हममें से बहुत से शिक्षक, शिक्षा की प्रगतिशील समझ रखने के बावजूद, अक़सर ख़ुद को एक निराशा की स्थिति में पाते हैं। इस ज़हनी हालत की वजह व्यक्तिगत ज़िंदगी में हो रहे उतार-चढ़ाव तो होते ही हैं, शिक्षा व्यवस्था व व्यापक समाज में पसर रही जन-विरोधी राजनीति भी होती है। राजनैतिक रूप से अधिक प्रतिबद्ध साथियों को यक़ीनन शिक्षा-विरोधी राजनैतिक जकड़बंदी ज़्यादा परेशान करती है। हमारे देश में शिक्षा पर हमेशा से ही एक संकीर्ण सांस्कृतिक वर्चस्व क़ायम रहा है। इसके मूल में ऐतिहासिक रूप से मुट्ठीभर लोगों का वो राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक प्रभुत्व रहा है जिसने अपनी छाप शिक्षा पर भी छोड़ी है। हालाँकि, लोकायत, चार्वाक, बुद्ध, जैन, नानक, कबीर से होते हुए आधुनिक काल में सावित्रीबाई फुले, डॉक्टर अंबेडकर आदि तक लोकतांत्रिक व्यवहार, खुली ज़हनियत, प्रतिरोध और नवनिर्माण की एक प्रखर धारा भी हमारे साथ रही है, फिर भी औपचारिक शिक्षा व्यवस्था में कुल मिलाकर रूढ़िवादी संस्कृति ही हावी रही है। पिछले कुछ समय, ख़ासतौर से 2014 में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के केंद्र में सत्तारूढ़ होने के बाद से हमारे देश की इस तथाकथित मुख्यधारा की सांस्कृतिक जकड़न को राज्य से संरक्षण ही नहीं, सीधे ताक़त भी हासिल हुई है। जहाँ शिक्षा को निर्धारित व प्रभावित करने वाली सरकारी नीतियाँ पहले से कहीं ज़्यादा और तेज़ी से कमज़ोर तबक़ों तथा इल्म के प्रति ख़ूँख़ार होती गई हैं, वहीं नफ़रत के हिमायतियों के हौसले बुलंद हुए हैं। इसका सीधा असर इंसाफ़ और इल्म के हक़ में रुझान रखने वाले शिक्षकों व विद्यार्थियों के मनोबल पर भी पड़ा है, हालाँकि यहाँ भी प्रतिरोध, ख़ासतौर से सांगठनिक शक्लों में, मज़बूती से जारी रहा है।
Friday, 23 July 2021
शिक्षा की परिवर्तनकामी भूमिका: एक शिक्षिका के एक कक्षाई संवाद का प्रेरक अनुभव
इस संदर्भ के मद्देनज़र अपने-अपने स्तर पर अपनी कक्षाओं, संस्थानों में जूझ रहे शिक्षकों और विद्यार्थियों की अहम दख़लों और उनके साहसी-विवेकपूर्ण किरदार को दर्ज करना भी ज़रूरी है। इसी कड़ी में पेश है एक शिक्षिका का हौसला और जोश बढ़ाने वाला एक कक्षाई अनुभव। ये शिक्षिका पिछले लगभग चार वर्षों से दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में स्नातक स्तर पर एक कोर्स में पढ़ा रही हैं। इनका अपना समाजी व तालीमी सफ़र चुनौतियों तथा संघर्ष के उस रास्ते से होकर ग़ुज़रा है जिससे हमारे देश की बहुसंख्यक मेहनतकश आवाम को, उनमें भी ख़ासतौर से महिलाओं को, होकर ग़ुज़रना पड़ता है।
जिस स्नातक स्तर के कोर्स में वो पढ़ा रही हैं, उसमें एक पर्चा सामाजिक विज्ञान का है। इसमें छात्राओं को भारत की विविध तथा विषम राजनैतिक-सामाजिक सच्चाई से परिचित कराने के अलावा, शिक्षा से इन आयामों के संबंध के बारे में पढ़ाया जाता है। ज़ाहिर है कि ऐसे कोर्स की रूपरेखा भी तभी तक संभव है जब तक इन्हें तैयार करने वाले शिक्षक न सिर्फ़ ख़ुद एक प्रगतिशील समझ रखते हों, बल्कि कोर्सों को तैयार करने वाली अकादमिक इकाइयाँ व प्रक्रियाएँ सत्ता के अधीन न होकर स्वायत्त हों। केंद्र सरकार के फ़ासीवादी चरित्र और राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के एजेंडा के संदर्भ में ये अंदाज़ा लगाना ग़लत नहीं होगा कि आलोचनात्मक नज़रिए को प्रेरित करने वाले ऐसे कोर्सों की पाठ्यचर्या को इस क़दर उदार और संवेदनशील नहीं रहने दिया जाएगा।
