Wednesday, 24 February 2021

हड़ताल

फ़िरोज़ 

प्राथमिक शिक्षक

(यह आलेख नगर निगम के कर्मचारियों की संयुक्त हड़ताल के दौरान एक अध्ययन के तौर पर, अपनी समझ बनाने और साथियों के बीच प्रतिरोध की सामूहिक कार्रवाइयों के बारे में चर्चा बढ़ाने के उद्देश्य से तैयार किया गया था। )  

विरोध के एक तरीक़े (काम बंद करने) के रूप में हड़ताल शब्द दक्षिण एशिया के कई देशों (श्री लंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल आदि) में इस्तेमाल होता है। इसका कारण इन देशों में चले साम्राज्यवाद व पूँजीवाद विरोधी आंदोलनों का साझा इतिहास है। गुजराती भाषा का यह शब्द संभवतः मोहनदास गाँधी/गाँधीजी द्वारा आज़ादी के आंदोलन की कार्रवाइयों में इस्तेमाल में लाने से चलन में आया। हड़ताल, यानी दुकान को ताला लगा देना। अंग्रेज़ी के स्ट्राइक शब्द के इतिहास की जड़ें भी मुक्ति की अभिव्यक्ति में स्थित हैं। एक व्याख्या के अनुसार, 1768 में लंदन में जब क्रांतिकारी पत्रकार व राजनीतिज्ञ जॉन विल्क्स को राजशाही की आलोचना के इल्ज़ाम में सज़ा के तौर पर क़ैद कर लिया गया और प्रदर्शनकारियों के ऊपर गोली चलाई गई तो नाविकों ने पाल हटाकर ('strike') जहाज़ों को जाने से रोका तथा निरंकुश राजशाही के ख़िलाफ़ अपना विरोध दर्ज किया व राजनैतिक आज़ादी के समर्थन में अपनी आवाज़ मिलाई थी। 


अक़सर हड़तालें किसी विशिष्ट इकाई/क्षेत्र तक सीमित रहती हैं मगर जब इनमें कई उत्पादन/कार्य क्षेत्रों के मज़दूर-कर्मी शामिल होते हैं तो ये आम हड़ताल (जनरल स्ट्राइक) की शक्ल अख़्तियार करती हैं। आम हड़ताल ने पहली बार मज़दूरों को अपनी संख्या व ताक़त का अहसास कराकर उनकी चेतना तथा हौसले को जागृत किया। 

हड़तालें मज़दूर-कर्मचारियों की विशिष्ट माँगों - जैसे, वेतन,



भत्ता, पेंशन, पक्की नौकरियाँ, कार्यस्थल पर हालात/सुविधाओं आदि - के लिए की जाती रही हैं। एक दिन के काम में 8 घंटे की सीमा और बाल-मज़दूरी पर क़ानूनी रोक इन्हीं संघर्षों का नतीजा हैं। कुछ हड़तालें व्यापक आर्थिक नीतियों के सवालों पर आयोजित की जाती हैं - जैसे, महँगाई, निजीकरण, बेरोज़गारी, ग़लत क़ानूनों आदि के ख़िलाफ़। कभी-कभी आम हड़तालों का सिलसिला व्यापक सामाजिक क्रांति या सत्ता परिवर्तन की राह भी दिखाता है, जैसे - 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन, 1968 का फ़्राँसीसी छात्र आंदोलन, 1980-82 में पोलैंड का सॉलिडेरिटी मज़दूर आंदोलन और 2018-19 में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर मुख्यतः यूरोप में फ़्राइडेज़ फ़ॉर फ़्यूचर के नाम से शुरु हुई छात्र हड़तालें। कुल मिलाकर, हड़तालें मज़दूरों, कामगारों, कर्मचारियों व आम नागरिकों की कार्य-परिस्थितियों, अधिकारों तथा ज़िंदगियों को सम्मानजनक व न्यायपरक बनाने के काम में लाई जाती रही हैं।  


