संपादकीय टिप्पणी: इस वर्ष G 20 की अध्यक्षता व
मेज़बानी की बारी तय क्रमानुसार भारत को मिली। ऐसा होना था कि
विश्वविद्यालयों से लेकर हमारे स्कूलों तक को G 20 के बारे में कार्यक्रम
आयोजित करने के आदेश दिए जाने लगे। शैक्षिक परिसरों की दीवारों पर G 20 से
जुड़े चित्र सजने लगे, सूचना व प्रदर्शन पट्ट पर इस ख़ास समूह की जानकारी पेश
की जाने लगी और शिक्षक व विद्यार्थी विभिन्न भाव-भंगिमाएँ अपनाकर इन
आदेशों का पालन करने में जुट गए। न स्कूलों की पाठ्यचर्या का ख़याल रखा गया
और न ही विद्यार्थियों की उम्र के संदर्भ में उनकी समझ या ज़रूरत का। एक तरफ़
इन आदेशों के पीछे परोक्ष रूप से महिमामंडन तथा बचकाने व बेबुनियाद गर्व
को पोषित करने की मंशा झलकी, वहीं दूसरी तरफ़ आपाधापी में व अफ़सरशाही के बोझ
तले पिस रहे स्कूलों के माहौल ने यह सुनिश्चित किया कि ये
कार्यक्रम/गतिविधियाँ सतही, दिखावटी एवं रूटीन क़िस्म की रहेंगी। यह परिघटना
उस प्रशासनिक संस्कृति का ही एक अन्य ताज़ा उदाहरण है जिसमें स्कूलों को
सरकारी ही नहीं, बल्कि दलगत और व्यक्तिवादी प्रचार के वैध स्थल मान लिया
गया है। साथ ही, शिक्षकों को स्वतंत्र रूप से सोचने-समझने वाले बौद्धिक
कर्मी की तरह नहीं, बल्कि महज़ आदेशपालन करने वाले सरकारी कर्मचारी के रूप
में देखा जा रहा है। यही वजह है कि इन कार्यक्रमों/गतिविधियों में न्यूनतम
तथ्यों से न्यूनतम ईमानदारी बरतने की कोशिश भी दिखाई नहीं देती है। गहरा और
आलोचनात्मक शैक्षणिक व्यवहार तो बहुत दूर की बात है। जबकि इस स्थिति के
लिए ख़ुद हुक्मरान ज़िम्मेदार हैं, इसके लिए शिक्षक को दोष नहीं दिया जा सकता
है। बहरहाल, अभी हमें दो महीने और G-20 के नेतृत्व के एहसास के साये तले
गुज़ारने होंगे। इस बीच ये फ़रमान अपने चरम पर पहुँच सकते हैं। जैसे G 20 से
जुड़े आदेश हमारी स्कूली व्यवस्था के अकादमिक खोखलेपन व बर्बादी को और उजागर
करते हैं, वैसे ही इस स्वयंभू समूह की गौरवशाली मेज़बानी के पीछे की सच्चाई
इस लोकतंत्र में लोगों की औक़ात की हक़ीक़त बयान करती है। प्रस्तुत है G 20
की नेतृत्वशाली मेज़बानी से पीड़ित देश के नागरिकों की त्रासदी पर रौशनी
डालती एक जनसुनवाई की संक्षिप्त रपट। उम्मीद है कि शिक्षक साथी इसे अपने
शैक्षणिक कर्म को गहराई देने में मददगार पाएँगे।
22 मई को नई दिल्ली के सुरजीत भवन में भारत में जबरन बेदख़ली के ज्वलंत मुद्दे को संबोधित करती एक जन सुनवाई आयोजित की गई थी। इसे विभिन्न विषयों पर काम करने वाले संगठनों ने साथ आकर, कंसर्नड सिटिज़न्स [फ़िक्रमंद नागरिक] के नाम से आयोजित किया था। इस जन सुनवाई का उद्देश्य देशभर में की जा रही, व ख़ासतौर से किसानों, रेहड़ी-पटरी वालों, कूड़ा बीनने वालों तथा बस्तियों के निवासियों को निशाना बना रही, उन अन्यायपूर्ण बेदखलियों पर रौशनी डालना था जिन्हें G20 सम्मेलन की तैयारियों और शहरों के सौंदर्यीकरण के तहत अंजाम दिया जा रहा है। जबकि G20 की मेज़बानी को लेकर पैदा की जा रही चमक-धमक, चकाचौंध और गर्व की भावना सत्ता द्वारा 'विकास' की कहानी के प्रचार के रूप में सामने लाई जा रही है, इस जन सुनवाई से वो सच सामने आया जिसे सावधानीपूर्वक छुपाया जाता है - बुलडोज़रों द्वारा घरों को मिट्टी में मिलाने की क्रूर कहानी।
