Saturday, 31 July 2021

पूँजी और बुद्धि दोनों के विनाश से ग़ुज़रते शिक्षक की एक जीती-जागती गवाही

 स्कूल में दाख़िलों की ज़िम्मेदारी निभाते हुए समाज की तसवीर तो दिखती ही है, बेहद रोचक अनुभव भी प्राप्त होते हैं। इस तसवीर और अनुभव को बनाने में कोरोना-लॉकडाउन के संदर्भ में निर्मित सामाजिक परिस्थितियों के अलावा देश का राजनैतिक माहौल भी शामिल होता है। इस बार जहाँ बच्ची का दाख़िला कराने आ रहे बहुत-से परिवार बच्ची के पिता को 'बेरोज़गार' बता रहे हैं, वहीं वार्षिक आय दो लाख से लेकर चार-साढ़े चार लाख बताने वाले भी अभूतपूर्व संख्या में आए हैं। यह एक निगम स्कूल के लिए कोई सामान्य घटना नहीं है। कम-से-कम हमारे स्कूल में हालिया वर्षों में इस स्तर पर पहले ऐसा नहीं हुआ था। यक़ीनन दो परस्पर विपरीत आर्थिक परिस्थितियों से आने वाले परिवारों की इस परिघटना के पीछे एक ही अर्थ-व्यवस्था (व उसकी दुर्दशा) है। कई छोटे निजी स्कूल बंद हो गए हैं; मेहनत-मज़दूरी या छोटी-मोटी नौकरी करने वालों में से बहुतों की आमदनी पहले की तरह है नहीं या अनिश्चित है; कई लोग शायद कर्ज़ के बोझ तले दबे हुए हैं, जिसके चलते भी उनके लिए अपने बच्चों की पढ़ाई ज़रा महँगे स्कूलों में जारी रखना मुश्किल होता जा रहा है; ऑनलाइन पढ़ाई का अतिरिक्त ख़र्च और उसपर से उसका खोखला परिणाम भी निजी स्कूलों में एक निरर्थक साबित हो रही प्रक्रिया के लिए दुर्लभ पूँजी लुटाने से पलटने को मजबूर करता होगा। 