इतिहास में हड़ताल का पहला लिखित उल्लेख आज से 3500 साल पूर्व मिस्री सभ्यता के रामसेज़ द्वितीय के काल का मिलता है जब शाही क़ब्रगाहों में काम करने वाले कारीगरों ने कम भुगतान किए जाने के विरोध में काम बंद कर दिया था। मिस्री शासकों को उनका मेहनताना बढ़ाना पड़ा था। (1500 से 2500 साल पूर्व के) यहूदी ग्रंथ तालमुद में भी सिनेगॉग (यहूदी प्रार्थनास्थल) में वेदी के लिए ब्रेड बनाने वाले बेकर्स के हड़ताल पर जाने का ज़िक्र है। 2000 साल पूर्व के रोमन साम्राज्य में, जिसमें राजनैतिक सत्ता कुलीन वर्गों तक सीमित थी, आम, मज़दूर जनता कर्ज़ के अत्याचार के विरोध में, अमीरों को उनके हाल पर छोड़कर, सामूहिक रूप से शहर से चले जाने की कार्रवाई करती थी जिसे सेसेशन (secession - अलगाव/पृथकता) कहा जाता था। इन सामूहिक कार्रवाइयों को आम हड़ताल का आरंभ माना जा सकता है। यानी, वर्ग-विभाजित समाज में मज़दूरों ने यह सच बहुत-पहले ही जान लिया था कि अगर हुक्मरानों के हाथ में क़ानून, न्यायपालिका, पुलिस, फ़ौज, शिक्षा, संस्कृति और धर्म का जाल है तो उनके पास इसे काटने, इससे निकलने का एक ही रास्ता है -  हुक्मरानों के लिए श्रम करने से इंकार कर देना।  


हड़तालें औद्योगिक क्रांति के दौरान (लगभग 200 वर्ष पूर्व) आम हुईं जब पूँजीवादी उत्पादन में बड़े स्तर पर मज़दूरी कराई जाने लगी। आधुनिक युग की पहली आम हड़ताल 1842 में इंग्लैंड में हुई जब न्यायोचित वेतन व बेहतर कार्य-परिस्थितियों की माँग के लिए कारख़ानों, मिलों व खदानों के मज़दूरों ने काम ठप्प कर दिया। कई देशों में हड़तालों को ग़ैर-क़ानूनी घोषित किया गया क्योंकि कारख़ानों के मालिकों के पास मज़दूरों से कहीं ज़्यादा राजनैतिक ताक़त/सत्ता थी। बढ़ते जनदबाव व लोकतांत्रिकरण के तहत अधिकतर पश्चिमी देशों में लगभग 150 साल पहले हड़तालों को आंशिक रूप से वैध कर दिया गया। आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक अधिकारों का अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा (1967) अपने बिंदु 8 में हड़ताल के हक़ को सुरक्षित करता है।  


अमरीका जैसे देशों में यूनियनों की सदस्यता में कमी आने के साथ-साथ हड़तालें भी घटी हैं। 1937 में अमरीका में 4740 हड़तालें हुईं मगर 1970, 1980, व 2010 में यह संख्या क्रमशः 381, 187 व केवल 11 रह गई। यूनियनों की घटती ताक़त के अलावा, इसके कारणों में राजनैतिक सत्ता व क़ानूनों का पूँजीपतियों की तरफ़ झुकते जाना (जैसे, काम के अनुबंध में हड़ताल न करने या यूनियन न बनाने की ज़ोर-ज़बरदस्ती वाली शर्तें थोपना), कंपनियों द्वारा जवाबी तालाबंदी और इकाइयों को किसी अन्य जगह ले जाकर स्थापित करने की धमकी या फ़ैसला भी शामिल है। 