जहाँ G20 को 'राष्ट्रीय गर्व' के रूप में पेश किया जा रहा है, ऐसा लगता है कि सरकार अपने ही [देश के] लोगों, विशेषकर ग़रीबों, के ख़िलाफ़ पक्षपात करती है। नागपुर से आए जम्मू आनंद ने कहा, "एक न्यायाधीश ने हाल ही में कहा कि G20 के तहत Civil (सिविल) 20 का एक विशाल आयोजन होगा और इसलिए नागपुर के लोगों को अनुशासन में रहना होगा।" उनका यह इशारा ही स्थानीय प्रशासन के लिए नागपुर के सम्मान को बचाने के लिए क़दम उठाने के लिए काफ़ी था। पुलिस आयुक्त ने आदेश जारी किया कि चौराहों पर एक भी भिखारी नज़र नहीं आना चाहिए। 'ग़रीबी हटाओ' के बदले अब वो 'ग़रीबी छुपाओ' कर रहे हैं। नागपुर में हुए C20 के उद्घाटन के अवसर पर हमने बस्तियों को लोहे की चादरों के पीछे छुपाए जाते और 'हरियाली' का अहसास देने के लिए ज़मीन पर प्लास्टिक की घास लगाए जाते देखा। ज्यूरी [जन सुनवाई की पीठ] के सदस्य हर्ष मंदर ने कहा, "एक शहर कामकाजी हाथों के बिना एक दिन भी नहीं चल सकता, मगर हम इन्हें कोई जगह नहीं देना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि ये लोग अलादीन के जिन्न की तरह रहें, बस हमारी सेवा के लिए प्रकट हो जाएँ और फिर ग़ायब हो जाएँ।"
लोगों ने प्रशासकों द्वारा बेदखलियों में बरती गई असीम क्रूरता की गवाहियाँ दीं। दिल्ली के [यमुना किनारे स्थित] बेला एस्टेट की पूजा ने कहा, "हमें अपना सामान उठाने के लिए 3 घंटे दिए गए जिसमें यह काम लगभग नामुमकिन था। 29 अप्रैल को हुए बेदख़ली अभियान के चलते बहुत-से विद्यार्थियों की बोर्ड परीक्षा छूट गई। एक महीने के अंतराल में हम पर तीन बार बुलडोज़र चलाए गए। चूँकि पानी के बिना ज़िंदा नहीं रहा जा सकता है, इसलिए उन्होंने पहले हैंडपंप तोड़े ताकि हमें फ़ौरन वहाँ से जाना पड़े। अपने मकानों को बचाने के लिए बच्चों को परीक्षाएँ छोड़नी पड़ीं। अब हम फ़्लाईओवर के नीचे रह रहे हैं।”
बस्ती सुरक्षा मंच के अब्दुल शकील के शब्दों में, “तुग़लक़ाबाद की बेदख़ली तो इतनी क्रूर थी कि हममें से उन लोगों को भी इस स्तर का अनुभव नहीं था जो दशकों से बेदखलियों से जूझ रहे हैं। पुलिस ने बस्ती को घेर लिया, जैमर लगा दिए गए ताकि कोई वीडियो न भेज पाए, कार्यकर्ताओं के फ़ोन छीन लिए गए, आसपास के होटलों व दुकानों को बंद करवा दिया गया और पूरी बस्ती दो दिन में ढहा दी गई।”
राजेंदर रवि के शब्दों में, “यह सिर्फ़ उनके मकानों का विनाश नहीं है; यह उनके इतिहास, उनकी जड़ों और उन रिश्तों का भी विनाश है जो उन्होंने उस जगह के साथ बनाए थे।”
इंदुप्रकाश के शब्दों में, “31 जनवरी को बाग़वानी विभाग....[मूल रपट में भाषा स्पष्ट नहीं है] कि सराय काले ख़ाँ इलाक़े के पास वाली जगह के G20 से जुड़े सौंदर्यीकरण के रास्ते में जो निराश्रित गृह (बेघरों का बसेरा) आ रहा है उसे तोड़ देना चाहिए। अतः बहुत जल्दी एक आदेश जारी करके बेघरों के इस बसेरे को ज़मींदोज़ कर दिया गया।”
