फ़िरोज़
प्राथमिक शिक्षक
भाग-1
वो माँगते साबुत काग़ज़, हम दिखाते अपनी चिथड़ी सच्चाई
मैं नगर निगम के एक बालिका विद्यालय में पढ़ाता हूँ। यह स्कूल उत्तरी दिल्ली के एक गाँव के नज़दीक स्थित है लेकिन इसमें पढ़ने वाली अधिकतर छात्राएँ आसपास की कॉलोनियों से आती हैं। इन बस्तियों में ज़्यादातर लोग मूल रूप से उत्तराखंड, बिहार और उत्तर-प्रदेश से हैं। स्थानीय परिवारों की बच्चियों के अलावा, अधिकतर विद्यार्थी अमूमन इन्हीं पृष्ठभूमियों से हैं। कुछ मध्य-प्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल, पंजाब व पश्चिम बंगाल से भी हैं। वैसे, पिछले 10-12 वर्षों में यह इलाक़ा सांस्कृतिक रूप से अधिक विविध हुआ है (दक्षिण व उत्तर-पूर्व से आने वाले लोग बस गए हैं) तथा आर्थिक रूप से 'विकसित' (फ़्लैट्स व मध्यवर्गीय रिहाइशी परिसर बन गए हैं), फिर भी स्कूल में पढ़ने वाली छात्राएँ इन दोनों तरह की पृष्ठभूमियों से नहीं आती हैं। गाँव के नाम का प्राथमिक बालिका स्कूल गाँव के अंदर स्थित है, जबकि गाँव के प्राथमिक बाल स्कूल और हमारे स्कूल का प्राँगण साझा ही है। जिस कॉलोनी के नाम के बालिका स्कूल की बात मैं कर रहा हूँ उसका बाल स्कूल इसी के भवन में दूसरी पाली में चलता है। यह गाँव यमुना के निकट है और इसके कई पुराने परिवार, गाँव के 'मुख्य' हिस्से के भूपति व 'बाहरी' हिस्से के खेतीहर मज़दूर/किसान, खेती से जुड़े हैं। स्कूल में पढ़ने वाली छात्राओं के परिवार रेहड़ी-पटरी लगाने, रिक्शा-ऑटो चलाने, घरेलू कामगार व कारख़ाना मज़दूर जैसे कामकाज में हैं। पहले यह स्कूल सह-शिक्षा संस्थान हुआ करता था और 20 साल पूर्व इसमें पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या 2,500 से ज़्यादा रहती थी। लगभग दस साल पहले इसका लैंगिक विभाजन करके इसे दो पालियों में बाँट दिया गया। पिछले 8-10 सालों से विद्यार्थियों की संख्या में प्रतिवर्ष औसतन 50 तक की गिरावट आ रही है और पिछले सत्र के अंत में छात्राओं के स्कूल में क़रीब 1,200 व छात्रों के स्कूल में 600 विद्यार्थी नामाँकित थे। 3 साल पूर्व इसमें पूर्व-प्राथमिक स्तर की दो कक्षाएँ जुड़ गई हैं, हालाँकि उनके लिए न तो किसी प्रशिक्षित शिक्षक की नियुक्ति हुई है और न ही किसी आया की। इन कक्षाओं में लड़कों का भी प्रवेश होता है मगर प्रथम कक्षा में पहुँचने पर उन्हें स्कूल बदलना पड़ता है।
कोरोना-'लॉकडाउन' की बंदी के संदर्भ में पिछले सत्र की औपचारिक समाप्ति के बाद यह सत्र 1 अप्रैल को ही शुरु हो गया था, मगर स्कूलों में दाख़िले जुलाई में जाकर शुरु हुए। सच तो यह है कि न शिक्षा विभाग ने इस बारे में कोई सलाह जारी की और न ही मुझ जैसे शिक्षकों का इस विसंगति की तरफ़ ध्यान गया। जबकि ऑनलाइन पढ़ाई की व्यवस्था सत्र के लगभग शुरुआती दिनों से ही लागू कर दी गई थी, मगर शायद 'लॉकडाउन' की