3 जनवरी को भारत की प्रथम शिक्षिका सावित्रीबाई फुले की जयंती के अवसर पर बुराड़ी स्थित हरित विहार कॉलोनी में आज के समय में शिक्षकों के समक्ष चुनौतियाँ और संघर्ष के रास्ते शीर्षक से एक संवाद आयोजित किया गया। इसमें आस-पास रहने वाले दिल्ली सरकार व नगर निगम के स्कूलों के शिक्षकों ने हिस्सा लिया। कार्यक्रम की शुरुआत शिक्षा, व्यैक्तिक स्वतंत्रता व सामाजिक न्याय के क्षेत्र में बालिकाओं तथा समाज के वंचित-उत्पीड़ित वर्गों के पक्ष में सावित्रीबाई फुले के प्रेरणादायक संघर्ष को याद करके की गई।
इस चर्चा से निम्नलिखित बिंदु उभर कर आए -
1. सरकारी स्कूलों में पाठ्यचर्या कमज़ोर और हल्की होती जा रही है। जबकि
प्राइवेट स्कूलों में नवाचार के नाम पर इस तरह का खिलवाड़ नहीं हो रहा है,
ऐसे में पाठ्यचर्या संबंधी यह नीति शिक्षा में सुनियोजित असमानता व भेदभाव
की परिचायक है। इससे सरकारी स्कूलों के विद्यार्थी लगातार पिछड़ते जाएँगे।
सरकारी स्कूलों को देशभक्ति, हैप्पीनेस, ईएमसी जैसे अनर्गल विषयों या
कार्यक्रमों पर नहीं, बल्कि अकादमिक शिक्षा पर ज़ोर देना चाहिए, यही उनका
मुख्य काम है। इसी कड़ी में, शिक्षकों पर लादे जा रहे
ग़ैर-अकादमिक कार्य तथा नियमित रूप से बड़ी संख्या में शिक्षकों की
किसी-न-किसी कार्यक्रम के लिए स्कूल से बाहर 'ऑन ड्यूटी' तैनाती सरकारी
स्कूलों में पढ़ाई पर और भी बुरा असर डाल रही है। बहुत दफ़ा स्कूलों में
शिक्षकों को अपनी अकादमिक व पेशागत विशेषज्ञता के विपरीत जाकर अन्य विषय या
कोर्स पढ़ाने पढ़ रहे हैं। इससे न सिर्फ़ उनकी योग्यता के साथ अन्याय हो रहा
है, बल्कि विद्यार्थियों को भी छला जा रहा है।
रही-सही कसर वो
आदेश निकाल देते हैं जिनके अनुसार शिक्षकों को अपनी परिस्थितियों व समझदारी
से नहीं, बल्कि आनन-फ़ानन में और बने-बनाए प्रारूप के तहत कोर्स कवर कराना
होता है। इस येन-केन-प्रकारेण अवस्था में गुणवत्तापूर्ण शिक्षण तो नहीं हो
पाता है, मगर फ़र्ज़ी आँकड़े व निरर्थक रपटें ज़रूर तैयार होती रहती हैं।
शिक्षा नीति के तहत परीक्षाओं को हल्का करके, पास होने के लिए पैमानों को
ढीला करके और परिणामों की बाज़ीगरी से यह सुनिश्चित किया जा रहा है कि ख़ुद
वो लोग भी शिक्षा की सच्चाई न जान पाएँ जिनके बच्चों की पढ़ाई मटियामेट की
जा रही है।
2. सभी शिक्षकों ने एक स्वर
में स्कूलों में बढ़ रहे अतार्किक, संकीर्ण, नफ़रती व हिंसक माहौल के ख़तरे को
चिन्हित करते हुए इस बारे में घोर चिंता जताई। कई स्कूलों में
विद्यार्थियों द्वारा धार्मिक उन्माद के नारे लगाना आम होता जा रहा है। इस
बारे में कुछ शिक्षकों की मूक अथवा परोक्ष सहमति और प्रोत्साहन स्कूलों के
माहौल को तो ग़लत दिशा दे ही रहा है, ये शिक्षकों की उस निरपेक्ष भूमिका को
भी ध्वस्त कर रहा है जिसकी नैतिक ही नहीं बल्कि संवैधानिक ज़िम्मेदारी भी उन
पर है। दूसरी तरफ़, इस तरह की नारेबाज़ी विद्यार्थियों के बीच धार्मिक आधार
पर ध्रुवीकरण बढ़ा रही है। छोटी उम्र के विद्यार्थियों तक में जाति-धर्म पर
हिंसक भावना व संकुचित गर्व प्रेषित करने वाले गानों का चलन बढ़ता जा रहा
है। ऐसे विभाजनकारी, यहाँ तक कि विद्वेषपूर्ण, भाव आम भाषा तथा व्यवहार में
घुलते-मिलते जा रहे हैं। ज़ाहिर है कि इसका स्रोत मुख्य रूप से व्यापक समाज
एवं शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व के वो घिनौने विचार हैं जो हमारी कक्षाओं में
घुस रहे हैं, लेकिन शिक्षक भी इस दोष से बरी नहीं हो सकते क्योंकि ख़ुद
शिक्षकों के एक हिस्से में जातिगत/धार्मिक पहचान उजागर करने वाले प्रतीकों
को धारण करने का चलन निराशाजनक स्तर तक बढ़ गया है। अगर विद्यार्थियों की
साइकिलों पर उनकी जाति/धर्म का ऐलान अंकित है, तो कई शिक्षक भी अपनी
गाड़ियों पर अपनी जातिगत/धार्मिक पहचान के स्टिकर गर्व से लगाकर स्कूल आ रहे
हैं। अगर विद्यार्थी आपस में धार्मिक-जातिगत आधार पर यारी-दोस्ती कर रहे
