Sunday, 21 January 2024

धर्मनिरपेक्षता के प्राण निकालते प्राण प्रतिष्ठा की सार्वजनिक छुट्टी


लोक शिक्षक मंच 22 जनवरी को अयोध्या में निर्माणाधीन राममंदिर में मूर्ति की 'प्राण-प्रतिष्ठा' से जुड़े पूजा-पाठ के लिए स्कूल सहित सभी सार्वजनिक संस्थानों को दोपहर 2:30 बजे तक बंद करने के आदेश से असहमति जताते हुए अपना विरोध व्यक्त करता है। सरकार का यह निर्णय भारतीय गणराज्य के संविधान तथा पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है। इस आयोजन को इसके अमर्यादित, अवैधानिक, नफ़रती व हिंसक इतिहास को भुलाकर नहीं देखा जा सकता है। इसी का परिणाम है कि जगह-जगह पर इस आयोजन का जश्न मनाने के नाम पर श्रद्धा व प्रेम के बदले उन्माद, दबाव और दबंगई के उदाहरण नज़र आ रहे हैं। इसी का नतीजा है कि सैद्धांतिक रूप से ऐसे विभाजनकारी सार्वजनिक अवकाश से असहमति रखते हुए भी हममें से कई लोग, सड़कों पर किसी अनहोनी की आशंका के चलते, बच्चों व आमजन की सुरक्षा की दृष्टि से एक राहत की साँस भी ले रहे हैं। जहाँ तक श्रद्धा और विश्वास की बात है, इच्छुक व्यक्तियों को इसमें शामिल होने के लिए विशेष अल्प-अवकाश दिया जा सकता था, जिससे कि किसी का हक़ भी नहीं मारा जाता और पूरे संस्थान को बंद करने की नौबत भी नहीं आती। हालाँकि, यह भी याद रखने योग्य है कि चूँकि श्रद्धालुओं को उस दिन स्थल पर आने से हतोत्साहित किया गया है और केवल कुछ अति-विशेष व्यक्तियों को ही वहाँ आमंत्रित किया गया है, तो ऐसे में आयोजकों को सार्वजनिक विज्ञापन निकालकर लोगों को यह बताना पड़ा है कि उन्हें अपने घर और आस-पड़ोस में भजन-कीर्तन करना चाहिए, शोभा यात्रा निकालनी चाहिए तथा टीवी पर इसके प्रसारण को देखना चाहिए।  
                                       शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि धर्म और विश्वास के विषय में भी भारत में कर्मकांड के विरोध की एक स्वस्थ परंपरा रही है। चाहे वो धार्मिक सुधार आंदोलन रहे हों या जाति उत्पीड़न के विरोध में उठी आवाज़ें, चाहे वो भारत का संविधान हो या आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में वैज्ञानिक चेतना तथा नैतिक शिक्षा के अभिन्न तत्व, हमारे समाज और शिक्षा ने धर्म के उदात्त मूल्यों व इंसानियत की साझी चेतना को हमेशा कर्मकांड के ऊपर रखा है। यही कारण है कि हमारे स्कूलों की दीवारों पर 'कर्म ही पूजा है' (work is worship) जैसी उक्तियाँ अंकित रहती हैं और धार्मिक/सांस्कृतिक पर्वों के अवसरों पर भी हम विद्यार्थियों को उनसे जुड़े सार्वभौमिक नैतिक या इंसानी संदेश याद दिलाते हैं। स्कूलों में जब हम अपने विद्यार्थियों को कर्मकांड के बारे में बताते भी हैं तो उन्हें प्रेरणा या आदर्श के तौर पर नहीं, बल्कि भारत व विश्व में रीति-रिवाजों की विविधता के तौर पर प्रस्तुत करते