लोक शिक्षक मंच 22 जनवरी को अयोध्या में निर्माणाधीन
राममंदिर में मूर्ति की 'प्राण-प्रतिष्ठा' से जुड़े पूजा-पाठ के लिए स्कूल
सहित सभी सार्वजनिक संस्थानों को दोपहर 2:30 बजे तक बंद करने के आदेश से
असहमति जताते हुए अपना विरोध व्यक्त करता है। सरकार का यह निर्णय भारतीय
गणराज्य के संविधान तथा पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है। इस
आयोजन को इसके अमर्यादित, अवैधानिक, नफ़रती व हिंसक इतिहास को भुलाकर नहीं
देखा जा सकता है। इसी का परिणाम है कि जगह-जगह पर इस आयोजन का जश्न मनाने
के नाम पर श्रद्धा व प्रेम के बदले उन्माद, दबाव और दबंगई के उदाहरण नज़र आ
रहे हैं। इसी का नतीजा है कि सैद्धांतिक रूप से ऐसे विभाजनकारी सार्वजनिक
अवकाश से असहमति रखते हुए भी हममें से कई लोग, सड़कों पर किसी अनहोनी की
आशंका के चलते, बच्चों व आमजन की सुरक्षा की दृष्टि से एक राहत की साँस भी
ले रहे हैं। जहाँ तक श्रद्धा और विश्वास की बात है, इच्छुक व्यक्तियों को
इसमें शामिल होने के लिए विशेष अल्प-अवकाश दिया जा सकता था, जिससे कि किसी
का हक़ भी नहीं मारा जाता और पूरे संस्थान को बंद करने की नौबत भी नहीं आती।
हालाँकि, यह भी याद रखने योग्य है कि चूँकि श्रद्धालुओं को उस दिन स्थल पर
आने से हतोत्साहित किया गया है और केवल कुछ अति-विशेष व्यक्तियों को ही
वहाँ आमंत्रित किया गया है, तो ऐसे में आयोजकों को सार्वजनिक विज्ञापन
निकालकर लोगों को यह बताना पड़ा है कि उन्हें अपने घर और आस-पड़ोस में
भजन-कीर्तन करना चाहिए, शोभा यात्रा निकालनी चाहिए तथा टीवी पर इसके
प्रसारण को देखना चाहिए।
शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि धर्म और विश्वास
के विषय में भी भारत में कर्मकांड के विरोध की एक स्वस्थ परंपरा रही है।
चाहे वो धार्मिक सुधार आंदोलन रहे हों या जाति उत्पीड़न के विरोध में उठी
आवाज़ें, चाहे वो भारत का संविधान हो या आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में
वैज्ञानिक चेतना तथा नैतिक शिक्षा के अभिन्न तत्व, हमारे समाज और शिक्षा ने
धर्म के उदात्त मूल्यों व इंसानियत की साझी चेतना को हमेशा कर्मकांड के
ऊपर रखा है। यही कारण है कि हमारे स्कूलों की दीवारों पर 'कर्म ही पूजा है'
(work is worship) जैसी उक्तियाँ अंकित रहती हैं और धार्मिक/सांस्कृतिक
पर्वों के अवसरों पर भी हम विद्यार्थियों को उनसे जुड़े सार्वभौमिक नैतिक या
इंसानी संदेश याद दिलाते हैं। स्कूलों में जब हम अपने विद्यार्थियों को
कर्मकांड के बारे में बताते भी हैं तो उन्हें प्रेरणा या आदर्श के तौर पर
नहीं, बल्कि भारत व विश्व में रीति-रिवाजों की विविधता के तौर पर प्रस्तुत
करते हैं। नैतिक शिक्षा के नाम पर अपने स्कूलों में हम संतों, समाज
सुधारकों, नायकों आदि के ढेरों ऐसे ऐतिहासिक वृत्तांत व कहानियाँ साझा करते
हैं जो कर्मकांड को धर्म के खोखले अंग, ढोंग, अज्ञानता व धूर्तता के रूप
में सामने लाते हैं। ऐसे में हम इस बात को नज़रंदाज़ नहीं कर सकते हैं कि
