संदर्भ और ज़रूरत
लोक शिक्षक मंच द्वारा इस रपट को निकालने का एक प्रमुख संदर्भ उत्तर-प्रदेश सरकार के वो प्रचार हैं जिन्हें हमने पिछले कुछ महीनों से दिल्ली के विभिन्न सार्वजनिक स्थानों - मसलन, बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, मेट्रो स्टेशन, हवाई अड्डे को जाने वाले रास्ते आदि - पर लगे हुए देखा है। बड़ी होर्डिंग्स और आवागमन की विशिष्ट जगहों पर लगे इन प्रचारों में शिक्षा संबंधी दावे भी शामिल रहे हैं। ख़ास बात यह है कि जबकि इन घोषित रूप से सरकारी प्रचारों को जनकोष
के ख़र्चे पर लगाया गया, इनकी भाषा, चित्रण व भाव से दलगत, और इससे भी अधिक मुख्यमंत्री का व्यक्तिपरक चुनावी प्रचार साफ़ झलकता है। चुनाव में जा रहे दूसरे राज्यों की सरकारों के दिल्ली में ऐसे प्रचारों की अनुपस्थिति के आलोक में हम उत्तर-प्रदेश सरकार व मुख्यमंत्री के इस तरह के प्रचार के राजनीतिक उद्देश्य को और बेहतर ढंग से समझ पाते हैं। इससे इंकार करना मुश्किल है कि जिस तरह 2014 से पहले कॉरपोरेट धन के बल पर व राजकीय सत्ता का दुरुपयोग करके गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को 'भावी प्रधानमंत्री' के रूप में पेश करने के लिए एक प्रचारी माहौल रचा गया, उसी तर्ज पर उत्तर-प्रदेश के मुख्यमंत्री को भी पेश करने की कोशिशें हो रही हैं। ये प्रचार उसी का हिस्सा हैं। एक मायने में, तथाकथित गुजरात मॉडल व नरेंद्र मोदी के 'नेतृत्व' की प्रचारी कामयाबी के बाद हिंदुत्व का अगला बड़ा प्रयोग आदित्यनाथ के 'मज़बूत नेतृत्व' की छवि को जनमानस में व्यापक रूप से स्थापित करना है। इन प्रचारों के लिए स्थलों का चयन यह भी दर्शाता है कि ये मुख्य रूप से उसी शहरी मध्य-वर्ग को संबोधित हैं जिसे नरेंद्र मोदी के प्रचारी अभियान ने भी अभिभूत किया था और जिसका राजनीतिक असर व दबदबा उसकी संख्या से कहीं अधिक है। जहाँ तक ऐसे प्रचार की वित्तीय वैधता का सवाल है, जब किसी राज्य सरकार का बजट उसके अपने राज्य के बाशिंदों के हित के लिए समर्पित होता है, तो ऐसे में किसी अन्य राज्य में सरकार की 'उपलब्धियाँ' गिनाने पर जनकोष से पैसा बहाना कहाँ तक उचित है? हालाँकि, दिल्ली सरकार और ख़ुद केंद्र सरकार द्वारा सच्चे-झूठे प्रचारों पर जनकोष से बहाए गए करोड़ों रुपये हमें यह पूछने पर भी मजबूर करते हैं कि क्या एक लोकतंत्र में किसी भी सत्तारूढ़ दल/सरकार को बाज़ार में माल बेचने वाली किसी कंपनी की तरह अपने 'काम' का प्रचार करना शोभा देता है। ख़ासतौर से तब जब वो सरकार की योजनाओं की जानकारी व हक़ों को लोगों तक पहुँचाकर उन्हें जागरूक और सशक्त करने का मामला न हो, बल्कि उसकी आड़ में राजनेता या दल का स्वार्थी प्रचार हो, वो भी जनता के ही पैसों से।
प्रणाली
चूँकि लोक शिक्षक मंच एक दिल्ली आधारित संगठन है, इसलिए हमारा पहला ध्यान और ज़िम्मेदारी दिल्ली सरकार की शिक्षा संबंधी नीतियाँ और निर्णय आकर्षित करते हैं। ज़ाहिर है कि इस सीमा के चलते हम उत्तर-प्रदेश सरकार के स्कूली शिक्षा संबंधी दावों का उस तरह ज़मीनी स्तर पर आँकलन करने की स्थिति में नहीं हैं जिस तरह हम दिल्ली की सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था का कर सकते हैं, और आलोचना सहित करते भी रहे हैं। समय व संसाधनों की सीमाओं में रपट को संक्षिप्त रखना लाज़िमी था। इस रपट को निकालने के लिए हमने मुख्यतः सूचना के दो स्रोतों को ही अपनाया है। एक, विभिन्न सार्वजनिक पटलों पर उत्तर-प्रदेश की स्कूली शिक्षा से जुड़े उपलब्ध आँकड़े (जोकि, जब तक