Friday, 22 January 2021

अँधेर नगरी: उनकी अनुकम्पा से बेहाल होती जनता का आँखो-देखा हाल

   एक शिक्षक की एक ग़ैर-शैक्षणिक ड्यूटी की कहानी 

मैं उत्तरी दिल्ली नगर निगम के स्कूल में शिक्षक हूँ। दिसंबर 2020 के तीसरे सप्ताह में मुझे प्रिंसिपल ने सूचित किया कि निगम की ओर से मेरी एक ग़ैर-शैक्षणिक ड्यूटी आई है। आधिकारिक आदेश के नाम पर व्हाट्सऐप पर एक सूची आई थी जिसमें शिक्षकों के नाम, फ़ोन नंबर व इंजीनयरों के नाम-नंबर दिए गए थे। शिक्षकों के नाम से कोई लिखित आदेश जारी नहीं किया गया और न ही सूची के साथ संलग्न आदेश से स्पष्ट हो रहा था कि यह ड्यूटी आपदा प्रबंधन के तहत लगाई जा रही है। ग़ैर-शैक्षणिक ड्यूटी पर तैनाती का ये निर्लज्ज आदेश 5 महीनों से वेतन नहीं दिए जाने की भीषण परिस्थितियों के बीच में आया। फिर शिक्षा का अधिकार अधिनियम कहता है कि चुनाव, जनगणना व आपदा प्रबंधन के अतिरिक्त शिक्षकों से कोई ग़ैर-शैक्षणिक काम नहीं लिया जा सकता है। कई लोगों द्वारा यह चेतावनी पहले-ही दी गई थी कि क्योंकि 'आपदा प्रबंधन' प्रशासन की परिभाषा पर निर्भर करेगा इसलिए इसमें शिक्षकों के दोहन की संभावना सबसे अधिक होगी। कोरोना-'लॉकडाउन' के संदर्भ में शिक्षकों पर थोपे गए तरह-तरह के कामों ने इस आशंका को सच ही साबित किया है। आपदा प्रबंधन के बहाने प्रशासन को एक ऐसी निरंकुश ताक़त प्राप्त हुई है जिसका इस्तेमाल वो मनमर्ज़ी से कर रहा है और जिसे वो आसानी से छोड़ेगा नहीं। जब तक हम संगठित होकर इसका विरोध नहीं करेंगे। इसके लिए शिक्षक संगठनों को सामने आना होगा। 
 
हमारे स्कूल में एक अन्य पुरुष शिक्षक की भी यही ड्यूटी आई थी, हालाँकि उन दिनों शहर में नहीं होने की वजह से वो इसमें शामिल नहीं हुए। हमारे पड़ोसी स्कूलों के कुछ शिक्षकों की भी यह ड्यूटी आई थी। इसके लिए हमें निगम के एक कनिष्ठ इंजीनयर के साथ/अधीन काम करना था। काम हमारे वार्ड से इतर के वार्ड के क्षेत्र का था। उक्त इंजीनयर ने मुझे फ़ोन करके तय जगह पहुँचने के लिए कहा। उन दिनों मैं न सिर्फ़ स्कूल में दाख़िलों के काम में लगा हुआ था, बल्कि अपनी कक्षा के 2-4 विद्यार्थियों को स्कूल में, 11-12 बजे के उपरांत, लगभग 2 घंटे पढ़ा भी रहा था। इसके अलावा, उन दिनों हमारे स्कूल में ऑडिट के चलते काफ़ी काम बढ़ भी गया था। मैंने फ़ोन के अलावा, उक्त स्थल पर पहुँचकर इंजीनयर महोदय को अपनी स्थिति से अवगत कराया। कुल मिलाकर, अपवाद के किसी दिन को छोड़कर, मैं स्कूल की कुछ-न-कुछ ज़िम्मेदारी निभाने के बाद ही इस ग़ैर-शैक्षणिक ड्यूटी के लिए जाता था। इसका एक कारण इंजीनयर महोदय का सहयोग भी था। वैसे भी, हम शिक्षकों से जो काम लिया जा रहा था उसके लिए स्मार्टफ़ोन की ज़रूरत थी। मेरे स्मार्टफ़ोन न रखने पर उन्होंने शुरु में ज़्यादा आपत्ति नहीं की, हालाँकि जैसे-जैसे उन पर काम का दबाव बढ़ता गया, वैसे-वैसे उनके लिए पहले की तरह उदार रहना मुमकिन नहीं रह गया।  