सामान्यतः हड़तालें संगठनों द्वारा सामूहिक दबाव के अंतिम औज़ार के रूप में आयोजित की जाती हैं। कभी-कभी अचानक हुई किसी घटना/बात के विरोध में भी यूनियन के निर्देश के बिना या असंगठित क्षेत्र के कर्मी फ़ौरन हड़ताल पर जा सकते हैं। इन्हें वाइल्डकैट (wildcat) हड़ताल कहते हैं। कुछ देशों में इस तरह की कार्रवाइयों पर आंशिक या पूर्ण रोक है, हालाँकि इससे ये रुकती नहीं हैं - क्योंकि जिन अन्यायपूर्ण परिस्थितियों के चलते मज़दूर हड़ताल पर जाते हैं, वो जस-की-तस बनी रहती हैं। पिकेटिंग (picketing) में मज़दूरों को अपने कार्यस्थल के बाहर खड़े होकर दूसरों को अपनी जगह पर काम करने को हतोत्साहित करना पड़ता है। सिट-डाउन (sit-down) में कार्यस्थल पर कब्ज़ा जमा लिया जाता है। वहीं, वर्क-इन (work-in) में कार्यस्थल पर कब्ज़ा जमाने के साथ-साथ न केवल काम जारी रखना होता है, बल्कि प्रबंधन अपने हाथ में लेकर पूँजीवादी प्रबंधन की अकुशलता व निकृष्टता साबित की जाती है। वर्क-टू-रूल (work to rule) में, जिसे इतालवी हड़ताल के नाम से भी जाना जाता है, नियमों व क़ानूनों का इस तरह से पालन किया जाता है कि काम अपने-आप रुक जाये या बहुत धीमा हो जाये। सिक-आउट (sick-out) को तब अपनाया जाता है जब हड़ताल पर क़ानूनन पाबंदी होने पर मज़दूर-कर्मी सामूहिक रूप से बीमारी की छुट्टी पर चले जाते हैं। सहानुभूति हड़ताल (sympathy strike) में एक समूह हड़ताल पर गए दूसरे समूह के साथ एकजुटता प्रकट करने के लिए हड़ताल पर जाता है। (शिक्षक एकता का सच्चा परिचय देने के लिए एक प्रशासन के शिक्षक दूसरे प्रशासन के अधीन काम करने वाले शिक्षकों की आवाज़ में आवाज़ मिलाकर हड़तालें आयोजित कर सकते हैं। औद्योगिक क्षेत्रों के मज़दूर संगठन अपने भ्रातृत्व व साझे अस्तित्व का सबूत अक़सर ऐसी सहयोगी कार्रवाइयों से देते हैं, जिन्हें शासक हमारे बीच फिर 'श्रमिक अशांति' के नाम से बदनाम करते हैं!) संगठन को पहचान/मंज़ूरी दिलाने के लिए भी हड़ताल का इस्तेमाल हो सकता है। अधिकारक्षेत्र हड़ताल (jurisdictional strike) में मज़दूर-कर्मी अपने अधिकार क्षेत्र के काम को किसी अन्य वर्ग को सौंपे जाने के विरोध में हड़ताल कर सकते हैं। इसमें कर्मियों के अस्तित्व के अलावा पेशे की गरिमा व आमजन के अधिकारों की चिंता भी शामिल होती है। (जैसे, सरकारों द्वारा शिक्षण का काम नियमित, योग्यप्राप्त शिक्षकों के बदले एनजीओ के अप्रशिक्षित लोगों को देकर शिक्षकों व विद्यार्थियों, दोनों के हितों से खिलवाड़ करना।) इसके अतिरिक्त, छात्र-हड़तालें व भूख-हड़तालें अक़सर व्यापक राजनैतिक मुद्दों की तरफ़ जनता का ध्यान खींचने तथा सरकारों पर दबाव बनाने के लिए भी की जाती रही हैं। राजनैतिक बंदियों के अधिकारों के लिए जेलों में चलाई गई शहीद खुदीराम बोस और भगत सिंह व उनके साथियों की भूख हड़तालें साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ चली आज़ादी की लड़ाई का अभिन्न हिस्सा थीं। हड़तालें सिर्फ़ कर्मियों के अपने आर्थिक अधिकारों के लिए ही नहीं की जाती हैं। 2018 में संयुक्त राज्य अमरीका के कई राज्यों के शिक्षकों ने कम वेतन के अलावा, शिक्षा पर सरकार के कम ख़र्च व शिक्षा के कुप्रबंधन को भी हड़ताल का मुद्दा बनाया था।       


