Friday, 28 July 2023

G20 और हमारे शहर: हम शिक्षक क्या बतलाएँ और किसके गुण गाएँ?


संपादकीय टिप्पणी: इस वर्ष G 20 की अध्यक्षता व मेज़बानी की बारी तय क्रमानुसार भारत को मिली। ऐसा होना था कि विश्वविद्यालयों से लेकर हमारे स्कूलों तक को G 20 के बारे में कार्यक्रम आयोजित करने के आदेश दिए जाने लगे। शैक्षिक परिसरों की दीवारों पर G 20 से जुड़े चित्र सजने लगे, सूचना व प्रदर्शन पट्ट पर इस ख़ास समूह की जानकारी पेश की जाने लगी और शिक्षक व विद्यार्थी विभिन्न भाव-भंगिमाएँ अपनाकर इन आदेशों का पालन करने में जुट गए। न स्कूलों की पाठ्यचर्या का ख़याल रखा गया और न ही विद्यार्थियों की उम्र के संदर्भ में उनकी समझ या ज़रूरत का। एक तरफ़ इन आदेशों के पीछे परोक्ष रूप से महिमामंडन तथा बचकाने व बेबुनियाद गर्व को पोषित करने की मंशा झलकी, वहीं दूसरी तरफ़ आपाधापी में व अफ़सरशाही के बोझ तले पिस रहे स्कूलों के माहौल ने यह सुनिश्चित किया कि ये कार्यक्रम/गतिविधियाँ सतही, दिखावटी एवं रूटीन क़िस्म की रहेंगी। यह परिघटना उस प्रशासनिक संस्कृति का ही एक अन्य ताज़ा उदाहरण है जिसमें स्कूलों को सरकारी ही नहीं, बल्कि दलगत और व्यक्तिवादी प्रचार के वैध स्थल मान लिया गया है। साथ ही, शिक्षकों को स्वतंत्र रूप से सोचने-समझने वाले बौद्धिक कर्मी की तरह नहीं, बल्कि महज़ आदेशपालन करने वाले सरकारी कर्मचारी के रूप में देखा जा रहा है। यही वजह है कि इन कार्यक्रमों/गतिविधियों में न्यूनतम तथ्यों से न्यूनतम ईमानदारी बरतने की कोशिश भी दिखाई नहीं देती है। गहरा और आलोचनात्मक शैक्षणिक व्यवहार तो बहुत दूर की बात है। जबकि इस स्थिति के लिए ख़ुद हुक्मरान ज़िम्मेदार हैं, इसके लिए शिक्षक को दोष नहीं दिया जा सकता है। बहरहाल, अभी हमें दो महीने और G-20 के नेतृत्व के एहसास के साये तले गुज़ारने होंगे। इस बीच ये फ़रमान अपने चरम पर पहुँच सकते हैं। जैसे G 20 से जुड़े आदेश हमारी स्कूली व्यवस्था के अकादमिक खोखलेपन व बर्बादी को और उजागर करते हैं, वैसे ही इस स्वयंभू समूह की गौरवशाली मेज़बानी के पीछे की सच्चाई इस लोकतंत्र में लोगों की औक़ात की हक़ीक़त बयान करती है। प्रस्तुत है G 20 की नेतृत्वशाली मेज़बानी से पीड़ित देश के नागरिकों की त्रासदी पर रौशनी डालती एक जनसुनवाई की संक्षिप्त रपट। उम्मीद है कि शिक्षक साथी इसे अपने शैक्षणिक कर्म को गहराई देने में मददगार पाएँगे। 



22 मई को नई दिल्ली के सुरजीत भवन में भारत में जबरन बेदख़ली के ज्वलंत मुद्दे को संबोधित करती एक जन सुनवाई आयोजित की गई थी। इसे विभिन्न विषयों पर काम करने वाले संगठनों ने साथ आकर, कंसर्नड सिटिज़न्स [फ़िक्रमंद नागरिक] के नाम से आयोजित किया था। इस जन सुनवाई का उद्देश्य देशभर में की जा रही, व ख़ासतौर से किसानों, रेहड़ी-पटरी वालों, कूड़ा बीनने वालों तथा बस्तियों के निवासियों को निशाना बना रही, उन अन्यायपूर्ण बेदखलियों पर रौशनी डालना था जिन्हें G20 सम्मेलन की तैयारियों और शहरों के सौंदर्यीकरण के तहत अंजाम दिया जा रहा है। जबकि G20 की मेज़बानी को लेकर पैदा की जा रही चमक-धमक, चकाचौंध और गर्व की भावना सत्ता द्वारा 'विकास' की कहानी के प्रचार के रूप में सामने लाई जा रही है, इस जन सुनवाई से वो सच सामने आया जिसे सावधानीपूर्वक छुपाया जाता है - बुलडोज़रों द्वारा घरों को मिट्टी में मिलाने की क्रूर कहानी।   