लगभग चार साल पहले अपनी प्रथम वर्ष की छात्राओं को इस पेपर के तहत राष्ट्रवाद का विषय पढ़ाते हुए उन्होंने आरएसएस की राष्ट्र की अवधारणा तथा उसके राष्ट्रवाद के दर्शन पर कक्षा का ध्यान खींचा। आरएसएस के दर्शन में निहित नफ़रत व उससे उपजने वाली नागरिकता की संकुचित अवधारणा से असहमति रखते हुए, वो ख़ुद भी समझना चाहती थीं कि इस स्तर की छात्राएँ इस बेदख़ली को पहचान पाती हैं या नहीं तथा इसे कैसे देखती हैं। इस संदर्भ में वो कक्षा में रोमिला थापर एवं अन्य की संपादित किताब ‘ऑन नेशनलिज़्म’ में शामिल एक लेख पर चर्चा कर रही थीं। इस दौरान कक्षा में विभिन्न दलों/संगठनों/संस्थाओं की ‘राष्ट्र’ की कल्पना पर बात चल रही है। इस चर्चा के दौरान उनकी कक्षा की एक छात्रा ने उस लेख की व्याख्या से असहमति ज़ाहिर की। उसका कहना था कि अपने पिता की आरएसएस की पृष्ठभूमि के मद्देनज़र वो समझती है कि आरएसएस के बारे में लेख की आलोचना ग़लत है। छात्रा का कहना था कि उसके घर में आरएसएस के दस्तावेज़ हैं जिनके आधार पर वो कह सकती है कि ये संस्था कहीं से भी दूसरों के साथ भेदभाव या उनके लिए दोयम दर्जे की नागरिकता की वकालत नहीं करती है। शिक्षिका ने न सिर्फ़ छात्रा को इस व्याख्या के विरोध में अपनी बात खुलकर कहने को आमंत्रित किया, बल्कि उसे उस दस्तावेज़ को कक्षा में लाने के लिए भी प्रोत्साहित किया जिसके आधार पर वो अपनी असहमति को सबके सामने जायज़ ठहरा सकती थी। अगली कक्षा में जब छात्रा आरएसएस का उक्त दस्तावेज़ कक्षा में लाई तो शिक्षिका ने उसे उस दस्तावेज़ को कक्षा के सामने ऊँची आवाज़ में पढ़ने के लिए आमंत्रित किया, ताकि सब छात्राएँ उसे सुन व समझ कर उसपर आपस में बात भी कर सकें। जब छात्रा ने उसे पढ़ना शुरु किया तो एक-दो वाक्यों के बाद वो ख़ुद ही ठिठक कर रुक गई। शिक्षिका ने उसके रुकने का कारण पूछा तो उसने कक्षा में मौजूद मुस्लिम पृष्ठभूमि की सहपाठिनों का नाम लेते हुए कहा कि जब दस्तावेज़ में भारत के लोगों के नाम पर सिर्फ़ ‘हम हिन्दू’ या ‘हम हिंदुओं’ को संबोधित किया जा रहा है, तब उसने ख़ुद से ही महसूस किया कि दस्तावेज़ राष्ट्र की कल्पना में सभी को शामिल नहीं कर रहा है और इसके मद्देनज़र वो अपनी उन सहपाठिनों के सामने इसे आगे नहीं पढ़ सकती है। छात्रा का इसके बाद का बदला राजनैतिक नज़रिया (जिसे शिक्षिका ने आने वाले समय में महसूस किया) इस बात का सबूत है कि यह महज़ एक विनम्र संकोच का नहीं, बल्कि उभरती चेतना की संवेदनशीलता का इंकार था जिसे संवाद में यक़ीन रखने वाली एक ईमानदार शिक्षिका के शिक्षणशास्त्र ने संभव बनाया था।