                                 
ख़ैर, उस दिन जब दाख़िले का फ़ॉर्म भरने के लिए एक बच्ची के माता-पिता की बारी आई तो बच्ची के पिता मेरी मेज़ के सामने वाली कुर्सी पर बैठ गए। बच्ची और उसकी माँ एक किनारे खड़ी रहीं। वैसे, जो लोग पूछताछ करने आते हैं हम उन्हें बताते रहते हैं कि बच्चे-बच्चियों को दाख़िले के लिए स्कूल न लाएँ, लेकिन सब लोग इस तथ्य से अवगत नहीं होते हैं। मेरी कोशिश ये भी रहती है कि मौक़ा-बेमौक़ा मैं लाइन में लगे या पूछताछ के लिए आ रहे लोगों को यह भी बता दूँ कि दाख़िले के लिए बच्चे-बच्ची को लाना कोरोना के चलते तो वर्जित है ही, 2009 में आए शिक्षा अधिकार अधिनियम के बाद से ही - यानी पिछले 12 सालों से - यह ग़ैर-ज़रूरी भी है क्योंकि प्रवेश उम्र के अनुसार होता है, नाकि टेस्ट लेकर। अपनी बेटियों को साथ लेकर आये बहुत-से लोगों में से अधिकतर ये समझते हैं कि उनकी बेटी से कोई अकादमिक पूछताछ की जाएगी आदि। मज़ेदार यह है कि क़ानून से पूरी तरह अनभिज्ञ होने वालों में ऐसे लोगों की संख्या ज़्यादा होती है जो ज़रा अधिक संपन्न पृष्ठभूमि से आते दिखते हैं और जिनकी बच्चियाँ इसके पूर्व निजी स्कूलों में पढ़ रही होती हैं। ज़ाहिर है कि न क़ानून के इस आयाम का प्रचार-प्रसार किया गया है, न इसे निजी स्कूलों पर लागू किया गया है, और न ही निजी स्कूलों ने इसका स्वतः पालन किया है। आमजनों में तो ऐसे प्रावधानों के प्रति फिर भी एक प्रकट-अप्रकट जुड़ाव/माँग है, लेकिन विशेषकर 'ख़ासजन' में गिनती करवाना चाह रहे आकांक्षी लोगों में तो शिक्षा के किसी भी सामाजिक-दार्शनिक-अकादमिक रूप से प्रगतिशील प्रावधान के प्रति उदासीनता ही नहीं, बल्कि एक विरोध का भाव दिखता है। वो व्यक्ति बैठे और फ़ॉर्म में माँगी गई जानकारी भरने के लिए मेरे सवालों का जवाब देने लगे। जब मैंने बच्ची के पिता का, यानी उनका, काम/पेशा पूछा तो उन्होंने जवाब में 'शिक्षक' बताया। फ़ॉर्म भरते वक़्त मैं किसी अप्रत्याशित बात पर भी अपनी हैरानी प्रकट करने से बचता हूँ। इस बार भी, अपनी उत्सुकता को दबाते हुए, मैंने अपनी आवाज़ में सामान्य भाव लाते हुए पूछा कि वो कहाँ पढ़ाते हैं - फ़ॉर्म में माता/पिता के पेशे/काम के बाद उनका 'कार्यस्थल' दर्ज करना होता है। उन्होंने जवाब में आई पी यूनिवर्सिटी, दिल्ली विश्वविद्यालय और 'ऑक्सफ़ोर्ड' तक का नाम लिया। यह कहना मुश्किल है कि इस 'ऑक्सफ़ोर्ड' से उनका अभिप्राय लंदन के निकट स्थित विश्वविद्यालय था या कोई कोचिंग संस्थान आदि। हालाँकि उनके स्वर में कोई घमंड नहीं था, बल्कि शायद संकोच का भाव ही था। यूनिवर्सिटी शिक्षक होने के बावजूद अपनी बेटी को एक निगम स्कूल में दाख़िल कराने को लेकर जैसे कि सफ़ाई देते हुए या ख़ुलासा करते हुए उन्होंने उसी आहिस्ता स्वर में जोड़ा कि वो गेस्ट टीचर हैं। मैंने उनके दोनों बयानों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, जबकि सच तो ये है कि जब भी किसी अभिभावक ने दिल्ली विश्वविद्यालय से अपना कामकाजी रिश्ता बताया है तो मैंने उनसे, विश्वविद्यालय से अपने जीवंत संबंध के चलते, अधिक अनौपचारिक होकर इस आशा से अतिरिक्त जानकारी माँगी है कि शायद हमारे बीच कोई समान तार मिल जाए। एक-दो बार मुझे इसका इनाम भी मिला है, जब वो सांस्थानिक जान-पहचान या कैंपस के परिचित इलाक़े में काम करने वाले निकले। मगर इस बार एक यूनिवर्सिटी शिक्षक के संकोच के आगे मैं भी कुछ पूछने में संकोच कर गया। (यह ज्ञानमीमांसा का कोई मनोवैज्ञानिक नियम है, मानव स्वभाव है, या सदियों का सांस्कृतिकरण, हमेशा से वंचित रहते आए लोगों के मुक़ाबले हमें लोगों का संपन्न हालातों से तुलनात्मक विपन्नता की स्थिति में पहुँचना ही ज़्यादा त्रासद लगता है।)