कई देशों में मज़दूर आंदोलनों को कमज़ोर व हड़तालों को हतोत्साहित करने के लिए श्रम क़ानूनों में श्रमिक-विरोधी बदलाव लाये गए और लाये जा रहे हैं। इनमें हड़ताल के लिए नोटिस - और वो भी बहुत-पहले - देने की शर्त रखना शामिल है। इससे प्रशासन को दबाव बनाने का भरपूर मौक़ा मिलता है, नोटिसों को संगठनों के तेज़तर्रार सदस्यों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की फ़ाइलें बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, प्रशासन को हड़ताल के असर को नाकाम करने के लिए वैकल्पिक बंदोबस्त करने का वक़्त मिलता है तथा हड़ताल तेज़ी से नहीं फैल पाती क्योंकि हर नई जगह पर नोटिस की शर्त लागू होती है। केंद्र सरकार द्वारा लाये गए तीन नए श्रमिक क़ानूनों में से एक औद्योगिक संबंध संहिता अधिनियम (2020) मान्यता-प्राप्त यूनियन, लंबे नोटिस व टालू सुलह प्रक्रियाओं की शर्तें थोपकर न सिर्फ़ हड़ताल पर जाने की प्रक्रिया को बेहद जटिल बनाता है, बल्कि उसमें लगाए गए तमाम तरह के अड़ंगों के उल्लंघन पर कामगारों पर जुर्माने के साथ क़ैद तक की सज़ा का प्रावधान रखता है। साथ ही, ये अधिनियम मज़दूरों को अनुबंध पर रखने, उन्हें आसानी से नौकरी से निकालने और किसी विवाद को लंबी, महँगी व हौसला तोड़ने वाली अदालती/मध्यस्थता कार्रवाइयों में उलझाने के प्रावधान देकर कंपनियों के मालिकों व प्रशासकों के हाथ और भी मज़बूत करता है। इस क़ानून को यूनियन बनाने व हड़ताल पर जाने के अधिकार पर कुठाराघात के रूप में देखा जा रहा है। प्रशासन व प्रबंधन द्वारा हड़ताल तोड़ने के लिए नरम व गरम दोनों तरह के हथकंडे आज़माये जाते हैं। इनमें दूसरों को काम पर रखने, चिन्हित करके अथवा सामूहिक रूप से नौकरी से निकालने, तालाबंदी घोषित करने से लेकर झूठे मुक़दमे दायर करने, जेल में डाल देने तथा मारपीट-हिंसक हमलों के लिए गुंडों व पुलिस का इस्तेमाल करने तक सब तरीक़े शामिल हो सकते हैं। ऐसे में मज़दूरों-कर्मचारियों के सामने अविश्वास व संदेह के सवाल भी खड़े होते हैं - हारेंगे तो नहीं? नौकरी तो नहीं छूटेगी? कितने दिन खींच पायेंगे? क्या सभी साथी एकजुट रहेंगे? आदि। इन सबके बावजूद, फ़्राँस के यातायात क्षेत्रों के संगठनों ने हाल में एक बार फिर यह दिखा दिया है कि जब मज़दूर एकजुट होकर कोई फ़ैसला कर लेते हैं तो कठोर क़ानून भी धरे-के-धरे रह जाते हैं। 

