Sunday, 17 January 2021

दाख़िलों के आइने में हमारे समाज के सच की खोज: एक स्कूल का अनुभव( भाग -2 )

फ़िरोज़ 

                                                                                                                                            प्राथमिक शिक्षक 

भाग -2 

हमारी खोजी व स्नेहिल नज़रों का इंतज़ार करती बच्चों की पहचान  


अब मैं दाख़िलों की प्रक्रिया से जुड़े कुछ सामाजिक अनुभवों को रखूँगा। ये अवलोकन प्रवेश पत्र (ऐडमिशन फ़ॉर्म) में भरी जाने वाली जानकारी के सिलसिले में अभिभावकों से हुए सवाल-जवाब के आधार पर सामने आये हैं। 

1. परिवार 
जैसे राज्य इंसान की शिनाख़्त के ऊपर वर्णित आयामों में इकहरेपन की माँग करता है, उसी तरह इसकी प्रक्रियाओं में परिवार को लेकर भी एक रूढ़ व झूठी संकल्पना काम करती है। एक औरत किसी अनाथ बच्ची को पाल रही थी और उसकी जन्मतिथि नहीं जानती थी। एक बच्ची को उसकी नानी पाल रही थीं और उनके पास उसका कोई काग़ज़ नहीं था। इसी तरह, हर साल मौसी, ताऊ के पास पल रही ऐसी बच्चियों के दाख़िले होते हैं जिनके माता-पिता या तो ज़िंदा नहीं हैं, या फिर बच्ची को पाल नहीं रहे होते। ऐसे कुछ केसों में उनके लिए बच्ची के माता-पिता का नाम लिखवाना एक पहेली बन जाता है। ये अच्छी बात है कि स्कूलों के दाख़िलों में यह पहेली अड़चन नहीं बनती है, मगर अक़सर किसी योजना आदि में आवेदन के समय दस्तावेज़ी समस्या उठ खड़ी होती है। इस साल कई अकेली महिलाएँ अपनी बच्चियों के दाख़िले के लिए आईं। इनमें से कुछ का ही तलाक़ हुआ था, ज़्यादातर या तो अलग हो गई थीं या उनके संबंध विच्छेद की प्रक्रिया चल रही थी या बच्ची का जैविक पिता उन्हें छोड़कर चला गया था। इनमें से कई महिलाओं के लिए बच्ची के पिता का नाम दर्ज करवाना एक कठिन व बेहद पीड़ादायक निर्णय था। नए संबंध बना रही या बना चुकी महिलाओं के लिए तो यह और भी पेचीदा मसला था। स्कूली शिक्षक होने के नाते मेरा व्यवहार संवेदनशील व सहानुभूतिपूर्ण तो था मगर उन्हें उचित क़ानूनी सलाह देने या उनकी मदद करने में मैं अक्षम था। उनके द्वारा यह पूछने पर कि बच्ची के पिता के नाम में विसंगति/बदलाव के क्या परिणाम हो सकते हैं, ईमानदारी और अफ़सोस के साथ यह बताने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था कि मैं नहीं जानता मगर सरकार के नित नए क़ानूनों-आदेशों के चलते किसी भी चीज़ के बारे में आश्वस्त होना मुश्किल था। कुछ केसों में संबंध विच्छेद होने के चलते महिला के पास बच्ची के पिता के नाम के कोई काग़ज़ नहीं थे, जिस कारण नाम की स्पैलिंग में दुविधा उत्पन्न