कुछ दिन पहले स्कूल के व्हाट्सऐप ग्रुप में एक कविता साझा की गई। मुझे इसका पता एक दिन बाद में चला, जब स्कूल के एक साथी ने इसका प्रशंसात्मक उल्लेख किया। उन्होंने कविता की जिन अंतिम पंक्तियों को उद्धृत किया था, उनके भाव से हममें से अधिकतर लोग परिचित हैं। इन पंक्तियों को जानकर मेरा मन पूरी कविता को पढ़कर एक प्रतिक्रिया देने का हुआ।
कविता यूँ थी -
स्कूल में सब ख़ुश थे
क्योंकि सारे बच्चे पास थे,
जो आये, वो पास;
जो नहीं आये, वो भी पास;
जिसने परीक्षा दी, वो पास;
जिन्होंने नहीं दी, वो भी पास;
बस दुखी था,
तो वह 'अध्यापक!'
जो खोखली नींव से,
भविष्य पतन देख रहा था।
मगर क्या करता वह,
सरकारी तुग़लकी फ़रमान के आगे बेबस!
थाप लगाने, हाथ रखने तक का अधिकार,
छीन लिया हर कुम्हार से....!!
फिर कहते हैं,
हमें बर्तन
साफ़-सुथरे, मज़बूत और अच्छे चाहिए ...!!
आइये, इस कविता के आग्रह के संदर्भ में कुछ तथ्यों और तर्कों पर नज़र डालते हैं।
8वीं कक्षा तक सबको 'प्रोन्नत' करना ('पास-फ़ेल' शब्द अब क़ानूनन भी और शिक्षाशास्त्रीय विमर्श में भी, मान्य नहीं है) इस या उस सरकार का तुग़लकी फ़रमान नहीं है, बल्कि शिक्षा अधिकार अधिनियम (2009) के अंतर्गत एक वैधानिक प्रावधान है। हाँ, यह ज़रूर सच है कि सभी क़ानून हमारी आज्ञाकारिता या सम्मान के लायक़ नहीं होते। संसद और सरकारों की समझ व नीयत, दोनों ही जनविरोधी हो सकती हैं, और शायद अक़सर होती भी हैं। इस क़ानून से पहले भी, अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग कक्षाओं के स्तर तक 'फ़ेल न करने' की नीति लागू थी। इस क़ानून ने न सिर्फ़ इसे एक देशव्यापी स्वरूप दे दिया, बल्कि 8वीं तक एक-समान स्तर तक ला दिया। यह निश्चित तौर से जानना आसान नहीं है कि किसी संविधान, क़ानून, नियम आदि को किस उद्देश्य से लाया गया है। बहुत कुछ मंशा पर निर्भर करता है। फिर मंशा समझ पर तथा समझ ख़ुद मंशा पर निर्भर करती है। 'नोटबंदी' जैसे क़दमों का विश्लेषण उनके पीछे की मंशा के आधार पर भी हो सकता है और समझ के आधार पर भी। हो सकता है कि गड़बड़ इनमें से एक में हो, या फिर दोनों ही गड़बड़ हों। वैसे, अगर नीयत ही गड़बड़ है, तो 'अच्छी' समझ के कोई मायने नहीं रह जाते और अगर समझ ग़लत है तो नेक नीयत ज़्यादा भला नहीं कर सकती। वैसे, किसी व्यक्ति या वर्ग की मंशा जाँचने के लिए उसके शब्दों/बयानों से ज़्यादा उसका व्यवहार कारगर होता है। जैसे, प्रशासन के प्रचार बोलते हैं कि वो न्याय को समर्पित है, मगर हम सब जानते हैं कि सामान्यतः प्रशासन किसी मज़लूम और फटेहाल इंसान के साथ उस तरह पेश नहीं आता जिस तरह संपन्न पृष्ठभूमि के व्यक्ति से।
