Saturday, 13 February 2021

कार्यक्रम की एक संक्षिप्त रपट: 'शिक्षक होना क्या है?'

31 जनवरी 2021 को दोपहर 3 बजे से शाम 5 बजे के बीच लोक शिक्षक मंच द्वारा 'शिक्षक होना क्या है?' विषय पर एक ऑनलाइन चर्चा आयोजित की गई थी। प्रस्तुत है उस कार्यक्रम की एक संक्षिप्त रपट। 

इस चर्चा को लोक शिक्षक मंच द्वारा एक श्रृंखला के आग़ाज़ के रूप में आयोजित किया गया था। हमारी योजना है कि हर महीने के अंतिम रविवार को सार्वजनिक कार्यक्रम के रूप में किसी एक विषय पर चर्चा आयोजित की जाये। हालाँकि, इन कार्यक्रमों का स्वरूप ऑनलाइन हो या ऑफ़लाइन, इस पर अभी अंतिम निर्णय नहीं लिया गया है।

इस बार के विषय को 'शिक्षकों की भूमिका' के मौलिक प्रश्न के रूप में चिन्हित किया गया था। इसमें 10 वक्ताओं ने बात रखने की सहमति जताई थी, जिनमें प्राथमिक स्तर की 3, टीजीटी स्तर की 2, पीजीटी की 3 व  विश्वविद्यालयी स्तर की 2 शिक्षक-शिक्षिकाएँ थीं। वक्ताओं के बाद श्री बीरेन्द्र (शिक्षा संकाय, दिल्ली विश्वविद्यालय) का समापन वक्तव्य था तथा आख़री सत्र सवाल-जवाब का था। 10 वक्ताओं में से 3 विभिन्न कारणों से अंतिम समय में वक्ता के रूप में शामिल नहीं हो पाए। वक्ताओं के क्रम को उनकी कक्षाओं के अनुसार रखा गया था ताकि श्रोताओं को तार जोड़ने में आसानी हो। प्रत्येक वक्ता को अपनी बात रखने के लिए लगभग 7 मिनट का समय दिया गया था। कार्यक्रम में, वक्ताओं सहित, लगभग 27-28 साथी शामिल हुए। इनमें निगम, दिल्ली प्रशासन, निजी स्कूल व विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले शिक्षक-शिक्षिकाएँ  व शिक्षा से सरोकार रखने वाले साथी शामिल थे। 

सुश्री वंदना (निगम प्राथमिक शिक्षिका)
उन्होंने वर्तमान परिस्थितियों को संदर्भ बनाते हुए राजनैतिक हस्तक्षेप को शिक्षकों पर बढ़ते दबाव के मुख्य कारक के रूप में चिन्हित किया। उनके अनुसार शिक्षकों के बँधे हुए हाथ उनकी भूमिका पर सवाल खड़े करते हैं। ऐसे में आदर्श खोखले नज़र आते हैं। इसके बर-अक़्स समस्याओं से निपटने के लिए दृढ इच्छा शक्ति, छोटे-छोटे लक्ष्य निर्धारित करने व सीमित संसाधनों/विषम परिस्थितियों में समाज निर्माण के काम को आगे बढ़ाने की सकारात्मक रणनीति अपनाने की वकालत की। 

सुश्री रजनी (प्राथमिक शिक्षिका, दिल्ली प्रशासन) 
उन्होंने स्कूलों की आंतरिक राजनीति के संदर्भ में शिक्षकों की पहचान को सामाजिक, आर्थिक व शैक्षिक संदर्भों में बँटा हुआ पाया। इन्हीं विभाजनों को स्कूल के अंदर व बाहर की सत्ता अपना वर्चस्व क़ायम रखने के लिए इस्तेमाल करती है। प्रशासनिक आदेशों के दबाव में शिक्षकों के पास फ़ुरसत में बैठकर बात करने तक का समय नहीं है। ऑनलाइन उपस्थिति के दबाव पर सवाल खड़ा करते हुए उन्होंने इस माध्यम की अकादमिक संभावना पर प्रति-प्रश्न किया। ऐसे में जब पढ़ाने के मायने ही कुछ नहीं रह जाते हैं, शिक्षकों के सामने सही-ग़लत को सही-ग़लत कहना भी चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है।     । 

