यह अनुभव दिल्ली सरकार के स्कूल में पढ़ाने वाली एक शिक्षिका साथिन ने साझा किया है साथ ही अनुरोध किया है कि उनकी पहचान को उजागर न किया जाए ............संपादक
Monday, 6 December 2021
दिल्ली के सरकारी स्कूलों में देशभक्ति पाठ्यचर्या
Sunday, 28 November 2021
स्कूली शिक्षा को लेकर आवाम के नाम एक खुला पत्र
हमारे सामने समान स्कूल व्यवस्था के लिए लड़ने के सिवाय कोई चारा नहीं है!
क्या हमारे सरकारी स्कूल जनता के लिए सुलभ हैं, जहाँ हम हक़ और इज़्ज़त से जा सकते हैं, जहाँ हमारे बच्चों को बढ़िया पढ़ाई मिल रही हो और जहाँ हमारे काम बिना परेशानी के किए जाते हैं? अगर नहीं, तो यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम, बच्चों के माता-पिता होने के नाते, अपने अधिकारों को जानें और जनता के प्यार, ख़ून-पसीने और टैक्स से खड़े किए गए इन स्कूलों को सचमुच 'जनता के स्कूल' बनाने के लिए संघर्ष करें।
1. 'आज़ादी का अमृत महोत्सव' मनाते हुए हमें पूछना चाहिए कि आख़िर क्यों 74 साल की आज़ादी के बाद भी इस देश में केवल कक्षा 8 तक की पढ़ाई को ही कानूनी हक़ का दर्जा मिला है! यानी, आठवीं तक की पढ़ाई करवाने की ज़िम्मेदारी तो सरकार की है लेकिन इसके आगे की पढ़ाई करवाने को लेकर सरकार के ऊपर कोई कानूनी बंदिश नहीं है। यह 2009 के शिक्षा अधिकार कानून की बहुत बड़ी कमी है। इसी कारण हम देखते हैं कि कक्षा 9-12 के बीच न जाने कितने बच्चों, ख़ासकर लड़कियों, की पढ़ाई छूट जाती है; क्योंकि उन्हें पढ़ाई पूरी करने के लिए उतनी मदद नहीं मिलती जितनी की उन्हें ज़रूरत होती है।
आप ही बताइए, क्या आज आठवीं क्लास तक की शिक्षा की कोई अहमियत है? सिर्फ़ 8वीं क्लास तक के शिक्षा अधिकार से हमारे बच्चों का क्या भला होगा? हम देश की मेहनतकश-मज़दूर आबादी हैं जिसके बच्चे कक्षा 12 तक की पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पा रहे। क्या हमें यह माँग नहीं करनी चाहिए कि सभी बच्चों को नर्सरी से लेकर कॉलेज तक मुफ़्त पढ़ाई का अधिकार हो, और यह ज़िम्मेदारी सरकार की है कि सभी बच्चों को यह पढ़ाई समान रूप से मिले?
2. माता-पिता की परेशानी का एक कारण यह भी था कि जबकि घरबन्दी के कारण हज़ारों परिवारों को शहर से गाँव लौटना पड़ा, उनका काम-धंधा ख़त्म हुआ पर फिर भी दिल्ली सरकार के स्कूलों में इस साल भी दाख़िलों के लिए उन्हें ऑनलाइन फ़ॉर्म भरने पर मजबूर किया गया। क्या सरकार को नज़र नहीं आता कि इससे हमारा पैसा और समय बर्बाद होता है!
हमेशा से अभिभावक स्कूल जाकर फ़ॉर्म भरते थे और बच्चे का दाख़िला हाथ-के-हाथ करवाते थे। लेकिन जबसे ऑनलाइन फ़ॉर्म भरवाया जाने लगा है तब से इंटरनेट की दुकानों पर 100-200 रु तक ख़र्च करने पड़ते हैं, डर लगता है कि बच्चे का नंबर स्कूल में आएगा या नहीं, तब कहीं जाकर एक-डेढ़ महीने बाद दाख़िला होता है। ढेरों बच्चों के परिवार इस चक्रव्यूह को भेद नहीं पाते और उनके लिए तो RTE क़ानून काग़ज़ का पुलिंदा साबित होता है। हमें जानना होगा कि सरकारें ऐसी नीतियाँ किसके फ़ायदे के लिए बनाती हैं, क्योंकि हम मेहनतकश लोग तो ऐसी व्यवस्था में बस पिसते ही हैं।
3. कुछ सरकारी स्कूल यह कहकर दाख़िला देने से मना कर देते हैं कि स्कूल में सीटें नहीं हैं। अगर सीटें नहीं हैं तो स्कूल की ज़िम्मेदारी तो यह है कि वो सरकार को स्कूल में और कमरे बनवाने या इलाक़े में नए स्कूल खोलने के लिए कहे। स्कूलों का काम सीट का रोना रोककर बच्चों को दाख़िला देने से मना करना नहीं है। अगर बच्चे को पड़ोस का सरकारी स्कूल ही दाख़िला नहीं देगा, तो फिर कौन देगा?
क़ानून भी तो यही कहता है न कि कम-से-कम आठवीं तक के बच्चों को अपने पड़ोस के स्कूल में दाख़िला लेने का हक़ है! हमने यह भी देखा है कि सरकारी स्कूल में दाख़िला जी का जंजाल बन गया है; डर लगा रहता है कि पता नहीं कौन-सा काग़ज़ माँग लिया जाएगा, किस काग़ज़ में क्या कमी निकालकर दाख़िला देने से मना कर दिया जाएगा। आख़िर ये कैसी व्यवस्था है कि जनता के पैसों से चलने वाले इन स्कूलों में जनता के ही बच्चों को आसानी से दाख़िला नहीं मिलता!
