मालविका गुप्ता और फ़ीलिक्स पडेल
(14 जनवरी 2021 को द हिंदू संडे मैगज़ीन में छपी कवर स्टोरी, 'अनलर्निंग द लिट्रेट', का अनुवाद)
भोपाल में मुस्कान नाम के शिक्षा केंद्र के एक युवा कवि-लेखक, तसवीर, हमें बताते हैं कि कैसे लेखन को उनके ऐतिहासिक रूप से लाँछित समुदाय को सशक्त करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। "पारधियों का एक समृद्ध इतिहास है। मगर आज दूसरों के द्वारा हमें जिस तरह से चिन्हित किया जाता है वो ग़लत है। मेरा मानना है कि हमें अपनी कहानियों को लिखना और प्रकाशित करना होगा। हमारी ज़िंदगियों को सुने जाने की ज़रूरत है। हमारा समुदाय अपनी पहचान खो रहा है, हमारी संस्कृति को मिटाया जा रहा है, जंगल के साथ हमारे रिश्ते को भुलाया जा रहा है।"
ब्रिटिश हुकूमत द्वारा पारधियों को एक 'आपराधिक जनजाति' के रूप में वर्गीकृत किया गया था, और आज़ादी के बाद उन्हें 'विमुक्त जनजाति' का नया नाम दिया गया। मगर तसवीर जिस साक्षरता की बात करते हैं वो उस शिक्षणशास्त्र से आती है जिसमें आदिवासी बच्चों को शिक्षकों को अपनी भाषाएँ सिखाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है और जहाँ शिक्षा की जड़ें बच्चों के सामाजिक व सांस्कृतिक परिवेश में स्थित हैं। ये समझने के लिए कि ये औपनिवेशिक-काल के उस पदानुक्रम से कितना अलग है जो आज भी आदिवासी स्कूली शिक्षा पर हावी है, हमें इतिहास की कई उपेक्षित लड़ियों को सुलझाना होगा।
1960 में आई ऐल्विन समिति रपट ने - जोकि आज़ाद भारत की प्रारंभिक जनजाति नीति घोषणाओं में से थी - इस बात को स्वीकारा कि जनजातियों की सीखने-सिखाने की अपनी संस्थाएँ हैं, तथा 'मिलाने' के बदले 'एकीकरण' की नीति के तहत इन्हें स्कूलों के प्रतिद्वंद्वी की तरह नहीं, बल्कि सहयोगी की तरह बरतना होगा।
इन देशज संस्थाओं में से सबसे प्रसिद्ध शायद बस्तर का घोटुल है जहाँ बड़ी उम्र के मुरिया गोंड बच्चे अपने से छोटों को, काम-खेल के सातत्य व ज्ञान को मौखिक रूप से हस्तांतरित करने की परिष्कृत तमीज़ के माध्यम से, शिक्षित करते हैं। मिथकों, पहेलियों, गीतों, नृत्यों को साझा करते हुए बच्चे असंख्य कौशल हासिल करते हैं, तथा प्रतिस्पर्धा के बदले मिलकर बाँटने के मूल्यों पर टिकी आचार-नीति में रमते हैं। झारखंड में धुमकुरिया और ओड़िसा में डंगरीबासा भी ऐसी ही संस्थाएँ हैं।
आज साक्षरता का ख़ास मोल है। सवाल ये है कि इसे आदिवासी ज्ञान व मूल्यों को मिटाये बिना कैसे प्रदान किया जाये। शुरुआत में आदिवासियों के लिए अधिकतर स्कूल ईसाई मिशनों द्वारा खोले गए थे। 1920-50 के दशकों के दौरान इसके ख़िलाफ़ एक प्रतिक्रिया ने जड़ पकड़ा। शिक्षा के औपनिवेशीकरण को पलटकर हाथ, दिमाग़ और दिल को एक करने तथा स्थानीय ज्ञान परंपरा व मातृभाषाओं को महत्व देने के लिए लाई गई गाँधी की 'नई तालीम' इन प्रतिक्रियाओं में से एक थी। 'हिंदुत्व' एक अन्य थी, जो 50 के दशक में तब मज़बूत हुई जब आर के देशपांडे ने वनवासी कल्याण आश्रम (वीकेए) स्थापित किया जिसके तहत जल्दी-ही स्कूलों का एक विशाल जाल बिछ गया।