'प्राण-प्रतिष्ठा' जैसे आयोजनों के प्रशासनिक प्रचार का एक उद्देश्य
धार्मिक रूढ़ियों की पड़ताल और उनसे फ़ायदा उठाने वाले वर्गों की पहचान करने
में बाधा डालेगा। यह शिक्षकों-विद्यार्थियों की चेतना को उस सुप्तावस्था
में डालना होगा जिससे उबरने के लिए भारत ही नहीं बल्कि दुनियाभर के
मनीषियों ने एक लंबा संघर्ष किया है। शिक्षा तथा हम शिक्षकों की ज़िम्मेदारी
इस अमूल्य धरोहर को बचाकर रखना और संस्कृति के तर्कशील, उदार व इंसानी
तत्वों को आगे बढ़ाना है, न कि विवेक और बुद्धि को कर्मकांड की भेंट चढ़ाना।
जो
सरकारें कर्मचारियों को कामचोरी व मज़दूरों की हड़तालों-आंदोलनों को देश के
नुकसान के नाम पर बदनाम करती हैं, उन्हें आए दिन शैक्षिक संस्थानों के
कैलेंडरों और पढ़ाई से मनमाफिक तरीके से खिलवाड़ करते हुए शर्म नहीं आती है।
यह उनकी शिक्षा के प्रति गंभीरता को दर्शाता है। हालाँकि जब ये धर्मनिष्ठ
सरकारें धर्म की मान्यताओं व नैतिक उसूलों की भी खुल्ल्मखुल्ला धज्जियाँ
उड़ाती हैं, तो इनसे राजसत्ता या शिक्षा की गरिमा का पालन करने की अपेक्षा
करना भी बेवकूफी है। ऐसे में यह अंदाज़ा लगाना कठिन नहीं है कि शिक्षा व
तमाम अन्य सार्वजनिक संस्थानों के स्वायत्त तथा निरपेक्ष चरित्र के चीथड़े
भले ही धर्म के नाम पर उड़ाए जा रहे हों, असल में इसका मक़सद सत्ता में
विराजमान व्यक्तियों के चुनावी प्रचार एवं धर्म के ठेकेदारों और धन्ना
सेठों के निजी हितों को लाभ पहुँचाना है। संस्थानों की ऐसी आकस्मिक बंदी
किसी आपातकालिक संदर्भ में उचित हो सकती है, मगर यहाँ तो बंदी से एक
आपातकालिक स्थिति निर्मित की जा रही है। स्कूल-कॉलेजों में, संविधान के
अनुच्छेद 28 का स्पष्ट उल्लंघन करते हुए, न सिर्फ धार्मिक नारों, प्रतीकों
को जगह दी जा रही है और अनुष्ठान कराने की तैयारी हो रही है, बल्कि
कर्मचारियों व विद्यार्थियों को इनमें उपस्थित रहने और शामिल होने के लिए
मजबूर किया जा रहा है। राजसत्ता और प्रशासनिक शक्ति का ऐसा दुष्ट व गिरा
हुआ इस्तेमाल न धार्मिक आचरण की मिसाल है और न ही राजधर्म के अनुरूप।
धार्मिक आयोजन के नाम पर शैक्षिक संस्थानों की पढ़ाई और यहाँ तक कि
अस्पतालों में भी सेवाएँ बंद करना उस ग़ैर-जवाबदेह और निरंकुश सत्ता का सूचक
है जिसके राज में मूक, आदेशपालक जनता बनकर रहने के लिए हमें मंत्रमुग्ध
बनाकर तैयार किया जा रहा है। (ये लोगों की आलोचना व अभी ज़िंदा ताक़त का ही
परिणाम था कि प्रशासन को अस्पतालों की सेवाओं को बंद करने के घिनौने आदेश
अंतिम समय में वापस लेने पड़े।) हम ख़ुद इस दास वृत्ति में ढलने, अपने
विद्यार्थियों को इसमें ढालने और अपने स्कूल-कॉलेजों को इसके दीक्षा स्थल
बनाने से इंकार करते हैं।
हम तमाम शिक्षक साथियों और जनता के इंसाफ़पसन्द व
तर्कशील तबकों से स्कूल-कॉलेजों सहित सभी सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों के
निरपेक्ष चरित्र तथा रूढ़ियों से मुक्त, वैज्ञानिक शिक्षा के पक्ष में खड़े
होने की अपील करते हैं।