हुई। माँ के घर छोड़ देने या मृत्यु के संदर्भों में उनके दस्तावेज़ न होने के चलते माँ का सही नाम लिखना भी सहज नहीं था। कुछ केस ऐसे थे जिनमें अलग-अलग दस्तावेज़ों में पिता का नाम पूरी तरह अलग था। शायद ये पुनर्विवाह या इस तरह के केस रहे हों। ऐसी सभी विसंगतियों में हमने वही नाम लिखा जो उन्होंने दर्ज करवाना चाहा। इस संदर्भ में एक महिला का अपनी पड़ोसन को दूसरी शादी के बारे में 'बोलने' के लिए प्रेरित करना निजी जीवन से जुड़ी बातों को लेकर व्याप्त संकोच को भी दर्शाता है। जबकि संबंधों व वैवाहिक जीवन से जुड़ी निजी बातों को लेकर तमाम तरह की कठोर सामाजिक रूढ़ियाँ फैली हुई हैं, यह स्कूल व हम शिक्षकों की ज़िम्मेदारी है कि इन बातों को लेकर विश्वास में लेने वाला माहौल पेश करें। आज से 15-20 साल पहले स्कूल में बहुत कम बच्चे ऐसे थे जिन्हें अकेली, संबंध विच्छेदित महिलाएँ पाल रही थीं। मगर आज दो तरह के बदलाव आये हैं - न सिर्फ़ स्कूल में ऐसी बच्चियाँ हैं, बल्कि ये महिलाएँ नए रिश्तों की तरफ़ बढ़ रही हैं। यह स्थिति हमारे लिए व्यक्तिगत और पेशागत दोनों तरह की संवेदनशीलता बरतने की माँग तो करती ही है, व्यवस्था से भी इस सच्चाई को सम्मानजनक जगह देने की माँग करती है। सच तो यह है कि नितांत निजी अनुभूति व दैनिक भावनात्मकता के संदर्भ में माता-पिता व परिवार की पहचान शायद धर्म व राष्ट्रीयता जैसी भारी-भरकम पहचानों से ज़्यादा मायने रखती है।    
राज्य व्यवस्था के स्तर पर सवाल ये उठता है कि क्या दस्तावेज़ों को ऐसे नहीं बनाया जा सकता है कि वो समाज और मानव जीवन की इन जटिल व अनिवार्य सच्चाइयों को जगह दें। उदाहरण के तौर पर, पिता के नाम के लिए दो विकल्प रखे जा सकते हैं - जैविक पिता एवं पारिवारिक/पालक पिता। दूसरी ओर, जब अदालत के फ़ैसले के अनुसार महिला पासपोर्ट में बच्चे के पिता का नाम लिखने के लिए बाध्य नहीं है तो फिर स्कूल में यह बाध्यता क्यों है? किसी महिला के लिए अपने बच्चे के पिता का नाम बताना, वो भी स्कूल में उसके दाख़िले के लिए, अनिवार्य क्यों होना चाहिए? इसी तर्ज पर, जिन बच्चों की असल जन्मतिथि पता न हो, उनके लिए अनुमानित अथवा अज्ञात लिखवाना क्या झूठ दर्ज करवाने से बेहतर नहीं है? हमें मालूम है कि जन्मतिथि का संबंध केवल उचित कक्षा में दाख़िले से नहीं, बल्कि क़ानून से जुड़े कई मसलों से है। यही मामला पितृत्व की काग़ज़ी शिनाख़्त और निजी संपत्ति की वसीयत व मालिकाने की लड़ाई के बीच के रिश्ते का है। तो हम कम-से-कम यह तो मानें कि इस ठोस व्यवस्था की सेवा करने के लिए हम लोगों को झूठ दर्ज करने पर मजबूर करते हैं।     