पिछले दस-बारह सालों से, लगभग इसके लागू होने की शुरुआत से ही, 8वीं तक अनिवार्य प्रोन्नति के प्रावधान का ज़बरदस्त विरोध हुआ है। चाहे वो एसयूसीआई जैसे वाम दल हों या केंद्र में वर्तमान सत्ताधारी दल या कई दलित संगठन, इस प्रावधान की शिक्षकों के एक बड़े वर्ग के इतर भी आलोचना हुई है। इतना सब होने के बाद भी, वर्तमान केंद्र सरकार ने, जोकि 'कठोर क़दम' उठाने के लिए जानी जाती है, इसे पूरी तरह नहीं पलटा, बल्कि संशोधन करके राज्य सरकारों पर छोड़ दिया कि वो इसे बदलना चाहें तो बदलें। यह संविधान के संघीय ढाँचे के उस उसूल से मेल भी खाता है जिसके अनुसार शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है और इसमें केंद्र सरकार का एकतरफ़ा निर्णय लेना या नीति बनाना अनुचित है। (शिक्षा को आपातकाल के दौरान राज्यों की सूची से हटाकर समवर्ती सूची में डाला गया था, और अब कई संगठनों/विचारकों की यह माँग बढ़ती जा रही है कि इसे वापस राज्यों को सौंपा जाये क्योंकि अत्याधिक केन्द्रीकरण से लोकतंत्र, स्थानीय संस्कृति/भाषा व विद्यार्थियों का ही नहीं, बल्कि सबसे बढ़कर शिक्षा के आदर्शों का ही नुक़सान हो रहा है।) अब हमारे सामने सवाल ये हैं कि इसे लाया क्यों गया था, पूरी तरह न हटाकर अधूरे ढंग से क्यों हटाया गया तथा अगर अलग-अलग राज्य सरकारें इसपर कोई निर्णय ले/नहीं ले रहीं तो आख़िर क्यों। यह सिर्फ़ एक आमंत्रण है, यहाँ हम इनके उत्तर नहीं खोजेंगे।
हमारे स्कूलों के संदर्भ में हमें यह भी पूछने-जानने की ज़रूरत है कि 'जो नहीं आए' या 'जिन्होंने परीक्षा नहीं दी', उनका अनुपात कितना था व उनकी ग़ैर-हाज़िरी के कारण क्या थे। 'कोरोना-लॉकडाउन' के संदर्भ में तो यह सवाल और भी मानीख़ेज़ हो जाता है। जिन स्कूलों में हम पढ़ाते हैं, उनके विद्यार्थियों के आर्थिक, स्वास्थ्य-संबंधी हालातों से हम अपरिचित नहीं हैं। रही बात उनकी जो उपस्थित रहे और जिन्होंने परीक्षा दी, तो हमें यह भी पूछना चाहिए कि इस व्यवस्था में आख़िर उन्हें भी क्या ही मिल रहा है या मिलेगा। चाहे कोई एक रिक्शा चलाने वाले की बेटी की कामयाबी की मिसाल देकर कुछ भी सिद्ध करने की कोशिश करे, प्रचारी कामयाबी के एक अपवाद के बदले मेहनत के बावजूद नाकामी के लाखों उदाहरण साबित करते हैं कि यह व्यवस्था न्याय पर नहीं टिकी है। मान लेते हैं कि कुछ विद्यार्थी इस नियम का आत्मघाती 'फ़ायदा' उठाने के लिए जानबूझकर नहीं आये और उन्हें फुसलाने के लिए 'कुछ' दे दिया गया; जबकि अन्यों ने मेहनत की और उन्हें 'कुछ' नहीं मिला। हमारी चिंता का सबब क्या होना चाहिए - 'कुछ' को कुछ निरर्थक मिल जाना या 'बहुतों' को कुछ भी नहीं मिलना? ये वही अधूरा व ख़तरनाक तर्क है जिसकी परछाईं हम राशन व्यवस्था, वज़ीफ़े आदि की बदली जा रही व्यवस्था में भी देख सकते हैं: इस दावे के आधार पर (जिसे किसी रिपोर्ट या क़ानूनी कार्रवाई से साबित नहीं किया जाता है, बस बोला चला जाता है) कि कुछ लोग बेईमानी करते हैं, शर्तें व व्यवस्था इतनी जटिल कर दो कि चाहे सब लोग परेशान हो जाएँ या बहुत-से ज़रूरतमंदों को उनका हक़ न भी मिले, हमें यह संतोष हो जाये कि कोई 'अनुचित' लाभ नहीं ले पा रहा है।
दूसरी बात, यह प्रस्तावना कि मेरे विद्यार्थी परीक्षा के डर से या किसी बाहरी पुरस्कार के लोभ से पढ़ाई करेंगे, मेरे शिक्षक होने का अपमान है। अगर उन्हें डर और लालच से ही सीखना है, तो फिर ज्ञान की आंतरिक प्रेरणा का, इंसान की सहज खोजी प्रवृत्ति का और मेरे शिक्षणशास्त्रीय हुनर का मतलब ही क्या रह जाता है?