हैं। नैतिक शिक्षा के नाम पर अपने स्कूलों में हम संतों, समाज सुधारकों, नायकों आदि के ढेरों ऐसे ऐतिहासिक वृत्तांत व कहानियाँ साझा करते हैं जो कर्मकांड को धर्म के खोखले अंग, ढोंग, अज्ञानता व धूर्तता के रूप में सामने लाते हैं। ऐसे में हम इस बात को नज़रंदाज़ नहीं कर सकते हैं कि 'प्राण-प्रतिष्ठा' जैसे आयोजनों के प्रशासनिक प्रचार का एक उद्देश्य धार्मिक रूढ़ियों की पड़ताल और उनसे फ़ायदा उठाने वाले वर्गों की पहचान करने में बाधा डालेगा। यह शिक्षकों-विद्यार्थियों की चेतना को उस सुप्तावस्था में डालना होगा जिससे उबरने के लिए भारत ही नहीं बल्कि दुनियाभर के मनीषियों ने एक लंबा संघर्ष किया है। शिक्षा तथा हम शिक्षकों की ज़िम्मेदारी इस अमूल्य धरोहर को बचाकर रखना और संस्कृति के तर्कशील, उदार व इंसानी तत्वों को आगे बढ़ाना है, न कि विवेक और बुद्धि को कर्मकांड की भेंट चढ़ाना। 
जो सरकारें कर्मचारियों को कामचोरी व मज़दूरों की हड़तालों-आंदोलनों को देश के नुकसान के नाम पर बदनाम करती हैं, उन्हें आए दिन शैक्षिक संस्थानों के कैलेंडरों और पढ़ाई से मनमाफिक तरीके से खिलवाड़ करते हुए शर्म नहीं आती है। यह उनकी शिक्षा के प्रति गंभीरता को दर्शाता है। हालाँकि जब ये धर्मनिष्ठ सरकारें धर्म की मान्यताओं व नैतिक उसूलों की भी खुल्ल्मखुल्ला धज्जियाँ उड़ाती हैं, तो इनसे राजसत्ता या शिक्षा की गरिमा का पालन करने की अपेक्षा करना भी बेवकूफी है। ऐसे में यह अंदाज़ा लगाना कठिन नहीं है कि शिक्षा व तमाम अन्य सार्वजनिक संस्थानों के स्वायत्त तथा निरपेक्ष चरित्र के चीथड़े भले ही धर्म के नाम पर उड़ाए जा रहे हों, असल में इसका मक़सद सत्ता में विराजमान व्यक्तियों के चुनावी प्रचार एवं धर्म के ठेकेदारों और धन्ना सेठों के निजी हितों को लाभ पहुँचाना है। संस्थानों की ऐसी आकस्मिक बंदी किसी आपातकालिक संदर्भ में उचित हो सकती है, मगर यहाँ तो बंदी से एक आपातकालिक स्थिति निर्मित की जा रही है। स्कूल-कॉलेजों में, संविधान के अनुच्छेद 28 का स्पष्ट उल्लंघन करते हुए, न सिर्फ धार्मिक नारों, प्रतीकों को जगह दी जा रही है और अनुष्ठान कराने की तैयारी हो रही है, बल्कि कर्मचारियों व विद्यार्थियों को इनमें उपस्थित रहने और शामिल होने के लिए मजबूर किया जा रहा है। राजसत्ता और प्रशासनिक शक्ति का ऐसा दुष्ट व गिरा हुआ इस्तेमाल न धार्मिक आचरण की मिसाल है और न ही राजधर्म के अनुरूप। धार्मिक आयोजन के नाम पर शैक्षिक संस्थानों की पढ़ाई और यहाँ तक कि अस्पतालों में भी सेवाएँ बंद करना उस ग़ैर-जवाबदेह और निरंकुश सत्ता का सूचक है जिसके राज में मूक, आदेशपालक जनता बनकर रहने के लिए हमें मंत्रमुग्ध बनाकर तैयार किया जा रहा है। (ये लोगों की आलोचना व अभी ज़िंदा ताक़त का ही परिणाम था कि प्रशासन को अस्पतालों की सेवाओं को बंद करने के घिनौने आदेश अंतिम समय में वापस लेने पड़े।) हम ख़ुद इस दास वृत्ति में ढलने, अपने विद्यार्थियों को इसमें ढालने और अपने स्कूल-कॉलेजों को इसके दीक्षा स्थल बनाने से इंकार करते हैं। 