2. धर्म 
प्रवेश पत्र में एक ख़ाना धर्म का भी है। इस जानकारी को भरने की प्रक्रिया में कुछ रोचक तथ्य सामने आये। कई लोगों के लिए, जिनमें महिलाओं की संख्या कहीं अधिक थी, इसका अपेक्षित जवाब देना सहज नहीं था। उनके लिए यह एक अजीब और पहेलीनुमा सवाल था। इसके जवाब में 'पहाड़ी', 'पंजाबी' जैसे क्षेत्रीय विशेषण व जातिगत पहचान की संज्ञाएँ सुनने को मिलीं। ऐसे लोग एक-दो बार टोकने या उदाहरणतः हिन्दू, इस्लाम/मुस्लिम, ईसाई आदि नाम लेने पर ही धर्म का अपेक्षित नाम बता पाते थे। आज के समय के धार्मिक ध्रुवीकरण के माहौल के संदर्भ में हम इससे ख़ुश भी होते थे और उन्हें अपनी ख़ुशी का कारण भी बता देते थे। एक महिला तो, जोकि बच्ची की दादी थीं, बहुत देर तक ख़ुद को और हमें भी यह समझाने की कोशिश करती रहीं कि वो निरंकारी हैं या सिख या दोनों या रविदासी या रविदासी सिख! इस तरह के प्रसंगों ने यह इशारा किया कि हमारे देश में रूढ़ व खाँचों में ढली धार्मिक पहचान बहुत-से लोगों के लिए एक सहज-स्वाभाविक अनुभूति नहीं है, बल्कि आज भी एक प्रशासनिक, राज्य-निर्मित-व-पोषित धारणा है। इसके विपरीत, इसी विषय से जुड़े दो अन्य प्रसंग बहुत परेशान करने वाले थे। एक महिला-पुरुष ने जब अपनी बेटी के दाख़िले हेतु अपने दस्तावेज़ पेश किये तो नामों से अंदाज़ा लगाते हुए मैंने उनसे पूछा कि क्या वो ईसाई हैं। जवाब में, थोड़ा झिझकते हुए, पुरुष ने अपना धर्म 'भारतीय ईसाई' बताते हुए स्पष्टीकरण दिया कि उनका मूल संबंध अंग्रेज़ों से नहीं है। उनके जवाब व सफ़ाई देने वाले अंदाज़ से विचलित होते हुए मैंने खीझते हुए दलील दी कि ऐसे तो मेरे साथ बैठे सहकर्मी को अपना धर्म 'भारतीय हिन्दू' बताना चाहिए क्योंकि कोई मलेशिया या श्री लंका या नेपाल आदि का हिन्दू भी हो सकता है। मुझे नहीं लगा कि उन्हें मेरी बात समझ आई, मगर मेरी बात से आश्वस्त होकर उन्होंने अंततः ईसाई लिखवाना स्वीकार किया। इसी तरह, एक अन्य व्यक्ति ने अपना धर्म बौद्ध बताने के साथ ही संकोच प्रकट करते हुए पूछा कि इससे कोई फ़र्क़ तो नहीं पड़ेगा। उन्होंने बताया कि उनके समस्त परिवार ने बौद्ध धर्म अपना लिया है, लेकिन उनके स्वर में असमंजस झलक रहा था। मैंने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि वो इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, वो अपना धर्म बताने के लिए स्वतंत्र हैं तथा मैं वही लिखूँगा जो वो चाहेंगे। इसके बाद ही उन्होंने अपना धर्म बौद्ध लिखवाया। कई राज्यों द्वारा धर्म परिवर्तन को दंडित करने वाले असंवैधानिक व दमनकारी क़ानून लाये जाने के संदर्भ में ये प्रसंग आज हमारे सामने स्कूलों में विवेक, इंसाफ़ व अंतःकरण की आज़ादी को ज़िंदा रखने और इन मूल्य को जीवंत बनाये रखने की ज़िम्मेदारी को रेखाँकित करते हैं। 