पर हमें भी अपने बच्चों के हक़ के लिए लड़ना होगा। अगर दाख़िला देने से मना किया जाएगा तो कहना होगा, 'लिखकर दो कि दाख़िला क्यों नहीं दे रहे हो' और फिर स्कूल इंस्पेक्टर, अधिकारी, सांसद, विधायक, पार्षद, बाल अधिकार आयोग के पास जाना होगा कि देखो अपनी बनाई व्यवस्था का हाल! अपने इलाक़े में ज़रूरत के हिसाब से और सरकारी स्कूल बनाने की माँग करनी होगी ताकि सभी बच्चों को उनके पड़ोस में ही आसानी से अच्छी पढ़ाई मिले। जब तक जनता अपनी चुनी हुई सरकारों, ख़ुद को जनता के सेवक बताने वाले नुमाइंदों और अफ़सरों से काम करवाएगी नहीं, ये हमारे काम करेंगे नहीं।
4. अगला सवाल पढ़ाई का है। क्या हमने इस पर नज़र रखी है कि सरकारी स्कूलों में हमारे बच्चों को पढ़ाया क्या जा रहा है? दाख़िला दिलवाकर हमारी ज़िम्मेदारी ख़त्म नहीं होती, बल्कि शुरु होती है। अपने और पड़ोस के बच्चों से बात करके देखेंगे तो पाएँगे कि स्कूलों में पढ़ाई के नाम पर मज़ाक हो रहा है। जानते हैं, कक्षा 8 तक के बच्चों को सिर्फ़ हिंदी पढ़ना-लिखना और गणित में जमा-घटा करना सिखाया जा रहा है!
अगर कुछ बच्चे लिखने-पढ़ने में कमज़ोर रह गए हैं तो उन्हें ज़्यादा पढ़ाओ और बाक़ियों के बराबर लाओ (2009 का RTE कानून भी यही कहता है)। यह तो मत करो कि सभी बच्चों को लकीर के फ़कीर बना दो और दिमाग़ खोलने वाली पढ़ाई से दूर कर दो। पर हो यही रहा है और हम बिना जाने इसे होने दे रहे हैं।
5. देश की 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने तो यह लिख दिया है कि उसका मक़सद कक्षा 8 तक के बच्चों को (सिर्फ़) साक्षर बनाना और ऊपर की क्लासों में पढ़ाई हल्की करके काम-धंधे सिखाना है। ज़रा सोचें, अगर बच्चे सिर्फ़ पढ़ना-लिखना और जोड़-घटा ही सीखेंगे, तो सोचना-समझना, अधिकार जानना कब और कैसे सीखेंगे? वैसे भी बिना स्कूल गए भी हम और हमारे बच्चे मेहनत-मज़दूरी और छोटे-मोटे काम-धंधे तो हमेशा से करते आए हैं; स्कूल तो हम उन्हें समझदार बनने और आगे बढ़ने के लिए भेजते थे।
काम-धंधों के कोर्स को स्कूल की पढ़ाई में डालकर हमारे बच्चे ऊँची पढ़ाई से और दूर हो जाएँगे। कारीगर और मज़दूर तो इन्हें हालात बना ही देते हैं, स्कूलों का काम तो इन्हें समझदार, जागरूक और ज्ञानी बनाना था। क्या महँगे प्राइवेट स्कूलों में भी - जहाँ धन्ना-सेठों, मंत्रियों और अफ़सरों के बच्चे पढ़ते हैं - सिर्फ़ क-ख-ग लिखना-पढ़ना और काम-काज के यही कोर्स सिखाए जाएँगे?
अगर हमारे बच्चे इस पढ़ाई को करके निकले तो फ़ैक्ट्रियों में कम पैसों पर चुपचाप मशीन चलाने वाले मज़दूरों से ऊपर कुछ नहीं बनेंगे। कंपनियों को सस्ते और दुनिया-जहान व अपने हक़ों से अनजान मज़दूर ही चाहिए; चूँकि सरकारें इन कंपनियों के लिए काम करती हैं, इसलिए शिक्षा नीति भी इन कंपनियों को फ़ायदा पहुँचाने वाली बनाई जाती है। अपने बच्चों की पढ़ाई ठीक करवाने के लिए हमें ख़ुद ही लड़ना होगा।
6. इस लड़ाई में हमें शिक्षकों को भी साथ लेना होगा। आज प्रशासन की तानाशाही और डर का आलम यह है कि शिक्षक 'सरकारी नौकर' बनकर रह गया है। वह प्रशासन के ग़लत निर्णयों के ख़िलाफ आवाज़ नहीं उठा पा रहा है। न वो अपने लिए आवाज़ उठाकर यह कह पा रहा है कि ख़ाली पदों को भरा जाए ताकि स्कूलों में टीचरों की कमी न हो और वो पढ़ाने का काम बेहतर ढंग से कर पाए; और न वो बच्चों के लिए लड़ पा रहा है, जैसे कि यह माँग करके कि आपदा के नाम पर अलग-अलग ड्यूटी पर भेजे गए शिक्षकों को स्कूल वापस बुलाया जाए ताकि बच्चों की पढ़ाई का नुकसान न हो।
भले ही शिक्षा का क़ानून कहता रहे कि किसी भी स्कूल में 10% से ज़्यादा पद ख़ाली नहीं रहेंगे और शिक्षकों को पढ़ाने के अलावा दूसरी ड्यूटियों पर नहीं भेजा जाएगा, पर किसी भी क़ानून के सही बिंदु तो सरकार ख़ुद ही लागू नहीं करती। रही-सही कसर स्कूलों में झूठमूठ के कामों ने निकाल दी है, जिनके चलते शिक्षक लगातार ऑनलाइन डाटा भरते रहते हैं, दिखावटी फ़ोटो-वीडियो बनाते रहते हैं, सरकारी प्रचार के गैर-ज़रूरी प्रोग्राम चलाते रहते हैं। बस पढ़ाई नहीं करवा पाते। बल्कि सरकार के पढ़ाई से दूर ले जाने वाले हर आदेश का पालन करने में लगे रहते हैं।