जहाँ G20 को 'राष्ट्रीय गर्व' के रूप में पेश किया जा रहा है, ऐसा लगता है कि सरकार अपने ही [देश के] लोगों, विशेषकर ग़रीबों, के ख़िलाफ़ पक्षपात करती है। नागपुर से आए जम्मू आनंद ने कहा, "एक न्यायाधीश ने हाल ही में कहा कि G20 के तहत Civil (सिविल) 20 का एक विशाल आयोजन होगा और इसलिए नागपुर के लोगों को अनुशासन में रहना होगा।" उनका यह इशारा ही स्थानीय प्रशासन के लिए नागपुर के सम्मान को बचाने के लिए क़दम उठाने के लिए काफ़ी था। पुलिस आयुक्त ने आदेश जारी किया कि चौराहों पर एक भी भिखारी नज़र नहीं आना चाहिए। 'ग़रीबी हटाओ' के बदले अब वो 'ग़रीबी छुपाओ' कर रहे हैं। नागपुर में हुए C20 के उद्घाटन के अवसर पर हमने बस्तियों को लोहे की चादरों के पीछे छुपाए जाते और 'हरियाली' का अहसास देने के लिए ज़मीन पर प्लास्टिक की घास लगाए जाते देखा। ज्यूरी [जन सुनवाई की पीठ] के सदस्य हर्ष मंदर ने कहा, "एक शहर कामकाजी हाथों के बिना एक दिन भी नहीं चल सकता, मगर हम इन्हें कोई जगह नहीं देना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि ये लोग अलादीन के जिन्न की तरह रहें, बस हमारी सेवा के लिए प्रकट हो जाएँ और फिर ग़ायब हो जाएँ।"   

लोगों ने प्रशासकों द्वारा बेदखलियों में बरती गई असीम क्रूरता की गवाहियाँ दीं। दिल्ली के [यमुना किनारे स्थित] बेला एस्टेट की पूजा ने कहा, "हमें अपना सामान उठाने के लिए 3 घंटे दिए गए जिसमें यह काम लगभग नामुमकिन था। 29 अप्रैल को हुए बेदख़ली अभियान के चलते बहुत-से विद्यार्थियों की बोर्ड परीक्षा छूट गई। एक महीने के अंतराल में हम पर तीन बार बुलडोज़र चलाए गए। चूँकि पानी के बिना ज़िंदा नहीं रहा जा सकता है, इसलिए उन्होंने पहले हैंडपंप तोड़े ताकि हमें फ़ौरन वहाँ से जाना पड़े। अपने मकानों को बचाने के लिए बच्चों को परीक्षाएँ छोड़नी पड़ीं। अब हम फ़्लाईओवर के नीचे रह रहे हैं।”

बस्ती सुरक्षा मंच के अब्दुल शकील के शब्दों में, “तुग़लक़ाबाद की बेदख़ली तो इतनी क्रूर थी कि हममें से उन लोगों को भी इस स्तर का अनुभव नहीं था जो दशकों से बेदखलियों से जूझ रहे हैं। पुलिस ने बस्ती को घेर लिया, जैमर लगा दिए गए ताकि कोई वीडियो न भेज पाए, कार्यकर्ताओं के फ़ोन छीन लिए गए, आसपास के होटलों व दुकानों को बंद करवा दिया गया और पूरी बस्ती दो दिन में ढहा दी गई।”

राजेंदर रवि के शब्दों में, “यह सिर्फ़ उनके मकानों का विनाश नहीं है; यह उनके इतिहास, उनकी जड़ों और उन रिश्तों का भी विनाश है जो उन्होंने उस जगह के साथ बनाए थे।”

इंदुप्रकाश के शब्दों में, “31 जनवरी को बाग़वानी विभाग....[मूल रपट में भाषा स्पष्ट नहीं है] कि सराय काले ख़ाँ इलाक़े के पास वाली जगह के G20 से जुड़े सौंदर्यीकरण के रास्ते में जो निराश्रित गृह (बेघरों का बसेरा) आ रहा है उसे तोड़ देना चाहिए। अतः बहुत जल्दी एक आदेश जारी करके बेघरों के इस बसेरे को ज़मींदोज़ कर दिया गया।”

ज्यूरी सदस्या पामेला फ़िलीपोस ने कहा, “बुलडोज़र का [ऐसा] अति हिंसक इस्तेमाल निश्चित ही राज्य की क्रूरता और निष्ठुरता का प्रत्यक्ष प्रतीक है। यह सुनना दुखद है कि कैसे फेरीवालों को अतिक्रमणकारियों की तरह, बस्ती के बाशिंदों को अवैध लोगों की तरह और बेघरों को नशाख़ोरों की तरह देखा जाता है।”