3. जाति 
इस जानकारी को दर्ज करते हुए मुख्यतः दो बातें सामने आईं। पहली यूँ धार्मिक पहचान के विषय के समानांतर थी कि अपनी जाति को लेकर भी बहुत-से लोगों, और यहाँ भी अधिकतर महिलाओं, के पास अपेक्षित जवाब नहीं थे। यहाँ भी कुछ ने अपनी क्षेत्रीय पहचान बताई और कुछ के पास तो इसका कोई जवाब नहीं था। हालाँकि, उदाहरण रखने पर ज़्यादातर लोग बता पाते थे मगर ऐसे लोग भी थे जिनके लिए इसके बाद भी बताना संभव नहीं होता था। धर्म और जाति, दोनों के संदर्भ में हमारे समाजों का वो 'सच' भी दिखाई दिया जिसके अनुसार औरत का ख़ुद कोई जाति-धर्म नहीं होता, बल्कि बदलती पारिवारिक सीमाएँ ही उसकी सामाजिक पहचान निर्धारित करती हैं या वो ख़ुद एक विशिष्ट जाति-धर्म है। कुछ दोस्तों की राय थी कि हमें जाति की जगह कास्ट या बिरादरी जैसे शब्दों का इस्तेमाल करना चाहिए। मगर हम इस सुझाव को नियमित रूप से अमल में नहीं ला पाये। मगर जाति के मुद्दे पर हमारे लिए बड़ी चिंता का विषय दलित पृष्ठभूमि से आने वाले कुछ लोगों का संकोच था। हमें समझ में आ गया कि उनके लिए इसे सार्वजनिक रूप से घोषित करना उतना सहज नहीं था। एक साथी शिक्षक की इस उलाहना के बाद कि इतना बड़े होने पर भी उसे अपनी जाति नहीं पता है, 18-20 साल के एक लड़के ने बताया कि वो ब्लैकस्मिथ हैं। शायद वो लोहार कहने से बच रहा था। एक अन्य व्यक्ति ने दाख़िले के अगले दिन आकर अपनी जाति का सही नाम बताया। शायद पहले दिन की भीड़ में उनके लिए यह मुश्किल था और अगले दिन एकांत में उनके लिए यह बताना आसान था। एक समस्या यह भी होती थी कि कई बार जातिगत नाम को परिष्कृत करके बताने के चलते मेरे लिए उनको सही ढंग से वर्गीकृत करना संभव नहीं होता था। इसका एक उदाहरण नाई पृष्ठभूमि के कुछ व्यक्तियों द्वारा अपनी जाति को 'माथुर' लिखवाना है। वहीं जातिगत रूप से दलक पृष्ठभूमियों से आने वाले लोग अक़सर बड़े ऊँचे व गर्वित स्वर में अपनी पहचान का ये बिंदु उजागर करते थे। इस बारे में बात करने पर कुछ दोस्तों ने सलाह दी कि दाख़िला स्थल पर डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का चित्र लगाने से हम दलित पृष्ठभूमि के लोगों में एक आत्मविश्वास का संदेश पहुँचा पायेंगे जिससे उनका संकोच कम होगा। हमने सावित्रीबाई फूले का चित्र लगाया और (कुछ दिनों तक) वंचित वर्गों की शिक्षा के क्षेत्र में ऐतिहासिक रूप से योगदान देने वाले विविध व्यक्तियों की चित्र प्रदर्शनी भी लगाई। यह कहना मुश्किल है कि इसका सीधा या बड़ा असर पड़ा होगा क्योंकि हमारे ध्यान दिलाने पर ही, जोकि कभी-कभार ही होता था, लोग इस विषय पर ग़ौर करते थे। एक सलाह यह भी आई कि हमें फ़ॉर्म ख़ुद नहीं भरने चाहिए, बल्कि उन्हें अभिभावकों को ही दे देना चाहिए जिससे वो निजता में अपनी जानकारी भर पाएँ, लेकिन सही ढंग से फ़ॉर्म भरने व भाषा को लेकर अधिकतर लोगों की अनभिज्ञता के चलते हम इस प्रक्रिया को अपनाने में असमर्थ थे। अंत में हमने अभिभावकों के लिए रखी कुर्सियों को एक-दूसरे से दूर रखने का उपाय किया जिससे कि सिर्फ़ जातिगत पहचान को लेकर ही नहीं, बल्कि सभी निजी बातों को साझा करने के लिए पर्याप्त निजता बनी रहे। ये सिलसिला आख़ीर तक नहीं चला क्योंकि कोरोना संक्रमण के संदर्भ में स्टाफ़ के एक साथी को लोगों को अंदर के गलियारे में बैठाने को लेकर आपत्ति थी। चाहे हम उनसे जंगले के पीछे से पेश आ रहे हों या धूप में ख़ुद भी बाहर हों, जब लोग बाहर होते थे तो उनकी आपसी दूरी और निजता की परिस्थिति नहीं बन पाती थी। इस संदर्भ में कि हमारे स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थी का बहुलांश वंचित-शोषित वर्गों से आता है, हमारे द्वारा जातिगत अस्मिता और सामाजिक न्याय की तमीज़ सीखने-सिखाने तथा इनके संघर्ष को आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। 