हमें ही पूछना होगा कि स्कूलों में पूरे टीचर क्यों नहीं है; सिर्फ़ नाम की नर्सरी-केजी क्लास है या उसके लिए प्रशिक्षित टीचर भी हैं; छोटे बच्चों के लिए आया हैं या नहीं; प्रयोगशालाएँ व पुस्तकालयों के लिए कर्मचारी और बजट है या नहीं; विशेष ज़रूरतों वाले बच्चों के लिए विशेष शिक्षक नियुक्त किए गए हैं या नहीं; आदि।
हमारे बिना नज़र रखे न तो हमारे बच्चों को पूरे शिक्षक मिलेंगे, न पूरी सुविधाएँ और न बढ़िया पढ़ाई।
7. आपने यह भी देखा होगा कि इस साल घरबन्दी और काम-धंधे की परेशानी के चलते बहुत-से परिवारों ने अपने बच्चों को निजी (प्राइवेट) स्कूलों से निकालकर सरकारी स्कूलों में दाख़िल करवाया है। अख़बारी रपट के अनुसार इस साल करीब 2.5 लाख़ बच्चों के दाख़िले दिल्ली सरकार के स्कूलों में हुए हैं, जोकि पिछले सालों के मुक़ाबले बहुत बड़ी संख्या है। नगर निगम के स्कूलों में हुए दाख़िलों का भी यही हाल है।
ढेरों छोटे-मोटे निजी स्कूल बंद ही हो गए हैं। कुछ परिवारों ने ऐसा इसलिए भी किया क्योंकि उन्हें लगा कि जब पढ़ाई ऑनलाइन ही होनी है तो इस खानापूर्ति के लिए फ़ीस का चढ़ावा क्यों दिया जाए! ये हालात सिर्फ़ इस या उस इलाक़े तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि कमोबेश देश के अधिकतर शहरी इलाक़ों की हक़ीक़त यही है।
कोरोना के समय चाहे अस्पताल थे, चाहे स्कूल, चाहे नौकरियाँ, हर जगह प्राइवेट ने हमारा साथ छोड़ा और सरकारी अस्पताल, स्कूल और राशन व्यवस्था ही हमारे काम आई। क्यों? क्योंकि प्राइवेट का मतलब ही होता है निजी मुनाफ़े के लिए काम करने वाली संस्था। लोगों के बुरे समय में सार्वजनिक (पब्लिक/सरकारी) व्यवस्था ही हमारा सहारा होती है।
फिर भी जब सरकारी स्कूलों को बदनाम, ख़स्ताहाल और बर्बाद करके बेचा या बंद किया जाता है, तो क्या हम इन्हें बचाने की लड़ाई लड़ते हैं? याद रखिए, किसी भी इलाक़े के तमाम सार्वजनिक स्कूल, चाहे वो नगर निगम के हों या दिल्ली सरकार के, सरकार द्वारा ख़रीदी या अधिग्रहित की गई ज़मीन पर नहीं बने हैं, बल्कि ग्राम सभा द्वारा दान की गई ज़मीन या जनता की साझी/पब्लिक भूमि पर खड़े हैं।
हरियाणा जैसे राज्यों में जब कहीं गाँव के स्कूल में बच्चों की गिरती संख्या को बहाना बनाकर सरकार ने बंद करने की कोशिश की है, तो गाँव के लोगों ने अपना स्कूल बचाने के लिए अपने बच्चों को निजी स्कूल से निकालकर गाँव के सरकारी स्कूल में प्रवेश दिलाया है। (हालाँकि, इस ताक़त के पीछे यक़ीनन इन गाँवों की सामाजिक व्यवस्था का कुछ सामंती चरित्र भी है।) ये जज़्बा हर गाँव या तबक़े को हासिल नहीं है। क्या हम भी इसी जज़्बे से अपने इलाक़े में सरकारी स्कूलों की संख्या बढ़वाने और इनके अंदर अच्छी शिक्षा बचाने के लिए लड़ेंगे?
8. पिछले डेढ़-दो साल में घरबंदी और कामबंदी ने हमारी आर्थिक कमर तोड़ दी, और इसके साथ स्कूलबंदी ने हमारे बच्चों की पढ़ाई को बर्बाद करके रही-सही कसर निकाल दी। हमारे बच्चे महँगे निजी स्कूलों के बच्चों की तरह लैपटॉप, टैब पर क्लासें तो नहीं ही कर पाए, बल्कि ऑनलाइन की झूठमूठ की पढ़ाई ने हमारी गाढ़ी मेहनत की जमा पूँजी को भी लील लिया। यानी ऑनलाइन पढ़ाई के चक्कर में हम पर दोहरी मार पड़ी - फ़ोन और नेट पर पैसा भी ख़र्च हुआ और पढ़ाई के नाम पर हाथ कुछ नहीं आया। इस तरह हमारी पूरी एक पीढ़ी को दाँव पर लगाकर सरकार ने धूमधाम से डिजिटल और ऑनलाइन पढ़ाई की कामयाबी का बिगुल बजाया।
स्कूल बंद करने का फ़ैसला करते हुए न सबको पढ़ने की ज़रूरी सुविधा दी गई और न ही हम जैसों के बच्चों का ख़याल रखा गया। उन्हें पता है कि चाहे 10 साल स्कूल बंद रहें या हमेशा के लिए बंद कर दिए जाएँ, उनके बच्चों का तो कुछ बिगड़ना नहीं है; बल्कि हमारे बच्चों की पढ़ाई छूट जाने या बंद होने से उनके वर्ग का भला ही होना है। अगर सरकारें सबकी होतीं, सबके लिए सोचतीं, तो या तो सब बच्चों के लिए बराबर इंतेज़ाम करतीं, या सब स्कूलों की पढ़ाई को रोक देतीं ताकि किसी के साथ नाइंसाफ़ी नहीं होती। मगर हुआ ये कि लक्षद्वीप जैसी जगह पर भी, जहाँ कोई केस नहीं था और भारत के मुख्य भाग से कटा होने के चलते हो भी नहीं सकता था, सब स्कूलों को ज़बरदस्ती बंद कर दिया गया। जब इस नाते कि उनके बच्चे स्कूल नहीं आ सकेंगे, सब बच्चों की असली पढ़ाई रोक दी गई, तो फिर इस नाते ऑनलाइन पढ़ाई क्यों नहीं रोकी गई कि सबके पास ये सुविधा नहीं है? ज़रा सोचिए, ऑनलाइन पढ़ाई से हमारे बच्चों का भले ही कोई फ़ायदा हुआ हो या न हुआ हो, मोबाइल और डाटा के व्यापारियों के मुनाफ़े में ज़रूर ज़बरदस्त बढ़ोतरी हुई है! अगर सब बच्चे एक ही तरह के स्कूलों में एक जैसी सुविधा पाते हुए साथ-साथ पढ़ते, तो ऐसा अन्याय नहीं होता।