अन्यथा स्पष्ट न किया गया हो, वर्ष 2019-20 के हैं) और दूसरे, शिक्षकों के लिए बनाई गई एक प्रश्नावली जिसे डिजिटल माध्यम से साझा किया गया। इस प्रश्नावली में 15 सवाल थे, जिसमें से 5 शिक्षकों की निजी व शैक्षिक पृष्ठभूमि को लेकर थे, जबकि बाक़ी सभी में उन्हें दिए गए विकल्पों में से अपना जवाब चुनना था। अंतिम प्रश्न उन्हें टिप्पणी करने के लिए आमंत्रित करता था, मगर यह अनिवार्य नहीं था। यह सर्वे 30 जनवरी से 13 फ़रवरी तक चलाया गया और इसमें 32 शिक्षकों ने भाग लिया। बेशक, यह संख्या किसी राज्य-स्तरीय सर्वे के लिए बहुत छोटी है, मगर हम इस सीमा को स्वीकारते हुए इस सर्वे के डाटा को इस भरोसे के साथ इस्तेमाल कर रहे हैं कि शिक्षक साथियों ने अपनी राय खुलकर व्यक्त की है। एक अन्य सीमा यह भी है कि इस रपट में हम विद्यार्थियों व अभिभावकों के अनुभव व राय शामिल नहीं कर पाए हैं। उम्मीद है कि आने वाले समय में, वक़्त व संसाधनों की बेहतर उपलब्धता से, ऐसी रपटों को अधिक विस्तृत व प्रातिनिधिक आधार दिया जा सकेगा। प्रश्नावली को आप यहाँ देख सकते हैं https://docs.google.com/forms/d/e/1FAIpQLSciC46mNjGxz3DIeFbv8LVqVX2luBP_wRghAdYB_t15guvzvw/viewform?usp=sf_link
बजट
अक़सर बजटीय आवंटन को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है, जबकि थोड़ा-सा भी
ध्यान से देखने पर तसवीर और साफ़ नज़र आती है। इसे एक सामान्य उदाहरण से समझ सकते
हैं - जब कुल बजटीय आवंटन 'अ' प्रतिशत से बढ़ता है, तो उसी अनुपात में किसी मद का आवंटन
बढ़ाना यथास्थिति दर्शाता है,
अतिरिक्त आवंटन नहीं। फिर, जीडीपी के बढ़ने से
कुल बजट का बढ़ना भी एक स्वाभाविक परिघटना है। असल में तो, अगर किसी मद में
आवंटन मुद्रास्फीति की दर से भी बढ़ा है तो भी उसे वास्तविक बढ़ोतरी मानना उचित नहीं
है। मुद्रास्फीति की दर से कम बढ़ोतरी का मतलब तो असल में कटौती है। साथ ही, दूसरे मदों व अन्य
राज्यों से तुलना करने पर भी एक मुकम्मल तसवीर दिखाई देगी। अंत में, वास्तविक ख़र्चे के
बिना भी आवंटन बेमानी है।
उत्तर-प्रदेश सरकार ने वर्ष 2019-20 में शिक्षा, खेल, कला व संस्कृति पर 55,778 करोड़ रुपये ख़र्च
किए। वर्ष 20-21 में इन क्षेत्रों के लिए 64,805 करोड़ रुपये आवंटित किए गए मगर ख़र्च का
संशोधित अनुमान रहा 53,043 करोड़, यानी पिछले वर्ष के ख़र्च से 2,735 करोड़ (5%) कम। वर्ष 2021-22 में इस क्षेत्र के
लिए 67,683 करोड़ रुपये आवंटित किए गए, यानी पिछले वर्ष के आवंटन से 2,878 करोड़ (4%) ज़्यादा, जोकि मुद्रास्फीति
के आलोक में कुछ भी नहीं है और जिसके असल ख़र्च की संभावना इससे भी कम रहने की है।
देखने में वर्ष 20-21 के संशोधित अनुमान की तुलना में वर्ष 21-22 का आवंटन 28% अधिक है, लेकिन पिछले वर्षों
के संशोधित अनुमान या वास्तविक ख़र्च के कम रहने के चलन इसे काग़ज़ी साबित करते हैं।
साथ ही, बजट के बाक़ी सभी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण विकास (4% बढ़ोतरी), सामाजिक कल्याण एवं
पोषण (16%) तथा सिंचाई एवं बाढ़ नियंत्रण (21%) को छोड़कर, यह बढ़ोतरी सबसे कम
है।
उत्तर-प्रदेश के कुल बजट के ख़र्चे की तुलना में शिक्षा का हिस्सा
वर्ष 19-20 में 15.5%, 20-21 में 13.7% (संशोधित अनुमान) व 21-22 में 13.3% (आवंटन) रहा है। जबकि वर्ष 20-21 में भारत के सभी
राज्यों के शिक्षा बजट का औसत 15.8% रहा। ज़ाहिर है कि उत्तर-प्रदेश सरकार ने शिक्षा पर अन्य राज्य
सरकारों के औसत से भी कम हिस्सा आवंटित या ख़र्च किया है। इसके अलावा, उत्तर-प्रदेश सरकार