आदिवासियों के बारे में वीकेए की समझ उनके 'पिछड़े हिंदू' होने के विचार से प्रभावित थी, एक विचार जिसे कि कैंब्रिज में 1920 के दशक में नृतत्वशास्त्र में प्रशिक्षित, भारतीय समाजशास्त्र के संस्थापकों में से एक, जी एस घुरिये ने बढ़ावा दिया था। घुरिये ने आदिवासियों को 'मिला लेने' के प्रस्ताव पर बल दिया, ठीक वैसे ही जैसे कि प्रभावशाली आश्रमशाला मॉडल स्थापित करने वाले ए वी ठक्कर (ठक्कर बापा) ने किया। हाल के वर्षों में, आरएसएस के स्कूलों में समावेशित 'हिंदू' प्रथाओं ने कई आदिवासियों को हिंसक साम्प्रदायिक राजनीति में खींच लिया है। हालाँकि ठक्कर गाँधी के अनुयायी थे, मगर आश्रमशाला शिक्षणशास्त्र में कुछ भी गाँधीवादी नहीं है। आदिवासी मसलों पर सरकार की सबसे हालिया समिति, जिसके अध्यक्ष [समाजशास्त्री] वर्जीनियस खाखा थे, आदिवासी शिक्षा के 'आश्रमीकरण' की बात करती है। कई आश्रम स्कूल परोक्ष रूप से तो हिंदू राष्ट्रवादी बन गए, मगर वर्दियों, सख़्त (अक़सर क्रूर) अनुशासन, घोर पदानुक्रम में लिप्त ढाँचे, रट कर याद किए गए अजनबी 'ज्ञान', छोटे-छोटे बाल तथा आदिवासी नामों की जगह हिंदू नामों को अपनाकर ईसाई मिशन स्कूलों के ढर्रे पर ही चलते रहे। 1941 में पुणे में दिए गए अपने एक भाषण में ठक्कर ने आदिवासी 'काहिली', 'उच्श्रृंखलता', 'निरक्षरता' तथा 'झूम खेती के प्रति नशे' की नकारात्मक रूढ़िबद्ध छवियों को उभारा। इन रूढ़िबद्ध छवियों में निहित सांस्कृतिक नस्लवाद आदिवासियों के ख़िलाफ़ जारी भेदभाव और उनके निरादर की पृष्ठभूमि रचता है।
सांस्कृतिक नरसंहार
संयुक्त राज्य अमरीका में 19वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी के मध्य तक मूल निवासियों को जबरन मिलाना आधिकारिक नीति का हिस्सा था। 1970 के दशक तक इसमें बदलाव आया और आदिवासी पहचान को मिटाने के लिए बनाये गए आवासीय स्कूलों को बंद कर दिया गया। इसके बीस साल बाद, कनाडा व ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्रियों ने इस नीति में निहित सांस्कृतिक नरसंहार के लिए सार्वजनिक रूप से माफ़ी माँगी। खाखा रपट (2014) यह संकेत करती है कि भारत में भी 'एकीकरण' की आधिकारिक नीति में विलय की नीति छुपी हुई है।
विलय के दो महत्वपूर्ण आयाम हैं, समुदाय के जीवन से कटे हुए आवासीय स्कूल और प्रभुत्वशाली क्षेत्रीय भाषाओं का थोपा जाना। प्रत्येक आदिवासी भाषा में ज्ञान, सृष्टि-दर्शन और मूल्यों की पूरी एक दुनिया समाये रहती है। यह एक आंशिक कारण है कि क्यों, सामान्य रूप से उल्लंघन होते रहने के बाद भी, संविधान का अनुच्छेद 350A, जोकि हर बच्चे को उसकी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार देता है, इतना महत्वपूर्ण है। शोध दिखाते हैं कि बहुभाषी शिक्षा संज्ञानात्मक विकास में सहायक होती है और बौद्धिक आत्मविश्वास को कहीं अधिक कारगर ढंग से उत्प्रेरित करती है।
