इन
दिनों संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) के तहत एक वैश्विक
प्लास्टिक्स संधि पर समझौता वार्ताएँ चल रही हैं। यह संधि प्लास्टिक
प्रदूषण संकट का एक समाधान हो सकती है। इस संधि के बिंदुओं व अमल को लेकर
सरकारों के बीच में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समझौता समितियों की पाँच बैठकें
होनी हैं। इनमें से दूसरी बैठक 29 मई से 2 जून तक पैरिस में हुई थी।
इस
संधि का उद्देश्य है जीवाश्म ईंधनों को निकालने से लेकर पेट्रोकैमिकल्स
तैयार करने के लिए परिष्कृत करने, प्लास्टिक उत्पादन, उपभोग, कूड़े के
व्यापार व निपटारे तक, प्लास्टिक के पूरे 'जीवनकाल' में फैले प्रदूषण को
समाप्त करना। जबकि अभी तक प्लास्टिक को महज़ इस्तेमाल के बाद कचरे की समस्या
के रूप में देखा गया है।
ऐसा
पिछले साल मार्च में आयोजित संयक्त राष्ट्र पर्यावरण सभा (UNEA) में
प्रस्ताव 5/14 अपनाने के बावजूद हुआ है। इस प्रस्ताव में साफ़ तौर से
प्लास्टिक निर्माण उद्योग को प्लास्टिक प्रदूषण संकट के स्रोत के रूप में
चिन्हित किया गया था।
अगर
इस प्रस्ताव के आधार पर कोई संधि तैयार होती है तो इससे कुछ ख़ास तरह के
प्लास्टिक के उत्पादन में कटौती और अंततः रोक में कामयाबी मिलेगी।
भारत व प्लास्टिक्स संधि
भारत
सरकार यह शेख़ी बघारती है कि 2019 में UNEA की पाँचवीं बैठक में उसने
एक-बार-इस्तेमाल-होने-वाले प्लास्टिक्स (सिंगल-यूज़ प्लास्टिक्स) के ख़िलाफ़
प्रस्ताव की अगुआई की थी। मगर 2022 में जब विश्व के [विभिन्न देशों के]
नेता वैश्विक प्लास्टिक्स संधि के अनिवार्य स्वरूप पर समझौता वार्ता कर रहे
थे, भारत [सरकार] ने इसे ऐच्छिक रखने की वकालत की।
विभिन्न
सरकारों की अंतर्राष्ट्रीय समझौता समिति के पहले सत्र में भारत [सरकार] ने
सऊदी अरब व चीन जैसे उन देशों का साथ दिया जिनका आग्रह था कि संधि
वार्ताओं में फ़ैसले बहुमत के बदले सर्वसम्मिति से लिए जाएँ। [जोकि निश्चित
ही, किन्हीं परिस्थितियों में, एक उचित लोकतांत्रिक तरीक़ा होता है।] इसके
अलावा, भारत [सरकार] ने इस सत्र में कोई प्रतिनिधिमंडल तक नहीं भेजा और
केवल ऑनलाइन भागीदारी की।
समझौता
वार्ता की दूसरी बैठक में भी भारत [सरकार] ने संधि के संभावित तत्वों -
उद्देश्य, प्रमुख ज़िम्मेदारियाँ, नियंत्रण के उपाय व स्वैच्छिक दृष्टिकोण -
पर कोई प्रस्तुतिकरण नहीं दिया।
भारत [सरकार] के विरोधाभासी हित
संधि
के उद्देश्यों का एक नतीजा पेट्रोरसायनों, विशेषकर पॉलीमर्स व मिलाए जाने
वाले ज़हरीले तत्वों, के उत्पादन पर अधिकतम सीमा लगाने के रूप में भी सामने आ
सकता है। मगर यह उस वक़्त हो रहा है जब सरकार व उद्योग दोनों ही भारत में
पेट्रोकैमिकल्स को लेकर बेहद उत्साहित हैं।
सरकार
विदेशी मुद्रा कमाने की नीयत से यह उम्मीद करती है कि देश पेट्रोकैमिकल
उत्पादन के क्षेत्रीय केंद्र के रूप में उभरेगा। इस तरह ऐसा प्रतीत होता है