यह बात कई गवाहियों में उभर कर सामने आई कि G20 कैसे उन काम-धंधों पर एक अभिशाप की तरह आया है जो पहले-से ही सबसे ज़्यादा असुरक्षा व अनिश्चितता की हालत में हैं। इंदौर के आनंद लखन के शब्दों में, “उनके लिए G20 एक आयोजन हो सकता है, हमारे लिए तो यह ग़रीबों पर एक आफ़त है। राहुल वर्मा के पास इंदौर के नक्षत्र गार्डन के निकट एक गैराज था। चूँकि G20 प्रतिनिधिमंडल आने वाला था, इसलिए उनका गैराज हटा दिया गया। उन्हें एक ऐसी जगह बसाया गया जहाँ उनके गैराज के लिए धंधे की कोई संभावना नहीं थी। ऐसी हैं पुनर्वास की सच्चाइयाँ। वो अवसाद में चले गए और अंततः उन्होंने आत्महत्या कर ली।”

भुज के मोहम्मद के शब्दों में, “हमें बताया गया था कि G20 के चलते रोज़गार के नए अवसर खुलेंगे और पर्यटन बढ़ेगा। स्थानीय अख़बारों में ऐसी रपटें थीं। मगर जिस तरह से G20 के नाम पर बेदखलियाँ और नाकाबंदियाँ टूट पड़ीं, ग़रीबों के लिए वो एक क़हर था। भुज में तो फेरीवाले प्रतिनिधिमंडल के दौरे के लिए दस दिनों तक काम बंद करने के लिए भी राज़ी हो गए। मगर जब वो वापस गए तो उनमें से बहुतों को एक महीने के अंदर हटा दिया गया।”

बेला एस्टेट की रेखा के शब्दों में, “वो हम थे जिन्होंने महामारी [कोरोना] के दौरान [इस शहर को] भोजन, दूध, सब्ज़ियाँ उपलब्ध कराईं। और अब वो हमारी ज़मीनें और आजीविकाएँ छीन रहे हैं। जब भी शहर में कोई बदलाव होता है तो शहरी ग़रीब को ही सबसे बड़ा ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ता है।”

तुग़लक़ाबाद की रीना के शब्दों में, “मेरे पति ई-रिक्शा चलाते हैं। तोड़फोड़ के बाद अब कोई बिजली नहीं है। वो अपनी गाड़ी कैसे चार्ज करेंगे? मैं दस दिनों से भूख हड़ताल पर हूँ। क्या मेरी बात सिर्फ़ इसलिए नहीं सुनी जा रही है क्योंकि मैं ग़रीब हूँ?”

फेरीवालों के राष्ट्रीय महासंघ के संदीप ने उन फेरीवालों की बदहाली के बारे में बात की जिनकी आजीविका सौंदर्यीकरण के नाम पर ख़त्म हो रही है। कुछ लोगों का कहना है कि क्या मेहमानों के आने पर हम अपने घर साफ़ नहीं करते हैं। "मगर क्या कभी भी इस सफ़ाई का मतलब बूढ़ों और सबसे लाचार सदस्यों को घर से बाहर निकालना होता है?" उनका कहना था, “G20 से पहले कभी भी सड़क विक्रेताओं पर बुलडोज़र नहीं चले थे, मगर G20 में यह होता दिख रहा है।”

रेहड़ी-पटरी वालों की आजीविकाओं पर हो रहे इन हमलों के बारे में सुनते हुए ज्यूरी सदस्य आनंद याग्निक ने सवाल किया कि अगर प्रधानमंत्री यह बोल सकते हैं कि वो चायवाले हैं, तो हम सड़कों [की पटरियों] पर सामान क्यों नहीं बेच सकते। 

उन्होंने कहा, “सुबह से इन ज़ुल्मों और बेदखलियों के बारे में सुनने से ऐसा लग रहा है कि G20 आयोजन संविधान से भी ऊपर का कार्यक्रम बन गया है जिसे क़ानून पर नहीं चलना है। G20 की बदौलत उच्च न्यायालयों व उच्चतम न्यायालय के आदेशों को पलटकर एक तरह से संविधान को अस्थाई रूप से स्थगित करना अविश्वसनीय है। हम इसे क्या कहें, अमृत काल या राक्षस काल?”