इस बीच, फ़ॉर्म भरने के दौरान, अपनी सचेत आदत के अनुसार, मैंने उन्हें व आसपास खड़े लोगों को क़ानून के इस पहलू के बारे में सूचित किया कि आठवीं कक्षा तक में प्रवेश के लिए किसी भी कारण से बच्चों-बच्चियों को मना नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह उनका मौलिक अधिकार है। यानी, किसी दस्तावेज़ का होना दाख़िले के लिए अनिवार्य शर्त नहीं है। पूछताछ के संदर्भ के अलावा, माता-पिता द्वारा पेश किए जा रहे अपने व अपनी बेटी के दस्तावेज़ों की जाँच करते हुए मैं अक़सर इस तरह की जानकारी सार्वजनिक करने की कोशिश करता हूँ - इस बात को रेखांकित करते हुए कि वो अपने उन दस्तावेज़ों को अवश्य लाएँ जो बने हुए हैं ताकि नाम, जन्म-तिथि लिखते वक़्त कोई 'बेमेल' तथ्य न दर्ज हो जाए जिसके चलते आगे उन्हें परेशानी उठानी पड़े। इस जानकारी का सार्वजनिक प्रचार करने के पीछे मेरी यह खीझ भी होती है - जिसका इज़हार भी मैं करता रहता हूँ - कि एक 'लोकतंत्र' होते हुए भी हमारे देश में न जनता को ऐसे क़ानूनों का पता है और न ही सरकारों या राजनैतिक दलों द्वारा अधिकारों से जुड़े क़ानूनों - कम-से-कम उनके ज़रा उदार पक्षों - के प्रचार के लिए अभियान चलाए जाते हैं। यह खीझ इस कारण और भी बढ़ जाती है क्योंकि मैं शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 की उस आलोचना से परिचित ही नहीं बल्कि सहमत भी हूँ जो इसे, विभिन्न कारणों से, एक छल बताती है। तो खीझ ये होती है कि इधर मैं उस क़ानून का हवाला दे रहा हूँ जिससे मैं ख़ुद ही पूरी तरह इत्तेफ़ाक़ नहीं रखता हूँ, और उधर जिन लोगों को इसके ज़रा प्रगतिशील प्रावधानों को अपने हक़ों की लड़ाई के लिए इस्तेमाल करने की ज़रूरत है, उन्हें इसका अता-पता ही नहीं है।
                             
मगर मैं घटना से बार-बार भटक रहा हूँ! अधिकतर तुलनात्मक रूप से ज़रा संपन्न परिवार के आवेदक 'सभी' दस्तावेज़ों को लाने की एक गर्व-भरी घोषणा करते हैं। उनमें से कइयों को यह आभास नहीं होता है कि जिन दस्तावेज़ों को वो 'कर्त्तव्य परायण नागरिक' के सबूत के तौर पर फ़ख़्र से प्रदर्शित कर रहे होते हैं, उनमें आपस में तमाम तरह की विसंगतियाँ हैं, जिनकी तरफ़ उनका ध्यानाकर्षित करते हुए हम उन्हें देर-सवेर इनमें सुधार करने की सलाह देते हैं। बल्कि ऐसे आवेदकों के संदर्भ में जिनके पास विशेषकर बच्ची के नाम का कोई दस्तावेज़ नहीं होता है, हम बीच-बीच में सबको सुनाने वाली संतोष जताने की यह टिप्पणी भी करते रहते हैं कि इस बच्ची के नाम को दर्ज करने में न्यूनतम समस्या आएगी (क्योंकि अन्यथा न सिर्फ़ जन्म-तिथि प्रमाण-पत्र व 'आधार' में ग़लत वर्तनी के नाम लिखे रहते हैं, बल्कि अक़सर इनका आपस में भी मेल नहीं होता है)। ऐसे में मैं उनका भ्रम तोड़ने के लिए और भी विचलित हो जाता हूँ। इस बार भी ऐसा ही हुआ। तो जब मैंने उनका फ़ॉर्म भरने की प्रक्रिया में दस्तावेज़ों के अनिवार्य न होने या दाख़िलों के लिए कोई समय-सीमा न होने जैसी कोई सूचनापरक बात कही जो जनता और बच्चों-बच्चियों के हक़ में थी, तो उन्होंने सहमति जताते हुए कहा कि 'मोदीजी' ने बच्चियों की शिक्षा को आसान करने के लिए अच्छे क़दम उठाए हैं। उनकी इस तथ्यों से उदासीन और 'भक्ति' में डूबी टिप्पणी से स्तब्ध रहकर मैं उन्हें सिर्फ़ इतना सूचित करने का प्रतिकार ही कर पाया कि यह क़ानून 2009 में आया था। वो ख़ामोश रह गए। मैंने भी इससे ज़्यादा बात नहीं की। सिर्फ़ यह सोचता रहा कि अजब आलम है, न सिर्फ़ विश्वविद्यालय स्तर पर पढ़ने-पढ़ाने वाले व्यक्ति को ऐसी मौलिक जानकारी भी प्राप्त नहीं है, बल्कि वो अपनी आर्थिक-आजीवकीय परिस्थिति के संकट को नज़रंदाज़ करने की क़ीमत पर तयशुदा व्यक्ति को अनाप-शनाप श्रेय देने पर आमादा है। क़िस्सा सुनकर एक मित्र ने चुटकी ली कि हमारे इस वक़्त को द्वितीय 'भक्ति-काल' के रूप में याद किया जाएगा! लेकिन अफ़सोस, बात हँसी से ज़्यादा दुःख और आक्रोश की है। 