हम तमाम शिक्षक साथियों और जनता के इंसाफ़पसन्द व तर्कशील तबकों से स्कूल-कॉलेजों सहित सभी सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों के निरपेक्ष चरित्र तथा रूढ़ियों से मुक्त, वैज्ञानिक शिक्षा के पक्ष में खड़े होने की अपील करते हैं।       

Sunday, 14 January 2024

आज के समय में शिक्षकों के समक्ष चुनौतियाँ और संघर्ष के रास्ते: सावित्रीबाई फुले की जयंती पर एक शैक्षिक चर्चा


 3 जनवरी को भारत की प्रथम शिक्षिका सावित्रीबाई फुले की जयंती के अवसर पर बुराड़ी स्थित हरित विहार कॉलोनी में आज के समय में शिक्षकों के समक्ष चुनौतियाँ और संघर्ष के रास्ते शीर्षक से एक संवाद आयोजित किया गया। इसमें आस-पास रहने वाले दिल्ली सरकार व नगर निगम के स्कूलों के शिक्षकों ने हिस्सा लिया। कार्यक्रम की शुरुआत शिक्षा, व्यैक्तिक स्वतंत्रता व सामाजिक न्याय के क्षेत्र में बालिकाओं तथा समाज के वंचित-उत्पीड़ित वर्गों के पक्ष में सावित्रीबाई फुले के प्रेरणादायक संघर्ष को याद करके की गई। 


इस चर्चा से निम्नलिखित बिंदु उभर कर आए -
1. सरकारी स्कूलों में पाठ्यचर्या कमज़ोर और हल्की होती जा रही है। जबकि प्राइवेट स्कूलों में नवाचार के नाम पर इस तरह का खिलवाड़ नहीं हो रहा है, ऐसे में पाठ्यचर्या संबंधी यह नीति शिक्षा में सुनियोजित असमानता व भेदभाव की परिचायक है। इससे सरकारी स्कूलों के विद्यार्थी लगातार पिछड़ते जाएँगे। सरकारी स्कूलों को देशभक्ति, हैप्पीनेस, ईएमसी जैसे अनर्गल विषयों या कार्यक्रमों पर नहीं, बल्कि अकादमिक शिक्षा पर ज़ोर देना चाहिए, यही उनका मुख्य काम है।               इसी कड़ी में, शिक्षकों पर लादे जा रहे ग़ैर-अकादमिक कार्य तथा नियमित रूप से बड़ी संख्या में शिक्षकों की किसी-न-किसी कार्यक्रम के लिए स्कूल से बाहर 'ऑन ड्यूटी' तैनाती सरकारी स्कूलों में पढ़ाई पर और भी बुरा असर डाल रही है। बहुत दफ़ा स्कूलों में शिक्षकों को अपनी अकादमिक व पेशागत विशेषज्ञता के विपरीत जाकर अन्य विषय या कोर्स पढ़ाने पढ़ रहे हैं। इससे न सिर्फ़ उनकी योग्यता के साथ अन्याय हो रहा है, बल्कि विद्यार्थियों को भी छला जा रहा है। 
रही-सही कसर वो आदेश निकाल देते हैं जिनके अनुसार शिक्षकों को अपनी परिस्थितियों व समझदारी से नहीं, बल्कि आनन-फ़ानन में और बने-बनाए प्रारूप के तहत कोर्स कवर कराना होता है। इस येन-केन-प्रकारेण अवस्था में गुणवत्तापूर्ण शिक्षण तो नहीं हो पाता है, मगर फ़र्ज़ी आँकड़े व निरर्थक रपटें ज़रूर तैयार होती रहती हैं। शिक्षा नीति के तहत परीक्षाओं को हल्का करके, पास होने के लिए पैमानों को ढीला करके और परिणामों की बाज़ीगरी से यह सुनिश्चित किया जा रहा है कि ख़ुद वो लोग भी शिक्षा की सच्चाई न जान पाएँ जिनके बच्चों की पढ़ाई मटियामेट की जा रही है।    