नियमगिरि को बॉक्साइट खनन से बचाने के अभियान के डोंगरिया कोंध नेता लाडो सिकाका के शब्दों में, "अगर हमारी भाषा ज़िंदा है, तभी हमारी संस्कृति फले-फूलेगी। अपनी भाषा खोकर हम अपनी पहचान, अपने जंगल, नदियों और पहाड़ों को खो देंगे।" 1941 में दिया ठक्कर का भाषण आदिवासी भाषाओं को एक 'सेतु' की तरह इस्तेमाल करने की वकालत करता है, मगर हक़ीक़त में इतना भी नहीं हुआ। 1949 के दौरान संविधान सभा में चली बहसों में जयपाल सिंह मुंडा ने ठक्कर बापा को अपने स्कूलों में आदिवासी भाषाएँ इस्तेमाल न करने के लिए आड़े हाथों लिया।
1960 के दशक से आदिवासी बच्चों के लिए खोले गए आवासीय स्कूलों में तेज़ी से वृद्धि हुई; इन स्कूलों के केंद्र में आदिवासी नागरिकों को औद्योगिक परियोजनाओं में नौकरियों के लिए प्रशिक्षित करना था और साफ़ है कि इस चलन का उद्देश्य आदिवासी क्षेत्रों में फैल रहे उद्योगों के लिए आज्ञाकारी कर्मी उपलब्ध कराना था। यह चलन 1990 के दशक में और मज़बूत हुआ जब राज्य-संचालित कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय और एकलव्य मॉडल आवासीय स्कूल तथा भुबनेश्वर के कलिंगा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ (KISS) जैसे निजी संस्थानों की तरह कई नए आदिवासी आवासीय स्कूलों को शुरु किया गया।
2005 के बाद से, जब से माओवादी संघर्ष तेज़ हुआ है और खनन कंपनियों में जंगल की ज़मीनों को कब्ज़ाने की होड़ बढ़ी है, आदिवासी गाँवों के सैंकड़ों स्कूलों को बंद किया जा चुका है। इनके बदले, आदिवासी बच्चों को बड़ी संख्या में, 'माओवादी प्रभावित' गाँवों से, एक-साथ हटाकर, दक्षिण छत्तीसगढ़ में पोर्टाकेबिन स्कूलों को स्थापित किया गया था। यह वही वक़्त था जब कंपनियों ने अपने ख़ुद के निजी आदिवासी स्कूल फ़ंड करने शुरु किए। राष्ट्रीय खनिज विकास निगम ने छत्तीसगढ़ में 'शिक्षा नगर' स्थापित किए; पिछले साल अडानी ने KISS के साथ मिलकर मयूरभंज में एक संयुक्त स्कूल खोला। इन कंपनियों की तरह वेदांता और नाल्को ने भी KISS के साथ समझौते किये हैं जिसमें वो खनन-लाभ के अपने क्षेत्रों के बच्चों के इन स्कूलों में प्रवेश को फ़ंड करते हैं।
विश्व के सबसे बड़े आवासीय स्कूल होने का दावा करने वाले KISS में 27,000 विद्यार्थी हैं, जोकि समस्त रूप से जनजाति समुदायों से आते हैं। अपने को 'नृतत्वशास्त्र की विश्व की सबसे बड़ी प्रयोगशाला' के रूप में वर्णित करने वाला यह संस्थान जनवरी 2023 में नृतत्वशास्त्र के अगले विश्व सम्मेलन की मेज़बानी करने वाला था। आदिवासी कार्यकर्ताओं व नृतत्वशास्त्रियों के विरोध के बाद इसे रद्द करना पड़ा। प्रकट रूप से KISS और अमरीकी आवासीय स्कूलों के ख़ास पहलुओं में समानता है, और 'कर का लाभ लेने वालों को कर देने वालों में बदलने' के इसके घोषित लक्ष्य में आदिवासी संस्कृतियों को 'आदिम' [पिछड़ा] मानने का विचार निहित है। आदिवासी समाज और अर्थव्यवस्था के प्रति यह असंवेदनशीलता, KISS का भयावह आकार और गाँवों से इसकी दूरी, ये सब बच्चों को उनकी जड़ों से काट देते हैं। मुफ़्त शिक्षा को आदिवासी बच्चों के लिए एक 'भेंट' की तरह प्रचारित किया जाता है - मगर फिर बच्चों को स्कूल लाने में पुलिस इतनी बड़ी भूमिका क्यों अदा करती है?