किसी भी जनांदोलन की तरह हड़तालें भी हमें पढ़ने-लिखने और रचनात्मक कार्रवाइयों के लिए प्रेरित करती हैं। चाहे वो क़ानूनों व नीतियों की तह में जाकर उनका विश्लेषण करना हो या विरोध दर्ज करने के नायाब तरीक़े ईजाद करना, हड़ताल को सही अंजाम तक पहुँचाने के लिए गंभीरता और धैर्य के साथ कलात्मक ऊर्जा की भी ज़रूरत होती है। हम अपने नारों को जोशीला बनाने के साथ-साथ विचारोत्तेजक भी बनाने की कोशिश करते हैं। हड़तालों में जितनी ज़रूरत विरोध-प्रदर्शन के विभिन्न कार्यक्रम आयोजित करने की तैयारी, संसाधनों व मेहनत की होती है, उतनी ही हमारे गीतों व पोस्टरों की होती है। हमारा उद्देश्य केवल अंदरूनी उत्साह बनाये रखना नहीं, बल्कि जनता से व्यापक संपर्क बनाकर समर्थन पाने की स्थिति क़ायम करना भी होना चाहिए। विशिष्ट क्षेत्रों के कर्मियों की हड़ताल के सामने जनता से ही नहीं, बल्कि अन्य क्षेत्रों के कर्मियों तक से अलग-थलग पड़ जाने का ख़तरा तो रहता ही है। उदाहरण के तौर पर, निगम कर्मचारियों की संयुक्त हड़ताल के बावजूद हम न सिर्फ़ वेतन के स्तर पर, बल्कि नियमित-अनियमित कर्मचारी होने के स्तर पर और सामाजिक-आर्थिक ताक़त के स्तर पर भी हड़ताल को खींच सकने की एक-सी स्थिति में नहीं हैं। ऐसे में हमारे संगठनों द्वारा नियमित रूप से इकट्ठा किया गया चंदा हड़ताल में अधिक आर्थिक संकट झेल रहे साथियों को आपातकालिक सहयोग पहुँचाने के काम तो आ ही सकता है, इससे हड़ताल को कमज़ोर पड़ने से भी बचाया जा सकता है। सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मियों के नाते अपनी जायज़ माँगों के लिए हड़ताल करने के सिलसिले में हमारे सामने दोहरी-तिहरी चुनौती होती है। मुनाफ़ाख़ोरी-निजीकरण का रास्ता तैयार करने की दृष्टि से पिछले कुछ दशकों से सार्वजनिक क्षेत्रों के ख़िलाफ़ लगातार जो दुष्प्रचार किया गया है - और जिसमें, जाने-अनजाने, हमने भी कुछ साथ दिया है - वो हमें जनता का समर्थन दिलाने में तो क्या मीडिया का ध्यान खींचने तक में रोड़े अटकाता है। दूसरी तरफ़, हम किसी कारख़ाने में उत्पादन करने वाले मज़दूरों की स्थिति में भी नहीं हैं, जिनकी हड़ताल फ़ैक्ट्री मालिकों के हितों पर सीधे चोट करती है। सार्वजनिक स्कूलों के शिक्षक होने के नाते हम ख़ुद को एक दुविधा की स्थिति में पाते हैं क्योंकि हमारी हड़ताल से जितना परोक्ष नुक़सान प्रशासकों/राजनैतिक सत्ताधारियों का होता है, उतना ही प्रत्यक्ष नुक़सान हमारे अपने विद्यार्थियों व (उनके अभिभावकों के रूप में) उसी जनता का होता है जिसे हमें अपने समर्थन में साथ लेना चाहिए। अगर किसानों को मज़दूरों से, मज़दूरों को कर्मचारियों से और कर्मचारियों को (कच्चे-पक्के में बाँटकर) एक दूसरे तथा आम जनता से काटकर रखना शासकों के हित में है, तो यह साफ़ है कि इन दूरियों को पाटकर मेहनतकशों की एकजुटता क़ायम करना हमारे हित में है। जनता और शासकों के बीच के अंतर को साफ़ करके ही हम हड़ताल की उन रचनात्मक कार्रवाइयों को निर्मित कर पाएँगे जो हमारी लड़ाई को भी ताक़त देंगी, हमें जन-समर्थन भी दिलायेंगी तथा शासकों की सत्ता को भी कमज़ोर करेंगी।  

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