लैंड कनफ्लिक्ट वॉच (ज़मीन के टकराव पर नज़र) के पृथ्वीराज ने कहा, "भारत [सरकार को] को G20 की अध्यक्षता नवंबर में मिली और दिल्ली में लोगों को अचानक नोटिस मिलने लगे।" उन्होंने कहा कि हालिया बेदखलियों में कुछ पैटर्न्स (सिलसिले) दिखते हैं और कुछ [लोग/वर्ग] दूसरों से ज़्यादा असुरक्षित हैं। “जबकि महरौली में 700 नोटिस जारी किए गए और 25 मकान ढहाए गए; वहीं तुग़लक़ाबाद में लगभग 1500 नोटिस जारी किए गए और लगभग 3000 मकान ढहाए गए क्योंकि यहाँ के निवासी ज़्यादा असुरक्षित [सामाजिक-आर्थिक रूप से कमज़ोर] थे।" उनके अनुसार दोनों ही जगहों पर तुलनात्मक रूप से अधिक सम्पन्न लोगों के मकानों/अपार्टमेंट को [तोड़ने से] छोड़ दिया गया। 

ज्यूरी सदस्या बीना पल्लीकल ने कहा, "राष्ट्रमंडल खेलों (कॉमनवेल्थ गेम्स) के दौरान 2010 में भी इन्होंने [सत्ताधारियों ने] SC/ST बजट से 700 करोड़ रुपये लेकर विशाल स्टेडियम बनाए थे। उस वक़्त भी बेदखलियाँ और तोड़फोड़ हुई थीं। आज सरकारें बदल गई हैं, मगर ज़मीनी हक़ीक़त वही है।" 

टिकेंद्र पंवार ने सत्तावादी नेताओं की सौंदर्यीकरण के प्रति सनक की बात की - नेपोलियन, हिटलर और अब भारत में उनके वंशज। उन्होंने कहा, “1990 के दशक में जब ज़मीन का मुद्रीकरण हुआ, तब ग़रीबों को रुकावट की तरह देखा गया। इस प्रकार इस तकनीकी-केंद्रित मॉडल में मेहनतकश वर्ग को हाशिये पर डालना [सत्ता के लिए] ज़रूरी था। ग़रीबों को शहर पर अपना हक़ वापस लेना होगा।”

ग़ाज़ीपुर के लैंडफ़िल (कूड़े के टीले) के पास कूड़ा बीनने वालों की बस्ती के शाह आलम की गवाही के संदर्भ में [ज्यूरी सदस्य] हर्ष मंदर ने कहा कि हम ऐसा भारत नहीं चाहते हैं जहाँ किसी का घर आठ बार जलाया जाए और हर बार उसे राख से शुरुआत करनी पड़े। इसे बदलना होगा।  

ज्यूरी सदस्यों ने कहा कि वो सभी गवाहियों के विश्लेषण के बाद, एक हफ़्ते के अंदर, इस ट्रिब्यूनल (जन अदालत) के आधार पर एक रपट तैयार करेंगे। उन्होंने G20 से जुड़ी बेदखलियों और ग़रीबों के ख़िलाफ़ हिंसा को तत्काल रोकने की माँग की।   

इस जन सुनवाई की पीठ के ज्यूरी सदस्य: वरिष्ठ पत्रकार पामेला फ़िलीपोस, दलित मानव अधिकारों का राष्ट्रीय अभियान (नैशनल कैंपेन फ़ॉर दलित ह्यूमन राइट्स) की बीना पल्लीकल, शिमला के पूर्व उप-महापौर (डिप्टी मेयर) टिकेंद्र पंवार, मानवाधिकार कार्यकर्ता हर्ष मंदर  तथा गुजरात उच्च न्यायालय के वकील आनंद याग्निक 