श्री राम स्वरूप (पीजीटी, राजनीति शास्त्र, दिल्ली प्रशासन)
उन्होंने शिक्षकों के बीच में उभर चुके तीखे राजनैतिक मतभेद को रेखांकित करते हुए कक्षाई स्तर-आधारित विभाजनों पर भी उँगली उठाई। प्रशासनिक आदेशों को लागू करने, अफ़सरशाही की लाल-फ़ीताशाही व समय-सीमा की घुटन में शिक्षक कक्षाई कक्ष तक सीमित होकर रह गए हैं। दूसरी तरफ़, विद्यार्थियों को मिलने वाले वज़ीफ़ों की प्रक्रिया व शर्तों को लगातार जटिल बनाया जा रहा है जिससे वो बड़ी संख्या में वंचित हो रहे हैं। शिक्षक होने के नाते हमारी पहचान विद्यार्थियों से है। मगर उनके लिए समय ही नहीं मिल रहा है, बल्कि सारा ज़ोर परीक्षा-केंद्रित शिक्षण व साप्ताहिक टेस्टों पर है। जबकि शिक्षक का एक अहम काम समाज को जागरूक करना भी होता है, इसकी संभावना न्यून होती जा रही है। इन परिस्थितियों में शिक्षण में मज़ा नहीं आ रहा है।   

सुश्री रंजना (पीजीटी, समाजशास्त्र, दिल्ली प्रशासन)
उन्होंने कहा कि शिक्षा संस्थान अपने शिक्षक गढ़ते हैं और शिक्षकों को विद्यार्थी के रूप में देखने की भी ज़रूरत है। संस्थाएँ पूर्व रूप से विकसित होने के नाते कक्षाओं में तयशुदा शिक्षण पद्धति थोपती हैं जिससे कि ऊपर से आ रहे रूढ़िबद्ध विचार कक्षा में स्थापित होते हैं। इसके विपरीत शिक्षक का काम है बच्चों को ऐसे अवसर उपलब्ध कराना जहाँ वो अपने मन के डर को निकाल सकें। इस सिलसिले में उन्हें विभिन्न परिप्रेक्ष्य बिंदु साझा करने चाहिए और अपना निर्णय थोपने से बचना चाहिए। कोरोना की स्कूल बंदी में शिक्षक तकनीकी पर निर्भर हुए मगर शिक्षण के संवाद के बदले इसने एकतरफ़ा भाषण का रूप लिया। निगम के उस अनुभव के तहत जिसमें शिक्षक अपनी कक्षा को पाँच साल तक पढ़ाते हैं और एक जुड़ाव की स्थिति में पहुँचते हैं, उन्होंने शिक्षक को परिभाषित करने के उद्देश्य से अपनी पुरानी छात्रा की एक चिट्ठी पढ़कर सुनाई जिसमें शिक्षिका द्वारा औपचारिक ज़िम्मेदारी से परे जाकर संपर्क बनाये रखने व शिक्षण-मार्गदर्शन करने के उदाहरण दर्ज थे। 

सुश्री शालू (पीजीटी, गृह विज्ञान, दिल्ली प्रशासन)
उन्होंने सूचना व बुद्धिमानी/विवेक के अंतर को दर्शाते हुए इस बात की ओर ध्यानाकर्षित किया कि छोटी कक्षाओं के विद्यार्थियों के सवालों, उत्सुकताओं के बनिस्बत अक़सर उच्च कक्षाओं के विद्यार्थियों में महज़ कॉपी में उतारने की आदत दिखती है। बच्चों की स्वाभाविक स्वतंत्रता को शिक्षा व्यवस्था द्वारा दबा देने के इस संदर्भ में उन्होंने मश्हूर विज्ञान लेखक कार्ल सगान को भी उद्धृत किया। 'लॉकडाउन' के काल में स्कूल में अपनी विशिष्ट ज़िम्मेदारी के संदर्भ में उन्होंने जाना कि शिक्षा के सवाल से बहुत पहले विद्यार्थी राशन व रोज़गार जैसे मूलभूत प्रश्नों से जूझ रहे हैं। अनुभव ने उन्हें धीरे-धीरे इस निष्कर्ष तक पहुँचाया कि उन्हें ऊपर से आने वाले दबाव-तनाव को ख़ुद जज़्ब करना है तथा अपनी छात्राओं तक पहुँचने नहीं देना है। स्टाफ़ के बीच मौजूद ध्रुवीकरण के माहौल से उन्हें बहु-सांस्कृतिक माहौल और विविध विचारों के सहिष्णु अस्तित्व की ज़रूरत व अहमियत महसूस होती है। ऐसे में उनकी कोशिश रहती है कि छात्राएँ सब चीज़ों पर सवाल खड़ा करें और जवाबों की स्वतंत्र खोजबीन करें। ऐसे विद्यार्थियों को देखकर उन्हें बेहद ख़ुशी मिलती है जिनका मतारोपण नहीं हुआ होता है और जो स्वतंत्र सोच रखते हैं। यही अनुभव शिक्षक को जिलाये रखता है। अंत में उन्होंने अपने विद्यार्थी जीवन का एक प्रेरक प्रसंग भी साझा किया।   