निष्ठुर पाबंदियों व स्कूलों में चल रहे राशन वितरण के काम के संदर्भ में दाख़िलों का सवाल दब गया। जिस तरह कोरोना-'लॉकडाउन' की आड़ में नियमित स्वास्थ्य सेवाओं को ठप्प करके लाखों-करोड़ों आपदाओं को बेहाल छोड़ दिया गया, उसी तरह दाख़िलों, नियमित कक्षाओं व मुफ़्त शिक्षा के रूप में शिक्षा के अधिकार को तथा मिड-डे-मील के रूप में बच्चों के भोजन के अधिकार को भी दरकिनार कर दिया गया। आपातकाल के बिना किसी औपचारिक ऐलान के मौलिक अधिकारों को इस तरह कुचल देना सत्ता की नज़र में इनकी औक़ात को बयान करता है।
ख़ैर, मुझे अपने स्कूल में दाख़िलों में काम करने का मौक़ा मिला और मैं यहाँ उससे जुड़े कुछ अवलोकन व विश्लेषण साझा कर रहा हूँ। इस काम का यह मेरा पहला अवसर नहीं था, मगर कक्षायें न होने के कारण जिस फ़ुरसत के साथ इस बार हम इसे कर पा रहे थे, उसने और कोरोना-'लॉकडाउन' से उपजी आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों ने इस बार इसे एक अभूतपूर्व अनुभव बना दिया। यहाँ पहले मैं कुछ आँकड़ों को पेश करूँगा और उसके बाद के हिस्से में कुछ ख़ास प्रसंग।
1. जुलाई से शुरु होकर दिसंबर अंत तक कुल 528 दाख़िले हुए। यह संख्या पिछले कुछ वर्षों के मुक़ाबले में असामान्य नहीं है और पिछले साल से तो कम ही है (2016-17 में 513, 17-18 में 483, 18-19 में 527 और 19-20 में 624)। जो बात नई थी वो ये कि दाख़िलों में निरंतरता बनी रही, वर्ना सामान्य सालों में न सिर्फ़ शुरुआती 2-3 महीनों (अप्रैल-जुलाई) में कभी-कभी एक दिन में ही 30 के आसपास तक प्रवेश हो जाते हैं, बल्कि सितंबर आते-आते दाख़िले थम-से जाते हैं। इस बार किसी भी दिन 15-18 से अधिक दाख़िले नहीं हुए और दिसंबर की 30 तारीख़ को भी 9 दाख़िले किये गए। पिछले वर्ष की ऊँची संख्या को आर्थिक संकट व दिल्ली सरकार के स्कूलों की छठी कक्षा में सुलभ ढंग से प्रवेश पाने के उपाय के रूप में भी देखा जा सकता है।
साफ़ है कि एक तो इलाक़े से पलायन के चलते 'लॉकडाउन' की परिस्थितियों में उन मज़दूर परिवारों की संख्या में भारी कमी आ गई थी जो सामान्यतः अपने बच्चों को हमारे स्कूल में दाख़िल करवाते हैं, दूसरी तरफ़ अपनी बच्चियों को निजी स्कूल से निकालकर हमारे स्कूल में दाख़िल करवाने की प्रक्रिया धीरे-धीरे परन्तु लगातार जारी रही। कुछ परिवार निजी स्कूलों की निष्ठुर व्यावसायिकता के आगे जल्दी मजबूर हो गए, वहीं कुछ अधिक लंबे समय तक जूझते रहे। दाख़िला करवाने आ रहे अधिकतर माता-पिता निजी स्कूलों को कोस रहे थे, हालाँकि इससे यह निष्कर्ष निकालना मुश्किल होगा कि वो निजी स्कूली शिक्षा के ख़िलाफ़ राजनैतिक रूप से किसी निर्णायक नतीजे पर पहुँच गए हैं।