4. भाषा 
मातृभाषा पूछने पर तो उत्तर में धर्म व जाति के सवालों से भी ज़्यादा शंका व असमंजस मिलता था। अधिकतर लोगों के लिए इस शब्द के कोई मायने नहीं थे। हिंदी जैसी सत्ता-स्थापित भाषा का नाम भी वो उदाहरणों से समझाने पर ही ले पाते थे। चूँकि हमारे स्कूल व पड़ोस में बिहार तथा उत्तराखंड के काफ़ी लोग हैं, और कुछ शायद मेरे अपने पूर्वाग्रह के चलते, इन दोनों राज्यों से संबंध का संकेत मिलने पर मैं उनके असंश्लिष्ट जवाबों को सुधारने की मंशा से भाषाओं के नाम लेकर पूछ लेता था। इस तरह, पहले पहाड़ी या बिहारी को मातृभाषा बताने वाले फिर जाकर कुमाऊँनी, गढ़वाली, भोजपुरी, मैथिली बताते थे। जबकि उत्तर-प्रदेश व मध्य-प्रदेश से संबंध बताने वालों की 'हिंदी' को तो मैंने अवधी, ब्रज, बुंदेलखंडी, बघेली आदि के नाम देकर सही करने की कोशिश नहीं की। आपसी चर्चा में मेरे सहकर्मी ने मुझे बताया कि इस इलाक़े के एक गाँव की भाषा की शब्दावली दूसरे गाँव से अलग है मगर भाषाओं का नामकरण चेतना व ज्ञानजगत में शामिल नहीं है। शायद यही बात धर्म व जाति को लेकर भी सही है - व्यवहार में ज़िंदा व सर्वव्याप्त होने पर भी इनके नाम की पहचान को, ख़ासतौर से महिलाओं के लिए, महत्व नहीं दिया गया है। पंजाबी व बांग्ला को मातृभाषा बताने वाले उदाहरण संख्या में सीमित थे (शायद, क्रमशः 10-12 और 3-5) मगर इन्हें किसी प्रेरणा या इशारे की ज़रूरत नहीं पड़ी। दूसरी ओर, मुस्लिम पृष्ठभूमि के किसी भी अभिभावक ने मातृभाषा के रूप में शायद उर्दू को दर्ज नहीं किया। भाषा की राजनीति व समाजशास्त्र का अध्ययन करने वाले विद्वानों की यह स्थापना सही जान पड़ती है कि राष्ट्र-राज्य, लिखित आधुनिक साहित्य, फ़िल्मों व अकादमिक जगत की सत्ता से सम्मोहित होकर उत्तर-भारत के आमजन ने अपनी जीवंत, व्यवहारमयी भाषाई पहचान को हिंदी के झूठे नाम के सामने समर्पित कर दिया है। भाषाई अस्मिता की लड़ाई लड़ने वाले क्षेत्रों के मुक़ाबले हिंदी की नज़दीकी से सत्ता में हिस्सा पाने का भ्रम रखने वालों ने एक सौदा ही किया। भाषा के नाम को लेकर मेरा अपना शुद्धतावादी आग्रह बताता है कि धर्म के विषय में जो आरोप हम आधुनिक, औपनिवेशिक राज्य को देते हैं, वही आरोप शिक्षा पर भी लगना लाज़िमी है। वैसे भी. क्या हमारी शिक्षा पर उसी आधुनिकता, औपनिवेशिकता का साया नहीं है?
लेकिन वो भाषा से जुड़ा हुआ ही एक मुद्दा था जिसने मुझे अक़सर दाख़िलों के रुचिकर काम को छोड़ने पर विचार करने पर विवश किया। असल में 'प्रतिभा विद्यालय' होने के कारण हमारे स्कूल की प्रत्येक कक्षा का एक सैक्शन अंग्रेज़ी माध्यम का है। इनमें 40 विद्यार्थियों का नामाँकन किया जा सकता है मगर प्रथम कक्षा को छोड़कर लगभग सभी कक्षाओं में ये नामाँकन तो पिछले सालों में पूरा हो