प्रति,
शिक्षा मंत्री
दिल्ली सरकार
विषय: स्कूलों में शिक्षकों पर बढ़ते गैर-अकादमिक कार्यभार तथा कार्य संस्कृति में बढ़ते शिक्षा-विरोधी बदलावों के संदर्भ में
महोदय,
लोक शिक्षक मंच दिल्ली सरकार के स्कूलों में शिक्षण प्रक्रिया पर मंडराते संकट पर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता है। हम शिक्षक लगातार यह महसूस कर रहे हैं कि हम स्कूलों में पढ़ा नहीं पा रहे हैं, बल्कि क्लर्क के काम कर रहे हैं। हम अपना अधिकतम समय शांत दिमाग़ से पूर्व योजना अनुसार बच्चों को पढ़ाने में नहीं लगा पा रहे हैं, बल्कि अति उत्साही नौकरशाही की गैर-शैक्षणिक ज़रूरतों को पूरा करने में खप रहे हैं।
बे-सिर-पैर के कभी न रुकने वाले सर्कुलर्स का बोल-बाला है जो लगातार स्कूलों से कोई न कोई डाटा माँगते रहते हैं। बार-बार, तरह-तरह की जानकारी माँगने वाले मेल/गूगल फॉर्म/whatsapp संदेश घोड़े पर सवार आते हैं जिन पर लिखा होता है 'for immediate compliance/तत्काल अनुपालन के लिए'। इन सबका नतीजा यह होता है कि शिक्षकों को कभी क्लास छोड़कर और कभी विद्यार्थियों को दिया व्यक्तिगत समय छोड़कर भागना पड़ता है। हमारे पास कक्षा में पढ़ाने तक का समय नहीं बच रहा, बच्चों से व्यक्तिगत अंतःक्रिया करना, उनके लिए अतिरिक्त पठन-पाठन सामग्री बनाना, उनका लेखन जाँचना आदि तो दूर की बात है। स्कूलों में निरंतर संकट और आपदा का माहौल बना रहता है और इस आपा-धापी में कुर्बान होती है बच्चों की पढ़ाई और शिक्षकों का मनोबल।
इस अराजकता की एक वजह पेशेवर कार्यक्षेत्र को व्हाट्सऐप के हवाले करना भी है। ऊपर से नीचे तक पूरी व्यवस्था एक गैर-पेशेवर ऐप्लीकेशन के हवाले कर दी गई है। संदेशों का देर रात तक आना, लिखित आदेशों के बजाय निरंतर चलने वाले टूटे-बिखरे व्हाट्सऐप संदेशों पर निर्भर होते जाना, 'अभी-के-अभी' जानकारी माँगना, ये हमारी प्रशासन व्यवस्था की कुशलता के नहीं, अकुशलता के सबूत हैं। नित नए संदेश जो नित नए प्रोग्रामों की घोषणा करते हैं, डाटा की माँग करते हैं, आदेशों को जारी करते हैं; हमारी मानसिक स्थिरता और निरंतरता से सोच पाने की क्षमता को ख़त्म कर रहे हैं। जो कौशल शिक्षकों में ही नहीं बचेगा, उसे हम बच्चों को क्या सिखा पाएँगे?
यहाँ यह कहना भी ज़रूरी होगा कि स्कूलों में शैक्षिक और गैर-शैक्षिक कार्यों के बीच का फ़र्क़ धुँधला होता जा रहा है। उदाहरण के लिए, सर्व शिक्षा अभियान (SSA) के तहत एक सत्र में 10-15 गतिविधियों में बच्चों से विभिन्न पोस्टर्स/वीडियोज़ आदि बनवाने के जो निर्देश आते हैं, उनमें गहन चिंतन और अकादमिक वार्ता की कोई गुंजाइश नहीं होती। साल-भर में कक्षा अध्यापिकाओं और विद्यार्थियों को रोबोट की तरह ऐसे बीसियों संदेश फॉरवर्ड किए जाते हैं और इसके बाद शुरु होता है इन्हें येन-केन-प्रकारेण लागू करवाने का दबाव - चाहे इसके लिए बच्चों से झूठ बोलना पड़े, उन्हें डराना-धमकाना पड़े या उन्हें इंटरनेट से नक़ल करने के हवाले करना हो। पहले यह दिखावे और ज़ोर-ज़बरदस्ती का चक्र हमारे कार्य दिवस का एक छोटा हिस्सा था लेकिन अब यह हमारे कार्यदिवस का सबसे बड़ा हिस्सा बन गया है। जनवरी 2019 में प्रकाशित दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग (DCPCR) की सर्वेक्षण रिपोर्ट (Report on Time Allocation and Work Perception) में भी यही समस्या निकल कर आयी थी कि 93% शिक्षकों ने कागज़ी काम के बोझ की समस्या चिन्हित की और जताया कि वे अपना आधा समय भी पढ़ाने में नहीं लगा पाते। हम जानना चाहेंगे कि इस रिपोर्ट के नतीजों पर क्या क़दम उठाये गए।
कक्षा के अंदर की अकादमिक स्वायत्तता भी अत्याधिक केंद्रीकरण की सूली चढ़ रही है। शिक्षा को टुकड़ों में बाँटकर उसके उद्देश्यों को ही पलट दिया जा रहा है। सिद्धांतों का पठन-पाठन स्थिरता और समय माँगता है जो कि स्कूलों में नहीं बचा, इसलिए कामचलाऊ-सीमित उद्देश्यों वाले प्रोग्रामों को परिणाम चमकाने के नाम पर परोसा जा रहा है। निजी व ग़ैर-सरकारी संस्थाओं के दिमाग़ से निकले ये मिशन व प्रोग्राम विस्तृत व गंभीर शिक्षण पर हमला हैं लेकिन इनके क्रियान्वयन के निरीक्षण पर पूरा ज़ोर रहता है। (नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्रस्तावित स्कूली पाठ्यचर्या की संकल्पना भी इसी तर्ज पर है।)
अधिकतर, निरीक्षण के नाम पर शिक्षकों को सर झुकाकर खड़े रहने पर मजबूर किया जाता है और खरी-खोटी सुनाई जाती है। इस ढंग से बात की जाती है जैसे कि वे अपराधी हों। क्या निरीक्षकों के लिए कोई नियमावली नहीं होती कि उन्हें शिक्षकों से कैसे बात करनी चाहिए, कम-से-कम कितनी देर कक्षा का अवलोकन करना चाहिए, लोकतान्त्रिक ढंग से कैसे समस्याओं को सम्बोधित करना चाहिए आदि?