2. 528 में से 170 (32%) दाख़िले 5वीं में, 86 (16%) चौथी, 82 (15.5%) तीसरी, 66 (12.5%) दूसरी, 65 (12%) पहली और 54 (10%) पूर्व-प्राथमिक कक्षाओं में हुए। परिणामतः, इन कक्षाओं में, पूर्व-प्राथमिक को छोड़कर, क्रमशः 11, 6, 5, 3 और 2 सैक्शंस हैं। हमारे स्कूल के स्तर पर यह स्थिति अभूतपूर्व नहीं है क्योंकि हर साल लगभग यही स्थिति रहती है। हाँ, ये पिछले कई सालों के चलन की विसंगति को बढ़ाती ज़रूर है।
पाँचवीं कक्षा में बड़ी संख्या में होने वाले दाख़िलों के पीछे मुख्यतः तीन कारण गिनाये जा सकते हैं - अभिभावकों में यह धारणा कि शुरुआती वर्षों की पढ़ाई निजी स्कूल में कराने से 'बच्चों की नींव' बेहतर होगी; अभिभावकों के लिए निजी स्कूलों की फ़ीस व अन्य व्यावसायिक माँगों को लंबे समय तक पूरा न कर पाना (जिसके चलते पाँचवीं में निगम स्कूलों में प्रवेश दिलाकर आगे की पढ़ाई दिल्ली सरकार के स्कूल में सुनिश्चित करना) और; छोटे बच्चों के लिहाज़ से निगम स्कूलों का कई रिहाइशी बस्तियों से दूर होना। अभिभावकों की टिप्पणियों से यह पता चल रहा था कि इस बार इन सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में निजी स्कूलों में चल रही/नहीं चल रही ऑनलाइन पढ़ाई तथा उसके ख़र्चे व निरर्थकता का वीभत्स आयाम और जुड़ गया।
3. अधिकतर स्कूलों के चलन के विपरीत हम अपने स्कूल में अभिभावकों द्वारा घोषित जाति के आधार पर विद्यार्थियों की सामाजिक पृष्ठभूमि दर्ज कर लेते हैं, हालाँकि वज़ीफ़ों के लिए दस्तावेज़ी सबूत उपलब्ध कराने पर ही उनका नाम सूचीबद्ध किया जाता है। यह प्रक्रिया स्कूल के असल सामाजिक चरित्र, उसकी पहुँच को उजागर करने में मदद करती है। साथ ही, इससे यह भी स्पष्ट होता है कि समाज के वंचित वर्गों से आने वाले कितने प्रतिशत विद्यार्थियों को दस्तावेज़ी कारणों से उनके हक़ नहीं मिल पाते हैं। सामाजिक न्याय के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार करने वालों को ये आँकड़े बताते हैं कि अभी तो इसका उद्देश्य अंश मात्र भी पूरा नहीं हुआ है। इस बार हुए दाख़िलों में से 118/472 (25%) अनुसूचित जाति व 158 (33%) पिछड़े वर्ग की पृष्ठभूमियों से थे। (यह गणना तब की गई थी जब 472 दाख़िले हो चुके थे।) यानी, प्रवेश लेने वालों में से लगभग 60% बच्चियाँ इन वर्गों से थीं। वहीं, इनमें से 10% के पास भी जाति प्रमाणपत्र नहीं था।
इन वर्गों के अनुपात के संदर्भ में यक़ीनन यह एक बड़ी संख्या है, मगर स्कूल नामाँकन के पिछले आँकड़ों के हिसाब से ये कुछ कम ही ठहरती है। इसके दो कारण हो सकते हैं - पलायन करने पर मजबूर हुए परिवारों में से अधिकतर इन वंचित पृष्ठभूमियों से थे और निजी स्कूलों में पढ़ने वालों (व अंततः वहाँ से नाम कटवाकर प्रवेश लेने वालों) में से अधिकतर इन पृष्ठभूमियों से नहीं थे। नतीजतन, पिछले वर्षों के मुक़ाबले, प्रवेश में वंचित वर्गों से आने वाली बच्चियों का अनुपात कुछ कम हो गया। फिर भी, यह ऊँची संख्या इस दलील को सही साबित करती है कि हमारी सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था में मुख्यतः समाज के वंचित वर्गों के बच्चे-बच्चियाँ पढ़ रही हैं और सामाजिक रूप से सशक्त वर्गों ने अलगाववादी रवैया अपना लिया है।