प्लास्टिक प्रदूषण, उद्योग और आर्थिक नीति

                                                                                                                                                  स्वाथि सेषाद्रि
संपादकीय टिप्पणी: पिछले कुछ वर्षों से हम स्कूलों में प्लास्टिक के इस्तेमाल के विरुद्ध तरह-तरह के जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करते आ रहे हैं। विद्यार्थियों को विभिन्न समस्याओं के प्रति जागरूक बनाना निश्चित ही स्कूलों और शिक्षा की ज़िम्मेदारी बनती है। मगर हाल के समय में हमारे द्वारा स्कूलों में ऐसे कार्यक्रमों के आयोजन के पीछे हमारे अपने अकादमिक विवेक या शिक्षणशास्त्रीय निर्णय की भूमिका नहीं रही है, बल्कि ऊपर से थोपे और तय किए गए आदेशों की छाप रही है - कार्यक्रम कब और कैसे आयोजित करने से लेकर संदिग्ध की तरह सबूत के तौर पर उसकी फ़ोटो-वीडियो बनाने तक। इन कार्यक्रमों में समझ व सहमति के बिना दिलाई गई शपथ, चित्रकला, कविता पाठ, संबोधन आदि शामिल हैं। इन कार्यक्रमों के आदेशों में न केवल स्कूलों की दिनचर्या व पाठ्यचर्या की तिरस्कारपूर्ण अनदेखी निहित होती है, बल्कि अक़सर ये स्कूलों में उपलब्ध संसाधनों की हक़ीक़त से भी परे होते हैं। एक तरफ़ हम विद्यार्थियों को प्लास्टिक व पन्नी के ख़तरों तथा निजी इस्तेमाल के ख़िलाफ़ सचेत कर रहे होते हैं, दूसरी तरफ़ हमें अच्छी तरह पता होता है कि, छोटी उम्र के विद्यार्थी तो दूर, हम ख़ुद आसमान से उतरी इन शपथों को व्यवहार में उतारने में असमर्थ हैं। न ही ऐसे कार्यक्रम हमें इस विरोधाभास को सामने लाने की इजाज़त देते हैं कि हमारी अर्थव्यवस्था (निवेश, उत्पादन, क्रय-विक्रय आदि) के केंद्र में ही प्रकृति का संतुलन या संसाधनों का संयमित-समान इस्तेमाल नहीं, बल्कि निजी मुनाफ़े और तथाकथित विकास की होड़ है। इन कार्यक्रमों द्वारा यह मासूम 'शिक्षा' दी जाती है कि विभिन्न अन्य 'समस्याओं' की तरह प्लास्टिक प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार भी हम व्यक्तिगत तौर पर हैं व इसका समाधान भी हमारे व्यक्तिगत सुधरे हुए आचरण में है। इस तरह बहुत-ही सफ़ाई और सुविधाजनक तरीक़े से व्यवस्था का सवाल भी अदृश्य कर दिया जाता है और अर्थव्यवस्था पर काबिज़ धन्ना सेठों के अपराधों को भी। उम्मीद है कि शिक्षा नहीं बल्कि शासन के नज़रिये से तय किए गए इन प्लास्टिक-विरोधी कार्यक्रमों के आदेशों को एक बोझिल लाश की तरह उठाने को मजबूर हम शिक्षकों को यह लेख 'समस्या' को व्यापक आर्थिक-नीति के संदर्भ में देखने व सत्ता से सही सवाल पूछने में मदद करेगा।                                                                                                                  

इन दिनों संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) के तहत एक वैश्विक प्लास्टिक्स संधि पर समझौता वार्ताएँ चल रही हैं। यह संधि प्लास्टिक प्रदूषण संकट का एक समाधान हो सकती है। इस संधि के बिंदुओं व अमल को लेकर सरकारों के बीच में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समझौता समितियों की पाँच बैठकें होनी हैं। इनमें से दूसरी बैठक 29 मई से 2 जून तक पैरिस में हुई थी।   

इस संधि का उद्देश्य है जीवाश्म ईंधनों को निकालने से लेकर पेट्रोकैमिकल्स तैयार करने के लिए परिष्कृत करने, प्लास्टिक उत्पादन, उपभोग, कूड़े के व्यापार व निपटारे तक, प्लास्टिक के पूरे 'जीवनकाल' में फैले प्रदूषण को समाप्त करना। जबकि अभी तक प्लास्टिक को महज़ इस्तेमाल के बाद कचरे की समस्या के रूप में देखा गया है।  

ऐसा पिछले साल मार्च में आयोजित संयक्त राष्ट्र पर्यावरण सभा (UNEA) में प्रस्ताव 5/14 अपनाने के बावजूद हुआ है। इस प्रस्ताव में साफ़ तौर से प्लास्टिक निर्माण उद्योग को प्लास्टिक प्रदूषण संकट के स्रोत के रूप में चिन्हित किया गया था।   

अगर इस प्रस्ताव के आधार पर कोई संधि तैयार होती है तो इससे कुछ ख़ास तरह के प्लास्टिक के उत्पादन में कटौती और अंततः रोक में कामयाबी मिलेगी। 

भारत व प्लास्टिक्स संधि 

भारत सरकार यह शेख़ी बघारती है कि 2019 में UNEA की पाँचवीं बैठक में उसने एक-बार-इस्तेमाल-होने-वाले प्लास्टिक्स (सिंगल-यूज़ प्लास्टिक्स) के ख़िलाफ़ प्रस्ताव की अगुआई की थी। मगर 2022 में जब विश्व के [विभिन्न देशों के] नेता वैश्विक प्लास्टिक्स संधि के अनिवार्य स्वरूप पर समझौता वार्ता कर रहे थे, भारत [सरकार] ने इसे ऐच्छिक रखने की वकालत की।  