यह बिंब कि हम शिक्षक 'कुम्हार' हैं और हमारे विद्यार्थी 'मिट्टी', समस्यागत है। कुम्हार-कुम्हारिन अपनी मर्ज़ी से (या फिर बाज़ार की माँग के अनुसार भी) बर्तन बनाते हैं। जबकि शिक्षण कर्म का उद्देश्य विवेक व न्याय के आदर्शों के तहत एक प्रबुद्ध समाज के निर्माण में योगदान देने का होता है। कुम्हार-कुम्हारिन ख़राब बर्तन फेंक देते हैं। और हम? वो अपने बनाये बर्तन, अपनी मेहनत के जायज़ मोल में बेच देते हैं। और हम? बर्तन बनने में निर्जीव मिट्टी की मर्ज़ी शामिल नहीं होती। क्या सचेतन बच्चों की तुलना मिट्टी से की जा सकती है? ये बिंब उस पुरातन व्यवस्था से मेल खाते हैं जिसमें बहुत-सी तर्कहीन और असंगत बातें थीं। मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए उन्हें 'थाप लगाना', उनपर 'हाथ रखना' अनिवार्य है। किसी इंसान को शिक्षित व समझदार बनाने की प्रक्रिया में न ही ये अनिवार्य है, न वाँछनीय। यह भी केवल एक 'सरकारी फ़रमान' नहीं है, बल्कि क़ानून का हिस्सा और अदालतों का निर्देश भी है। हाँ, अदालतें ग़लत भी हो सकती हैं।
हाँ, हमें सभी बर्तन साफ़-सुथरे व मज़बूत चाहिए, तथा इसके लिए, ज़रूरी संसाधन उपलब्ध कराने के बाद, एकमात्र ज़िम्मेदारी कुम्हार को दी जा सकती है। (वैसे, हो सकता है कि कुम्हार भी ये बताये कि कैसे जल के सार्वजनिक स्रोतों और साझी ज़मीन को विकास तथा निजी मुनाफ़े की भेंट चढ़ाने से उनके लिए अच्छी मिट्टी व पानी प्राप्त करना मुश्किल होता जा रहा है; कि शहर में जिस कच्ची कॉलोनी में या सड़क के किनारे वो रहते हैं, शहर के मास्टर-प्लान के चलते वहाँ उनका बसे रहना दूभर होता जा रहा है।) मगर शिक्षक होने के नाते हमें तो ये सवाल पूछना - और समाज को पूछना सिखाना - है कि इस देश के सब बच्चों को भरपेट भोजन, खेलकूद के समान अवसर, खुली हवा व खुला वातावरण उपलब्ध क्यों नहीं हैं। सब बच्चों को एक समान स्कूल व्यवस्था के तहत बराबर और बराबरी की शिक्षा क्यों नहीं मिल रही है? आख़िर इंसान के बच्चे कोई बर्तन नहीं हैं कि उन्हें केवल एक कुम्हार (शिक्षक) तैयार कर दे। स्वस्थ-विवेकी बच्चे तैयार करना एक सहज-स्वाभाविक प्रक्रिया होनी चाहिए, कभी रही भी होगी और शायद विकास-विनाश के लालच व डर से कम संचालित कुछ अछूते, अहिंसक समाजों में आज भी हो। मगर हमारे जैसी विकृत व्यवस्था में आज ये अफ़्रीक़ी कहावत और भी सारगर्भित है कि एक बच्चे को बड़ा करने में पूरा गाँव लगता है। इट टेक्स ए विलेज टू रेज़ ए चाइल्ड। स्वस्थ-विवेकी बच्चे को तैयार करना न केवल एक शिक्षक के बस में नहीं है, बल्कि यह एकमात्र उसका ही काम है भी नहीं; इसमें तो समस्त राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक शक्ति लगाने की ज़रूरत है।