4. इसी तरह, इस साल दिसंबर के अंत तक मुस्लिम पृष्ठभूमि की 26 छात्राओं ने प्रवेश लिया, जोकि कुल प्रवेश का 5% भी नहीं है। जबकि स्कूल में इस पृष्ठभूमि की छात्राओं का अनुपात 10% से ऊपर रहता आया है, यह आँकड़ा पिछले वर्षों की तुलना में काफ़ी कम है।
इसका एक कारण शायद पूर्वाग्रह और घृणा का वो माहौल रहा हो जिसे कोरोना के शुरुआती दिनों में मीडिया में मुसलमानों के ख़िलाफ़ निर्मित किया गया था। दूसरा कारण उसी सामाजिक-आर्थिक विपन्नता में स्थित हो सकता है जिसे हमने तीसरे बिंदु में जातिगत संदर्भ में पाया था - 'लॉकडाउन' के चलते वंचित जातियों और मुसलमानों का पलायन इसलिए अधिक हुआ होगा क्योंकि अस्थायी व असंगठित क्षेत्र में, जिसमें रोज़गार ध्वस्त हुआ, इन पृष्ठभूमियों के लोग ज़्यादा हैं।
5. शुरु के लगभग 400 दाख़िलों में हम जन्मतिथि व नाम को लेकर प्रस्तुत किये जा रहे दस्तावेज़ों की विसंगतियाँ अलग से दर्ज कर रहे थे। पिछले कुछ सालों से डिजिटल/इलेक्ट्रॉनिक प्रक्रियाओं की जकड़बंदी के चलते न सिर्फ़ दस्तावेज़ों में दर्ज जानकारी का महत्व वीभत्स रूप से बढ़ गया है, बल्कि दाख़िलों, आगे की पढ़ाई, वज़ीफ़ों आदि के लिए ये एक मुसीबत बनते जा रहे हैं। कुछ स्कूलों द्वारा क़ानून के विरुद्ध जाकर जन्मतिथि प्रमाणपत्र या/और आधार 'कार्ड' जैसे दस्तावेज़ों को दाख़िले के लिए अनिवार्य करने के पीछे एक कारण यह भी है। हालाँकि, हमने दस्तावेज़ों को अनिवार्य नहीं किया, मगर नामों व तिथियों में सुधार के आवेदनों के अनुभव से सबक़ लेते हुए तथा अभिभावकों को कारण समझाते हुए, हमने दस्तावेज़ होने पर उन्हें पेश करने को अनिवार्य ज़रूर किया। उदाहरण के तौर पर, हम माता-पिता के दस्तावेज़ को देखकर और फिर उनसे पूछकर उनका नाम लिखते थे। यह सब करते हुए हमारा सतत प्रयास रहता था कि हम लोगों को, ख़ासतौर से तब जब वो एक साथ खड़े हों, ये भी बताते चलें कि क्योंकि आठवीं कक्षा तक की शिक्षा मौलिक अधिकार है इसलिए क़ानूनन कोई दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं होने पर भी बच्चे को दाख़िले से मना नहीं किया जा सकता है। (और हमारे स्कूल की स्वस्थ परंपरा में मना किया भी नहीं जाता है।) ज़्यादा महत्वपूर्ण इसी बात को सिर्फ़ क़ानून के आधार पर नहीं, बल्कि राजनैतिक व मानवीय आधार पर समझाना था, जो हम करते भी थे।