9. हद तो यह है कि हमें बाँटने के लिए कानून में भी पूरा मसौदा तैयार है। RTE जैसे कानूनों में कभी हमें यह लालच दिया जाता है कि प्राइवेट स्कूलों में 8वीं तक की उन 25% सीटों के पीछे भागो जो ग़रीब/कमज़ोर वर्गों से आने वाले बच्चों के लिए रखी गई हैं। कभी हम 'ख़ास' स्कूलों के पीछे भागने लगते हैं, जैसे केंद्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय, सैनिक स्कूल, प्रतिभा विद्यालय, और अब दिल्ली के नए लॉलीपॉप स्कूल, स्कूल्स ऑफ़ स्पैशलाइज़्ड एक्सीलेंस। क्या इस दौड़ में भागकर हम अपने वर्ग के सभी बच्चों का भला कर सकते हैं? 10 सीटों वाले स्कूल में चाहे आपका बच्चा जाए या पड़ोसी का, जाएँगे तो सिर्फ़ 10 ही। बाक़ी 1000 कहाँ जाएँगे? हम क्यों साथ आकर सभी स्कूलों में सभी बच्चों के लिए एक-जैसी बढ़िया पढ़ाई की माँग नहीं कर रहे?
हम प्राइवेट स्कूलों में दाख़िले के लिए पैसे का ज़ोर लगाते हैं; अपनी पसंद के सरकारी स्कूल में दाख़िले के लिए जान-पहचान निकालते हैं, ऐसे काम न बने तो 'ऊपर' से सिफ़ारिश लाते हैं, और ये सब न हो तो गिड़गिड़ाते भी हैं। पर इससे हम इस ग़लत व्यवस्था को और मज़बूत करते हैं। क्या हमें यह नहीं करना चाहिए कि सिर्फ़ अपना काम निकलवाने के बजाय एकजुट होकर सभी बच्चों के दाख़िलों और बेहतर शिक्षा के लिए लड़ें? जब हम सबके लिए लड़ेंगे तो हमारे बच्चे का भला भी अपने-आप होगा। नहीं तो जैसे अपने ही हक़ के लिए आज हम गिड़गिड़ा रहे हैं, कल हमारे बच्चे गिड़गिड़ाएँगे। हमारी माँग होनी चाहिए कि सब बच्चों के लिए उनके पड़ोस में बराबरी की पढ़ाई वाले और पूरी सुविधा, पूरे स्टाफ़ वाले सरकारी स्कूल हों।
अंत में
कल अगर हमने सार्वजनिक, यानी साझी स्कूल व्यवस्था को मज़बूत करने और समान स्कूल व्यवस्था खड़ी करने की लड़ाई लड़ी होती, तो आज घरबंदी और स्कूलबंदी के क्रूर दौर में निजी (प्राइवेट) स्कूलों से धोखा खाने की नौबत नहीं आती।
दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं है जिसने निजी स्कूलों की बदौलत अपने लोगों को शिक्षित किया हो और तरक़्क़ी हासिल की हो। कई देशों में एक इलाक़े के सभी बच्चे एक-साथ पढ़ते हैं, चाहे उनके परिवारों की आर्थिक-सामाजिक हैसियत कुछ भी हो। ऐसे देशों में प्राइवेट स्कूल या तो हैं ही नहीं, या नाममात्र हैं। हमें राम मनोहर लोहिया के इस नारे को याद करने की ज़रूरत है - 'राष्ट्रपति की हो या हो मज़दूर की संतान, सबकी शिक्षा एक समान!'
जब उनके-हमारे, यानी अमीर-ग़रीब, सबके बच्चे एक-साथ पढ़ेंगे तो सरकारी/निगम के स्कूल सचमुच साझे हो जाएँगे और पढ़ाई का स्तर अपने आप सुधरेगा। सब स्कूलों को बेहतर बनाने का इससे ज़्यादा सस्ता और टिकाऊ उपाय कोई नहीं है!
लेकिन जब सारे बच्चे एक-साथ एक ही स्कूल में पढ़ेंगे, तब भी ऐसा हो सकता है कि अफ़सर और मज़दूर के बच्चों के बीच में भेदभाव बरता जाए। किसी को ज़्यादा मौक़ा दिया जाए, किसी को कम। हमारे स्कूलों में जातिगत और लड़के-लड़की के बीच के भेदभाव का इतिहास भी यह साबित करता है कि स्कूल एक होने से ही सबके साथ होने वाला व्यवहार बराबरी का नहीं हो जाता। फिर, स्कूल के एक होने से स्कूल के बाहर की दुनिया भी एक नहीं हो जाएगी। किसी को घर पर काम करना पड़ता है, परिवार की कमाई के लिए हाथ बँटाना पड़ता है, तो कोई बिना इन मजबूरियों के पूरा ध्यान और वक़्त पढ़ाई पर लगाने को आज़ाद होता है।
तो समान स्कूल व्यवस्था एक ज़रूरी शर्त है, पूरी शर्त नहीं।
सिर्फ़ शिक्षा और स्कूल समाज में ऊँच-नीच, अमीर-ग़रीब का फ़र्क़ ख़त्म नहीं कर सकते, लेकिन बच्चों को बराबरी और इंसाफ़ का सपना देखना तो सिखा सकते हैं, इसके लिए विचार तो जगा सकते हैं और इस सपने को पूरा करने के लिए उन्हें तैयार तो कर सकते हैं!