स्थल पर पहुँच कर पता चला कि हमें प्रधानमंत्री स्वनिधि योजना के तहत रेहड़ी-पटरी वालों के ऑनलाइन फ़ॉर्म भरने हैं। दो-चार दिन तो हम निगम के उसी छोटे से स्थानीय दफ़्तर में बैठकर लोगों का इंतज़ार करते थे और आने वालों के काग़ज़ात देखकर व उनसे जानकारी लेकर उनकी अर्ज़ियाँ भरते थे। उसके बाद हम विभिन्न स्थलों (जैसे, साप्ताहिक बाज़ार, चौराहे आदि) पर गए व 3-4 दिन एक अन्य दफ़्तर में बैठे। इस बीच मैं स्कूल जाता रहता था और इंजीनयर द्वारा दी गई सूची के अनुसार लोगों को फ़ोन करके काग़ज़ों सहित तय स्थलों पर पहुँचने का अनुरोध करता रहता था। यह काफ़ी बोझिल काम था और 10-15 फ़ोन करके बात समझाने में ही 40-45 मिनट लग जाते थे। उसके बाद अक़सर उन्हीं नंबरों से लोग वापस फ़ोन करते थे जिससे कि और परेशानी होती थी क्योंकि इतने नंबरों को याद रख पाना या फ़ीड करना संभव भी नहीं था और उचित भी नहीं। ये सूचियाँ ताज़ा होकर बदलती भी रहती थीं। इस प्रसंग में सबसे चिंताजनक बात यह है कि न सिर्फ़ प्रशासन/सरकारों ने यह मान लिया है, बल्कि हमसे मनवा भी लिया है कि हम अपने यंत्रों, अपने डाटा, अपने वक़्त का उपयोग उनके दिए सरकारी/सार्वजनिक काम के लिए करेंगे। एक तरफ़ शिक्षकों से डाटा-ऑपरेटर्स व बैंक कर्मचारियों का काम लिया जा रहा है - निःसंदेह, यह बैंक/वित्तीय संस्थाओं के कर्मचारियों के काम को आउटसोर्स करना, छीनना तथा उनके पेशागत भूमिका को कमज़ोर करना भी है - और दूसरी तरफ़ शिक्षण के बौद्धिक व स्वायत्त काम को तकनीकी के हवाले करके शिक्षकों की पेशागत प्रासंगिकता ख़त्म करने की कोशिश हो रही है। 
मौखिक रूप से हमें इतवार, क्रिसमस आदि को भी आने के लिए कहा गया। मैंने इसके लिए मना किया तो उन्होंने मासूमियत से मुझसे पूछा कि क्या मैं ईसाई हूँ! आख़िरकार, मैं नहीं ही गया और उन्होंने भी ज़ोर नहीं डाला। ड्यूटी के तदर्थ (औपचारिक/अनौपचारिक व वैधानिक/अवैधानिक) स्वरूप का इस बात से भी पता चलता है कि किन्हीं शिक्षकों के कई दिनों या बिलकुल ही नहीं आ पाने पर कोई विभागीय निर्देश जारी नहीं किया गया और इंजीनयर महोदय भी हमारी अनुपस्थिति को लेकर, असंतोष व्यक्त करने के अलावा, काम चलता रहे के उपाय करके सहयोग-सहानुभूति का रवैया अपनाते थे। 

इस काम के दौरान मैंने मुख्यतः चार-पाँच चिंताजनक बातों पर ग़ौर किया, जिन्हें मैं यहाँ साझा कर रहा हूँ। 

1. इस योजना के तहत आवेदन करने आ रहे कुछ लोगों को इस बात का भी अंदाज़ा नहीं था कि ये एक ऋण योजना है। हालाँकि, ऐसे लोग 5-10 प्रतिशत ही रहे होंगे और यह शायद आवेदन के प्रारंभिक चरण के बारे में ज़्यादा सही था। शायद इस योजना की जानकारी उन्हें 'पैसे मिल रहे हैं', 'खाते में पैसे आयेंगे', 'मोदी दे रहा है' आदि रूपों में मिली हो। जिन दो दफ़्तरों व एक चौराहे पर मैंने काम किया वहाँ एक छोटा-सा बैनर ज़रूर लगा था जिसकी आख़िरी लाइन में 'लोन' शब्द का इस्तेमाल हुआ था। मगर अपने आकार व डिज़ाइन के चलते वो ज़्यादा ध्यानाकर्षित नहीं करता था। फिर, यह ज़रूरी नहीं था कि आवेदन के लिए आ रहे सब लोग पढ़ना जानते ही हों। सबसे महत्वपूर्ण यह था कि इस योजना के लिए काम पर लगाए गए लोगों को भी योजना के बारे में कोई प्रशिक्षण नहीं दिया गया था। और क्योंकि हम सब शिक्षक इस ड्यूटी में ठगा-सा महसूस कर रहे थे और यह काम हमारे पेशे के चरित्र के ख़िलाफ़ था, इसलिए भी हमारे सामने न्यूनतम मौखिक निर्देशों के बाहर जाकर काम करने की कोई वजह नहीं थी। 