ने, ग्रामीण विकास (9%)
व ऊर्जा (3%) को छोड़कर, शिक्षा पर बाक़ी सभी
विषयों से कम हिस्सा ख़र्च या आवंटित किया है। ये आँकड़े तब और स्पष्ट हो जाते हैं
जब हम याद करते हैं कि न सिर्फ़ राज्य में बच्चों का अनुपात बाक़ी राज्यों से ज़्यादा
है, बल्कि कोरोना-'लॉकडाउन' के आपातकालिक कहर के चलते राज्य की मेहनतकश-मज़दूर आबादी के बच्चों
को शिक्षा का ज़बरदस्त नुक़सान उठाना पड़ा। बच्चों के व्यापक शैक्षिक-सामाजिक
बहिष्करण के संदर्भ में उनकी विशेष ज़रूरतों को संबोधित करने के लिए राज्य सरकार को
जिस स्तर पर इस विषय पर आवंटन करना चाहिए था, असलियत में वह उससे काफ़ी कम रहा।
स्कूली शिक्षा की सच्चाई बयाँ करते कुछ आँकड़े
शिक्षा मंत्रालय के यू-डाइस (UDISE) पटल पर उपलब्ध ताज़ा रपटों व आँकड़ों के
आधार पर भी उत्तर-प्रदेश सरकार के उन दावों की पुष्टि नहीं होती है जो उसके करोड़ों
रुपये के प्रचार कर रहे हैं। यूडाइस द्वारा एक सालाना परफ़ॉर्मेंस ग्रेडिंग इंडेक्स
जारी किया जाता है जो राज्यों को स्कूली शिक्षा के 5 आयामों पर आँकता है - अधिगम परिणाम व
गुणवत्ता, पहुँच, अधिसंरचना व सुविधाएँ, न्याय/समता तथा प्रशासनिक
प्रक्रियाएँ। ऐसे ग्रेडिंग इंडेक्स व इसे परिभाषित करते आयामों की सीमाओं को
पहचानते हुए भी हमारे पास राज्य की शिक्षा व्यवस्था की एक बड़ी तसवीर को प्रारंभिक
रूप से समझने के लिए इन आँकड़ों को इस्तेमाल करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
उत्तर-प्रदेश न इस ग्रेडिंग के 5 शीर्ष राज्यों में शामिल है और न ही
इसके 5 आयामों में से किसी एक में भी वो यह स्थिति हासिल कर पाया है। वर्ष
2019-20 (जिसके बाद की रपट उपलब्ध नहीं है) में अधिगम परिणाम व गुणवत्ता में
जहाँ उत्तर-प्रदेश को 132 अंक मिले हैं,
वहीं राष्ट्रीय स्तर पर औसत 140 है। बच्चों की
स्कूल तक पहुँच के मामले में राष्ट्रीय स्तर पर औसत अंक 70 हैं, जबकि राज्य को 65 अंक मिले हैं।
अधिसंरचना व सुविधाओं में राष्ट्रीय स्तर पर 150 अंक के औसत की तुलना में 113 अंक पाकर राज्य और
भी फिसड्डी साबित हुआ है। न्याय-समता के विषय में भी राष्ट्रीय स्तर के 230 अंकों की तुलना में
राज्य ने 213 अंक अर्जित किए हैं। प्रशासनिक प्रक्रियाओं के संदर्भ में यह दूरी 360 व 281 की है। कुल मिलाकर, जहाँ देश के स्तर
पर औसत 950 अंक हैं, वहीं उत्तर-प्रदेश का पीजीआई स्कोर 804 अंक है, यानी राष्ट्रीय स्तर से भी 15% कम।
स्कूली शिक्षा में पीटीआर (छात्र शिक्षक अनुपात) एक महत्वपूर्ण
पैमाना है। पीटीआर जितना कम होगा,
विद्यार्थियों को उतने अधिक शिक्षक उपलब्ध
होंगे। इसी तरह, इसकी बड़ी संख्या दर्शाएगी कि शिक्षकों को ज़्यादा विद्यार्थियों को
पढ़ाना पढ़ रहा है, जोकि बेहतर शिक्षण के लिए प्रतिकूल स्थिति है। उत्तर-प्रदेश के व
राष्ट्रीय स्तर पर औसत पीटीआर की तुलना करें तो कक्षा 1-5 के स्तर पर यह
क्रमशः 30.6 व 26.5, कक्षा 6-8 के स्तर पर 24.4
व 18.5, कक्षा 9-10 के स्तर पर 28.7 व 18.5 तथा कक्षा 11-12 के स्तर पर 40.5 व 26.1 है। यानी
उत्तर-प्रदेश के स्कूली में हर स्तर पर विद्यार्थी शिक्षकों से महरूम हैं और एक
शिक्षक को औसतन ज़्यादा विद्यार्थियों की कक्षा पढ़ानी पढ़ती है। इससे दोनों का अहित
होता है।
जीईआर (एक कक्षा/स्तर में नामांकित विद्यार्थियों की संख्या का उस
कक्षा/स्तर के लिए उम्र के हिसाब से उपलब्ध बच्चों की असल आबादी के साथ अनुपात), एनईआर (किसी
कक्षा/स्तर के लिए उपयुक्त आयु वर्ग के कुल नामांकित विद्यार्थियों का उस आयु वर्ग