Friday, 23 July 2021

शिक्षा की परिवर्तनकामी भूमिका: एक शिक्षिका के एक कक्षाई संवाद का प्रेरक अनुभव

 हममें से बहुत से शिक्षक, शिक्षा की प्रगतिशील समझ रखने के बावजूद, अक़सर ख़ुद को एक निराशा की स्थिति में पाते हैं। इस ज़हनी हालत की वजह व्यक्तिगत ज़िंदगी में हो रहे उतार-चढ़ाव तो होते ही हैं, शिक्षा व्यवस्था व व्यापक समाज में पसर रही जन-विरोधी राजनीति भी होती है। राजनैतिक रूप से अधिक प्रतिबद्ध साथियों को यक़ीनन शिक्षा-विरोधी राजनैतिक जकड़बंदी ज़्यादा परेशान करती है। हमारे देश में शिक्षा पर हमेशा से ही एक संकीर्ण सांस्कृतिक वर्चस्व क़ायम रहा है। इसके मूल में ऐतिहासिक रूप से मुट्ठीभर लोगों का वो राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक प्रभुत्व रहा है जिसने अपनी छाप शिक्षा पर भी छोड़ी है। हालाँकि, लोकायत, चार्वाक, बुद्ध, जैन, नानक, कबीर से होते हुए आधुनिक काल में सावित्रीबाई फुले, डॉक्टर अंबेडकर आदि तक लोकतांत्रिक व्यवहार, खुली ज़हनियत, प्रतिरोध और नवनिर्माण की एक प्रखर धारा भी हमारे साथ रही है, फिर भी औपचारिक शिक्षा व्यवस्था में कुल मिलाकर रूढ़िवादी संस्कृति ही हावी रही है। पिछले कुछ समय, ख़ासतौर से 2014 में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के केंद्र में सत्तारूढ़ होने के बाद से हमारे देश की इस तथाकथित मुख्यधारा की सांस्कृतिक जकड़न को राज्य से संरक्षण ही नहीं, सीधे ताक़त भी हासिल हुई है। जहाँ शिक्षा को निर्धारित व प्रभावित करने वाली सरकारी नीतियाँ पहले से कहीं ज़्यादा और तेज़ी से कमज़ोर तबक़ों तथा इल्म के प्रति ख़ूँख़ार होती गई हैं, वहीं नफ़रत के हिमायतियों के हौसले बुलंद हुए हैं। इसका सीधा असर इंसाफ़ और इल्म के हक़ में रुझान रखने वाले शिक्षकों व विद्यार्थियों के मनोबल पर भी पड़ा है, हालाँकि यहाँ भी प्रतिरोध, ख़ासतौर से सांगठनिक शक्लों में, मज़बूती से जारी रहा है।