शुरु के इन 400 प्रवेशों में से 39 (10%) बच्चियों के पास कोई दस्तावेज़ नहीं था, 33 (8%) के पास केवल जन्मतिथि प्रमाणपत्र, 79 (20%) के पास केवल 'आधार' और 247 (62%) के पास दोनों थे। यह सच है कि पिछले सालों की तुलना में दस्तावेज़ उपलब्ध होने वाले बच्चों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है। (क) 21 (6%) केसों में दस्तावेज़ में ग़लत जन्मतिथि लिखी थी। (ख) बच्चियों के नाम को लेकर 49 (14%) केसों में एक व 19 (5%) में अनेकों ग़लतियाँ थीं (जैसे कि, हिंदी, अंग्रेज़ी, दोनों में)। (ग) 10 (3%) केसों में जन्मतिथि व नाम दोनों में ग़लतियाँ थीं। (घ) माता-पिता के दस्तावेज़ों की बात करें तो, पिता के नाम को लेकर 48 (13%) केसों में, माँ के नाम को लेकर 39 (11%) व दोनों के नामों को लेकर 33 (9%) केसों में ग़लतियाँ थीं। इसका मतलब है कि 28% बच्चियों के दस्तावेज़ों में कोई न कोई ग़लती थी। इसी तरह, 33% माता-पिता के दस्तावेज़ों में कोई न कोई ग़लती थी। (ङ) 6 बच्चियाँ ऐसी थीं जिनकी माँ के पास पहचान का कोई दस्तावेज़ नहीं था। पिता के संदर्भ में ऐसी बच्चियों की संख्या 3 थी। उन्हें देखकर लगा कि बिना दस्तावेज़ के इंसानी जीवन बिताया जा सकता है, और लोग बिताते भी हैं। हालाँकि, चाह कर भी दस्तावेज़ नहीं बनवा पाना और उसकी ज़रूरत ही महसूस न करने की रूमानियत व आज़ादी, दोनों अलग-अलग परिस्थितियाँ हैं। पुरुषों की तुलना में महिलाओं के पास शिनाख़्त के काग़ज़ नहीं होने की संभावना का अधिक होना भी उनकी सामाजिक स्थिति के बारे में बहुत कुछ बयाँ करता है। असम में चली NRC की कार्रवाई से जुड़ी रपटों से हमें पता चलता है कि औरतों के लिए सिर्फ़ अपने ही नहीं, बल्कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी के संबंधियों के काग़ज़ातों से अपनी पहचान/नागरिकता साबित कर पाना कितना असंभव काम है। इसमें विवाह के बाद नाम व स्थान में लगभग अनिवार्य बदलाव की संस्कृति सख़्त बाधा उत्पन्न करती है। दो केसों में तो बच्ची व उसके माता-पिता, तीनों के नामों में, वो भी दोनों भाषाओं में, आपसी विसंगतियाँ थीं!
इस परिघटना को एक और तरीक़े से समझा जा सकता है। जिनके पास केवल जन्मतिथि प्रमाणपत्र था, उनमें से 14 (42%) के काग़ज़ में कोई न कोई ग़लती थी। इसी तरह, सिर्फ़ 'आधार' पास होने वालों में भी 33 (42%) के काग़ज़ों में कोई न कोई ग़लती थी। इसके विपरीत, इन दोनों दस्तावेज़ों को पेश करने वालों में से 157 (64%) के काग़ज़ों में कोई न कोई ग़लती थी। यानी, एक से ज़्यादा दस्तावेज़ होने से विसंगति की संभावना काफ़ी बढ़ गई। कुल मिलाकर, दस्तावेज़ पेश करने वालों में सिर्फ़ 43% केस ऐसे थे जिनमें कोई ज़ाहिर विसंगति नहीं थी।