2. जिन 80-90 प्रतिशत आवेदनकर्ताओं को यह स्पष्ट था कि यह एक ऋण योजना है, उन्हें भी इसकी शर्तों की कोई जानकारी नहीं थी। बैनर पर आवेदन करने के लिए ज़रूरी शर्तों की जानकारी तो दर्ज थी, मगर ऋण की शर्तों की कोई जानकारी स्थलों पर सार्वजनिक नहीं की गई थी। जैसे कि ऊपर ज़िक्र आया, आवेदकों की मदद के लिए लगाए गए हम शिक्षकों को ही इस बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई थी। ऋण जैसी वित्तीय व व्यावसायिक प्रक्रिया के लिए अदायगी की शर्तों की पूर्व जानकारी होना न सिर्फ़ आवेदकों का अधिकार है, बल्कि उन्हें यह जानकारी देना संबद्ध संस्थाओं का कर्त्तव्य भी है। ऐसे में, एक राष्ट्रीय-स्तर की ऋण योजना में इस मौलिक बात की अनदेखी होना बेहद गंभीर सवाल खड़े करता है। मैंने कुछ आवेदकों से बातों-बातों में यह जानने की कोशिश की कि उन्हें इस ऋण की शर्तों की जानकारी है या नहीं। पूरे 8-10 दिनों के अंतराल पर लगभग 50 लोगों से यह सवाल पूछने पर मुझे मुश्किल से दो-तीन लोग ऐसे मिले जिन्हें थोड़ी-बहुत जानकारी थी या जानकारी होने/जुटा लेने का विश्वास था। 

3. सबसे चिंताजनक अनुभव था इस योजना में ज़ोर-ज़बरदस्ती या बहला-फुसलाकर आवेदन करवाने के अवलोकन। एक शाम हमें एक साप्ताहिक बाज़ार में दुकानदारों के नाम-फ़ोन नंबर पूछकर लिखने व योजना में उनके आवेदन करने/न करने की स्थिति का ब्यौरा दर्ज करने के लिए बुलाया गया था। जब मैं पहुँचा तो मुझे 'सशक्त' करने के लिए बताया गया कि अगर कोई 'सहयोग' करने से मना करे तो मैं उन्हें बताऊँ और फिर वो पुलिस तक को बुला लेंगे! (हालाँकि, इसमें दबंगई का इज़हार ज़्यादा था, इरादा कम।) मैंने पाया कि मेरे सहयोगी यह कहकर दुकानदारों पर दबाव डाल रहे हैं कि आवेदन नहीं करने पर उन्हें साप्ताहिक बाज़ार में दुकान नहीं लगाने दी जाएगी। मैंने हैरान-परेशान होते हुए उनसे पूछा कि भला कौन-से संविधान व क़ानून के तहत हम ऐसा कह सकते हैं। उन्होंने सादगी से कहा कि उन्हें सुपरवाइज़र ने ऐसा कहने के लिए कहा है। अच्छी बात ये हुई कि जब मैंने ऐसा बोलने से इंकार करते हुए ही जानकारी दर्ज करनी जारी रखी तो उन्होंने भी अपना रवैया बदल लिया। इस सर्वे के बीच में जब हम सुपरवाइज़र से मिले तो अपनी आपत्ति व्यक्त करते हुए मैंने वही सवाल उनसे भी पूछा। ग़नीमत थी कि उन्होंने मेरी बात स्वीकार की, मगर ऊपर से आ रहे दबाव के सामने अपनी बेबसी भी ज़ाहिर की। उन्होंने बताया कि कैसे कमिश्नर स्तर से उन लोगों पर रोज़ योजना में आवेदकों की बढ़ती संख्या दिखाने के निर्देश आ रहे हैं। बाद के दिनों में उन्होंने मुझे अपने फ़ोन पर रपट भेजने, फ़ोटो खींचने आदि से जुड़े कई संदेश दिखाए। अधिक चिंताजनक यह था कि उस दिन साप्ताहिक बाज़ार में मुठ्ठीभर लोगों ने ही हमसे पूछा कि हम कौन हैं और उनसे ये जानकारी क्यों माँग रहे हैं। अधिकतर लोग हमारे निगम के परिचय के बाद आसानी से जानकारी दे देते थे। वैसे, क्योंकि यह प्रक्रिया, हमारे क्षेत्र में जाने से पहले-से ही, कुछ दिनों से चल रही थी, इसलिए उनके लिए यह शायद उतना नया न भी रहा हो। पूरे बाज़ार में चंदेक लोग ही थे जिन्होंने या तो अपना नाम व जानकारी देने से मना कर दिया या फिर साफ़ कह दिया कि उन्हें कोई फ़ॉर्म नहीं भरना है/ऋण नहीं लेना है। उनके इंकार को सुनकर मुझे ख़ुशी हुई और मैंने उन्हें इसकी बधाई भी दी। बहुत-से दुकानदारों की बात सुनकर यह साफ़ पता चला कि वो स्वेच्छा या ख़ुशी से नहीं, बल्कि एक दबाव में यह आवेदन कर रहे थे। ऐसा लगा कि सुपरवाइज़र जैसे निगम के कर्मियों का जो लेन-देन या संबंध बाज़ारों के प्रधानों आदि से होता है उसके चलते भी दुकानदार एक पारस्परिकता व हफ़्ता/'बीमा-सुरक्षा' की तर्ज पर इसे औपचारिकता की तरह निभा रहे थे। बहुतों के लिए दस हज़ार की रक़म के कोई मायने नहीं थे। दो-चार लोग ऐसे भी थे जिन्होंने फ़ॉर्म को भरने, ऋण लेने और बाज़ार लगाने के बीच के जायज़/नाजायज़ संबंध पता चलने पर रोष प्रकट किया और 'प्रधान' से बात करने की मंशा जताई। वेबसाइट पर तो यह ऐलान है ही कि समयानुसार ऋण अदायगी के बाद इस योजना के आवेदकों को और बड़े ऋण मिल सकेंगे। यह भी कहा गया कि इस योजना के आवेदकों का उनकी पटरी के स्थल पर दावा पक्का हो जायेगा, उन्हें कोई हटा नहीं सकेगा। पूरी प्रक्रिया किस अपारदर्शी तरीक़े से अंजाम दी जा रही थी इसका पता उस आवेदक के सवाल से चलता है जिसने मुझे किनारे पाकर पूछा कि कहीं यह कोई निजी-फ़्रॉड लोन योजना तो नहीं है! 