इस संदर्भ के मद्देनज़र अपने-अपने स्तर पर अपनी कक्षाओं, संस्थानों में जूझ रहे शिक्षकों और विद्यार्थियों की अहम दख़लों और उनके साहसी-विवेकपूर्ण किरदार को दर्ज करना भी ज़रूरी है। इसी कड़ी में पेश है एक शिक्षिका का हौसला और जोश बढ़ाने वाला एक कक्षाई अनुभव। ये शिक्षिका पिछले लगभग चार वर्षों से दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में स्नातक स्तर पर एक कोर्स में पढ़ा रही हैं। इनका अपना समाजी व तालीमी सफ़र चुनौतियों तथा संघर्ष के उस रास्ते से होकर ग़ुज़रा है जिससे हमारे देश की बहुसंख्यक मेहनतकश आवाम को, उनमें भी ख़ासतौर से महिलाओं को, होकर ग़ुज़रना पड़ता है। 

जिस स्नातक स्तर के कोर्स में वो पढ़ा रही हैं, उसमें एक पर्चा सामाजिक विज्ञान का है। इसमें छात्राओं को भारत की विविध तथा विषम राजनैतिक-सामाजिक सच्चाई से परिचित कराने के अलावा, शिक्षा से इन आयामों के संबंध के बारे में पढ़ाया जाता है। ज़ाहिर है कि ऐसे कोर्स की रूपरेखा भी तभी तक संभव है जब तक इन्हें तैयार करने वाले शिक्षक न सिर्फ़ ख़ुद एक प्रगतिशील समझ रखते हों, बल्कि कोर्सों को तैयार करने वाली अकादमिक इकाइयाँ व प्रक्रियाएँ सत्ता के अधीन न होकर स्वायत्त हों। केंद्र सरकार के फ़ासीवादी चरित्र और राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के एजेंडा के संदर्भ में ये अंदाज़ा लगाना ग़लत नहीं होगा कि आलोचनात्मक नज़रिए को प्रेरित करने वाले ऐसे कोर्सों की पाठ्यचर्या को इस क़दर उदार और संवेदनशील नहीं रहने दिया जाएगा।