दिल्ली में जारी जन्मतिथि प्रमाणपत्र केवल अंग्रेज़ी में होते हैं जिससे न सिर्फ़ भारतीय भाषाओं के नामों की स्पैलिंग के ग़लत होने की संभावना बनती है, बल्कि अधिकतर लोग इसे पहचान व समझ भी नहीं पाते हैं। साथ ही, इनमें बच्चों के माता-पिता के नाम अधूरे या ग़लत दर्ज हो जाते हैं। चूँकि 'आधार' में अंग्रेज़ी के साथ हिंदी (या अन्य भाषाओं) में भी नाम आदि दर्ज होता है, इसलिए इसमें दोहरी ग़लती की संभावना बनती है - एक ही 'कार्ड' में इन भाषाओं में अलग-अलग नाम दर्ज होते हैं और दूसरे दस्तावेज़ों से मेल में कमी तो रहती ही है। इन सभी कारणों से, हमें सबसे अधिक तसल्ली उस केस में होती है जहाँ बच्ची के पास जन्मतिथि प्रमाणपत्र में नाम न लिखा हो व अन्य कोई दस्तावेज़ न हो। इससे हमें सही जन्मतिथि पता चल जाती है - अपवादस्वरूप, कुछ केसों में, जब इस दस्तावेज़ को बच्चे की पैदाइश के काफ़ी बाद बनवाया जाता है, इसमें भी तारीख़ की ग़लती हो सकती है - और हम अधूरे/ग़लत नाम व उसकी ग़लत स्पैलिंग से परेशान नहीं होते।
आख़िर इन ग़लतियों/विसंगतियों की वजह क्या है? एक बड़ा कारण जो पढ़े-लिखे, कम पढ़े-लिखे, सभी तरह के लोगों से जुड़ा है, हमारे सहज जीवन व दर्शन का राजकीय-अफ़सरशाही नियम-क़ानूनों से मुक्त होना है। किसी सीधे-सरल इंसान के लिए यह समझना स्वाभाविक नहीं है कि कहीं अपना पूरा नाम भारतेन्दु कुमार दास न लिखवाकर/बताकर सिर्फ़ भारतेन्दु कहने/लिखवाने से क्या हो जायेगा। एक शराफ़त भरी दुनिया में कुछ होना भी नहीं चाहिए। मगर ये नियम-क़ायदे ज़ोर-ज़बरदस्ती से सिखाये जाते हैं। हमारा दैनिक आचरण बताता है कि इन्हें सीखने में वक़्त लगता है और हम फिर भी भूलते रहते हैं। ये सलीक़ा सहज नहीं, कृत्रिम है। कुछ ग़लतियाँ इसलिए भी होती हैं कि हमारी संस्कृति में एक ही शख़्स के दो नाम रखने का चलन भी है। दस्तावेज़ इस संभावना को स्वीकार नहीं करते हैं। जैसे राज्य तंत्र हर व्यक्ति को एक धर्म, एक मातृभाषा, एक देश की पहचान में बँधने पर मजबूर करता है, उसी तरह वो किसी के नामों में तरलता, उन्मुक्तता बर्दाश्त नहीं कर सकता है क्योंकि नियंत्रण के लिए एकरूपता ज़रूरी है। तकनीकी आधारित विकास के प्रचार के बावजूद भारतीय भाषाओं के नामों को उनकी लिपियों व रोमन में बिना विसंगति के लिखने तक की तैयारी नहीं की जा सकी है। उदाहरण के लिए, ऑटोस्पैल की बदौलत dolly डोली या डोल्ली हो जाता है (डॉली नहीं), shashi शशी (शशि नहीं), बेबी bebi (baby नहीं) और गौरी gori (gauri नहीं)। कहने को तो विसंगतियों को सुधारने की प्रक्रिया भी है, लेकिन पैसे व वक़्त की क़ीमत को लेकर बहुत-से परिवारों के लिए इससे ग़ुज़रना आसान नहीं होता है। यही कारण है कि अनेकों अभिभावक मेरे बहुत समझाने पर भी अपनी बेटी के नाम की स्पैलिंग ठीक दर्ज करवाने के लिए तैयार नहीं हुए। सुरभि की जगह सूरबी, गायत्री की जगह ग्यात्री इसी का परिणाम हैं। एक शिक्षक होने के नाते, ग़लत वर्तनी के साथ नाम लिखना मेरे लिए बेहद कष्टकर अनुभव था और मेरी भरसक कोशिश रहती थी कि मैं अभिभावकों को सुधरी हुई वर्तनी के साथ नाम लिखवाने पर मना सकूँ। 