स्कूल में दाख़िलों की ज़िम्मेदारी निभाते हुए समाज की तसवीर तो दिखती ही है, बेहद रोचक अनुभव भी प्राप्त होते हैं। इस तसवीर और अनुभव को बनाने में कोरोना-लॉकडाउन के संदर्भ में निर्मित सामाजिक परिस्थितियों के अलावा देश का राजनैतिक माहौल भी शामिल होता है। इस बार जहाँ बच्ची का दाख़िला कराने आ रहे बहुत-से परिवार बच्ची के पिता को 'बेरोज़गार' बता रहे हैं, वहीं वार्षिक आय दो लाख से लेकर चार-साढ़े चार लाख बताने वाले भी अभूतपूर्व संख्या में आए हैं। यह एक निगम स्कूल के लिए कोई सामान्य घटना नहीं है। कम-से-कम हमारे स्कूल में हालिया वर्षों में इस स्तर पर पहले ऐसा नहीं हुआ था। यक़ीनन दो परस्पर विपरीत आर्थिक परिस्थितियों से आने वाले परिवारों की इस परिघटना के पीछे एक ही अर्थ-व्यवस्था (व उसकी दुर्दशा) है। कई छोटे निजी स्कूल बंद हो गए हैं; मेहनत-मज़दूरी या छोटी-मोटी नौकरी करने वालों में से बहुतों की आमदनी पहले की तरह है नहीं या अनिश्चित है; कई लोग शायद कर्ज़ के बोझ तले दबे हुए हैं, जिसके चलते भी उनके लिए अपने बच्चों की पढ़ाई ज़रा महँगे स्कूलों में जारी रखना मुश्किल होता जा रहा है; ऑनलाइन पढ़ाई का अतिरिक्त ख़र्च और उसपर से उसका खोखला परिणाम भी निजी स्कूलों में एक निरर्थक साबित हो रही प्रक्रिया के लिए दुर्लभ पूँजी लुटाने से पलटने को मजबूर करता होगा।
ख़ैर, उस दिन जब दाख़िले का फ़ॉर्म भरने के लिए एक बच्ची के माता-पिता की बारी आई तो बच्ची के पिता मेरी मेज़ के सामने वाली कुर्सी पर बैठ गए। बच्ची और उसकी माँ एक किनारे खड़ी रहीं। वैसे, जो लोग पूछताछ करने आते हैं हम उन्हें बताते रहते हैं कि बच्चे-बच्चियों को दाख़िले के लिए स्कूल न लाएँ, लेकिन सब लोग इस तथ्य से अवगत नहीं होते हैं। मेरी कोशिश ये भी रहती है कि मौक़ा-बेमौक़ा मैं लाइन में लगे या पूछताछ के लिए आ रहे लोगों को यह भी बता दूँ कि दाख़िले के लिए बच्चे-बच्ची को लाना कोरोना के चलते तो वर्जित है ही, 2009 में आए शिक्षा अधिकार अधिनियम के बाद से ही - यानी पिछले 12 सालों से - यह ग़ैर-ज़रूरी भी है क्योंकि प्रवेश उम्र के अनुसार होता है, नाकि टेस्ट लेकर। अपनी बेटियों को साथ लेकर आये बहुत-से लोगों में से अधिकतर ये समझते हैं कि उनकी बेटी से कोई अकादमिक पूछताछ की जाएगी आदि। मज़ेदार यह है कि क़ानून से पूरी तरह अनभिज्ञ होने वालों में ऐसे लोगों की संख्या ज़्यादा होती है जो ज़रा अधिक संपन्न पृष्ठभूमि से आते दिखते हैं और जिनकी बच्चियाँ इसके पूर्व निजी स्कूलों में पढ़ रही होती हैं। ज़ाहिर है कि न क़ानून के इस आयाम का प्रचार-प्रसार किया गया है, न इसे निजी स्कूलों पर लागू किया गया है, और न ही निजी स्कूलों ने इसका स्वतः पालन किया है। आमजनों में तो ऐसे प्रावधानों के प्रति फिर भी एक प्रकट-अप्रकट जुड़ाव/माँग है, लेकिन विशेषकर 'ख़ासजन' में गिनती करवाना चाह रहे आकांक्षी लोगों में तो शिक्षा के किसी भी सामाजिक-दार्शनिक-अकादमिक रूप से प्रगतिशील प्रावधान के