कि भारत में वर्तमान पेट्रोकैमिकल नीति व [तैयार की जा रही] वैश्विक
प्लास्टिक्स संधि के घोषित उद्देश्यों के बीच विरोधाभास है।
दिसंबर
में पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैस मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने कहा कि भारत के
पेट्रोकैमिकल बाज़ार में विकास की बहुत गुंजाइश है। उनके शब्दों में, "भारत
में पेट्रोकैमिकल बाज़ार इस समय लगभग 190 अरब डॉलर का है, जबकि विकसित
देशों की तुलना में पेट्रोकैमिकल उत्पादों की हमारी प्रति व्यक्ति खपत बहुत
कम है। यह फ़र्क़ माँग में बढ़ोतरी व निवेश के मौक़ों के लिए काफ़ी संभावना
प्रदान करता है।"
अधिक
हाल में, 20 मई को एशिया पेट्रोकैमिकल इंडस्ट्री कांफ्रेंस में रसायन व
खाद मंत्री मनसुख मंडाविया ने कहा, "भारत वैश्विक स्तर पर पेट्रोकैमिकल्स
की नई मंज़िल के रूप में उभरने को तैयार बैठा है।"
इसी
सम्मेलन में रिलायंस इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड के एक वरिष्ठ अफ़सर ने कहा कि
भविष्य में तेल की नई माँग में वृद्धि में 70% तक का योगदान कैमिकल्स का
होगा। यह ध्यान देने योग्य है कि भारतीय रसायन उद्योग में लगभग 71.9%
हिस्सा अलकली रसायनों का है (अप्रैल-जुलाई 2021 के आँकड़े), जबकि 2019 में
प्रमुख प्राथमिक पेट्रोरसायनों के कुल उत्पादन में लगभग 59% हिस्सा
पॉलीमर्स का था।
कॉस्टिक
सोडा एक प्रमुख अलकली रसायन है और यह बेहद ज़हरीले प्लास्टिक पॉलीमर, PVC
(पॉलीविनाइल क्लोराइड), के उत्पादन का एक महत्त्वपूर्ण घटक है।
अरबों दाँव पर लगे हैं
[मंत्री]
पुरी के अनुसार पेट्रोकैमिकल्स के माध्यम से भारत में 87 अरब डॉलर [लगभग
7,134 अरब या 7 लाख करोड़ रुपये] से ज़्यादा के निवेश की संभावना है। 2021
में FICCI (फ़ेडेरेशन ऑफ़ इंडियन चैम्बर्स ऑफ़ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री) ने, तटीय
महाराष्ट्र पर 40 अरब डॉलर की रत्नागिरी रिफ़ाइनरी ऐंड पेट्रोकैमिकल्स
लिमिटेड सहित आठ परियोजनाओं को मिलाकर, इसी स्तर के निवेश का अंदाज़ा लगाया
था।
2021 तक 17.1 अरब डॉलर के निवेश के साथ 11 पेट्रोकैमिकल्स परियोजनाएँ अस्तित्व में थीं। अभी इसका पाँच गुना निवेश होना तो बाक़ी है।
उत्पादन को आउटसोर्स करना
यह आँकलन इंटरनैशनल एनर्जी एजेंसी (IEA) की रपट 'पेट्रोकैमिकल्स का भविष्य' में दिए उस आँकड़े से मेल खाता है जिसके अनुसार 2050 तक प्रमुख रसायनों का उत्पादन यूरोप में कम हो जाएगा, उत्तरी अमरीका में स्थिर हो जाएगा और पश्चिमी एशिया में बढ़ेगा जहाँ अधिकांश उत्पादन एशिया प्रशांत क्षेत्र में होगा।
IEA
के अनुसार प्राथमिक रसायनों में इथाइलीन, प्रोपाइलीन, बेंज़ीन, टॉउलीन,
मिश्रित ज़ाइलीन, अमोनिया और मेथानॉल शामिल हैं जिनका इस्तेमाल प्रमुख
प्लास्टिक्स, कृत्रिम फ़ाइबर आदि बनाने में होता है।