'आधार' के प्रशासनिक आग्रह के चलते आज कई बच्चों-बच्चियों के नाम ज़िंदगी-भर के लिए ग़लत दर्ज हो गए हैं। ज़ाहिर है, संस्कृत व फ़ारसी निष्ठ नामों में इस तरह की विसंगतियाँ इसलिए भी ज़्यादा होती हैं क्योंकि न सिर्फ़ कई अभिभावक इनकी उचित स्पैलिंग तो क्या, उच्चारण तक से परिचित नहीं होते, बल्कि इलेक्ट्रॉनिक या काग़ज़ी एंट्री करने वाले भी इन भाषाओं व नामों से अनभिज्ञ होते हैं। हिंदुस्तानी ज़बान के नामों (जैसे, सोनम, ख़ुशी, खुशबू, महक, चाहत आदि) में ग़लतियों की संभावना कम होती है। कुछ जानकारों के अनुसार, इन विसंगतियों का एक अधिक स्थूल कारण निजी 'आधार' केंद्रों में काम कर रहे कर्मियों पर जानबूझकर ग़लतियाँ करने का दबाव होता है। जितनी त्रुटियाँ होंगी उतनी बड़ी संख्या में लोग बार-बार सुधार के लिए आने को मजबूर होंगे तथा केंद्र-संचालकों की उतनी ही मोटी वैध-अवैध कमाई होगी। इसी तरह, प्रत्येक अधिकार-नागरिक सुविधा के लिए 'आधार' पेश करने के वैध-अवैध दबाव ने लोगों को भाग-भाग कर इसे बनवाने को मजबूर किया है। इस आपाधापी में ग़लतियों के होने की संभावना इस कारण भी बढ़ जाती है क्योंकि अक़सर इस प्रक्रिया में बच्चे के साथ उसके माता-पिता नहीं, बल्कि परिवार का कोई अन्य सदस्य जाता है। इन समस्याओं व परिस्थितियों के मद्देनज़र बेहतर तो यही होगा कि बच्चों को या तो 'आधार' के नामाँकन से बाहर रखा जाये या फिर स्कूल में प्रवेश के बाद ही उनका नामाँकन किया जाये। 'आधार' के मुक़ाबले जन्मतिथि प्रमाणपत्र को तरजीह देना अधिक समझदारी भरा है। यह बच्चे का पहला दस्तावेज़ होता है, अस्पताल या गाँव-पड़ोस में हुए जन्म के संदर्भ में इसमें दर्ज तारीख़ व माँ की पहचान की प्रामाणिकता आँखो-देखी होती है। कोई तकनीक इस मौलिक गवाही को छू भी नहीं सकती है। इसकी अनुपलब्धता में भी 'आधार' से कहीं अधिक प्रामाणिक माता-पिता का प्रत्यक्ष बयान होता है।
कुछ बातें महत्वपूर्ण हैं - कई बच्चों के पास दस्तावेज़ नहीं हैं, इन्हें बनवाने में, मशक़्क़त के अलावा, ख़ासा वक़्त और पैसा लग रहा है तथा दस्तावेज़ों में ढेरों विसंगतियाँ हैं। अगर किसी ख़ास संदर्भ में विसंगतियों का आँकड़ा हमें मामूली लगता है तो हमें यह याद करने की ज़रूरत है कि हमारे देश में एक प्रतिशत आबादी का मतलब डेढ़ करोड़ इंसान हैं तथा न्याय व संविधान की सुरक्षा संख्याबल की मोहताज नहीं है, बल्कि एक-एक व्यक्ति को प्राप्त होनी चाहिए। स्कूली दाख़िलों से जुड़े ये दस्तावेज़ी आँकड़े देश के आम लोगों के सामने NPA-NRC के भयानक ख़तरे को स्पष्ट करते हैं। जहाँ आधी से अधिक आबादी के एक ही पीढ़ी के दस्तावेज़ों में ढेरों आपसी विसंगतियाँ हैं, वहाँ NPA-NRC जैसी कोई भी कार्रवाई - जिसमें कई पीढ़ियों के दस्तावेज़ पेश करने पद सकते हैं - मुठ्ठीभर लोगों को छोड़कर समूचे देश को 'नोटबंदी' व 'लॉकडाउन' से कहीं बड़े अस्तित्व के संकट में डालकर आतंकित कर देगी।
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