4. चूँकि आवेदकों के फ़ॉर्म नेट पर भरे जा रहे हैं, वो भी किसी और के द्वारा, इसलिए उन्हें ख़ुद इस बात की कोई ठोस जानकारी नहीं है कि कोई सूचना क्यों माँगी गई है। वो सिर्फ़ ऐसे निरीह लाभार्थी की भूमिका निभा रहे हैं जिसे उपकृत किया जा रहा है। नेट पर आवेदन के चलते उनके पास अपने भरे फ़ॉर्म की कोई प्रति तक नहीं है। ऑनलाइन प्रक्रिया अंग्रेज़ी में है जिसके चलते भी आवेदकों के जानने-समझने की संभावना न्यून हो जाती है। 

5. आवेदन के लिए न सिर्फ़ बैंक खाते का आधार से जुड़ा होना अनिवार्य है, बल्कि फ़ोन नंबर का भी। जबकि अधिकतर आवेदकों के खाते यह शर्त पूरी करते थे, मगर फ़ोन लिंक करवाने के लिए उन्हें तयशुदा स्थल के चक्कर काटने पड़े। कभी-कभी दो-तीन चक्करों के बाद भी यह प्रक्रिया पूरी नहीं होती थी, मगर उन्हें यही आभास होता था/कराया जाता था कि उनके पास इसे छोड़ने या इससे बच निकलने का कोई विकल्प नहीं है। एक ऐसे ऋण के लिए जिसकी न उन्हें ज़रूरत थी और न ही वो लेना चाहते थे, उन्हें बेशक़ीमती वक़्त और पैसा बर्बाद करना पड़ रहा था। जब देश की बड़ी आबादी को अनर्गल दस्तावेज़ी प्रक्रियाओं में लगाए रखा जायेगा तो उन लोगों के रोज़गार और आमदनी को तो नुक़सान होगा ही, अनुत्पादक कामों के चलते अर्थव्यवस्था भी प्रभावित होगी।  