की असल आबादी के साथ अनुपात) व एएसईआर (किसी भी उम्र के कुल नामांकित बच्चों का उस
उम्र के बच्चों की असल आबादी के साथ अनुपात) जैसे पैमाने शिक्षा से बच्चों की
बेदख़ली का स्तर दर्शाने में मदद करते हैं। उत्तर-प्रदेश के व राष्ट्रीय स्तर पर
जीईआर के आँकड़े कक्षा 1-5 में लगभग बराबर हैं, कक्षा 6-8 के स्तर पर ये क्रमशः 81.7 व 89.7 हैं, कक्षा 9-10 के स्तर पर 65.8 व 77.9 हैं तथा कक्षा 11-12 के स्तर पर 46.9 व 51.4 हैं। यानी, किसी आयु वर्ग के
जितने बच्चों को उनके स्तर की कक्षा में नामांकित होना चाहिए, न सिर्फ़ राज्य में
उससे कहीं कम बच्चे स्कूलों में पढ़ रहे हैं, बल्कि यह अनुपात राष्ट्रीय अनुपात के
मुक़ाबले भी कम है। उच्चतर माध्यमिक स्तर पर जीईआर के मामले में कुल 37 राज्यों/केंद्रशासित
प्रदेशों में उत्तर-प्रदेश 24वें स्थान पर है। राज्य के व राष्ट्रीय स्तर पर एनईआर के आँकड़े
कक्षा 1-5 के स्तर पर लगभग बराबर हैं, कक्षा 6-8 के स्तर पर क्रमशः 61.5 व 71.1, कक्षा 9-10 के स्तर पर 37.2 व 50.2 तथा कक्षा 11-12 के स्तर पर 26.3 व 32.3 हैं। यानी, राज्य के जितने
बच्चों को अपनी उम्र के हिसाब से उच्च-माध्यमिक कक्षा में होना चाहिए था, असल में उसमें से
लगभग दो-तिहाई बच्चे उसमें मौजूद नहीं हैं और उच्चतर-माध्यमिक तक आते-आते तो यह
अनुपात तीन-चौथाई तक पहुँच जाता है। एएसईआर की बात करें तो राज्य के व राष्ट्रीय
स्तर पर इसके आँकड़े जहाँ आयु वर्ग 6-10 वर्ष के स्तर पर लगभग बराबर हैं, वहीं आयु वर्ग 11-13 के स्तर पर क्रमशः 80.8 व 89.5, आयु वर्ग 14-15 के स्तर पर 62.0 व 72.4 तथा आयु वर्ग 16-17 के स्तर पर 36.7 व 44.2 हैं। स्कूल के अंत
तक उस उम्र के जितने बच्चों को कक्षाओं में होना चाहिए था, असल में उनमें से लगभग
दो-तिहाई बाहर हैं। साफ़ है कि हर पैमाने के हर स्तर पर उत्तर-प्रदेश में स्कूली
शिक्षा से बच्चों की बेदख़ली न सिर्फ़ बहुत अधिक है, यह राष्ट्रीय औसत के मुक़ाबले भी कहीं
ज़्यादा है। जबकि कक्षा 1 से 10 के बीच व कक्षा 1
से 12 के बीच राष्ट्रीय रिटेंशन दर (शुरुआती
कक्षा में नामाँकित 100 विद्यार्थियों में से कितने अंतिम कक्षा तक पहुँचे) और
उत्तर-प्रदेश के रिटेंशन दर में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं है (यह क्रमशः 58 व 40 के आसपास है), वहीं कक्षा 1 से 5 के बीच (यानी
प्राथमिक स्तर पर) और कक्षा 1
से 8 के बीच (यानी प्रारंभिक स्तर पर) यह
क्रमशः 87 व 79.5 तथा 74.6 व 61.6 है। इसका मतलब हुआ कि कक्षा 1 में प्रवेश करने वाले 5 बच्चों में से
पाँचवीं तक 1 तथा कक्षा 1 में प्रवेश करने वाले 4 में से आठवीं तक 1 बच्चा बाहर कर दिया
जा रहा है। ऐसे में राज्य सरकार को स्कूली शिक्षा में हर तरह से नाकाम ही माना
जाएगा।
विशेष ज़रूरतों वाले बच्चों की शिक्षा को लेकर भी स्थिति निराशाजनक
है। जहाँ राष्ट्रीय स्तर पर महज़ 19.79%
सरकारी स्कूलों में उपयुक्त सुविधा से
निर्मित शौचालय हैं, उत्तर-प्रदेश में यह आँकड़ा 6.97% है! इसी तरह, जहाँ राष्ट्रीय
स्तर पर स्कूल प्राँगण में 46.57% सरकारी स्कूलों में नल में पीने का पानी उपलब्ध है, उत्तर-प्रदेश में
यह सुविधा सिर्फ़ 21.1% सरकारी स्कूलों में उपलब्ध है। इसके बावजूद, अगर आँकड़ों के
अनुसार राज्य के 98% से अधिक सरकारी स्कूलों के प्राँगण में पीने के पानी की सुविधा
मौजूद है, तो इसका बड़ा कारण 40% स्कूलों का हैंड पंप पर निर्भर होना
है। यह है हर स्कूल में (और अब घर-घर) पीने का पानी पहुँचाने के दावों के पीछे
आँकड़ों का खेल!