विभिन्न सरकारों की अंतर्राष्ट्रीय समझौता समिति के पहले सत्र में भारत [सरकार] ने सऊदी अरब व चीन जैसे उन देशों का साथ दिया जिनका आग्रह था कि संधि वार्ताओं में फ़ैसले बहुमत के बदले सर्वसम्मिति से लिए जाएँ। [जोकि निश्चित ही, किन्हीं परिस्थितियों में, एक उचित लोकतांत्रिक तरीक़ा होता है।] इसके अलावा, भारत [सरकार] ने इस सत्र में कोई प्रतिनिधिमंडल तक नहीं भेजा और केवल ऑनलाइन भागीदारी की। 

समझौता वार्ता की दूसरी बैठक में भी भारत [सरकार] ने संधि के संभावित तत्वों - उद्देश्य, प्रमुख ज़िम्मेदारियाँ, नियंत्रण के उपाय व स्वैच्छिक दृष्टिकोण - पर कोई प्रस्तुतिकरण नहीं दिया। 

भारत [सरकार] के विरोधाभासी हित 

संधि के उद्देश्यों का एक नतीजा पेट्रोरसायनों, विशेषकर पॉलीमर्स व मिलाए जाने वाले ज़हरीले तत्वों, के उत्पादन पर अधिकतम सीमा लगाने के रूप में भी सामने आ सकता है। मगर यह उस वक़्त हो रहा है जब सरकार व उद्योग दोनों ही भारत में पेट्रोकैमिकल्स को लेकर बेहद उत्साहित हैं। 

सरकार विदेशी मुद्रा कमाने की नीयत से यह उम्मीद करती है कि देश पेट्रोकैमिकल उत्पादन के क्षेत्रीय केंद्र के रूप में उभरेगा। इस तरह ऐसा प्रतीत होता है कि भारत में वर्तमान पेट्रोकैमिकल नीति व [तैयार की जा रही] वैश्विक प्लास्टिक्स संधि के घोषित उद्देश्यों के बीच विरोधाभास है। 

दिसंबर में पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैस मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने कहा कि भारत के पेट्रोकैमिकल बाज़ार में विकास की बहुत गुंजाइश है। उनके शब्दों में, "भारत में पेट्रोकैमिकल बाज़ार इस समय लगभग 190 अरब डॉलर का है, जबकि विकसित देशों की तुलना में पेट्रोकैमिकल उत्पादों की हमारी प्रति व्यक्ति खपत बहुत कम है। यह फ़र्क़ माँग में बढ़ोतरी व निवेश के मौक़ों के लिए काफ़ी संभावना प्रदान करता है।"

अधिक हाल में, 20 मई को एशिया पेट्रोकैमिकल इंडस्ट्री कांफ्रेंस में रसायन व खाद मंत्री मनसुख मंडाविया ने कहा, "भारत वैश्विक स्तर पर पेट्रोकैमिकल्स की नई मंज़िल के रूप में उभरने को तैयार बैठा है।" 

इसी सम्मेलन में रिलायंस इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड के एक वरिष्ठ अफ़सर ने कहा कि भविष्य में तेल की नई माँग में वृद्धि में 70% तक का योगदान कैमिकल्स का होगा। यह ध्यान देने योग्य है कि भारतीय रसायन उद्योग में लगभग 71.9% हिस्सा अलकली रसायनों का है (अप्रैल-जुलाई 2021 के आँकड़े), जबकि 2019 में प्रमुख प्राथमिक पेट्रोरसायनों के कुल उत्पादन में लगभग 59% हिस्सा पॉलीमर्स का था।  

कॉस्टिक सोडा एक प्रमुख अलकली रसायन है और यह बेहद ज़हरीले प्लास्टिक पॉलीमर, PVC (पॉलीविनाइल क्लोराइड), के उत्पादन का एक महत्त्वपूर्ण घटक है। 

अरबों दाँव पर लगे हैं 

[मंत्री] पुरी के अनुसार पेट्रोकैमिकल्स के माध्यम से भारत में 87 अरब डॉलर [लगभग 7,134 अरब या 7 लाख करोड़ रुपये] से ज़्यादा के निवेश की संभावना है। 2021 में FICCI (फ़ेडेरेशन ऑफ़ इंडियन चैम्बर्स ऑफ़ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री) ने, तटीय महाराष्ट्र पर 40 अरब डॉलर की रत्नागिरी रिफ़ाइनरी ऐंड पेट्रोकैमिकल्स लिमिटेड सहित आठ परियोजनाओं को मिलाकर, इसी स्तर के निवेश का अंदाज़ा लगाया था।  