योजना के बारे में नेट पर पता करने पर मालूम हुआ कि इसे 1 जून 2020 को घोषित किया गया था। शहरी विकास एवं आवास मंत्रालय द्वारा संचालित इस योजना के तहत मार्च 2022 तक 50 लाख रेहड़ी-पटरी वालों को दस लाख तक के ऋण प्रदान किये जाने का लक्ष्य है। ज़ाहिर है कि योजना की रूपरेखा व लाभ-घाटे को देखते हुए उस हद तक आवेदन प्राप्त नहीं हो रहे हैं, जिसके मद्देनज़र इसे कामयाब घोषित करके वाहवाही लूटने के लिए विभिन्न विभागों सहित शिक्षकों तक को ज़ोर-ज़बरदस्ती के काम में झोंक दिया गया। हालिया घोषित आँकड़ों के अनुसार, इस योजना में लगभग 35 लाख आवेदन किये गए हैं, जिनमें से क़रीब 18 लाख मंज़ूर हुए हैं, 13.5 लाख को ऋण मिल चुका है तथा कोई 2 लाख अयोग्य पाए गए हैं। योजना में आवेदन करने के लिए शहरी निकाय द्वारा जारी रेहड़ी-पटरी पहचान पत्र होना ज़रूरी है मगर क्योंकि अधिकतर शहरों में ये प्रक्रिया पूरी नहीं की गई है इसलिए निकायों को निर्देश दिए गए हैं कि वो या तो इन्हें जारी करें या एक त्वरित प्रक्रिया के तहत आवेदक को रिक्वेस्ट फ़ॉर लेटर ऑफ़ रिकमेन्डेशन (LoR) जारी करके ऋण के लिए योग्य बनायें। ऋण लेने के लिए यह ज़रूरी है कि आवेदक मार्च 2020 के पहले से रेहड़ी-पटरी लगा रहा हो, मगर मैंने पाया कि कुछेक लोगों के कार्यस्थल की ताज़ा फ़ोटो को इस काग़ज़ी सबूत के एवज़ में इस्तेमाल किया गया। शायद यह 'जानकार' लोग रहे हों या हो सकता है कि इनके आवेदन आगे जाकर नामंज़ूर हो गए हों। फ़ोन पर कुछ लोगों ने यह भी बताया कि सब कुछ मंज़ूर होने के बाद भी बैंक ने उन्हें ऋण देने में असमर्थता जता दी। 

ऋण अदायगी की शर्तों को दर्शाती एक तालिका वेबसाइट पर उपलब्ध है मगर उसे समझना मेरे लिए सरल नहीं था। एक बैंक की वेबसाइट पर इस ऋण योजना संबंधित उपलब्ध जानकारी केंद्रीय वेबसाइट पर दी हुई जानकारी से थोड़ी अलग लगी। कुछ दोस्तों की मदद ली मगर एक स्पष्ट और समान व्याख्या नहीं मिली। हाँ, इतना ज़रूर साफ़ हुआ कि ब्याज लगेगा और 100 रुपये प्रतिमाह का कैशबैक महीने में 200 ऐसे कैशलेस लेनदेन करने पर ही मिलेगा जिनकी न्यूनतम राशि 25 रुपये हो। यह सोचना मुश्किल नहीं है कि कितने रेहड़ी-पटरी वाले इस शर्त को पूरा कर पाएँगे। फिर, अधिकतर को तो इसकी ख़बर ही नहीं है। बैंक की वेबसाइट पर दी जानकारी के अनुसार ऋण अदा न कर पाने की स्थिति में ऋण से अर्जित सामग्री ज़ब्त कर ली जाएगी। बहुत संभव है कि ज़मीनी स्तर पर ऐसे में उनकी रेहड़ी पटरी सहित आंशिक अथवा संपूर्ण सामग्री यह कहकर छीन ली जाये कि ये सारी चीज़ें ऋण से प्राप्त की गई हैं। फिर, अगर इस योजना के प्रावधान इतने-ही लुभावने हैं तो फिर ये प्र्चारी सरकार उन्हें लोगों तक पहुँचा क्यों नहीं रही है?

तो यह है नये भारत की एक बानगी। अपारदर्शी योजना, अवैध ड्यूटी, महीनों से वेतनहीन शिक्षक व अन्य कर्मचारी, नितांत निजी चीज़ों (यहाँ ऋण, पर अन्यत्र विवाह, प्यार, धर्म भी) पर प्रशासनिक ज़ोर-ज़बरदस्ती, रोज़गार देने के नाम पर रोज़गार छीनने की धमकी, प्रधानमंत्री के नाम पर घोषित हर योजना-स्कीम को येन-केन-प्रकारेण सफल सिद्ध करने की धूर्तता-दबंगई और सर झुकाये, ज़बान सिले बैठी आवाम। तो हम गणतंत्र दिवस कौन-से गण और किस तंत्र के नाम पर मनाते हैं? 

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