हैं, समूह बना रहे हैं, वैमनस्य की भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, तो कई
शिक्षक भी इस तरह के संकीर्ण व संकुचित आचरण से मुक्त नहीं हैं।
ऐसे
उदाहरण भी साझा किए गए जिनमें संवेदनशील व न्यायप्रिय शिक्षकों ने
विद्यार्थियों के इस तरह के आचरण, व्यवहार, भाषा पर उन्हें समझाया और टोका।
हालाँकि, एक अफ़सोसनाक घटना में ऐसा करने पर उक्त विद्यार्थी के कहने पर
'बाहर के धार्मिक गुंडों' ने स्कूल में आकर टोकने वाले शिक्षक के साथ हिंसक
व्यवहार किया। इस प्रकरण में मीडिया की चुप्पी व स्वयं शिक्षकों तथा
शिक्षक संघ का आवाज़ न उठाना स्थिति की भयावहता बयान करता है और अधिक
चिंताजनक है।
इस बात को भी रेखांकित किया गया कि शिक्षा विभाग
ख़ुद ऐसे-ऐसे कार्यक्रम आयोजित करा रहा है जिनका स्वरूप व चरित्र धर्म-विशेष
से जुड़ा है तथा जो अकादमिक विषयों के सार्वभौमिक ज्ञान-संसार के उलट जाकर
ख़ास तरह की आस्था या कपोल-कल्पित नैतिक आग्रहों पर टिके हैं और उन्हें
बढ़ावा देते हैं। ऐसे कार्यक्रमों से राज्य की पंथनिरपेक्षता खंडित हो रही
है। कुल मिलाकर, स्कूलों में एक ऐसी संस्कृति निर्मित हो रही है जो
भ्रातृत्व, ज्ञान, तर्कशीलता व वैज्ञानिक चेतना के विरुद्ध है। इस माहौल
में शिक्षा संभव नहीं है और इसे सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले वंचित वर्गों
के बच्चों के ख़िलाफ़ एक षड्यंत्र की तरह देखा जा सकता है।
आगे का रास्ता
चूँकि
सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के लिए शिक्षा ही वो एकमात्र
सांस्थानिक सहारा है जिससे वो व उनके अभिभावक बेहतर भविष्य की उम्मीद करते
हैं, इसलिए उन्हें हक़ीक़त से रू-ब-रू कराकर आवाज़ उठाने का हौसला देना बेहद
ज़रूरी है। हमें विद्यार्थियों को कक्षा में सवाल पूछने और स्कूलों में कमी
के संदर्भ में सत्ता की शिकायत करने के लिए प्रेरित करना होगा। जब उनके और
उनके अभिभावकों के सवालों का यह दायरा बढ़कर प्रशासन और सरकार तक पहुँचेगा,
सावित्रीबाई फुले की राह में हमारा शिक्षण तब ही सार्थक होगा।
प्रगतिशील
शिक्षक साथियों को स्कूलों में, अड़ोस-पड़ोस में और सामाजिक-सांस्कृतिक
अवसरों पर अधिक सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। ऐसे मौक़ों पर अध्ययनरत तैयारी,
संयम व आत्मविश्वास के साथ मंच पर अपनी बात रखनी चाहिए ताकि ग़लत विचारों व
पूर्वाग्रहों का प्रतिकार और उदार तथा विवेकपूर्ण बातों का प्रचार किया जा
सके। इसके लिए पर्चों व सोशल मीडिया संदेशों के अलावा फ़िल्मों, वैज्ञानिक
प्रयोगों तथा भ्रमण जैसे अन्य माध्यम भी आज़माने चाहिए। हमारे अपने देश में
विविधता, उदारता, बंधुत्व और सामाजिक न्याय की ऐसी गौरवशाली विरासत की कमी
नहीं है जिसे हम स्कूलों में तथा विभिन्न अवसरों पर बेहतरीन उदाहरण के रूप
में पेश कर सकते हैं। हमें अपने अध्ययन की कमी, संकोच और निष्क्रियता को
दूर करना होगा।
आज हम शिक्षक ख़ुद को असहाय, शक्तिहीन पाते हैं।
इस लोकतंत्र में हमें सार्वजनिक रूप से लिखने और अपनी बात कहने का अधिकार
नहीं है। यूनियन बनाकर अपने हक़ों के लिए लड़ने का जो अधिकार मज़दूर आंदोलन ने
लंबे संघर्ष से प्राप्त किया गया था, आज वो भी ख़तरे में दिख रहा है।
व्यापक समाज में भी एक लोकतांत्रिक लकवे की स्थिति पसरती जा रही है। इस
संदर्भ में शिक्षक यूनियन और शिक्षक वर्ग ख़ुद को पहले-से ज़्यादा कमज़ोर
महसूस कर रहे हैं। लेकिन सच तो यह भी है कि कसरत और काम से ही कमज़ोर
मांसपेशियाँ ताक़त हासिल करती हैं। और सच यह भी है कि दमन करने वाला भी
हमारी ऊँची आवाज़, एकजुटता और हरकत से डरता है। चाहे हम कितनी भी छोटी
संख्या या कम ताक़त में क्यों न हों, हमें अपने छोटे-छोटे प्रयास जारी रखने
होंगे और एक-दूसरे के साथ आकर अपना मनोबल बढ़ाना होगा। सावित्रीबाई फुले के
जीवनपर्यन्त संघर्ष की यह रौशनी हमारे हौसले बुलंद करती रहेगी।
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