2. सभी शिक्षकों ने एक स्वर में स्कूलों में बढ़ रहे अतार्किक, संकीर्ण, नफ़रती व हिंसक माहौल के ख़तरे को चिन्हित करते हुए इस बारे में घोर चिंता जताई। कई स्कूलों में विद्यार्थियों द्वारा धार्मिक उन्माद के नारे लगाना आम होता जा रहा है। इस बारे में कुछ शिक्षकों की मूक अथवा परोक्ष सहमति और प्रोत्साहन स्कूलों के माहौल को तो ग़लत दिशा दे ही रहा है, ये शिक्षकों की उस निरपेक्ष भूमिका को भी ध्वस्त कर रहा है जिसकी नैतिक ही नहीं बल्कि संवैधानिक ज़िम्मेदारी भी उन पर है। दूसरी तरफ़, इस तरह की नारेबाज़ी विद्यार्थियों के बीच धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण बढ़ा रही है। छोटी उम्र के विद्यार्थियों तक में जाति-धर्म पर हिंसक भावना व संकुचित गर्व प्रेषित करने वाले गानों का चलन बढ़ता जा रहा है। ऐसे विभाजनकारी, यहाँ तक कि विद्वेषपूर्ण, भाव आम भाषा तथा व्यवहार में घुलते-मिलते जा रहे हैं। ज़ाहिर है कि इसका स्रोत मुख्य रूप से व्यापक समाज एवं शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व के वो घिनौने विचार हैं जो हमारी कक्षाओं में घुस रहे हैं, लेकिन शिक्षक भी इस दोष से बरी नहीं हो सकते क्योंकि ख़ुद शिक्षकों के एक हिस्से में जातिगत/धार्मिक पहचान उजागर करने वाले प्रतीकों को धारण करने का चलन निराशाजनक स्तर तक बढ़ गया है। अगर विद्यार्थियों की साइकिलों पर उनकी जाति/धर्म का ऐलान अंकित है, तो कई शिक्षक भी अपनी गाड़ियों पर अपनी जातिगत/धार्मिक पहचान के स्टिकर गर्व से लगाकर स्कूल आ रहे हैं। अगर विद्यार्थी आपस में धार्मिक-जातिगत आधार पर यारी-दोस्ती कर रहे हैं, समूह बना रहे हैं, वैमनस्य की भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, तो कई शिक्षक भी इस तरह के संकीर्ण व संकुचित आचरण से मुक्त नहीं हैं। 
ऐसे उदाहरण भी साझा किए गए जिनमें संवेदनशील व न्यायप्रिय शिक्षकों ने विद्यार्थियों के इस तरह के आचरण, व्यवहार, भाषा पर उन्हें समझाया और टोका। हालाँकि, एक अफ़सोसनाक घटना में ऐसा करने पर उक्त विद्यार्थी के कहने पर 'बाहर के धार्मिक गुंडों' ने स्कूल में आकर टोकने वाले शिक्षक के साथ हिंसक व्यवहार किया। इस प्रकरण में मीडिया की चुप्पी व स्वयं शिक्षकों तथा शिक्षक संघ का आवाज़ न उठाना स्थिति की भयावहता बयान करता है और अधिक चिंताजनक है। 