चुका होता है। विभागीय निर्देश के अनुसार पहली कक्षा में अंग्रेज़ी माध्यम में प्रवेश हेतु निगम की नर्सरी कक्षा से निकले विद्यार्थियों को तरजीह देनी होती है; इसके अलावा पहले आओ, पहले पाओ का उसूल लागू होता है। कभी-कभी इन सैक्शंस को पढ़ा रहे शिक्षक भी प्रवेश के इच्छुक विद्यार्थियों की अपने स्तर पर मौखिक पड़ताल करते हैं, मगर कोई औपचारिक टेस्ट नहीं लिया जाता है। स्कूलों के बंद होने के चलते इस साल तो कक्षा अध्यापकों की इसमें कोई भूमिका वैसे भी संभव नहीं थी। प्रारम्भिक कुछ दिनों के बाद ही सभी कक्षाओं की इक्का-दुक्का बची हुई सीटें भी भर गईं। इसके बाद दबाव का सिलसिला शुरु हुआ - ज़्यादातर अभिभावकों द्वारा, मगर कभी किसी नए-पुराने साथी शिक्षक की सिफ़ारिश के हवाले से, कभी निगम पार्षद के क़रीबी के हवाले से और एक बार तो अपने परिचित व उनके जानकार वकीलों के हवाले से जो अदालत जाने की बात कहकर हमारी मनाही का जवाब लिखित में माँग कर ले गए। माध्यम भाषा को लेकर मेरे शिक्षाशास्त्रीय लीक के मानक विचार हैं मगर मैं इसके दूसरे पक्ष की राजनीति से परिचित ज़रूर हूँ। मेरे कई दोस्त मेरे आग्रह से सहमत नहीं हैं। कुछ का कहना था कि अगर बढ़ती संख्या में अभिभावक अपने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़वाना चाह रहे हैं तो यह मेरी/स्कूल की लोकतांत्रिक ज़िम्मेदारी बनती है कि इस माँग को विभाग तक पहुँचाया जाया। एक अच्छी बात यह थी कि एक अपवाद को छोड़कर स्कूल के सभी साथियों ने इस दबाव को सफलतापूर्वक रोकने में मेरा साथ दिया। प्रिंसिपल महोदया ने भी तगड़े-से-तगड़े राजनैतिक दबाव को नकार कर मेरा हौसला बनाये रखा। इसमें कुछ मदद राष्ट्रीय शिक्षा नीति के उस दोग़ले प्रचार ने भी की जिसके असर में आकर कुछ सहकर्मियों ने समझा-समझाया कि प्राथमिक कक्षाओं की पढ़ाई अब मातृभाषा में ही होना तय हुआ है! मौक़ा मिलने पर और खीझ निकालने के लिए बीच-बीच में मैं भी अभिभावकों को भाषाई माध्यम के बारे में दिल्ली के निगम व राजकीय स्कूलों के तथ्यों व अपने प्रिय शिक्षाशास्त्रीय विचारों से अवगत करा देता था। नामों की ग़लत वर्तनी लिखवाने पर अड़े रहने और सही लिखवाकर बाद में दस्तावेज़ में दर्ज ग़लत वर्तनी लिखवाने पर आमादा होने वाले चंद केसों के अलावा अंग्रेज़ी माध्यम में प्रवेश देने का, मेरी राय में, बेबुनियाद आग्रह व नियमित दबाव ही वो ऐसा पहलू था जिसने मुझे कभी-कभी दाख़िलों की ज़िम्मेदारी से पलायन करने पर सोचने को मजबूर किया। भाषा के इस ज्वलंत मुद्दे पर ईमानदारी से व खुलकर बात करने की ज़रूरत है। इस विषय पर शिक्षा व राजनैतिक सत्ता, दोनों के मामले में न्यायसंगत निष्कर्ष निकाले बिना भारत में आज सार्वजनिक शिक्षा की लड़ाई को आगे बढ़ाना मुश्किल होगा।