लोक शिक्षक मंच
Tuesday, 12 October 2021
श्रीनगर में शिक्षकों की हत्या पर बयान
लोक शिक्षक मंच 7
अक्टूबर को श्रीनगर के एक सरकारी
स्कूल में प्रधानाचार्य सुपिंदर कौर और शिक्षक दीपक चंद की चिन्हित हत्या
पर शोक और रोष व्यक्त करते हुए इस अमानवीय हिंसा की कड़ी निंदा करता है। इन हत्याओं
को जम्मू-कश्मीर में हाल में हुई आम, निहत्थे नागरिकों की हत्या की कड़ी में
देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि लोगों की धार्मिक व क्षेत्रीय पहचान को आधार बनाकर
निशाना बनाया जा रहा है। इसका प्रमुख उद्देश्य लोगों के बीच आपसी अविश्वास, डर, पलायन आदि के हालात
पैदा करना ही हो सकता है।
इतिहास में युद्ध की परिस्थितियों में भी शिक्षा व उपचार जैसे
नागरिक अधिकारों व सेवाओं के क्षेत्र में कार्यरत कर्मियों को हिंसा का निशाना
नहीं बनाने का घोषित-अघोषित नियम लागू रहा है। निहत्थे आम नागरिकों के साथ-साथ
शिक्षकों की चिन्हित हत्या इस बुनियादी उसूल को भी पलटते हुए युद्ध व
सशस्त्र संघर्ष की तमाम हदों का उल्लंघन करती है। हमें विश्वास है कि इन शहीद
शिक्षकों के साथी शिक्षक, उनके विद्यार्थी व स्थानीय समुदाय साथ आकर उनकी यादों व उनके
परिवारों के प्रति अपनी संवेदनशीलता ज़ाहिर करेंगे और इस तरह नफ़रत व अमानुषिक हिंसा
के इस कृत्य के इरादों को नाकाम साबित करेंगे।
जबकि दो साल के ऊपर से जम्मू-कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं
को नज़रबंद रखा गया है तथा वर्षों से वहाँ अति-सैन्यीकरण की परिस्थितियाँ बनी हुई
हैं, ऐसे में इन हत्याओं को अंजाम दिया जाना हमारे सामने कई सवाल खड़े
करता है। आख़िर चप्पे-चप्पे पर नाकेबंदी, आम लोगों पर कड़ी पाबंदियों और निर्बाध
सैनिक-सशस्त्र प्रशासन के बावजूद हालात बेहतर/'सामान्य' क्यों नहीं हो रहे
हैं? लोकतांत्रिक व्यवस्था का दावा करने में जवाबदेही से बचा नहीं जा सकता है।
इन निर्मम हत्याओं की घोर निंदा करते हुए हम उन तमाम सैनिक-सशस्त्र
कार्रवाइयों की अनदेखी नहीं कर सकते जिनके चलते दुनियाभर में स्कूल, शिक्षक, विद्यार्थी, बच्चे तथा उनके
परिवार डर व आतंक के साये में जीते-मरते हैं। इन कार्रवाइयों में न सिर्फ़ 'संदिग्ध' स्कूलों, शिक्षकों व
विद्यार्थियों पर पहरे बिठा दिए जाते हैं, बल्कि युद्ध की 'असामान्य' परिस्थितियों व
विशेष क़ानूनों का हवाला देते हुए स्कूलों को सैन्य शिविरों में तब्दील कर दिया
जाता है। ऐसी सशस्त्र-अघोषित युद्ध सरीखी परिस्थितियों में बच्चों की शिक्षा को
सहज ही बलि पर चढ़ा दिया जाता है।
आज 'शांतिपूर्ण' हालातों में भी हम दिल्ली में ही सार्वजनिक स्कूलों के अर्ध-सैनिक
बलों के शिविरों में बदल दिए जाने के मूक गवाह हैं। इसके अलावा, ये हत्याएँ हमें उस तंत्र की
तानाशाही के प्रति भी सजग रहने को प्रेरित करती हैं जो अन्यथा 'शांतिपूर्ण' परिस्थितियों में भी
शिक्षकों की पढ़ने-बोलने-लिखने-संगठित होने-विरोध दर्ज करने के अधिकारों को 'अहिंसक' तरीक़ों से कुचलकर
शिक्षा व शिक्षकों के प्रति अपना असल रवैया प्रकट करता है। शारीरिक हिंसा की तरह
वैचारिक हिंसा भी घातक है।
हम माँग करते हैं कि-
- सुपिंदर कौर व दीपक चंद की हत्याओं के ज़िम्मेदार लोगों को गिरफ़्तार
किया जाए।
- हिरासत में लेने के बाद उन लोगों पर त्वरित न्यायिक कार्रवाई हो और
उनके इरादों व तारों का पर्दाफ़ाश हो।
- सभी शिक्षकों,
विशेषकर अल्पसंख्यक समुदायों से आने
वालों को सुरक्षा का भरोसा दिलाने के लिए प्रशासन स्थानीय लोगों को साथ लेकर शांति
व विश्वास की संयुक्त बैठकें आयोजित करे।
- जब तक शिक्षक सुरक्षित महसूस न करें तब तक उन्हें सशरीर उपस्थित रहकर ड्यूटी निभाने के लिए मजबूर न किया जाए।
Friday, 24 September 2021
पत्र: विद्यार्थियों के वजीफों संबंधित समस्याओं के निवारण हेतु
प्रति
स्कूल्ज़ ऑफ़ स्पैशलाइज़्ड एजुकेशन (SoSE) की योजना ख़ारिज करो!
बच्चों व स्कूलों के बीच
ग़ैर-बराबरी की बहुपरती व्यवस्था ख़त्म करो!