इस बात को भी रेखांकित किया गया कि शिक्षा विभाग ख़ुद ऐसे-ऐसे कार्यक्रम आयोजित करा रहा है जिनका स्वरूप व चरित्र धर्म-विशेष से जुड़ा है तथा जो अकादमिक विषयों के सार्वभौमिक ज्ञान-संसार के उलट जाकर ख़ास तरह की आस्था या कपोल-कल्पित नैतिक आग्रहों पर टिके हैं और उन्हें बढ़ावा देते हैं। ऐसे कार्यक्रमों से राज्य की पंथनिरपेक्षता खंडित हो रही है। कुल मिलाकर, स्कूलों में एक ऐसी संस्कृति निर्मित हो रही है जो भ्रातृत्व, ज्ञान, तर्कशीलता व वैज्ञानिक चेतना के विरुद्ध है। इस माहौल में शिक्षा संभव नहीं है और इसे सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले वंचित वर्गों के बच्चों के ख़िलाफ़ एक षड्यंत्र की तरह देखा जा सकता है।        
  
आगे का रास्ता 
चूँकि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के लिए शिक्षा ही वो एकमात्र सांस्थानिक सहारा है जिससे वो व उनके अभिभावक बेहतर भविष्य की उम्मीद करते हैं, इसलिए उन्हें हक़ीक़त से रू-ब-रू कराकर आवाज़ उठाने का हौसला देना बेहद ज़रूरी है। हमें विद्यार्थियों को कक्षा में सवाल पूछने और स्कूलों में कमी के संदर्भ में सत्ता की शिकायत करने के लिए प्रेरित करना होगा। जब उनके और उनके अभिभावकों के सवालों का यह दायरा बढ़कर प्रशासन और सरकार तक पहुँचेगा, सावित्रीबाई फुले की राह में हमारा शिक्षण तब ही सार्थक होगा।
प्रगतिशील शिक्षक साथियों को स्कूलों में, अड़ोस-पड़ोस में और सामाजिक-सांस्कृतिक अवसरों पर अधिक सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। ऐसे मौक़ों पर अध्ययनरत तैयारी, संयम व आत्मविश्वास के साथ मंच पर अपनी बात रखनी चाहिए ताकि ग़लत विचारों व पूर्वाग्रहों का प्रतिकार और उदार तथा विवेकपूर्ण बातों का प्रचार किया जा सके। इसके लिए पर्चों व सोशल मीडिया संदेशों के अलावा फ़िल्मों, वैज्ञानिक प्रयोगों तथा भ्रमण जैसे अन्य माध्यम भी आज़माने चाहिए। हमारे अपने देश में विविधता, उदारता, बंधुत्व और सामाजिक न्याय की ऐसी गौरवशाली विरासत की कमी नहीं है जिसे हम स्कूलों में तथा विभिन्न अवसरों पर बेहतरीन उदाहरण के रूप में पेश कर सकते हैं। हमें अपने अध्ययन की कमी, संकोच और निष्क्रियता को दूर करना होगा।  
आज हम शिक्षक ख़ुद को असहाय, शक्तिहीन पाते हैं। इस लोकतंत्र में हमें सार्वजनिक रूप से लिखने और अपनी बात कहने का अधिकार नहीं है। यूनियन बनाकर अपने हक़ों के लिए लड़ने का जो अधिकार मज़दूर आंदोलन ने लंबे संघर्ष से प्राप्त किया गया था, आज वो भी ख़तरे में दिख रहा है। व्यापक समाज में भी एक लोकतांत्रिक लकवे की स्थिति पसरती जा रही है। इस संदर्भ में शिक्षक यूनियन और शिक्षक वर्ग ख़ुद को पहले-से ज़्यादा कमज़ोर महसूस कर रहे हैं। लेकिन सच तो यह भी है कि कसरत और काम से ही कमज़ोर मांसपेशियाँ ताक़त हासिल करती हैं। और सच यह भी है कि दमन करने वाला भी हमारी ऊँची आवाज़, एकजुटता और हरकत से डरता है। चाहे हम कितनी भी छोटी संख्या या कम ताक़त में क्यों न हों, हमें अपने छोटे-छोटे प्रयास जारी रखने होंगे और एक-दूसरे के साथ आकर अपना मनोबल बढ़ाना होगा। सावित्रीबाई फुले के जीवनपर्यन्त संघर्ष की यह रौशनी हमारे हौसले बुलंद करती रहेगी।