सरकारों ने कोरोना-'लॉकडाउन' के लंबे अंतराल में
वंचित वर्गों के करोड़ों बच्चों को डिजिटल-ऑनलाइन पढ़ाई के हवाले छोड़कर अपनी पीठ
ठोकी तथा केंद्र सरकार ने तो फ़ोन-डिजिटल व्यवसाय की कंपनियों का हुक्म बजाते हुए
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इस स्वरूप को अमली जामा पहनाकर देश पर थोप दिया। राज्य
की जनता के हालातों से क्रूरता की हद तक विमुख होकर उत्तर-प्रदेश सरकार ने भी
राष्ट्रीय शिक्षा नीति के इस पक्ष का ख़ूब गुणगान किया। ऐसे में कुछ आँकड़ों पर नज़र
डालना सार्थक होगा। जबकि राष्ट्रीय स्तर पर लगभग एक-चौथाई सरकारी स्कूलों में
बिजली ही नहीं है, उत्तर-प्रदेश में एक-तिहाई सरकारी स्कूल बिजली से महरूम हैं। जहाँ
राष्ट्रीय स्तर पर 30% सरकारी स्कूलों में कंप्यूटर सुविधा उपलब्ध है, इस मामले में राज्य
के महज़ 5% सरकारी स्कूल ख़ुशनसीब हैं। इस्तेमाल योग्य कंप्यूटर सुविधा का हाल
तो इससे भी बुरा है। वो इंटरनेट जिसके हवाले और अधीन देश और शिक्षा को किया जा रहा
है, राष्ट्रीय स्तर पर 11.58% सरकारी स्कूलों को मयस्सर है, जबकि उत्तर-प्रदेश
के 3% से भी कम सरकारी स्कूल इस सुविधा से लाभांवित हैं। ऐसे में
ऑनलाइन पढ़ाई तो छोड़िए, महज़ दैनिक स्कूली कामकाज व विभिन्न विषयों के शिक्षण के लिए
अनिवार्य डिजिटल ढाँचे की यह भयावह स्थिति राज्य के राजनैतिक नेतृत्व की पूर्ण
असफलता बयाँ करती है। स्कूलों में बिजली-पानी जैसी आधारभूत संरचना के
मामले में कुल 37 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में से उत्तर-प्रदेश को 27वाँ स्थान प्राप्त
हुआ है।
सर्वे: शिक्षकों की नज़र में स्कूलों के हालात
सर्वे में हिस्सा लेने वाले 32 में से 31 शिक्षक राज्य के
सरकारी स्कूलों से थे, जबकि 1 नगर पालिका से। 16
शिक्षक प्राथमिक स्तर के, 14 माध्यमिक स्तर के व
2 उच्चतर-माध्यमिक स्तर के थे। 23 शिक्षकों ने ख़ुद को पुरुष के रूप में, 8 ने स्त्री के रूप
में व 1 ने अन्य की श्रेणी में दर्ज किया। 5 वर्षों से कम का शैक्षणिक अनुभव रखने
वाले 5 शिक्षक थे, 12 के पास 6-10 वर्षों का अनुभव था, 3 के पास 11-15 वर्षों का, 2 के पास 16-20 वर्षों का तथा 9 के पास 20 वर्षों से अधिक का।
एक सरसरी आँकलन के आधार पर हम कह सकते हैं कि इन शिक्षकों का औसत अनुभव 12 साल का था। इसी तरह, 7 शिक्षकों को उनके
वर्तमान स्कूल में पढ़ाते हुए 3
साल भी नहीं हुए थे, 8 शिक्षक 3-5 साल से पढ़ा रहे थे
तथा 17 को 5 से अधिक साल हो गए थे। एक फ़ौरी हिसाब से इन शिक्षकों को उनके
वर्तमान स्कूल में पढ़ाते हुए 6
वर्ष का अनुभव हो गया था।
नियमित/अनियमित शिक्षकों के सवालों के जवाब में से हमने 3 को उनकी
अप्रत्याशित संख्या के कारण छोड़कर गणना की है। हो सकता है कि इन 3 शिक्षक साथियों के
स्कूल किसी ख़ास जगह पर या विशेष प्रकार के हों। बाक़ी 29 शिक्षकों के जवाबों
से उनके स्कूलों में पढ़ाने वाले नियमित शिक्षकों की संख्या 139 और अनियमित
शिक्षकों की संख्या 46 निकलती है। इसका मतलब हुआ कि इन स्कूलों में पढ़ाने वाले एक-चौथाई
शिक्षक अनियमित हैं। 26 शिक्षकों ने कहा कि उनके स्कूल में विद्यार्थियों के नामाँकन में बढ़ोतरी हुई है, जबकि 3 ने कम होने व 3 ने कोई अंतर न आने
की बात कही। इसकी तुलना में 17
ने अपने स्कूल में शिक्षकों की संख्या
में बढ़ोतरी होने की बात दर्ज की,
जबकि 5 ने कमी आने व 10 ने यथास्थिति बनी
रहने की बात कही। ज़ाहिर है कि कुल मिलाकर इन स्कूलों में, शिक्षकों की
नियुक्ति विद्यार्थियों की संख्या की बढ़ोतरी को संबोधित करते हुए नहीं हुई है।
वैसे, हमें ऐसे स्कूलों के सामाजिक चरित्र की पड़ताल करने की ज़रूरत है
जहाँ विद्यार्थियों की संख्या या/तथा शिक्षकों की नियुक्तियाँ कम हो रही हैं, मगर यह सर्वे व रपट