ज्यूरी सदस्या पामेला फ़िलीपोस ने कहा, “बुलडोज़र का [ऐसा] अति हिंसक इस्तेमाल निश्चित ही राज्य की क्रूरता और निष्ठुरता का प्रत्यक्ष प्रतीक है। यह सुनना दुखद है कि कैसे फेरीवालों को अतिक्रमणकारियों की तरह, बस्ती के बाशिंदों को अवैध लोगों की तरह और बेघरों को नशाख़ोरों की तरह देखा जाता है।”
यह बात कई गवाहियों में उभर कर सामने आई कि G20 कैसे उन काम-धंधों पर एक अभिशाप की तरह आया है जो पहले-से ही सबसे ज़्यादा असुरक्षा व अनिश्चितता की हालत में हैं। इंदौर के आनंद लखन के शब्दों में, “उनके लिए G20 एक आयोजन हो सकता है, हमारे लिए तो यह ग़रीबों पर एक आफ़त है। राहुल वर्मा के पास इंदौर के नक्षत्र गार्डन के निकट एक गैराज था। चूँकि G20 प्रतिनिधिमंडल आने वाला था, इसलिए उनका गैराज हटा दिया गया। उन्हें एक ऐसी जगह बसाया गया जहाँ उनके गैराज के लिए धंधे की कोई संभावना नहीं थी। ऐसी हैं पुनर्वास की सच्चाइयाँ। वो अवसाद में चले गए और अंततः उन्होंने आत्महत्या कर ली।”
भुज के मोहम्मद के शब्दों में, “हमें बताया गया था कि G20 के चलते रोज़गार के नए अवसर खुलेंगे और पर्यटन बढ़ेगा। स्थानीय अख़बारों में ऐसी रपटें थीं। मगर जिस तरह से G20 के नाम पर बेदखलियाँ और नाकाबंदियाँ टूट पड़ीं, ग़रीबों के लिए वो एक क़हर था। भुज में तो फेरीवाले प्रतिनिधिमंडल के दौरे के लिए दस दिनों तक काम बंद करने के लिए भी राज़ी हो गए। मगर जब वो वापस गए तो उनमें से बहुतों को एक महीने के अंदर हटा दिया गया।”
बेला एस्टेट की रेखा के शब्दों में, “वो हम थे जिन्होंने महामारी [कोरोना] के दौरान [इस शहर को] भोजन, दूध, सब्ज़ियाँ उपलब्ध कराईं। और अब वो हमारी ज़मीनें और आजीविकाएँ छीन रहे हैं। जब भी शहर में कोई बदलाव होता है तो शहरी ग़रीब को ही सबसे बड़ा ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ता है।”
तुग़लक़ाबाद की रीना के शब्दों में, “मेरे पति ई-रिक्शा चलाते हैं। तोड़फोड़ के बाद अब कोई बिजली नहीं है। वो अपनी गाड़ी कैसे चार्ज करेंगे? मैं दस दिनों से भूख हड़ताल पर हूँ। क्या मेरी बात सिर्फ़ इसलिए नहीं सुनी जा रही है क्योंकि मैं ग़रीब हूँ?”
फेरीवालों के राष्ट्रीय महासंघ के संदीप ने उन फेरीवालों की बदहाली के बारे में बात की जिनकी आजीविका सौंदर्यीकरण के नाम पर ख़त्म हो रही है। कुछ लोगों का कहना है कि क्या मेहमानों के आने पर हम अपने घर साफ़ नहीं करते हैं। "मगर क्या कभी भी इस सफ़ाई का मतलब बूढ़ों और सबसे लाचार सदस्यों को घर से बाहर निकालना होता है?" उनका कहना था, “G20 से पहले कभी भी सड़क विक्रेताओं पर बुलडोज़र नहीं चले थे, मगर G20 में यह होता दिख रहा है।”
रेहड़ी-पटरी वालों की आजीविकाओं पर हो रहे इन हमलों के बारे में सुनते हुए ज्यूरी सदस्य आनंद याग्निक ने सवाल किया कि अगर प्रधानमंत्री यह बोल सकते हैं कि वो चायवाले हैं, तो हम सड़कों [की पटरियों] पर सामान क्यों नहीं बेच सकते।
उन्होंने कहा, “सुबह से इन ज़ुल्मों और बेदखलियों के बारे में सुनने से ऐसा लग रहा है कि G20 आयोजन संविधान से भी ऊपर का कार्यक्रम बन गया है जिसे क़ानून पर नहीं चलना है। G20 की बदौलत उच्च न्यायालयों व उच्चतम न्यायालय के आदेशों को पलटकर एक तरह से संविधान को अस्थाई रूप से स्थगित करना अविश्वसनीय है। हम इसे क्या कहें, अमृत काल या राक्षस काल?”