13 अगस्त को दिल्ली सरकार ने यह घोषित किया कि
नवगठित दिल्ली बोर्ड ऑफ़ स्कूल एजुकेशन को कॉउंसिल ऑफ़ बोर्ड्स ऑफ़ स्कूल एजुकेशन और
एसोसिएशन ऑफ़ इंडियन यूनिवर्सिटीज़ से मंज़ूरी मिल गई है। शिक्षा मंत्री ने, जोकि इस बोर्ड के प्रमुख हैं, यह भी कहा कि इंटरनैशनल बॅकलॉरियट (आईबी) के साथ
मिलकर काम करने से बच्चों के लिए 'विश्वस्तरीय' अवसर खुलेंगे।
द हिंदू में 12 अगस्त
को छपी एक रपट के अनुसार इस नवगठित बोर्ड ने इंटरनैशनल बॅकलॉरियट के साथ एक समझौता
किया है जिसके तहत इसी सत्र में दिल्ली सरकार के 30 स्कूलों
में पाठ्यचर्या, शिक्षाशास्त्र व मूल्याँकन के क्षेत्रों में 'वैश्विक चलन' अपनाए
जाएँगे। रपट में कहा गया कि नवगठित बोर्ड से संबद्ध 10 सर्वोदय स्कूलों के नर्सरी से 8वीं तक के विद्यार्थी और 20 स्कूल्ज़ ऑफ़ स्पैशालाइज़्ड एक्सेलेंस (SoSE; यह स्पष्ट नहीं है कि इन्हें हिंदी में कोई नाम दिया
गया है या नहीं) के 9वीं से 12वीं
तक के विद्यार्थी अब उच्चतम अंतर्राष्ट्रीय स्तर की शिक्षा पा सकेंगे। अमरीका, कनाडा, स्पेन, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे 'विकसित' देशों
की सरकारों के उदाहरण देते हुए मुख्यमंत्री ने बताया कि इंटरनैशनल बॅकलॉरियट 159 देशों में 5,500 स्कूलों
के साथ मिलकर काम कर रहा है। उन्होंने इस पहल को सबसे वंचित लोगों के लिए
सर्वश्रेष्ठ गुणवत्ता की शिक्षा उपलब्ध कराने के मॉडल के रूप में व्याख्यायित
किया। कहा गया कि आईबी के मार्गदर्शन में स्कूलों की जाँच-परख की जाएगी और उन्हें
सुधारने के उपाय बताए जाएँगे, जिसमें प्रशिक्षण
आदि शामिल होगा, जिससे कि और स्कूलों को नवगठित बोर्ड से संबद्ध
होने की प्रेरणा मिलेगी। शिक्षा मंत्री ने बताया कि सरकार का उद्देश्य यह
सुनिश्चित करना है कि दिल्ली के विद्यार्थी वैश्विक नेता बनें। यह भी बताया गया कि
आईबी सरकारी बोर्ड के साथ ज्ञान सहयोगी (नॉलेज पार्टनर) की तरह काम करेगा।
लोक शिक्षक मंच इन स्कूलों की संकल्पना व
सिद्धांत पर कुछ बिंदु व प्रश्न साझा करते हुए, माँगों
सहित एक बयान सार्वजनिक कर रहा है।
सिर्फ़ 'कुछ' गड़बड़
नहीं है, बल्कि सब कुछ ही गड़बड़ है
अगर दिल्ली की, या
कोई भी सरकार कुछ विशिष्ट स्कूल खोलकर बच्चों को पढ़ाई का 'सर्वोत्तम' माहौल
देने का दावा करती है, तो आख़िर
हमें क्या समस्या है?
हमें इस पूरी संकल्पना से ही अनेक दिक्कतें हैं, जो नीचे दर्ज हैं।
1. जब कोई सरकार अपने सभी शिक्षा संस्थानों पर बराबर
ध्यान नहीं देना चाहती, तब वो इनमें से कुछ संस्थानों को चमकाकर वाहवाही
लूटने की राजनीति करती है। प्रतिभा विद्यालय भी तो इसी राजनीति का हिस्सा थे
जिनमें सरकारी स्कूलों से बच्चों को छाँटकर ले जाया जाता था और उन्हें 'बढ़िया' शिक्षा
दी जाती थी। मतलब, क्या सरकार ख़ुद यह स्वीकारती है कि वो अपने सभी
स्कूलों में अच्छी शिक्षा देने में विफल है?
इसके बाद स्कूल ऑफ़ एक्सेलेंस ग़ैर-बराबरी की मिसाल बने। और अब इस
बहुपरती व्यवस्था की नाइंसाफ़ी छुपाने के लिए इस पर स्कूल ऑफ़ स्पैशलाइज़्ड एक्सेलेंस
(SoSE) की नई क्रीम पोती जा रही है।
2. पहले निगम व
निदेशालय के स्कूलों में दो साल पढ़ने पर ही प्रतिभा स्कूलों में प्रवेश के लिए
परीक्षा दी जा सकती थी। ऐसा इसलिए किया गया था कि प्रतिभा जैसे विशिष्ट सार्वजनिक
स्कूलों में उन बच्चों का पढ़ने का मौका सुरक्षित हो जो सरकारी स्कूलों से आए हैं।
अब यह शर्त हटा दी गई है। इनमें केवल 50% प्रवेश ही सरकारी स्कूल से पढ़े बच्चों
के लिए सुरक्षित होगा। जिसका मतलब है कि 50% सीटें प्राइवेट स्कूलों के
विद्यार्थियों के लिए अपने-आप सुरक्षित हो जाएँगी। इसका नतीजा यह भी होगा कि अब एक
ही विद्यालय में विद्यार्थियों के दो वर्ग होंगे। सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले
विद्यार्थियों के लिए मौके बढ़ेंगे नहीं, घटेंगे।
3. इन ख़ास विद्यालयों
में प्रवेश के लिए अब बच्चे गलाकाट प्रतिस्पर्धा करेंगे। वैसी ही प्रतिस्पर्धा जो
हम मेडिकल या इंजीनियरिंग एंट्रेंस में देखते हैं। ज़ाहिर है, यहाँ शिक्षा अधिकार
अधिनियम का 'कोई प्रवेश परीक्षा नहीं' लेने का सिद्धांत मायने नहीं रखेगा।
क्या प्रतिस्पर्धा पर खड़े ऐसे विद्यालयों से कोचिंग केंद्रों के
लक्षणों का आभास नहीं होता है?