इस पहलू की जाँच करने में समर्थ नहीं है।
विद्यार्थियों को मिलने वाले वज़ीफ़ों के मुद्दे पर केवल 1 शिक्षक का कहना था
कि यह हमेशा समय से व पर्याप्त मात्रा में मिलता है। इसके बदले, 12 ने इसे अनियमित
बताया, 14 ने सामान्यतः दर्ज किया तथा 4 के अनुसार ये कभी भी समय पर व
पर्याप्त मात्रा में नहीं मिलता है। वज़ीफ़ों को लेकर सरकार कितने ही दावे करे, ख़ुद शिक्षकों के
बयान इसकी कमियाँ उजागर कर रहे हैं।
यह पूछने पर कि पिछले 5 वर्षों में पढ़ाई की तरफ़ ध्यान को लेकर
व्यवस्था में क्या बदलाव आया है,
11 का कहना था कि इसमें सुधार हुआ है, 5 के अनुसार इसमें
कमी आई है, जबकि 11 ने कोई फ़र्क़ महसूस नहीं करने की बात की। पूरक प्रश्न के संदर्भ में, शिक्षण के प्रति
अपने जोश में आए बदलाव को लेकर,
10 ने बेहतरी दर्ज की, 5 ने कमी आने तथा 12 ने कोई फ़र्क़ महसूस
नहीं होने की बात की। जिन 5 शिक्षकों के अनुभव 5 साल से कम के थे, उनके जवाबों को इन
प्रश्नों के विश्लेषण से हटा दिया गया है। हालाँकि, हम यहाँ इस दृष्टिकोण की जाँच नहीं कर
रहे हैं कि पढ़ाई से सरकार या हम शिक्षक आख़िर क्या समझते हैं, फिर भी जहाँ एक बड़ी
संख्या ने अपने व व्यवस्था के इस ओर ध्यान देने में आई बढ़ोतरी दर्ज की है, वहीं 60% शिक्षकों ने इसमें
सुधार नहीं होने की बात की है।
संरचनात्मक बदलाव के प्रश्न पर 29 (90%) शिक्षकों ने अपने
स्कूलों में नई कक्षाओं के खुलने या भवन निर्माण होने से इंकार किया है। तीन पैमानों पर लगभग 60% शिक्षकों ने सुधार
दर्ज किया है - खेल संबंधी सामग्री आदि, शौचालय व पीने के पानी संबंधी तथा
पुस्तकालय संबंधी। इसके बावजूद,
इन सुविधाओं में सुधार नहीं होने की
बात करने वाले शिक्षकों की संख्या भी लगभग 40% है, जोकि नगण्य नहीं है। यहाँ हमें फिर अधिक
ज़मीनी पड़ताल की ज़रूरत है - स्कूलों का सामाजिक चरित्र, सुविधाओं का
वास्तविक स्वरूप व इस्तेमाल आदि - जो इस रपट की सीमा के बाहर के काम की माँग करती
है। सबसे बढ़कर, हमें यह भी याद रखना होगा कि स्कूलों में ये सभी सुविधाएँ देना
सरकार की मर्ज़ी या जन कल्याण के दायरे में नहीं आता, बल्कि शिक्षा अधिकार अधिनियम (2009) के तहत तो ये वो
न्यूनतम वादे हैं जो राज्य ने बच्चों से किए हैं, मगर जिन्हें निभाने का संवैधानिक फ़र्ज़
भी सरकारों ने अदा नहीं किया है। उत्तर-प्रदेश की सरकार भी इसका अपवाद नहीं है। आज
क़ानून के 12 साल और इस सरकार के 5 साल के कार्यकाल के बाद भी राज्य के
अधिकतर सरकारी स्कूल शिक्षा अधिकार अधिनियम के कमज़ोर व समझौतापरस्त संरचनात्मक
पैमानों को भी हासिल नहीं कर पाए हैं।
हालाँकि, 40% से ज़्यादा शिक्षक यह कहते हैं कि उनके स्कूलों में नए शिक्षकों की
नियुक्ति हुई है, 50% शिक्षकों के अनुसार उनके स्कूलों में शिक्षकों की नई तैनाती नहीं
हुई है। ग़ैर-शैक्षणिक कर्मियों की नियुक्ति को लेकर तो लगभग 90% का जवाब नकारात्मक
है। नतीजतन, यही गणना ग़ैर-शैक्षणिक कामों में हुए सुधार को लेकर सामने आती है।
इन दोनों जवाबों को मिलाकर देखने से हमें शिक्षकों द्वारा पढ़ाई के प्रति अपने व
व्यवस्था के ध्यान में बेहतरी होने की बात कहने के बीच एक विरोधाभास दिख सकता है
(कि आख़िर ग़ैर-शैक्षणिक कामों के बढ़ने की सूरत में शिक्षकों के शैक्षणिक जोश व
व्यवस्था के पढ़ाई पर ध्यान में इज़ाफ़ा कैसे मुमकिन है), हालाँकि हम इसमें
नहीं जाएँगे।
तीन-चौथाई शिक्षक मिड-डे-मील या इसकी व्यवस्था में सुधार नहीं होने
या गिरावट आने की तसदीक़ करते हैं,
जबकि शेष एक-चौथाई सुधार दर्ज करते
हैं। पिछले दो सत्रों में तो वैसे भी विद्यार्थियों को सूखा राशन मिला है, वो भी सुप्रीम
कोर्ट की फटकार के बाद और बहुत देर से। पलायन व घरबंदी के चलते वो भी शायद बहुतों