हमें सिर्फ़ एक चीज़ के निरीक्षण की ज़रूरत है और वो है कि 'क्या शिक्षक कक्षा में बिना किसी बाधा के पाठ्यक्रम पढ़ा पा रहे हैं?' लेकिन हम देखते हैं कि स्कूलों में निरीक्षण प्रक्रिया ख़ुद शिक्षण प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करती है और औपनिवेशिक संस्कृति को स्थापित व पुष्ट करती है। यही संस्कृति फिर नीचे विद्यार्थियों तक भी पहुँचती है। न हम अपने पढ़ाने के समय से समझौता करना चाहते हैं और न ही गहन पाठ्यचर्या से। आज हमें दोनों से ही समझौता करने पर मजबूर किया जा रहा है।
हम जानना चाहते हैं कि सार्वजनिक विद्यालय व्यवस्था के केंद्र में पढ़ना-पढ़ाना होना चाहिए या गैर-शैक्षणिक योजनाएँ लागू करवाना और भ्रामक सरकारी प्रचार व महिमामंडन बच्चों तक पहुँचाना।
जो व्यवस्था एक निरंतर आपातकाल में बनी रहती है उसमें अकादमिक गहराई, मानसिक ठहराव और आंतरिक प्रेरणा जैसे मूल्यों से सिंचित शिक्षा पद्धति की जगह ख़त्म होती जा रही है। किसी भी स्वतन्त्र विचार और अर्थवान कार्यवाही के लिए सम्भावना नहीं बची है।
हमारी माँगें -
1. विद्यालय व्यवस्था ऐसी बनाई जाए कि शिक्षकों का समय कक्षा में पाठयचर्या पढ़ाने, विद्यार्थियों को गुणवत्तापूर्ण फीडबैक देने, उनके सर्वांगीण विकास में सहायक व्यक्तिगत स्तर पर अंतःक्रिया करने आदि अकादमिक कामों में लगे नाकि गैर-अकादमिक कामों में।
2. विभाग स्कूलों से गैर-अकादमिक कामों के लिए पूर्णकालिक लिपिकों की नियुक्तियाँ करे। साथ ही शिक्षकों-आया-लैब असिस्टेंट-पुस्तकालयाध्यक्ष, सभी तरह के सभी खाली पदों पर पक्की नियुक्तियाँ करे।
3. शिक्षकों के साथ खुले दिमाग़ से चर्चा की जाए कि उन्हें अपनी अकादमिक ज़िम्मेदारियाँ निभाने में क्या समस्याएँ आ रही हैं।
4. Whatsapp जैसी गैर-पेशेवार ऐप्लीकेशन को विद्यालय की कार्य संस्कृति पर न थोपा जाए, बल्कि सोचने-समझने के लिए ज़रूरी ठहराव प्रदान करने वाली कार्य पद्धति को अपनाया जाए।
5. प्रशासन के काम करने की औपनिवेशिक संस्कृति पर लगाम लगाई जाए। आखिर प्रशासन का काम विद्यार्थियों और विद्यालयों की ज़रूरतों को पूरा करना होना चाहिए, नाकि विद्यालयों का काम प्रशासन की ज़रूरतों को पूरा करने में ख़ुद को झोंकना होना चाहिए।
5. विभाग के प्रशासनिक तंत्र में व स्कूलों के अंदर लोकतान्त्रिक कार्य संस्कृति को प्रोत्साहित किया जाए।
हम उम्मीद करते हैं कि आप इन गंभीर मुद्दों के संदर्भ में सरकारी स्कूल शिक्षा पर मँडरा रहे जानलेवा संकट का हल निकालने हेतु सुविचारित क़दम उठाएँगे।
सधन्यवाद
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