KISS हिंदू त्योहारों और संस्कृत प्रार्थनाओं को बढ़ावा देता है, नाकि आदिवासी भाषाओं, प्रार्थनाओं या पर्वों को। इसके एक भूतपूर्व छात्र कहते हैं, "KISS में ईश्वर केवल संस्कृत समझते हैं। हमारे कोंध बच्चे कुई [भाषा] में प्रार्थना करना भूल जाते हैं।
KISS के करिश्माई संस्थापक, अच्युत सामंता ने अ-साक्षर आदिवासी माता-पिता को 'कुछ नहीं समझने वाले' लोग कहकर पुकारा है। ऐसे स्कूलों में विद्यमान सांस्कृतिक नस्लवाद की जड़ें औपनिवेशिक रूढ़िबद्ध छवियों तक जाती हैं। झारखंड के एक कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय में शिक्षकों ने हमें अपने विद्यार्थियों के बारे में बताते हुए व्यापक रूप से प्रचलित नकारात्मक रूढ़िबद्ध छवियों का इस्तेमाल किया। एक ग़ैर-आदिवासी शिक्षक [शिक्षिका?] ने कहा, "इन लड़कियों को शिक्षित करना संभव नहीं है। इनकी रुचि सिर्फ़ सजने-सँवरने में है और ये अपने गाँवों में बहुत बुरी [यौन] आदतों का पालन करती हैं।" हालाँकि, एक लंबे चले संवाद के अंत में उक्त शिक्षक [शिक्षिका?] ने आत्मचिंतन करते हुए कहा, "मुझे लगता है कि इन लड़कियों के पास, एक तरह से हमसे कहीं ज़्यादा आज़ादी और एजेंसी है। हमें तो अपना जीवन-साथी तक चुनने की आज़ादी नहीं है।"
मूलनिवासियों की शिक्षा के बारे में बनाये गए प्रमुख राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय दिशा-निर्देशों का पालन नहीं किया गया है। 1961 के ढेबर [धेबर? ढेबार?] आयोग ने आदिवासी ज्ञान और भाषाओं को पाठ्यचर्या में समेकित करने तथा यह सुनिश्चित करने की अनुशंसा की थी कि स्कूल के कैलेंडर का आदिवासी त्योहारों व कृषि कार्य से, जोकि सीखने के जीवंत स्थल हैं, कोई टकराव न हो। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 की इसी तरह की अनुशंसाओं का भी पालन नहीं हुआ है। मूलनिवासियों के अधिकारों की 2006 की संयुक्त राष्ट्र की घोषणा उनके द्वारा शैक्षिक संस्थान स्थापित व संचालित करने के हक़ को रेखांकित करती है।
उम्मीद के निशाँ
यह निराशाजनक परिस्थिति एक अलग तरह की उम्मीद जगाने वाले वैकल्पिक स्कूलों के बढ़ते जाल की तुलना में बिलकुल विपरीत है। व्यापक समर्थन प्राप्त व एकरूपी बनाने वाले विशाल स्कूलों की तुलना में ये छोटे पैमाने के स्कूल विविधता का सम्मान करते हैं तथा बच्चों के राजनैतिक व सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ के प्रति संवेदनशील हैं। जनजातियों के कूड़ा बीनने वाले बच्चों के साथ काम करने वाली भोपाल की मुस्कान नाम की संस्था के काम का दिशा-स्रोत पाउलो फ़्रेरे का 'उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र' है। शिक्षक हिंदी व अंग्रेज़ी के अलावा पारधी व गोंडी और अन्य आदिवासी भाषाएँ इस्तेमाल करते हैं। यह कक्षा की अंतःक्रिया को सार्थक व रुचिकर बनाता है तथा बच्चों के आत्मविश्वास को निर्मित करता है। समुदाय के सदस्य शिक्षकों, कथाकारों, कलाकारों व पाठ्यपुस्तक लेखकों के रूप में भाग लेते हैं।