प्रति उदासीनता ही नहीं, बल्कि एक विरोध का भाव दिखता है। वो व्यक्ति बैठे और फ़ॉर्म में माँगी गई जानकारी भरने के लिए मेरे सवालों का जवाब देने लगे। जब मैंने बच्ची के पिता का, यानी उनका, काम/पेशा पूछा तो उन्होंने जवाब में 'शिक्षक' बताया। फ़ॉर्म भरते वक़्त मैं किसी अप्रत्याशित बात पर भी अपनी हैरानी प्रकट करने से बचता हूँ। इस बार भी, अपनी उत्सुकता को दबाते हुए, मैंने अपनी आवाज़ में सामान्य भाव लाते हुए पूछा कि वो कहाँ पढ़ाते हैं - फ़ॉर्म में माता/पिता के पेशे/काम के बाद उनका 'कार्यस्थल' दर्ज करना होता है। उन्होंने जवाब में आई पी यूनिवर्सिटी, दिल्ली विश्वविद्यालय और 'ऑक्सफ़ोर्ड' तक का नाम लिया। यह कहना मुश्किल है कि इस 'ऑक्सफ़ोर्ड' से उनका अभिप्राय लंदन के निकट स्थित विश्वविद्यालय था या कोई कोचिंग संस्थान आदि। हालाँकि उनके स्वर में कोई घमंड नहीं था, बल्कि शायद संकोच का भाव ही था। यूनिवर्सिटी शिक्षक होने के बावजूद अपनी बेटी को एक निगम स्कूल में दाख़िल कराने को लेकर जैसे कि सफ़ाई देते हुए या ख़ुलासा करते हुए उन्होंने उसी आहिस्ता स्वर में जोड़ा कि वो गेस्ट टीचर हैं। मैंने उनके दोनों बयानों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, जबकि सच तो ये है कि जब भी किसी अभिभावक ने दिल्ली विश्वविद्यालय से अपना कामकाजी रिश्ता बताया है तो मैंने उनसे, विश्वविद्यालय से अपने जीवंत संबंध के चलते, अधिक अनौपचारिक होकर इस आशा से अतिरिक्त जानकारी माँगी है कि शायद हमारे बीच कोई समान तार मिल जाए। एक-दो बार मुझे इसका इनाम भी मिला है, जब वो सांस्थानिक जान-पहचान या कैंपस के परिचित इलाक़े में काम करने वाले निकले। मगर इस बार एक यूनिवर्सिटी शिक्षक के संकोच के आगे मैं भी कुछ पूछने में संकोच कर गया। (यह ज्ञानमीमांसा का कोई मनोवैज्ञानिक नियम है, मानव स्वभाव है, या सदियों का सांस्कृतिकरण, हमेशा से वंचित रहते आए लोगों के मुक़ाबले हमें लोगों का संपन्न हालातों से तुलनात्मक विपन्नता की स्थिति में पहुँचना ही ज़्यादा त्रासद लगता है।)
इस बीच, फ़ॉर्म भरने के दौरान, अपनी सचेत आदत के अनुसार, मैंने उन्हें व आसपास खड़े लोगों को क़ानून के इस पहलू के बारे में सूचित किया कि आठवीं कक्षा तक में प्रवेश के लिए किसी भी कारण से बच्चों-बच्चियों को मना नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह उनका मौलिक अधिकार है। यानी, किसी दस्तावेज़ का होना दाख़िले के लिए अनिवार्य शर्त नहीं है। पूछताछ के संदर्भ के अलावा, माता-पिता द्वारा पेश किए जा रहे अपने व अपनी बेटी के दस्तावेज़ों की जाँच करते हुए मैं अक़सर इस तरह की जानकारी सार्वजनिक करने की कोशिश करता हूँ - इस बात को रेखांकित करते हुए कि वो अपने उन दस्तावेज़ों को अवश्य लाएँ जो बने हुए हैं ताकि नाम, जन्म-तिथि लिखते वक़्त कोई 'बेमेल' तथ्य न दर्ज हो जाए जिसके चलते आगे उन्हें परेशानी उठानी पड़े। इस जानकारी का सार्वजनिक प्रचार करने के पीछे मेरी यह खीझ भी होती