लैंड कनफ्लिक्ट वॉच (ज़मीन के टकराव पर नज़र) के पृथ्वीराज ने कहा, "भारत [सरकार को] को G20 की अध्यक्षता नवंबर में मिली और दिल्ली में लोगों को अचानक नोटिस मिलने लगे।" उन्होंने कहा कि हालिया बेदखलियों में कुछ पैटर्न्स (सिलसिले) दिखते हैं और कुछ [लोग/वर्ग] दूसरों से ज़्यादा असुरक्षित हैं। “जबकि महरौली में 700 नोटिस जारी किए गए और 25 मकान ढहाए गए; वहीं तुग़लक़ाबाद में लगभग 1500 नोटिस जारी किए गए और लगभग 3000 मकान ढहाए गए क्योंकि यहाँ के निवासी ज़्यादा असुरक्षित [सामाजिक-आर्थिक रूप से कमज़ोर] थे।" उनके अनुसार दोनों ही जगहों पर तुलनात्मक रूप से अधिक सम्पन्न लोगों के मकानों/अपार्टमेंट को [तोड़ने से] छोड़ दिया गया।
ज्यूरी सदस्या बीना पल्लीकल ने कहा, "राष्ट्रमंडल खेलों (कॉमनवेल्थ गेम्स) के दौरान 2010 में भी इन्होंने [सत्ताधारियों ने] SC/ST बजट से 700 करोड़ रुपये लेकर विशाल स्टेडियम बनाए थे। उस वक़्त भी बेदखलियाँ और तोड़फोड़ हुई थीं। आज सरकारें बदल गई हैं, मगर ज़मीनी हक़ीक़त वही है।"
टिकेंद्र पंवार ने सत्तावादी नेताओं की सौंदर्यीकरण के प्रति सनक की बात की - नेपोलियन, हिटलर और अब भारत में उनके वंशज। उन्होंने कहा, “1990 के दशक में जब ज़मीन का मुद्रीकरण हुआ, तब ग़रीबों को रुकावट की तरह देखा गया। इस प्रकार इस तकनीकी-केंद्रित मॉडल में मेहनतकश वर्ग को हाशिये पर डालना [सत्ता के लिए] ज़रूरी था। ग़रीबों को शहर पर अपना हक़ वापस लेना होगा।”
ग़ाज़ीपुर के लैंडफ़िल (कूड़े के टीले) के पास कूड़ा बीनने वालों की बस्ती के शाह आलम की गवाही के संदर्भ में [ज्यूरी सदस्य] हर्ष मंदर ने कहा कि हम ऐसा भारत नहीं चाहते हैं जहाँ किसी का घर आठ बार जलाया जाए और हर बार उसे राख से शुरुआत करनी पड़े। इसे बदलना होगा।
ज्यूरी सदस्यों ने कहा कि वो सभी गवाहियों के विश्लेषण के बाद, एक हफ़्ते के अंदर, इस ट्रिब्यूनल (जन अदालत) के आधार पर एक रपट तैयार करेंगे। उन्होंने G20 से जुड़ी बेदखलियों और ग़रीबों के ख़िलाफ़ हिंसा को तत्काल रोकने की माँग की।
इस जन सुनवाई की पीठ के ज्यूरी सदस्य: वरिष्ठ पत्रकार पामेला फ़िलीपोस, दलित मानव अधिकारों का राष्ट्रीय अभियान (नैशनल कैंपेन फ़ॉर दलित ह्यूमन राइट्स) की बीना पल्लीकल, शिमला के पूर्व उप-महापौर (डिप्टी मेयर) टिकेंद्र पंवार, मानवाधिकार कार्यकर्ता हर्ष मंदर तथा गुजरात उच्च न्यायालय के वकील आनंद याग्निक