को नसीब नहीं हुआ। आधे से ज़्यादा शिक्षकों के अनुसार बच्चों के प्रवेश तथा वज़ीफ़ों
संबंधी प्रक्रियाएँ पहले के मुक़ाबले मुश्किल-जटिल हुई हैं, जबकि 43% के अनुसार ये आसान
हुई हैं। ऐसे में ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल है कि दोनों समूह किस ओर इशारा कर रहे
हैं। क़ानून के अनुसार तो प्रवेश प्रक्रिया वैसे भी सहज-सुगम होनी चाहिए, जबकि धरातल पर
स्कूलों में कई तरह के प्रशासनिक दबाव व सामाजिक पूर्वाग्रह बच्चों के दाख़िलों पर
नकारात्मक असर डालते हैं। केंद्र के स्तर से ही वज़ीफ़ों की कटौती करके और इनके
आवेदन की प्रक्रियाओं को ऑनलाइन बनाकर तथा अफ़सरशाही में पीसने वाली शर्तें थोपकर
सामाजिक न्याय के इस औज़ार को भोतरा किया जा रहा है। उत्तर-प्रदेश सरकार भी
जैसे-जैसे राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करती आई है, वैसे-वैसे प्रवेश
प्रक्रिया तथा वज़ीफ़ों का दूभर होते जाना तय है। इसको जाँचने के लिए विस्तृत अध्ययन
की ज़रूरत है।
70% से अधिक शिक्षकों
के अनुसार उनके स्कूलों में बिजली या कंप्यूटर सुविधा को लेकर कोई सुधार नहीं हुआ
है। केवल 28% शिक्षकों ने सुधार की बात की है। इन दोनों आँकड़ों को ऊपर वर्णित
यूडाइस के इंटरनेट-कंप्यूटर संबंधी आँकड़ों के साथ रखकर देखने की ज़रूरत है। बहुत
संभव है कि पिछले दो-तीन सालों में राज्य के कुछ स्कूलों में इन पहलुओं पर सुधार हुआ भी हो, मगर ये भी बेहद
नाकाफ़ी है, विशेषकर सरकार द्वारा थोपी ऑनलाइन पढ़ाई के आपातकाल व डिजिटल जुनून
के संदर्भ में। स्कूलों को मिलने वाले फ़ंड के बारे में 53% का कहना था कि
इसमें इज़ाफ़ा हुआ है, जबकि शेष ने कमी आने या कोई बदलाव न होने की बात की। ये देखना होगा
कि कौन-से प्रकार का फ़ंड किस मात्रा में दिया गया है और उसका ख़र्च कैसे हुआ है।
वित्तीय पारदर्शिता के लिए जनसभा और जन सुनवाई से बेहतर कोई तरीक़ा नहीं है, हालाँकि यह रपट इस
विषय में नहीं जा रही है।
प्रशासन के तौर-तरीक़ों को लेकर भ्रष्टाचार, भेदभाव व अफ़सरशाही
के पहलुओं को संबोधित करते तीन सवाल थे। प्रशासनिक स्तर पर भ्रष्टाचार में 75%, भेदभाव में 68% और अफ़सरशाही में
लगभग 80% शिक्षकों ने बढ़ोतरी होने या यथास्थिति बने रहने की
बात दर्ज की। तीनों में ही सुधार होने की बात कहने वाले शिक्षकों का अनुपात 15% से ज़्यादा नहीं था।
रोचक है कि इस सवाल के जवाब में 3-5
शिक्षकों ने अपनी राय प्रकट नहीं की।
अंतिम प्रश्न के रूप में शिक्षकों को राज्य सरकार के स्कूली शिक्षा
के काम का मूल्याँकन करते हुए 10 में से अंक देने थे। 6 शिक्षकों ने 0-3, 15 ने 4-5, 5 ने 6-8 तथा 5-10 के बीच अंक दिए। एक
सरसरी गणना के हिसाब से, इन शिक्षकों द्वारा दिए गए औसत अंक 5.5 बैठते हैं। एक तरफ़ शिक्षक राज्य के
कर्मचारी हैं, तो दूसरी तरफ़ स्कूलों में सरकार के काम को सबसे नज़दीक से देख रहे
हैं। इस नाते, हम उनके द्वारा दिए गए अंकों को, सभी शर्तों व सीमाओं सहित, स्वीकार करते हैं।
अगर यूडाइस पर दर्ज राज्य के आँकड़ों को उचित महत्व दें, तब तो कुल मिलाकर
स्कूली शिक्षा की रिपोर्ट कार्ड में यह राज्य सरकार व मुख्यमंत्री का एक बेहद साधारण
प्रदर्शन साबित होता है। ज़ाहिर है, ये कोई ऐसा मूल्याँकन नहीं है जिसे
लेकर राज्य सरकार या मुख्यमंत्री अपनी नीतियों की कामयाबी का ढिंढोरा दूसरे
राज्यों में तो क्या, ख़ुद अपने राज्य में भी पीटें। असल में तो शायद अपने राज्य में
निर्लज्ज होकर झूठ बोलना ज़रा मुश्किल हो। यही इसे दूसरे राज्यों के अनजान नागरिकों
के सामने आसान कर देता है।
सर्वे के अंत में शिक्षकों को अपनी स्वतंत्र टिप्पणी करने के लिए आमंत्रित किया गया था। यह ऐच्छिक था। इसमें दर्ज कथनों को हम यहाँ बिना काट-छाँट के साझा कर रहे हैं।
