पर जो लूट शुरु की गई थी, उसके ख़िलाफ़ विभिन्न संगठनों, समूहों व व्यक्तियों ने अलग-अलग ढंग से विरोध दर्ज किया है। दिल्ली के सरकारी स्कूलों के छात्रों ने पिछले साल फ़ीस वापस लेने की माँग को लेकर हस्ताक्षर अभियान चलाया और सीबीएसई दफ़्तर पर प्रदर्शन किया।  

कोरोना-लॉकडाउन की भीषण परिस्थितियों में जनता व मेहनतकश वर्गों से आने वाले विद्यार्थियों पर सीबीएसई फ़ीस का यह हमला और वीभत्स रूप में प्रकट हुआ। पिछले साल से उलट इस साल दिल्ली सरकार की ओर से भी विद्यार्थियों को कोई राहत नहीं दी गई। इस साल भी छात्रों ने जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन किया। घरबंदी के कारण उपजे आर्थिक संकट के सन्दर्भ में कुछ समाचार पत्रों और मीडिया ने इस मुद्दे को उजागर भले ही किया लेकिन जब तक यह लड़ाई पूरी तरह से नि:शुल्क स्कूली और उच्च शिक्षा की लड़ाई नहीं बनेगी तब तक हालातों का बदलना मुश्किल है। 

केंद्र सरकार की नव-उदारवादी नीतियों व राष्ट्रीय शिक्षा नीति के फ़लसफ़े के तहत सीबीएसई का ये फ़ैसला क़तई हैरान करने वाला नहीं है। आख़िर इन्हीं नीतियों के तहत तो एक तरफ़ सार्वजनिक निकायों व शिक्षा संस्थानों को - सीबीएसई जिनका एक उदाहरण मात्र है - अपने फ़ंड ख़ुद जुटाने के लिए कहा जा रहा है और दूसरी तरफ़ जनता को भी 'आत्मनिर्भर' बनने का पाठ पढ़ाया जा रहा है! 

हमें लामबंद होना होगा ताकि - 
- इस साल किसी भी कारण से किसी भी बच्चे का नाम स्कूलों से न काटा जाए। (स्कूलों में लगातार Long Absent/NSO करने की प्रक्रिया अन्यथा भी जारी है।)
- बिना संतोषजनक कक्षाई शिक्षण-अधिगम के कोई बोर्ड या अन्य परीक्षा आयोजित न की जाये। 
-  उच्च शिक्षा तक हर विद्यार्थी को अनिवार्य, निःशुल्क और एक-समान शिक्षा मिले। 


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