'स्पेयर द रॉड ऐंड स्पॉयल द चाइल्ड' जैसी कहावतें अनेकों संस्कृतियों व भाषाओं में मिलती हैं, मगर वो सच का नहीं, बल्कि अपने काल व सत्ता के पूर्वाग्रहों का प्रतिनिधित्व करती हैं। (इस कहावत का स्रोत बाइबल है।) अगर अतीत में भी देखें तो, आख़िर जब 'हाथ रखने' का अधिकार था, क्या तब सबका भविष्य उज्ज्वल बन रहा था? फिर इस आलोचना को महज़ 'पश्चिमी' चलन कहकर भी ख़ारिज नहीं किया जा सकता है, क्योंकि एक तो ख़ुद 'पश्चिम' में ही हाल तक बच्चों को शारीरिक दंड देने को मज़बूत क़ानूनी व सांस्कृतिक आधार प्राप्त था, और फिर हमारे 'अपने' इतिहास तथा पूर्व की कई संस्कृतियों में बच्चों को शारीरिक रूप से प्रताड़ित करना एक अनजानी परिघटना थी। शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच एक जीवंत, दो-तरफ़ा, गर्माहट-भरा रिश्ता होता है। इस रिश्ते को 'कुम्हार-मिट्टी' की एक-तरफ़ा छवि में ढालकर हम इसके साथ न्याय नहीं कर रहे।
कविता व कवि की भावनाओं में बच्चों और भविष्य के प्रति एक जायज़ चिंता है, मगर जिस बिंब का इस्तेमाल हुआ है वो हमारे दर्शन और विचारों को माँझने की माँग करता है। 'कुम्हार और मिट्टी' के बदले 'माली-मलिन और फूल-पौधे' रखकर देखिये, पाठ बदल जाता है। कुम्हार की तरह बग़ीचे का माली अपनी मेहनत के ख़ूबसूरत परिणाम के साथ मालिक-संपत्ति के रिश्ते का या मुनाफ़े की वस्तु-सा व्यवहार नहीं करता, बल्कि वो फूल-पौधों की रखवाली करता है। हालाँकि, यह भी पूर्ण सत्य नहीं, अपनी सीमाओं के साथ एक कलात्मक बिंब ही है। मगर एक ज़्यादा ख़ूबसूरत और मानवीय बिंब।
निःसंदेह हमें चिंता करने की ज़रूरत है क्योंकि हुक्मरानों की नीयत ठीक नहीं होती है। आज हमारे सामने शिक्षा में ज़्यादा बड़ी चिंता की बात ये होनी चाहिए कि अमीर-ग़रीब के लिए अलग-अलग स्कूल ही नहीं, बल्कि अलग-अलग कोर्स, अलग-अलग विषयों तक की नीति कार्यान्वित हो रही है। चाहे वो वोकेशनल कोर्स हों या महज़ पढ़ना-लिखना-गणना सिखाना (फ़ाउंडेशनल लिटरेसी ऐंड न्यूमेरेसी), हमें बताया जा रहा है कि हमारे विद्यार्थियों के लिए इतना ही काफ़ी है, कि उन्हें आकादमिक गहराई की ज़रूरत नहीं है। ये शिक्षा, हमारे विद्यार्थियों को सावित्रीबाई, भगत सिंह, टैगोर के अर्थों में मुक्त नहीं करेगी, बल्कि ख़ुद उनके पैरों की बेड़ी, उनके सपनों का ग्रहण बनकर हमारे बीच की असमानता को और मज़बूत करेगी। अगर हमारे विद्यार्थियों की शिक्षा की विषयवस्तु इतनी हल्की कर दी जाएगी, उसके उद्देश्य इतने छितले करके हमें पढ़ाने को कहा जायेगा, तब 'हाथ रखकर', 'थाप देकर' भी हम कौन-सा तीर मार लेंगे? अगर नीतिगत स्तर पर शिक्षा के उद्देश्यों के साथ समझौता व छल किया जा रहा है तो फिर विद्यार्थियों पर नियंत्रण