2021 तक 17.1 अरब डॉलर के निवेश के साथ 11 पेट्रोकैमिकल्स परियोजनाएँ अस्तित्व में थीं। अभी इसका पाँच गुना निवेश होना तो बाक़ी है। 

उत्पादन को आउटसोर्स करना 

यह आँकलन इंटरनैशनल एनर्जी एजेंसी (IEA) की रपट 'पेट्रोकैमिकल्स का भविष्य' में दिए उस आँकड़े से मेल खाता है जिसके अनुसार 2050 तक प्रमुख रसायनों का उत्पादन यूरोप में कम हो जाएगा, उत्तरी अमरीका में स्थिर हो जाएगा और पश्चिमी एशिया में बढ़ेगा जहाँ अधिकांश उत्पादन एशिया प्रशांत क्षेत्र में होगा।   

IEA के अनुसार प्राथमिक रसायनों में इथाइलीन, प्रोपाइलीन, बेंज़ीन, टॉउलीन, मिश्रित ज़ाइलीन, अमोनिया और मेथानॉल शामिल हैं जिनका इस्तेमाल प्रमुख प्लास्टिक्स, कृत्रिम फ़ाइबर आदि बनाने में होता है।  

जहाँ अपनी बड़ी आबादी के कारण एशिया प्रशांत क्षेत्र में यक़ीनन बड़े बाज़ार हैं, हक़ीक़त यह भी है कि पेट्रोकैमिकल्स की प्रति व्यक्ति खपत यूरोप व उत्तरी अमरीका में कहीं ज़्यादा है। इस तरह एशिया प्रशांत क्षेत्र, जिसके पेट्रोकैमिकल उत्पादन में भारत का हिस्सा सबसे बड़ा है, विकास के नाम पर इस उद्योग का स्वागत करेगा और नतीजतन विकसित देशों [की सेवा] के लिए [पेट्रोरसायनों व प्लास्टिक रूपी] ज़हर को संभालेगा व इसका लेनदेन करेगा।   

विश्व के कुल पेट्रोकैमिकल्स का 99% हिस्सा जीवाश्म ईंधन से उत्पादित होता है। वैश्विक स्तर पर पेट्रोकैमिकल उद्योग कुल उद्योग-क्षेत्र के 18% व कुल दहन के 5% कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार है। 

अपने पूरे जीवन-काल के दौरान प्लास्टिक्स का कार्बन प्रभाव (कार्बन फ़ूटप्रिंट) बेहद संकटपूर्ण स्तर का होता है और 2050 तक यह ईंधन के रूप में कोयला इस्तेमाल करने वाले लगभग 1,640 बिजली संयंत्रों के वार्षिक उत्सर्जन के बराबर हो जाएगा।   

टेक्नोलॉजी के स्तर पर 80% रिफ़ाइनरी तो पहले-से ही कच्चे तेल से ऊर्जा व पेट्रोरसायनों के उत्पादन का काम कर रही हैं। हाल ही में हरित ('ग्रीन') रिफ़ायनरीज़ नाम से तकनीकी नवाचार का ढोल पीटा जाना शुरु हुआ है। इसका मतलब यह बताया जाता है कि इन रिफ़ायनरीज़ को चलाने के लिए इस्तेमाल होने वाली ऊर्जा आंशिक रूप से अक्षय स्रोतों से प्राप्त की जाएगी। यह एक मिथ्या के अलावा कुछ भी नहीं है क्योंकि कोई भी ऐसी चीज़ जो जीवाश्म ईंधन जलाती है या उन्हें चारे के रूप में इस्तेमाल करती है 'हरित' नहीं हो सकती है।   

बड़े खिलाड़ी लाभ में रहेंगे 

यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि मुट्ठीभर बड़े खिलाड़ी मुनाफ़ा काटने की स्थिति में हैं। भारत में पेट्रोरसायन उद्योग का स्वरूप अल्पाधिकारी (ओलिगोपोलिस्टिक) [यानी बाज़ार केवल कुछ कंपनियों के कब्ज़े में] है। कच्चे तेल की 11 रिफ़ायनरीज़ हैं और इनके नीचे पेट्रोरसायन व मिश्रणों के लगभग 40 उत्पादक।  

इन 11 में से 3 बहुत बड़े खिलाड़ी - रिलायंस इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड, इंडियन पेट्रोकैमिकल्ज़ कॉर्पोरेशन लिमिटेड और गैस अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया लिमिटेड - पूरे मैदान पर छाए हुए हैं। इनमें भी अकेले रिलायंस देश के कुल पेट्रोकैमिकल पॉलीमर उत्पादन का 70% हिस्सा तैयार करती है और कम घनत्व वाली पॉलीइथाइलीन (LDPE) जैसे पॉलीमर के उत्पादन में एकाधिकारवादी स्थिति में है। यानी, पेट्रोकैमिकल उत्पादन की अधिकतम सीमा तय होने या इसमें गिरावट आने की स्थिति में इन कंपनियों को सबसे ज़्यादा नुक़सान होगा।  