है - जिसका इज़हार भी मैं करता रहता हूँ - कि एक 'लोकतंत्र' होते हुए भी हमारे देश में न जनता को ऐसे क़ानूनों का पता है और न ही सरकारों या राजनैतिक दलों द्वारा अधिकारों से जुड़े क़ानूनों - कम-से-कम उनके ज़रा उदार पक्षों - के प्रचार के लिए अभियान चलाए जाते हैं। यह खीझ इस कारण और भी बढ़ जाती है क्योंकि मैं शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 की उस आलोचना से परिचित ही नहीं बल्कि सहमत भी हूँ जो इसे, विभिन्न कारणों से, एक छल बताती है। तो खीझ ये होती है कि इधर मैं उस क़ानून का हवाला दे रहा हूँ जिससे मैं ख़ुद ही पूरी तरह इत्तेफ़ाक़ नहीं रखता हूँ, और उधर जिन लोगों को इसके ज़रा प्रगतिशील प्रावधानों को अपने हक़ों की लड़ाई के लिए इस्तेमाल करने की ज़रूरत है, उन्हें इसका अता-पता ही नहीं है।
मगर मैं घटना से बार-बार भटक रहा हूँ! अधिकतर तुलनात्मक रूप से ज़रा संपन्न परिवार के आवेदक 'सभी' दस्तावेज़ों को लाने की एक गर्व-भरी घोषणा करते हैं। उनमें से कइयों को यह आभास नहीं होता है कि जिन दस्तावेज़ों को वो 'कर्त्तव्य परायण नागरिक' के सबूत के तौर पर फ़ख़्र से प्रदर्शित कर रहे होते हैं, उनमें आपस में तमाम तरह की विसंगतियाँ हैं, जिनकी तरफ़ उनका ध्यानाकर्षित करते हुए हम उन्हें देर-सवेर इनमें सुधार करने की सलाह देते हैं। बल्कि ऐसे आवेदकों के संदर्भ में जिनके पास विशेषकर बच्ची के नाम का कोई दस्तावेज़ नहीं होता है, हम बीच-बीच में सबको सुनाने वाली संतोष जताने की यह टिप्पणी भी करते रहते हैं कि इस बच्ची के नाम को दर्ज करने में न्यूनतम समस्या आएगी (क्योंकि अन्यथा न सिर्फ़ जन्म-तिथि प्रमाण-पत्र व 'आधार' में ग़लत वर्तनी के नाम लिखे रहते हैं, बल्कि अक़सर इनका आपस में भी मेल नहीं होता है)। ऐसे में मैं उनका भ्रम तोड़ने के लिए और भी विचलित हो जाता हूँ। इस बार भी ऐसा ही हुआ। तो जब मैंने उनका फ़ॉर्म भरने की प्रक्रिया में दस्तावेज़ों के अनिवार्य न होने या दाख़िलों के लिए कोई समय-सीमा न होने जैसी कोई सूचनापरक बात कही जो जनता और बच्चों-बच्चियों के हक़ में थी, तो उन्होंने सहमति जताते हुए कहा कि 'मोदीजी' ने बच्चियों की शिक्षा को आसान करने के लिए अच्छे क़दम उठाए हैं। उनकी इस तथ्यों से उदासीन और 'भक्ति' में डूबी टिप्पणी से स्तब्ध रहकर मैं उन्हें सिर्फ़ इतना सूचित करने का प्रतिकार ही कर पाया कि यह क़ानून 2009 में आया था। वो ख़ामोश रह गए। मैंने भी इससे ज़्यादा बात नहीं की। सिर्फ़ यह सोचता रहा कि अजब आलम है, न सिर्फ़ विश्वविद्यालय स्तर पर पढ़ने-पढ़ाने वाले व्यक्ति को ऐसी मौलिक जानकारी भी प्राप्त नहीं है, बल्कि वो अपनी आर्थिक-आजीवकीय परिस्थिति के संकट को नज़रंदाज़ करने की क़ीमत पर तयशुदा व्यक्ति को अनाप-शनाप श्रेय देने पर आमादा है। क़िस्सा सुनकर एक मित्र ने चुटकी ली कि हमारे इस वक़्त को द्वितीय 'भक्ति-काल' के रूप में याद किया जाएगा! लेकिन अफ़सोस, बात हँसी से ज़्यादा दुःख और आक्रोश की है।