5. काम और कमाई 
प्रवेश पत्र में एक ख़ाना माता व पिता के (अलग-अलग) व्यवसाय के नाम का है। रोचक यह है कि प्रवेश रजिस्टर में एक ही ख़ाना है जिसमें अमूमन माँ के काम को नज़रंदाज़ करके पिता के काम की ही जानकारी भर दी जाती है। यह याद रखना चाहिए कि दाख़िले के लिए अधिकतर परिवार की महिलाएँ ही आती थीं/हैं। बहुत-दफ़ा महिलाएँ स्वयं अपने काम की सच्चाई को नकारते हुए कह देती थीं कि वो 'कुछ नहीं करतीं'। तब भी जब वो घर पर ही पीस-रेट का कोई काम करती हों। हालाँकि, घर के बाहर काम करके कमाने वाली महिलाओं में नकार का भाव नहीं था। कमाई को बताते हुए लोग अक़सर हमसे 'अपनी समझदारी से कुछ' लिखने को कहते थे, मगर मैं थोड़ा ग़ुस्से में उन्हें ख़ुद घोषणा करने को बाध्य करता था। दो-चार बार ऐसा भी हुआ कि एक रक़म बताने के बाद अभिभावक ने उसमें संशोधन करने का अनुरोध किया। उन्हें लगता था कि इसमें लिखी आमदनी के अनुसार उनकी बेटी को किसी जायज़ लाभ से वंचित कर दिया जायेगा। ऐसे में हम यह समझाते थे कि अव्वल तो किसी की कमाई, ख़ासतौर से असंगठित क्षेत्र में, कभी भी बदल सकती है और दूजे, प्रवेशपत्र में घोषित रक़म को किसी योजना हेतु मिलान या सबूत के लिए नहीं जाँचा जाता है। हालाँकि, एक-दो केस में, अति आग्रह के बाद, मुझे उसमें उनके कहे अनुसार सुधार करना भी पड़ा। 
इस बार दो चीज़ें अभूतपूर्व थीं। एक तो, चंद लोगों ने अपनी मासिक कमाई 20-30 हज़ार तक या इससे ऊपर भी बताई, जबकि हमारे स्कूल में प्रवेश दिलाने वाले परिवारजन अमूमन अपनी घोषित मासिक कमाई 10-12 हज़ार के नीचे ही बताते हैं। 12-15 हज़ार तक की मासिक कमाई बताने वालों की संख्या अच्छी ख़ासी थी। शायद ये वो लोग थे जो अपनी बच्चियों को निजी स्कूलों से निकालकर आगे (छठी कक्षा में) दिल्ली सरकार में प्रवेश की नीयत से हमारे स्कूल में दाख़िल करवा रहे थे। धर्म और भाषा की तरह, कुछ शिक्षक इस जानकारी को भी पूछकर नहीं, बल्कि अपने अंदाज़े से ही भर लेते हैं। ऐसा करते हुए मासिक कमाई को 5-8 हज़ार ही रखा जाता है। दूसरी तरफ़, कई लोगों ने बताया कि पिता के बिना पल रही बच्ची की माँ अपने मातृ परिवार पर निर्भर है और 10-20 लोगों ने नौकरी छूट जाने व बेरोज़गार होने की बात भी कही। इनमें से कुछ ये बात एक झिझक के साथ बताते थे (जैसे कि काम बंद हो जाना या नौकरी छूट जाना उनकी व्यक्तिगत ग़लती हो) और कुछ सहज रूप से। कई बार काम लिखवाने के बाद, कमाई पूछने पर पता चलता था कि उन्होंने पहले का काम लिखवाया है और अब बेरोज़गार हैं। ज़ाहिर है कि वो अपने वजूद को काम से जोड़कर देखते थे और काम की पहचान के बिना उनके लिए अस्तित्व की गरिमा महसूस करना मुश्किल था। ऐसे में मैंने प्रवेश पत्र में कमाई के ख़ाने को रिक्त छोड़कर उसमें व रजिस्टर, दोनों में ही काम के नाम पर 'बेरोज़गार' लिखा। पिता/अभिभावक के काम के बदले बेरोज़गार लिखने का यह पहला अनुभव नहीं था, मगर इतनी बड़ी संख्या में इससे पहले ये नहीं लिखा गया था। अगर इन्हें भरने में ईमानदारी बरती गई होगी तो इस वर्ष के आर्थिक संकट के बारे में इस सत्र के स्कूलों के रिकॉर्ड भी गवाही देंगे।     

अंत में 
स्कूल वो जगह होनी चाहिए जहाँ हम विद्यार्थियों के साथ इसकी पड़ताल कर सकें कि सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक ताक़तें कैसे इंसानी पहचानों का निरंतर निर्माण करती हैं। वहीं, ये वो स्थल भी होने चाहिए जहाँ भेदभाव, घृणा, शोषण और हिंसा का निशाना बनाए जा रहे वर्गों-पहचानों को संघर्ष-प्रतिरोध करने हेतु विश्वास व उत्साह से भरने का काम भी होता हो।    

* दाख़िलों के इस काम को बेहतर ढंग से अंजाम देने व सीखने में मदद करने के लिए मैं अपने सहकर्मियों, कमल और दिनेश का विशेष रूप से शुक्रग़ुज़ार हूँ जिनके दोस्ताना साथ व लोगों के प्रति सह्रदयी व्यवहार ने मेरे उत्साह को बनाये रखने में अमूल्य योगदान दिया।        

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