जहाँ
अपनी बड़ी आबादी के कारण एशिया प्रशांत क्षेत्र में यक़ीनन बड़े बाज़ार हैं,
हक़ीक़त यह भी है कि पेट्रोकैमिकल्स की प्रति व्यक्ति खपत यूरोप व उत्तरी
अमरीका में कहीं ज़्यादा है। इस तरह एशिया प्रशांत क्षेत्र, जिसके
पेट्रोकैमिकल उत्पादन में भारत का हिस्सा सबसे बड़ा है, विकास के नाम पर इस
उद्योग का स्वागत करेगा और नतीजतन विकसित देशों [की सेवा] के लिए
[पेट्रोरसायनों व प्लास्टिक रूपी] ज़हर को संभालेगा व इसका लेनदेन करेगा।
विश्व
के कुल पेट्रोकैमिकल्स का 99% हिस्सा जीवाश्म ईंधन से उत्पादित होता है।
वैश्विक स्तर पर पेट्रोकैमिकल उद्योग कुल उद्योग-क्षेत्र के 18% व कुल दहन
के 5% कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार है।
अपने
पूरे जीवन-काल के दौरान प्लास्टिक्स का कार्बन प्रभाव (कार्बन फ़ूटप्रिंट)
बेहद संकटपूर्ण स्तर का होता है और 2050 तक यह ईंधन के रूप में कोयला
इस्तेमाल करने वाले लगभग 1,640 बिजली संयंत्रों के वार्षिक उत्सर्जन के
बराबर हो जाएगा।
टेक्नोलॉजी
के स्तर पर 80% रिफ़ाइनरी तो पहले-से ही कच्चे तेल से ऊर्जा व
पेट्रोरसायनों के उत्पादन का काम कर रही हैं। हाल ही में हरित ('ग्रीन')
रिफ़ायनरीज़ नाम से तकनीकी नवाचार का ढोल पीटा जाना शुरु हुआ है। इसका मतलब
यह बताया जाता है कि इन रिफ़ायनरीज़ को चलाने के लिए इस्तेमाल होने वाली
ऊर्जा आंशिक रूप से अक्षय स्रोतों से प्राप्त की जाएगी। यह एक मिथ्या के
अलावा कुछ भी नहीं है क्योंकि कोई भी ऐसी चीज़ जो जीवाश्म ईंधन जलाती है या
उन्हें चारे के रूप में इस्तेमाल करती है 'हरित' नहीं हो सकती है।
बड़े खिलाड़ी लाभ में रहेंगे
यह
कोई हैरानी की बात नहीं है कि मुट्ठीभर बड़े खिलाड़ी मुनाफ़ा काटने की स्थिति
में हैं। भारत में पेट्रोरसायन उद्योग का स्वरूप अल्पाधिकारी
(ओलिगोपोलिस्टिक) [यानी बाज़ार केवल कुछ कंपनियों के कब्ज़े में] है। कच्चे
तेल की 11 रिफ़ायनरीज़ हैं और इनके नीचे पेट्रोरसायन व मिश्रणों के लगभग 40
उत्पादक।
इन
11 में से 3 बहुत बड़े खिलाड़ी - रिलायंस इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड, इंडियन
पेट्रोकैमिकल्ज़ कॉर्पोरेशन लिमिटेड और गैस अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया लिमिटेड -
पूरे मैदान पर छाए हुए हैं। इनमें भी अकेले रिलायंस देश के कुल
पेट्रोकैमिकल पॉलीमर उत्पादन का 70% हिस्सा तैयार करती है और कम घनत्व वाली
पॉलीइथाइलीन (LDPE) जैसे पॉलीमर के उत्पादन में एकाधिकारवादी स्थिति में
है। यानी, पेट्रोकैमिकल उत्पादन की अधिकतम सीमा तय होने या इसमें गिरावट
आने की स्थिति में इन कंपनियों को सबसे ज़्यादा नुक़सान होगा।
प्लास्टिक
उपभोग के संदर्भ में भारत [सरकार] ने इसके इस्तेमाल को नियंत्रित करने के
उद्देश्य से कुछ कमज़ोर प्रयास किए हैं। अगस्त 2019 को सिंगल-यूज़