शिक्षक स्वयं से प्रभावी शिक्षण कार्य करने मे सक्षम हैं । हर समय उनके नाक मे नकेल डाल कर चलाने से और उनपर सर्वेक्षण कार्य गैर शैक्षणिक कार्य थोपने से शैक्षिक गुणवत्ता तथा शिक्षकों के मनोबल पर नकारात्मक प्रभाव ही पड़ेगा
निष्कर्ष
उत्तर-प्रदेश सरकार ने जनता के पैसों से ही जनता को गुमराह करने व
एक व्यक्ति के स्वार्थ साधने के लिए उसका आत्ममुग्ध प्रचार करने के लिए तमाम
पैंतरे अपनाए हैं। इसमें समय-समय पर हज़ारों स्कूलों को इंग्लिश माध्यम में बदलने
की घोषणा करना, उच्च शिक्षा पूरी करने वाले 1 करोड़ छात्रों को स्मार्ट-फ़ोन/टैबलेट
देना (जिसके लिए 2000 करोड़ रुपये से ज़्यादा का बजट बताया गया है) तथा लड़कियों के लिए
स्नातक स्तर की शिक्षा को मुफ़्त करने वाली स्कीम घोषित करना आदि फ़र्ज़ी ऐलान शामिल
हैं। न ही माध्यम भाषा को लेकर राज्य सरकार का इंग्लिश वाला क़दम बच्चों के शैक्षिक
हितों के पक्ष में है और न ही इन स्कूलों के शिक्षकों को इंग्लिश में निपुण बनाने
के लिए उनकी ऑनलाइन ट्रेनिंग के कोई मायने हैं। अव्वल तो यह कहना ही मुश्किल है कि
एक बार 5,000 स्कूलों और अगली बार 15,000 स्कूलों को इंग्लिश माध्यम बनाने की
घोषणा के बाद हक़ीक़त में इन स्कूलों में हुआ क्या है। जब राज्य में डेढ़ लाख से
ज़्यादा सरकारी स्कूल हैं, तो सरकार 10% स्कूलों के लिए कोई योजना लाकर क्या साबित करना चाहती है? इसी तरह, जहाँ मेट्रो में
लगाए गए प्रचार स्नातक स्तर तक लड़कियों की शिक्षा मुफ़्त किए जाने की बात करते हैं, वो ये छुपा जाते
हैं कि यह कोई क़ानूनन हक़ नहीं है/होगा, बल्कि एक योजना है जिसमें बहुत-सी
शर्तों का पालन करने पर ही आवेदन किया जा सकेगा। मसलन, सरकार उच्च शिक्षा
की निजी संस्थाओं को 'सलाह' देगी कि वो दो बहनों में से एक की फ़ीस माफ़ कर दें और ख़ुद सरकार के
संस्थानों में यह स्कीम एक परिवार से एक लड़की के लिए ही उपलब्ध होगी। फिर
आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि आदि संबंधी शर्तें भी हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय की
छात्राओं से ही पूछने पर उनके हँसी-भरे जवाब से पता चला कि न सिर्फ़ उन्हें इसका
कोई इल्म नहीं है, बल्कि विभिन्न कोर्सों में पैसा-दो-सीट-पाओ की नीति तो उनके
विश्वविद्यालय में ही चल रही है। असल में तो इस राज्य सरकार ने वर्ष 2015 में आए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के
उस ऐतिहासिक आदेश को लागू करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई जिसमें राज्य से किसी
भी तरह का वेतन प्राप्त करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपनी संतान को राज्य के
बेसिक स्कूल में पढ़ाना अनिवार्य किया गया था। यह समान स्कूल व्यवस्था की तरफ़ एक
महत्वपूर्ण क़दम होता। मगर राज्य सरकार ने अदालत में इसके पक्ष में ज़बानी ख़र्च भी
नहीं किया। इसके बदले, यह सरकार जनता की गाढ़ी कमाई को किसी मठाधीश की तरह बेपरवाह होकर
जनता की अक़्ल पर ग्रहण लगाते कर्मकांडों, पंडों का हित साधते धार्मिक प्रतीकों, पूँजीपतियों की
जेबें गर्म करते हवाई अड्डों व विनाश के बीज बोते हथियारों के उद्योग पर पानी की
तरह ख़र्च करती रही है। वहीं,
नए सरकारी स्कूल-कॉलेज खोलने के लिए
या तो सरकार के पास पैसा नहीं है या फिर वो इसकी ज़रूरत नहीं समझती है। ऐसे में हम
राज्य सरकार/मुख्यमंत्री के स्कूली शिक्षा संबंधी प्रचारों को एक ढोंग, जनता का अपमान और
राज्य के बच्चों के साथ धोखे के रूप में चिन्हित करते हुए, राज्य की जनता से
समान स्कूल शिक्षा के हक़ की लड़ाई के लिए संगठित होकर संघर्ष तेज़ करने की अपील करते
हैं।
इस रपट को तैयार करने में सहयोग करने के लिए हम सर्वे में भाग लेने
वाले शिक्षकों तथा उन तक सर्वे पहुँचाने वाले साथियों के प्रति शुक्रग़ुज़ार हैं।