श्री राघवेंद्र (महर्षि कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन, दिल्ली विश्वविद्यालय)
एक समय तक, तमाम चुनौतियों के बावजूद, कक्षा वो जगह थी जहाँ शिक्षक एक स्तर की आज़ादी महसूस करते थे। लेकिन अब, विद्यार्थियों के बीच चर्चा को दूर तक ले जाने वाली आज़ादी सिमटती जा रही है। एक समय था जब किसी विचारोत्तेजक मुद्दे पर खुली बहस कराने पर विद्यार्थियों द्वारा शिक्षक को पक्षपाती नहीं माना जाता था। आज व्यापक राजनैतिक संस्कृति व आपके हर कथन को क़ैद करके तमाशा बना देने वाली तकनीकी के विशिष्ट इस्तेमाल के संदर्भ में अलोकतांत्रिकता का साया कक्षाओं में पसर रहा है, जिसके चलते कक्षाओं तक में एक संशय और डर का माहौल बन रहा है। कुछ विद्यार्थियों की तरफ़ से भी 'कोर्स' पर टिके रहने और 'बाहर' के विषयों पर चर्चा नहीं कराने के आग्रह आते हैं। शिक्षा को लेकर यह संकीर्ण मानसिकता नवउदारवाद की देन भी है तथा उसे पोषित भी करती है। शिक्षक के काम को प्रदर्शन-आधारित, वो भी मापे जा सकने वाले, मानकों की नज़र से देखा जा रहा है। किसी वस्तु के उत्पादन में इनपुट-आउटपुट मॉडल की तरह। ज़ाहिर है कि इसमें स्वायत्त शिक्षक की गुंजाइश ख़त्म होती जा रही है। जवाब में हमें प्रतिरोध के स्वरों के फलक को इस तरह फैलाना होगा कि वो केवल नायकों व बहादुरों तक सिकुड़ कर न रह जाए, बल्कि उसमें ज़रा कम साहसी साथी भी शामिल हों, उनका स्वर भी मिले।   

सुश्री मानसी (शिक्षा विभाग, अंबेडकर विश्वविद्यालय)
पाउलो फ़्रेरे की पुस्तक 'पेडागॉजी ऑफ़ द ऑपरेस्ड' से उनकी 'पेडागॉजी ऑफ़ होप' के बीच के तार को वो असीम अशिष्टता के ख़िलाफ़ जीवन व पर्यावरण की गरिमा के संघर्ष की प्रेरणा के रूप में देखती हैं। इस संदर्भ में जेएनयू जैसे उच्च शिक्षा संस्थान विचारों का एक संरक्षित स्थल उपलब्ध कराते थे मगर अब उस आज़ादी के छीने जाने का अहसास प्रबल होता जा रहा है। ऑनलाइन एवं रेकॉर्डेड कक्षाओं ने ख़ुद पर पाबंदी लगाने के चलन को तेज़ कर दिया है। अगर आज फ़र्क़ नहीं पड़ रहा है तो कल और चुनौतियाँ होंगी, अंजाम भुगतना पड़ेगा। इन सबसे ग़ुज़रते हुए पाउलो फ़्रेरे का सफ़र फिर दोहराया जायेगा। 

श्री बीरेंदर (शिक्षा संकाय, दिल्ली विश्वविद्यालय)
अपने समापन वक्तव्य में उन्होंने यह बात मानी कि वक्ताओं के बयानों को किसी एक सूत्र में पिरोना संभव नहीं था। उनके अनुसार चर्चा के विषय के संदर्भ में शिक्षक संगठनों व उनके संघर्षों के इतिहास को खंगालने की ज़रूरत है, जोकि शिक्षक तैयार करने वाले संस्थानों के पाठ्यक्रम से भी ग़ायब है। इसके अतिरिक्त, साहित्य ने भी शिक्षक की छवि निर्माण में भूमिका निभाई है। वहीं, हमें यह समझने की भी ज़रूरत है कि आख़िर प्रशासन शिक्षक को किस तरह देखता है। इन दो मिश्रित क़िस्म के कारकों के अलावा, शिक्षक के कर्म का केंद्रीय तत्व, उनके द्वारा पढ़ाये जाने वाले विषयों का अनुशासन भी उनकी ताक़त बन सकता है। उनके अनुसार, कुल मिलाकर, सांस्कृतिक परिस्थितियाँ, प्रशासन व विषयगत अनुशासन 'शिक्षक' होने के मायने को प्रभावित करते हैं।   

समापन वक्तव्य के उपरांत अन्य मौजूद साथियों ने संक्षेप में अपनी बात रखी। इसमें राज्य द्वारा शिक्षकों के कंधों पर बंदूक़ रखकर चलाने, स्कूली संस्कृति को दिशा देने में प्रधानाचार्यों की अहम भूमिका, विद्यार्थियों के प्रति ईमानदारी बरतने को लेकर शिक्षकों को ख़ुद से भी सवाल करने की ज़रूरत, साथ आने व सामूहिक ताक़त गढ़ने जैसे बिंदुओं पर विचार व्यक्त हुए। कार्यक्रम अगली चर्चा के संभावित विषयों के सुझाव आमंत्रित करने और धन्यवाद प्रस्ताव के साथ सम्पन्न हुआ।  

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