मध्य-प्रदेश के बड़वानी ज़िले में गाँव-केंद्रित आधारशिला अधिगम केंद्र, स्थानीय भाषा बारेली व आदिवासी ज्ञान परंपराओं को समाहित करते हुए, इसी तरह के सिद्धांतों पर चलता है। आकादमिक अध्ययन करने के अलावा, बच्चों ने स्कूल के ख़ासे हिस्से को निर्मित किया है और इसके चारों तरफ़ खेत व सब्ज़ियों की क्यारियाँ तैयार की हैं। आधारशिला की शुरुआत 20 साल पहले तब हुई थी जब इसके संस्थापक सरकारी आश्रम स्कूलों में पढ़ रहे आदिवासी बच्चों से मिले थे और बच्चों में अपने स्कूल को लेकर डर तथा स्कूल द्वारा उनमें अपनी पहचान, हुनर व भाषा के बारे में विकसित की गई हीन भावना को लेकर स्तब्ध रह गए थे।
ओड़िसा के रायगढ़ में कोंध माता-पिता 'डांगर पाठ' (पर्वत की पढ़ाई) और 'कागज पाठ' (औपचारिक पढ़ाई) में फ़र्क़ करते हैं। यह पूछने पर कि वो किसे तरजीह देते हैं, कई माता-पिता जवाब में 'दोनों' कहते हैं। यह आदिवासियों द्वारा महसूस की जाने वाली एक गहरी ज़रूरत को दर्शाता है: स्थानीय भाषा या अंग्रेज़ी में अच्छी पकड़ के साथ, साक्षरता महत्वपूर्ण है; मगर जल-जंगल-ज़मीन के साथ जुड़ी भाषा व ज्ञान परंपराओं के प्रति सम्मान भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति आदिवासी ज्ञान को एकीकृत करने के महत्वपूर्ण प्रश्न पर मौन है। यह बहुभाषी शिक्षा को बढ़ावा देने का आभास देती है मगर शिक्षा अधिकार अधिनियम (2009) को लागू करने के बदले बाज़ार के लिए मज़दूर तैयार करने पर केंद्रित 'परोपकारी' (असल में कॉर्पोरेट) निवेश को आह्वान देती है।
कुछ ज़्यादा ही कक्षाओं में, कुछ ज़्यादा ही समय तक, आदिवासी बच्चे ख़ामोश बैठे रहे हैं। मुस्कान में एक गोंड शिक्षिका, बाली, जिन्होंने मुख्यधारा के स्कूलों में बरसों अपमान झेला, बताती हैं कि कैसे कई गोंडी बच्चों को अक़सर पीटा जाता था और गोंडी बोलने से मना किया जाता था, जिस कारण कई बच्चों ने स्कूल छोड़ दिया। वो कहती है, "अगर हमारी भाषाओं को नीची नज़रों से नहीं देखा जाता तो हममें से कई और भी पढ़ाई जारी रखते। हममें से और अधिक लोगों ने उच्च शिक्षा हासिल की होती। हमने बेरोज़गारी या मुद्रास्फीति या वन संरक्षण की संकल्पनाओं को अपने नज़रिये से और अपनी भाषा में व्यक्त किया होता।"
उनकी कक्षा में बच्चे भाषाओं के बीच मुक्त होकर आवाजाही करते हैं। "पारधी बच्चे मेरा अभिवादन गोंडी में करते हैं और कंजर बच्चे पारधी बोलते हैं। मेरे चार्टों में हमारे द्वारा इस्तेमाल होने वाली सभी भाषाओं के शब्द होते हैं।" ऐसे तरीक़े सीखने को प्रेरित करते हैं और उन्हें, दूसरों के बारे में सीखने की प्रक्रिया में, अपनी संस्कृति में गर्व महसूस कराते हैं।
'मुख्यधारा' के विचार को सिर्फ़ इसलिए चुनौती देने की ज़रूरत नहीं है कि आदिवासी संस्कृति को कुचला जा रहा है, बल्कि इसलिए भी क्योंकि आदिवासी मूल्य व जीने के तरीक़े ऐसी अंतर्दृष्टि उपलब्ध कराते हैं जिनकी 'मुख्यधारा' को सख़्त ज़रूरत है। अगर हम पारिस्थितिकी तंत्र के विनाश को रोकना चाहते हैं, तो हमें समझना होगा कि जैव-विविधता व सांस्कृतिक विविधता किस क़दर एक-दूसरे से गुँथी हुई हैं। शायद समय आ गया है कि हम अपनी निगाह को पलटें और नए सिरे से आदिवासियों से सीखना शुरु करें।
(मालविका गुप्ता ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के इंटरनैशनल डेवलपमेंट विभाग में डी. फ़िल कर रही हैं।
फ़ीलिक्स पडेल ऑक्सफ़ोर्ड व दिल्ली विश्वविद्यालयों में प्रशिक्षित समाज विज्ञानी हैं, जोकि वर्तमान में ससेक्स विश्वविद्यालय में रिसर्च एसोसिएट हैं। )
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