रखने की ताक़त को बचाकर हमें या उन्हें क्या मिलेगा? जब ख़ुद शिक्षा को ही पैसे व दबंगई ताक़त का ग़ुलाम बनाया जा रहा हो, तो हम इस अन्यायपूर्ण साम्राज्य की अधीनता स्वीकार करके अपनी छोटी सामंती ज़मींदारी बचाने की लड़ाई में अपनी सार्थकता नहीं ढूँढ सकते। हाँ, तब हमारी ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है, विद्यार्थियों, उनके परिवारों, आमजन को यह समझाने की कि उनके वर्ग के साथ सामूहिक रूप से व उनके साथ व्यक्तिगत रूप से कैसा षड्यंत्र रचा जा रहा है।
निःसंदेह हम 'बेबस' हैं, मगर विद्यार्थियों के ऊपर शिक्षकों के सामंती अधिकारों के ढीले होते शिकंजे पर बेबसी जताना शिक्षण के पेशे की बड़ी चिंताओं से भटकना है। ज़रूरत इस बात पर चिंतित होने की है कि हम कैसे सत्ता में बैठे वर्गों व सत्ता व्यवस्था के सामने बेबस न हों, अपनी रीढ़ सीधी रखें, अपना जायज़ अधिकारक्षेत्र, अपनी गरिमा बरक़रार रखें। शिक्षकों को निर्बाध पढ़ने-पढ़ाने का हक़ है या नहीं, अपनी बात खुलकर कहने-लिखने का हक़ है या नहीं, संगठित होकर अपने व शोषित वर्गों के लिए लड़ने का हक़ है या नहीं, ये सब और ऐसे कितने ही सवाल हमारी बेबसी का बयान करते, हमारे सामने मुँह बाये खड़े हैं। हमें अपने निजी समय में, अपने संसाधन लगाकर, पर्यावरण, निजता व स्वास्थ्य विरोधी यंत्रों से, अपने शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य की क़ीमत पर, 'सरकारी' काम करने को कहा जा रहा है; सेल्फ़ी लेने-अँगूठा लगाने के अपमानजनक तरीक़ों से हाज़िरी लगाने को कहा जा रहा है; झूठे अंक, झूठे परिणाम आँकड़े दर्ज करने का प्रत्यक्ष-परोक्ष दबाव बनाया जा रहा है। सार्वजनिक स्कूलों में शिक्षण को एक ज़िम्मेदार-गरिमामय-आनंदमयी बौद्धिक कर्म की जगह झूठ-फ़रेब की चाकरी में बदला जा रहा है। ऐसे में अगर हम अपने बौद्धिक कर्म और विद्यार्थियों के हक़ों को बचाने की न्यूनतम लड़ाई लड़ेंगे तो ही हम अपने विद्यार्थियों के प्यार के क़ाबिल बन पाएँगे और उन्हें भी निडरता का पाठ पढ़ाने का दावा कर पाएँगे। अन्यथा, हमें उस शिक्षाशास्त्री के वर्णन को स्वीकार करना होगा जिसके अनुसार शिक्षक एक 'मूक तानाशाह' है - प्रशासनिक-सत्ता की दबंगई के प्रति मूक और अपनी कक्षा में विद्यार्थियों के समक्ष तानाशाह। इसका परिणाम एक ऐसे शिक्षित वर्ग के रूप में सामने आएगा जो ख़ुद तो संघर्ष नहीं ही करता है, बल्कि अन्य मेहनतकश-दमित वर्गों के बहादुराना संघर्षों को नीचा दिखाने की कोशिश भी करता है। एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था में हम शिक्षकों की भूमिका आदेशपालक, अनुशासित ग़ुलाम तैयार करने की नहीं, बल्कि विवेकी और विद्रोही मानस निर्माण की ही हो सकती है।