ये विद्यालय सिर्फ़ नए तरह के संस्थान
नहीं हैं, बल्कि ये नई तरह के नवउदारवादी शिक्षा दर्शन के परिणाम हैं। इनसे
आम सार्वजनिक स्कूलों का महत्व और कम होगा।
4. एक सवाल यह भी है
कि 'सर्वोत्तम शिक्षा'
की परिभाषा क्या है। अगर SoSEs में बच्चों को
मेडिकल, इंजीनियरिंग,
कानून आदि की प्रवेश परीक्षाओं के लिए
तैयार किया जाएगा तो इस काम के लिए तो कोचिंग इंडस्ट्री के केंद्रों की भीड़ पहले
से मौजूद है। सरकारी स्कूलों को कोचिंग केंद्र बनाने की क्या ज़रूरत आन पड़ी?
या तो सरकार को अपनी शेख़ी बघारने के लिए ऐसा करना पड़ रहा है ताकि वो विज्ञापनों में प्रचारित कर सके कि 'सरकारी स्कूलों के 100-200-300 बच्चों ने IIT में प्रवेश लिया'। या फ़िर मध्यम-वर्गीय अभिभावकों के एक हिस्से को खुश करना पड़ रहा है कि उनके बच्चे को भी महँगी कोचिंग वाली तैयारी सरकारी स्कूल में मुफ़्त कराई जाएगी। या फ़िर सरकार चाहती है कि जनता ज़्यादातर सरकारी स्कूलों में दी जा रही दोयम दर्जे की शिक्षा (जिनमें महज़ साक्षरता प्रोग्राम पर ज़ोर है) पर बात करने के बजाय SoSEs की चकाचौंध में खो जाए।
5. हम इस कोचिंग को
शिक्षा नहीं 'प्रति-शिक्षा'
मानते हैं। कोचिंग का जो बाज़ार दशकों
से भारत, चीन, कोरिया जैसे विकासशील देशों में फल-फूल रहा है, उसका इतिहास दाग़दार
है। जिस व्यवस्था में एक नौकरी के लिए हज़ारों अभ्यार्थी खड़े हैं, उसमें कुछ
मुनाफाखोर इस तंगी को प्रतिस्पर्धा में बदलकर पैसे कमाने के साधन अवश्य ढूंढ
लेंगे। हर एक 'सफल' बच्चे पर 1000 'असफल' बच्चे तैयार होंगे जो पिछड़ेंगे और मानसिक तनाव के शिकार बनेंगे।
भयावह यह है कि अभी तक जो विकृती सरकारी स्कूलों से बाहर थी, अब उस बीमारी को
अंदर घुसाया जा रहा है। जब मेडिकल, इंजीनियरिंग की शिक्षा का बाज़ारीकरण
हो रहा था, तब हम उसे तो रोक नहीं पाए, उल्टा अब हमारे सरकारी स्कूलों को ही
इस बाज़ार की दुकानें बनाने की तैयारी हो रही है।
6. यह भी अभी तक
स्पष्ट रूप से सामने नहीं आया है कि इन विद्यालयों में वित्तीय, फ़ीस प्रवेश व
नियुक्तियों में सामाजिक न्याय के संवैधानिक प्रावधान लागू होंगे या नहीं और अगर
होंगे तो कैसे लागू होंगे। यह साफ़ नहीं है कि इन स्कूलों में शिक्षकों की
नियुक्ति-तैनाती किन आधारों पर होगी। हमारा मानना है कि इन स्कूलों में निजी
संस्थाओं की प्रस्तावित नियंत्रणकारी भूमिकाओं के चलते शिक्षकों की अकादमिक व
पेशागत स्वायत्तता व गरिमा भी ख़तरे में पड़ जाएगी। इन पहलुओं के बारे में एक अघोषित
चुप्पी है जिसे केवल सीमित आधिकारिक बयानों या प्रचारी रपटों से पोछा जा रहा है।
इससे इन स्कूलों के प्रबंधन,
क़रार की शर्तों आदि को लेकर गंभीर
शंकाएँ उभरती हैं।
7. क्या इनमें विशेष
ज़रूरतों वाले बच्चों को प्रवेश मिलेगा? हम देखते आए हैं कि तथाकथित
उच्च-स्तरीय या विश्वस्तरीय संस्थानों की चमक-धमक बनाने के लिए सबसे कमज़ोर की बलि ली
जाती है, उन्हें बाहर रखकर ही ये संस्थान विशिष्ट होने का गर्व महसूस करते
हैं और समाज में प्रतिष्ठा पाते हैं।
8. आज दिल्ली के
सरकारी स्कूलों में कक्षा VI-VIII के हर बच्चे पर मिशन बुनियाद थोपा जा रहा है। उन्हें केवल कामचलाऊ
(हिंदी और गणित) साक्षरता प्रोग्राम के लायक़ बताया जा रहा है। उनकी पाठयचर्या से
सिद्धांतों को ख़त्म कर दिया गया है। एक तरफ़ अधिकतम बच्चों के स्तर को गिराया जा
रहा है और दूसरी तरफ़ अंतर्राष्ट्रीय स्तर के नाम पर आईबी से क़रार करके विश्वस्तरीय
शिक्षा देने का ढोल पीटा जा रहा है। यह कैसा विरोधाभास है?