लगभग चार साल पहले अपनी प्रथम वर्ष की छात्राओं को इस पेपर के तहत राष्ट्रवाद का विषय पढ़ाते हुए उन्होंने आरएसएस की राष्ट्र की अवधारणा तथा उसके राष्ट्रवाद के दर्शन पर कक्षा का ध्यान खींचा। आरएसएस के दर्शन में निहित नफ़रत व उससे उपजने वाली नागरिकता की संकुचित अवधारणा से असहमति रखते हुए, वो ख़ुद भी समझना चाहती थीं कि इस स्तर की छात्राएँ इस बेदख़ली को पहचान पाती हैं या नहीं तथा इसे कैसे देखती हैं। इस संदर्भ में वो कक्षा में रोमिला थापर एवं अन्य की संपादित किताब ‘ऑन नेशनलिज़्म’ में शामिल एक लेख पर चर्चा कर रही थीं। इस दौरान कक्षा में विभिन्न दलों/संगठनों/संस्थाओं की ‘राष्ट्र’ की कल्पना पर बात चल रही है। इस चर्चा के दौरान उनकी कक्षा की एक छात्रा ने उस लेख की व्याख्या से असहमति ज़ाहिर की। उसका कहना था कि अपने पिता की आरएसएस की पृष्ठभूमि के मद्देनज़र वो समझती है कि आरएसएस के बारे में लेख की आलोचना ग़लत है। छात्रा का कहना था कि उसके घर में आरएसएस के दस्तावेज़ हैं जिनके आधार पर वो कह सकती है कि ये संस्था कहीं से भी दूसरों के साथ भेदभाव या उनके लिए दोयम दर्जे की नागरिकता की वकालत नहीं करती है। शिक्षिका ने न सिर्फ़ छात्रा को इस व्याख्या के विरोध में अपनी बात खुलकर कहने को आमंत्रित किया, बल्कि उसे उस दस्तावेज़ को कक्षा में लाने के लिए भी प्रोत्साहित किया जिसके आधार पर वो अपनी असहमति को सबके सामने जायज़ ठहरा सकती थी। अगली कक्षा में जब छात्रा आरएसएस का उक्त दस्तावेज़ कक्षा में लाई तो शिक्षिका ने उसे उस दस्तावेज़ को कक्षा के सामने ऊँची आवाज़ में पढ़ने के लिए आमंत्रित किया, ताकि सब छात्राएँ उसे सुन व समझ कर उसपर आपस में बात भी कर सकें। जब छात्रा ने उसे पढ़ना शुरु किया तो एक-दो वाक्यों के बाद वो ख़ुद ही ठिठक कर रुक गई। शिक्षिका ने उसके रुकने का कारण पूछा तो उसने कक्षा में मौजूद मुस्लिम पृष्ठभूमि की सहपाठिनों का नाम लेते हुए कहा कि जब दस्तावेज़ में भारत के लोगों के नाम पर सिर्फ़ ‘हम हिन्दू’ या ‘हम हिंदुओं’ को संबोधित किया जा रहा है, तब उसने ख़ुद से ही महसूस किया कि दस्तावेज़ राष्ट्र की कल्पना में सभी को शामिल नहीं कर रहा है और इसके मद्देनज़र वो अपनी उन सहपाठिनों के सामने इसे आगे नहीं पढ़ सकती है। छात्रा का इसके बाद का बदला राजनैतिक नज़रिया (जिसे शिक्षिका ने आने वाले समय में महसूस किया) इस बात का सबूत है कि यह महज़ एक विनम्र संकोच का नहीं, बल्कि उभरती चेतना की संवेदनशीलता का इंकार था जिसे संवाद में यक़ीन रखने वाली एक ईमानदार शिक्षिका के शिक्षणशास्त्र ने संभव बनाया था।
 
प्रसंग यहीं ख़त्म नहीं होता है। किसी भी असल शैक्षिक अनुभव की तरह यह एक अंतद्वंद्व के रूप में जारी रहता है। छात्रा जब घर पहुँच कर अपने पिता से अपनी नई नज़र को साझा करते हुए उनसे आरएसएस/दस्तावेज़ के बारे में सवाल करती है, तो उनकी प्रतिक्रिया पितृसत्ता और दोहरी शिक्षा व्यवस्था के रिश्ते को उघाड़ कर रख देती है। वो अपनी बेटी की उभरती समझ पर खीझकर कहते हैं कि इसीलिए वो उसकी नियमित उच्च-शिक्षा के पक्ष में नहीं थे और अगर वो दूरस्थ माध्यम से पढ़ती तो सवाल करना सिखाने वाली ऐसी 'ग़लत' शिक्षा से तो बची रहती! बेटी और पिता के इस विवाद में सुलह का बीच का रास्ता ढूँढती हुई माँ छात्रा को सलाह देती हैं कि उसे कॉलेज की पढ़ाई और घर-परिवार को मिलाना नहीं चाहिए, बल्कि उन्हें अलग-अलग रखना चाहिए! ज़ाहिर है कि उनकी यह सलाह पितृसत्ता के उनके अपने अनुभवों की सीख पर आधारित है जिसकी बिना पर वो अपनी बेटी को एक सीमित मायने में 'कामयाब' व 'सुरक्षित' देखना चाहती हैं। यह वो समझौता है जिसे आज़ादी और बराबरी के साझे स्त्रीवादी संघर्षों में लगी शिक्षिकाएँ और छात्राएँ मुक्तिकामी शिक्षा की ताक़त से लैस होकर चुनौती दे रही हैं।