प्लास्टिक्स के ख़िलाफ़ एक राष्ट्रीय आंदोलन का आह्वान किया गया। अक्टूबर
2021 में उद्घाटित स्वच्छ भारत मिशन 2.0 में भी प्लास्टिक सहित अन्य कूड़े
के प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
अंत
में, पिछले वर्ष 1 जुलाई को भारत [सरकार] ने सिंगल-यूज़ प्लास्टिक्स पर
प्रतिबंध की घोषणा की। ख़ुद उद्योग जगत की स्वीकारोक्ति के अनुसार, यह
प्रतिबंध कुल प्लास्टिक खपत के केवल 2%-3% को निशाना बनाता है। कुछ ख़ास तरह
के सिंगल-यूज़ प्लास्टिक्स पर प्रतिबंध ही संभवतः प्लास्टिक उपभोग को
नियंत्रित करने की एकमात्र [ईमानदाराना] कोशिश है।
हालाँकि
यह प्रतिबंध भी सड़क विक्रेता व छोटे दुकानदारों जैसे अनौपचारिक क्षेत्र
में प्लास्टिक के इस्तेमाल को कम करने पर केंद्रित है, जबकि तेज़ी से बढ़तीं
उपभोक्ता वस्तुओं की निर्माता कंपनियाँ सिंगल-यूज़ प्लास्टिक्स के एक ख़तरनाक
रूप सैशे (पाउच) को धड़ल्ले से इस्तेमाल किए जा रही हैं।
अनमने उपाय
यह
देखते हुए कि भारत में हर साल 35 लाख टन प्लास्टिक कूड़ा पैदा होता है और
यह मात्रा लगातार बढ़ती जा रही है, सरकार द्वारा उठाए गए क़दम अनमने-से लगते
हैं और प्लास्टिक्स प्रदूषण की समस्या की जड़ को निशाना नहीं बनाते हैं।
उदाहरण
के लिए, पुनः उपयोग की व्यवस्था करने की दिशा में कोई गंभीर प्रयास नहीं
किए गए हैं। इस स्थिति को निर्माताओं को ज़िम्मेदार बनाने की कमज़ोर नीति
[यानी उन्हें ज़िम्मेवार नहीं ठहराना] से जोड़ कर देखने से यह साफ़ होता है कि
तेज़ी से बढ़तीं उपभोक्ता वस्तुओं की कंपनियाँ प्लास्टिक्स प्रदूषण संकट
निर्मित करने के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी से पूरी तरह बरी हो जाती हैं, जबकि
उनका मुनाफ़ा रात-दिन बढ़ता रहा है।
पेट्रोकैमिकल
उद्योग का केंद्र बनने की चाहत, तबाही की ओर ले जाने वाले अति-उपभोक्तावाद
[ख़रीदो ख़रीदो, और ख़रीदो] के साथ गठजोड़ और प्लास्टिक उपभोग के सार्थक
विकल्प तैयार करने के प्रति उदासीनता, सब सरकार की नीति का ज़ोर साफ़ करते
हैं।
प्लास्टिक्स
पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले अहम अंतर्राष्ट्रीय तत्व हैं और उस जलवायु
संकट को बनाने में भी महत्त्वपूर्ण रूप से ज़िम्मेदार हैं जो अंततः लोगों
को प्रभावित करेगा।
देश
के नेतृत्व को फ़ैसले लेते वक़्त शायद लोगों और हमारे ग्रह की चिंता करने की
ज़रूरत है, नाकि निजी मुनाफ़े और विशाल निर्माण को देश के विकास का पर्याय
मानने की।
स्वाथि सेषाद्रि सेंटर फ़ॉर फ़ाइनेंशियल अकॉउंटबिलिटी में डायरेक्टर (प्रोग्राम्स) व टीम लीड (तेल व गैस) के पद पर कार्यरत हैं। यह लेख As Negotiation on Global Plastics Treaty Gets Underway, India Should Reconsider Contradictory Stance शीर्षक के साथ मूल रूप से स्क्रॉल - Scroll.in - पर 11 जून को प्रकाशित हुआ था।
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