दरअसल यह विरोधाभास नहीं, बल्कि इस व्यवस्था की एक अनिवार्य
परिस्थिति है। वर्तमान अर्थव्यवस्था को जैसे श्रमिकों की ज़रूरत है, यह उन्हीं को तैयार
करने की शिक्षा योजना है। अधिकतम बच्चे दोयम दर्जे की साक्षरता पाकर मशीन चलाने
वाली लेबर फ़ौज का हिस्सा बनेंगे। इनकी शिक्षा को गहन सिद्धांतों से खाली करके
इन्हें जागरूक, सशक्त मज़दूर बनने से रोका जाएगा। वहीं दूसरी तरफ़ मुट्ठीभर युवाओं
को प्रशासकीय, प्रबंधकीय व अत्यधिक कुशल भूमिकाओं के लिए तैयार करने के लिए
स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक एंट्रेंस टेस्ट की छलनियाँ बिछाई जाएँगी।
9. इसी तरह, चाहे वो दिल्ली
सरकार का एक तरफ़ 'देशभक्ति करिकुलम'
लाना व दूसरी तरफ़ 'अंतर्राष्ट्रीय
नागरिक' बनाने के घोषित मक़सद वाले आईबी को लाना हो या केंद्र सरकार की
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इसी तरह के दोमुँही आग्रह, यह 'प्रतीकात्मक
राष्ट्रवादी' तत्वों को ख़ुश करके व जनता को भरमाकर शिक्षा में अंतर्राष्ट्रीय
बाज़ार को घुसाने की योजना का मिला-जुला पैंतरा है।
10. स्कूलबंदी और
कोरोना के संदर्भ में ख़ासमख़ास स्कूल खोलना - दरअसल खोलना नहीं, पुरानों को बंद
करके, उनके सार्वजनिक ज़मीन-संसाधनों को 'विश्वस्तरीय' स्कूलों की
मृगतृष्णा के नाम पर निजी नहीं तो अर्धनिजी हाथों में सौंपना - और उनमें दाख़िले
देने के लिए प्रवेश परीक्षा आयोजित करना (जैसे कि सब कुछ 'सामान्य' हो) शिक्षा व लोगों
की हक़ीक़त के साथ एक क्रूर मज़ाक है।
कोरोना, घरबन्दी और आर्थिक संकट के दबाव में सरकारी स्कूलों में बढ़ते
दाख़िलों के संदर्भ में जहाँ वक़्त की माँग थी कि नए सरकारी स्कूल खोले जाएँ, पर्याप्त संख्या
में नियमित स्टाफ़ की नियुक्ति की जाए, प्राइवेट स्कूलों की मनमर्ज़ी रोकी जाए
आदि, वहाँ सरकार ने ऐसा कुछ तो किया नहीं, बल्कि एक तरह से सार्वजनिक स्कूलों और
उनकी 'सीटों' को कम करने की योजना बनाकर बच्चों के आधे-अधूरे अधिकारों का दायरा
और सीमित कर दिया है।
जनता के सामने सवाल
क्या हमें सचमुच लगता है कि इन नई परतों से सभी स्कूलों में
एक-जैसी, एक समान गुणवत्ता वाली शिक्षा मज़बूत होगी या अब हमने वो सपना देखना
ही छोड़ दिया है? क्या इन विशिष्ट स्कूलों को खोलकर सरकार सभी बच्चों का भला कर रही
है या कुछ बच्चों को छाँटकर बाकी बच्चों को अपने हाल पर छोड़ रही है? ऐसे प्रोग्राम
मौजूदा गैर-बराबरी को और बढ़ाएँगे या कम करेंगे?
हमारी माँग तो यह होनी चाहिए कि सभी सरकारी स्कूलों में एक समान
फण्ड, बराबर ध्यान और एक समान गुणवत्ता वाली शिक्षा होनी चाहिए।
जनता भूखी है। उसे भूखा रखा गया है। अपनी ज़िम्मेदारी निभाने के नाम
पर सरकार 100 में से 4 लोगों के लिए केक बनवाती है। विडंबना यह है कि हम 100 लोग एक होकर सरकार
से सवाल नहीं पूछते कि 96 लोगों का हिस्सा कहाँ गया, बल्कि इन 4 लोगों के हिस्से
वाले केक के लिए आपस में लड़ने लगते हैं। साथ ही सरकार की वाहवाही भी करते हैं कि
सरकार ने भूखे लोगों के लिए केक बनवाया!
सरकार जवाब दे
1. अगर इन विशिष्ट
स्कूलों में 'सर्वोत्तम' शिक्षा दी जाएगी तो अन्य सैकड़ों दिल्ली सरकार के स्कूलों को क्या
कामचलाऊ शिक्षा देने के लिए खोला गया है? सरकर द्वारा सरकारी स्कूलों के बीच
में ही यह भेदभाव क्यों?
2. हिसाब दीजिए कि
जितने संसाधन एक SoSE को दिए जाएँगे,
उसमें कितने सामान्य सरकारी स्कूल अपनी स्थिति सुधार सकते हैं। एक तरफ़ 15 विद्यालयों में
कक्षा 11-12 के हर विद्यार्थी को टैब दिया जा सकता है, दूसरी तरफ़ सरकारी
स्कूलों के हज़ारों बच्चों को मासिक इंटरनेट डाटा के लिए कोई मदद नहीं पहुँचाई गई।
क्या हम कुछ विद्यार्थियों को टैब देने के लिए सरकार की वाहवाही करके इसके हाथ
मज़बूत करें या अधिकतम बच्चों को आधारभूत संसाधनों से वंचित रखने के लिए इसे कटघरे
में खड़ा करें?
3. 10 विशिष्ट विज्ञान
विद्यालय खोलने से कुछ नहीं होता। पहले सभी सरकारी स्कूलों में विज्ञान और कॉमर्स
विकल्प वापस लेकर आओ, विज्ञान लैब को ज़िंदा करो, हर बच्चे को वैज्ञानिक प्रयोगों का
आदि बनाओ। तब तक यह दावा बेमानी है और भ्रमित करने वाला सस्ता प्रचार मात्र है कि
सरकार ने विज्ञान की शिक्षा के लिए कुछ सार्थक किया है।
4. दिल्ली सरकार आईबी पाठ्यचर्या खरीदने और निजी संस्थाओं को दिए गए सैकड़ों करोड़ों का चिट्ठा प्रस्तुत करे, सारे कॉन्ट्रैक्ट, नियम आदि को सार्वजनिक पटल पर रखे, ताकि इनकी जाँच हो सके और जनता सच्चाई जाने। इस भेदभावपूर्ण और शिक्षा-विरोधी योजना को वापस लिया जाए।