दूसरी तरफ़, जहाँ ऑनलाइन माध्यम को कॉरपोरेट ताक़तों तथा राज्य द्वारा थोपा जा रहा है, वहीं ऐसे जीवंत कक्षाई अनुभव न सिर्फ़ ऑन-कैंपस व शिक्षकों-विद्यार्थियों की ज़ाहिर मौजूदगी में निहित अंतःक्रिया की संभावनाओं और गहराइयों को उजागर करते हैं, बल्कि ये इशारा भी करते हैं कि प्रत्यक्ष जीवंत अंतःक्रियाओं के बदले ऑनलाइन माध्यम का थोपा जाना आवाम व तालीम के ख़िलाफ़ एक साज़िश भी है। यह प्रसंग हमारे संस्थानों और कक्षाओं के संदर्भ में विविधता के महत्व को भी बख़ूबी बयान करता है। हम कल्पना कर सकते हैं कि अगर उनकी कक्षा में विविध पृष्ठभूमियों की छात्राएँ नहीं होतीं, तो शायद उस वक़्त उक्त छात्रा को वह अहसास नहीं होता जो उसे उनकी मौजूदगी में दस्तावेज़ पढ़ते वक़्त हुआ। विविधता विषमता को तोड़ने का काम कर सकती है। हम सोच सकते हैं कि आज इल्म व विचार विरोधी राज्य की निगरानी के दौर में जब ऑनलाइन शिक्षा और कक्षाओं की रिकॉर्डिंग की मांग थोपी जा रही है, तब किसी गंभीर शिक्षक-शिक्षिका की स्वायत्तता किस तरह सीमित हो जाएगी। ऐसे में सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों को पढ़ाने के अहम उद्देश्यों - जैसे, विद्यार्थियों में आलोचनात्मक चिंतन को प्रेरित करना, समाज की भेदभावकारी/बेदख़ल करने वाली प्रक्रियाओं को पहचानना सिखाना और इस तरह समाज को बदलने की राह दिखाना - और शिक्षा की परिवर्तनकामी भूमिका को लड़कर मिली थोड़ी-बहुत जगह भी ख़तरे में पड़ जाएगी। तालीम का अंतर्राष्ट्रीय इतिहास इस बात का गवाह है कि किसी भी फ़ासीवादी दौर में सरकार की दमनकारी निगरानी, समाज में उच्श्रृंखल होते हिंसक तत्वों और प्रशासन के रीढ़विहीन चरित्र के चलते शिक्षक-शिक्षिकाओं के लिए अपनी बौद्धिक ज़िम्मेदारी को खुलकर निभाना तथा अपने विद्यार्थियों से इंसाफ़ करना मुश्किल होता जाता है। ऐसे में, ऐसी तमाम शिक्षिकाएँ और छात्राएँ जो दमन, चुनौतियों व आशा-निराशा के उतार-चढ़ाव के बीच अपने-अपने स्तर पर तालीम को संवाद की एक खुली किताब की तरह बरत कर सिर्फ़ प्रतिरोध ही नहीं, बल्कि एक बेहतर और ख़ूबसूरत दुनिया का निर्माण भी कर रही हैं, बेशक हमें प्रेरणा देती हैं और तालीम के आंदोलन में जान भरती हैं।

नोट: यह आलेख एक साथी शिक्षिका द्वारा व्यक्तिगत बातचीत में साझा किए गए उनके एक कक्षाई अनुभव को दर्ज करता है। उनके आग्रह पर उनकी पहचान उजागर नहीं की गई है।