प्रसंग यहीं ख़त्म नहीं होता है। किसी भी असल शैक्षिक अनुभव की तरह यह एक अंतद्वंद्व के रूप में जारी रहता है। छात्रा जब घर पहुँच कर अपने पिता से अपनी नई नज़र को साझा करते हुए उनसे आरएसएस/दस्तावेज़ के बारे में सवाल करती है, तो उनकी प्रतिक्रिया पितृसत्ता और दोहरी शिक्षा व्यवस्था के रिश्ते को उघाड़ कर रख देती है। वो अपनी बेटी की उभरती समझ पर खीझकर कहते हैं कि इसीलिए वो उसकी नियमित उच्च-शिक्षा के पक्ष में नहीं थे और अगर वो दूरस्थ माध्यम से पढ़ती तो सवाल करना सिखाने वाली ऐसी 'ग़लत' शिक्षा से तो बची रहती! बेटी और पिता के इस विवाद में सुलह का बीच का रास्ता ढूँढती हुई माँ छात्रा को सलाह देती हैं कि उसे कॉलेज की पढ़ाई और घर-परिवार को मिलाना नहीं चाहिए, बल्कि उन्हें अलग-अलग रखना चाहिए! ज़ाहिर है कि उनकी यह सलाह पितृसत्ता के उनके अपने अनुभवों की सीख पर आधारित है जिसकी बिना पर वो अपनी बेटी को एक सीमित मायने में 'कामयाब' व 'सुरक्षित' देखना चाहती हैं। यह वो समझौता है जिसे आज़ादी और बराबरी के साझे स्त्रीवादी संघर्षों में लगी शिक्षिकाएँ और छात्राएँ मुक्तिकामी शिक्षा की ताक़त से लैस होकर चुनौती दे रही हैं।
दूसरी तरफ़, जहाँ ऑनलाइन माध्यम को कॉरपोरेट ताक़तों तथा राज्य द्वारा थोपा जा रहा है, वहीं ऐसे जीवंत कक्षाई अनुभव न सिर्फ़ ऑन-कैंपस व शिक्षकों-विद्यार्थियों की ज़ाहिर मौजूदगी में निहित अंतःक्रिया की संभावनाओं और गहराइयों को उजागर करते हैं, बल्कि ये इशारा भी करते हैं कि प्रत्यक्ष जीवंत अंतःक्रियाओं के बदले ऑनलाइन माध्यम का थोपा जाना आवाम व तालीम के ख़िलाफ़ एक साज़िश भी है। यह प्रसंग हमारे संस्थानों और कक्षाओं के संदर्भ में विविधता के महत्व को भी बख़ूबी बयान करता है। हम कल्पना कर सकते हैं कि अगर उनकी कक्षा में विविध पृष्ठभूमियों की छात्राएँ नहीं होतीं, तो शायद उस वक़्त उक्त छात्रा को वह अहसास नहीं होता जो उसे उनकी मौजूदगी में दस्तावेज़ पढ़ते वक़्त हुआ। विविधता विषमता को तोड़ने का काम कर सकती है। हम सोच सकते हैं कि आज इल्म व विचार विरोधी राज्य की निगरानी के दौर में जब ऑनलाइन शिक्षा और कक्षाओं की रिकॉर्डिंग की मांग थोपी जा रही है, तब किसी गंभीर शिक्षक-शिक्षिका की स्वायत्तता किस तरह सीमित हो जाएगी। ऐसे में सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों को पढ़ाने के अहम उद्देश्यों - जैसे, विद्यार्थियों में आलोचनात्मक चिंतन को प्रेरित करना, समाज की भेदभावकारी/बेदख़ल करने वाली प्रक्रियाओं को पहचानना सिखाना और इस तरह समाज को बदलने की राह दिखाना - और शिक्षा की परिवर्तनकामी भूमिका को लड़कर मिली थोड़ी-बहुत जगह भी ख़तरे में पड़ जाएगी। तालीम का अंतर्राष्ट्रीय इतिहास इस बात का गवाह है कि किसी भी फ़ासीवादी दौर में सरकार की दमनकारी निगरानी, समाज में उच्श्रृंखल होते हिंसक तत्वों और प्रशासन के रीढ़विहीन चरित्र के चलते शिक्षक-शिक्षिकाओं के लिए अपनी बौद्धिक ज़िम्मेदारी को खुलकर निभाना तथा अपने विद्यार्थियों से इंसाफ़ करना मुश्किल होता जाता है। ऐसे में, ऐसी तमाम शिक्षिकाएँ और छात्राएँ जो दमन, चुनौतियों व आशा-निराशा के उतार-चढ़ाव के बीच अपने-अपने स्तर पर तालीम को संवाद की एक खुली किताब की तरह बरत कर सिर्फ़ प्रतिरोध ही नहीं, बल्कि एक बेहतर और ख़ूबसूरत दुनिया का निर्माण भी कर रही हैं, बेशक हमें प्रेरणा देती हैं और तालीम के आंदोलन में जान भरती हैं।
नोट: यह आलेख एक साथी शिक्षिका द्वारा व्यक्तिगत बातचीत में साझा किए गए उनके एक कक्षाई अनुभव को दर्ज करता है। उनके आग्रह पर उनकी पहचान उजागर नहीं की गई है।
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