प्लास्टिक उपभोग के संदर्भ में भारत [सरकार] ने इसके इस्तेमाल को नियंत्रित करने के उद्देश्य से कुछ कमज़ोर प्रयास किए हैं। अगस्त 2019 को सिंगल-यूज़ प्लास्टिक्स के ख़िलाफ़ एक राष्ट्रीय आंदोलन का आह्वान किया गया। अक्टूबर 2021 में उद्घाटित स्वच्छ भारत मिशन 2.0 में भी प्लास्टिक सहित अन्य कूड़े के प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित किया गया है।  

अंत में, पिछले वर्ष 1 जुलाई को भारत [सरकार] ने सिंगल-यूज़ प्लास्टिक्स पर प्रतिबंध की घोषणा की। ख़ुद उद्योग जगत की स्वीकारोक्ति के अनुसार, यह प्रतिबंध कुल प्लास्टिक खपत के केवल 2%-3% को निशाना बनाता है। कुछ ख़ास तरह के सिंगल-यूज़ प्लास्टिक्स पर प्रतिबंध ही संभवतः प्लास्टिक उपभोग को नियंत्रित करने की एकमात्र [ईमानदाराना] कोशिश है। 

हालाँकि यह प्रतिबंध भी सड़क विक्रेता व छोटे दुकानदारों जैसे अनौपचारिक क्षेत्र में प्लास्टिक के इस्तेमाल को कम करने पर केंद्रित है, जबकि तेज़ी से बढ़तीं उपभोक्ता वस्तुओं की निर्माता कंपनियाँ सिंगल-यूज़ प्लास्टिक्स के एक ख़तरनाक रूप सैशे (पाउच) को धड़ल्ले से इस्तेमाल किए जा रही हैं। 

अनमने उपाय 

यह देखते हुए कि भारत में हर साल 35 लाख टन प्लास्टिक कूड़ा पैदा होता है और यह मात्रा लगातार बढ़ती जा रही है, सरकार द्वारा उठाए गए क़दम अनमने-से लगते हैं और प्लास्टिक्स प्रदूषण की समस्या की जड़ को निशाना नहीं बनाते हैं।  

उदाहरण के लिए, पुनः उपयोग की व्यवस्था करने की दिशा में कोई गंभीर प्रयास नहीं किए गए हैं। इस स्थिति को निर्माताओं को ज़िम्मेदार बनाने की कमज़ोर नीति [यानी उन्हें ज़िम्मेवार नहीं ठहराना] से जोड़ कर देखने से यह साफ़ होता है कि तेज़ी से बढ़तीं उपभोक्ता वस्तुओं की कंपनियाँ प्लास्टिक्स प्रदूषण संकट निर्मित करने के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी से पूरी तरह बरी हो जाती हैं, जबकि उनका मुनाफ़ा रात-दिन बढ़ता रहा है।   

पेट्रोकैमिकल उद्योग का केंद्र बनने की चाहत, तबाही की ओर ले जाने वाले अति-उपभोक्तावाद [ख़रीदो ख़रीदो, और ख़रीदो] के साथ गठजोड़ और प्लास्टिक उपभोग के सार्थक विकल्प तैयार करने के प्रति उदासीनता, सब सरकार की नीति का ज़ोर साफ़ करते हैं।   

प्लास्टिक्स पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले अहम अंतर्राष्ट्रीय तत्व हैं और उस जलवायु संकट को बनाने में भी महत्त्वपूर्ण रूप से ज़िम्मेदार हैं जो अंततः लोगों को प्रभावित करेगा। 

देश के नेतृत्व को फ़ैसले लेते वक़्त शायद लोगों और हमारे ग्रह की चिंता करने की ज़रूरत है, नाकि निजी मुनाफ़े और विशाल निर्माण को देश के विकास का पर्याय मानने की।  

स्वाथि सेषाद्रि सेंटर फ़ॉर फ़ाइनेंशियल अकॉउंटबिलिटी में डायरेक्टर (प्रोग्राम्स) व टीम लीड (तेल व गैस) के पद पर कार्यरत हैं। यह लेख As Negotiation on Global Plastics Treaty Gets Underway, India Should Reconsider Contradictory Stance शीर्षक के साथ मूल रूप से स्क्रॉल  - Scroll.in - पर 11 जून को प्रकाशित हुआ था।