निःशब्दता
हमारे शिक्षा संस्थानों में अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस इस बार भी बिना आवाज़ किए चला गया। इसमें हमारी कोई भूमिका नहीं है। शायद इसलिए क्योंकि 'ऊपर' से कोई आदेश नहीं आया और बिना आदेश कुछ करना अब हम भूल चुके हैं। चाहे भाषा का मुद्दा शिक्षा से अभिन्न रूप से गुंथा हुआ हो; चाहे मातृभाषा को लेकर शिक्षा में कितनी ही बहसें, प्रावधान, नियम, उसूल हों; चाहे इस विषय में हमारे अपने अनुभव व प्रश्न कितने ही रोचक तथा विचारोत्तेजक हों, फिर भी हम मौन रहने के लिए मजबूर हैं। वसुधैव कुटुंबकम के आदर्श वचन का जाप हो या अलग-अलग भाषाई पृष्ठभूमियों के देशी-विदेशी विद्यार्थियों की मौजूदगी, इस मामले में शिक्षा संस्थानों में दोनों ही संदर्भ हमें प्रेरित करने में नाकाम रहे हैं। वैसे, आदेशों का न आना भी अच्छा ही है, वर्ना हम जानते हैं कि महज़ उनके पालन में आयोजित चर्चाएँ व कार्यक्रम किन हदों में बँधे होते हैं। उदाहरण के लिए उन प्रदर्शन पटों (डिस्प्ले बोर्ड्स) को ही ले लीजिए जिन्हें हम निर्देशों/आदेशों से प्रेरित होकर साफ़-सुथरी सामग्री से सुसज्जित करते हैं। सवाल खड़े करना तो दूर, हमारी ये मेहनत ख़ुद हमारी राय भी व्यक्त नहीं करती, क्योंकि सारी ऊर्जा तो उस निर्देश के पालन में लग जाती है जिसके निर्णय में हमारी कोई भूमिका नहीं होती है।
सरसरी नज़र से इतिहास
21 फ़रवरी को इस दिवस के रूप में मनाने के पीछे आज के बांग्लादेश के आंदोलनकारी विद्यार्थियों की वर्ष 1952 में दी गई शहादत का इतिहास है। पाकिस्तान के अस्तित्व में आने के बाद पश्चिमी हिस्से के वर्चस्वशाली वर्गों ने राजकीय स्तर पर उर्दू को बांग्ला व उसके बोलने वालों की अस्मिता पर तरजीह देने की नीति अपनाई। 'एक देश, एक भाषा' के सूत्र के तहत उनका मानना था कि उस देश में केवल एक भाषा को महत्त्व मिलना चाहिए - उर्दू। इसमें विचित्र बात सिर्फ़ यही नहीं है कि उस वक़्त पाकिस्तान में बहुसंख्यक आबादी बांग्लाभाषी थी, बल्कि यह भी है कि ख़ुद पश्चिमी पाकिस्तान के अधिकतर लोगों की मातृभाषा उर्दू नहीं, बल्कि पंजाबी थी (और शायद आज भी है)। ज़ाहिर है कि इस असंगत नीति के पीछे उस ग्रंथि का हाथ था जो एक भाषा (यहाँ उर्दू) को एक धर्म (यहाँ इस्लाम, या भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों) व एक देश (यहाँ पाकिस्तान) से अनिवार्य रूप से संबद्ध करके देखती है। हालाँकि, 1952 में ढाका विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों ने भाषा के सवाल पर आंदोलन में नेतृत्वकारी हिस्सा लेते हुए जिस बहादुरी से धारा 144 (कितनी जानी-पहचानी है!) और प्रशासन के आदेशों के ख़िलाफ़ जाकर विरोध-प्रदर्शन किया तथा पुलिस की गोलियों का सामना किया, उसका एक परिणाम यह भी हुआ कि 1954 में पाकिस्तान की संविधान सभा को बांग्ला को राजकीय दर्जा देने का प्रस्ताव पारित करने पर मजबूर होना पड़ा। फिर 1956 में बांग्ला को दूसरी राजकीय भाषा के तौर पर पहचान मिली। इसके बाद भी शासन के स्तर पर विभिन्न रूपों में बांग्ला और उसके बोलने वालों के प्रति भाषाई-सांस्कृतिक भेदभाव जारी रहा। एक भाषा को लोगों पर थोपने का नतीजा अंततः पाकिस्तान के बँटवारे के रूप में सामने आया। इतिहास में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है।
यह हमारी ख़ुशक़िस्मती है कि लोकतंत्र का यह पाठ भारत के संविधान निर्माताओं ने समय रहते समझ लिया था। इसीलिए संविधान में हिंदी के साथ इंग्लिश को राजभाषा का दर्जा दिया गया तथा आठवीं अनुसूची को, बिना लागलपेट या अलंकार के, 'भाषाएँ' शीर्षक दिया गया। समझदारी दिखाते हुए किसी एक भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने का आग्रह छोड़ दिया गया। ऐसा नहीं है कि भारत में शासक वर्गों ने भाषा को लेकर हमेशा उदार व विवेकपूर्ण रवैया ही अपनाया। विभिन्न कालों में, देश के विभिन्न हिस्सों में भाषा से जुड़ी माँगों को लेकर सरकारों की नीतियों के प्रति असंतोष-रोष को व्यक्त करते आंदोलन होते रहे हैं और आवाज़ें उठती रही हैं, जिसके चलते भाषाई आधार पर राज्यों का निर्माण हुआ है और आठवीं अनुसूची में भाषाएँ जुड़ती रही हैं। भाषा आंदोलनों में एक तरफ वंचित समूहों की शिक्षा और पहचान की चिंताएँ शामिल रही हैं। दूसरी तरफ, ऐसा भी नहीं है कि भाषा से जुड़ा हर आंदोलन उदार व लोकतांत्रिक हो। जैसे कुछ आंदोलनों में भाषाई अल्पसंख्यकों पर हिंसा भी देखी गयी है।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 1999 में यूनेस्को के महा-सम्मेलन में बांग्लादेश के इस आशय के प्रस्ताव को मंज़ूरी दी गई और फिर 2000 से 21 फ़रवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा ने 2002 में इस प्रस्ताव का स्वागत करते हुए एक प्रस्ताव अपनाया। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार: International days and weeks are occasions to educate the public on issues of concern, to mobilize political will and resources to address global problems, and to celebrate and reinforce achievements of humanity. The existence of international days predates the establishment of the United Nations, but the UN has embraced them as a powerful advocacy tool. इस विशिष्ट दिवस का उद्देश्य भी महज़ अपनी मातृभाषा की सेवा करना नहीं है। उसके लिए किसी अंतर्राष्ट्रीय दिवस की क्या ज़रूरत है, वो तो हम सहज रूप से ख़ुद तथा राजकीय शक्ति के माध्यम से वैसे भी कर सकते हैं; और, अकसर मर्यादा की हदें लांघकर, करते भी हैं। इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दर्ज करने व मनाने का उद्देश्य है संस्कृतियों तथा भाषाओं के बीच में सहनशीलता और परस्पर सम्मान के वो भाव प्रेरित करना जो शांति क़ायम करने के लिए ज़रूरी हैं। ज़ाहिर है कि ऐसा केवल अपनी भाषा के प्रति स्नेह से नहीं हो सकता है, बल्कि इसके लिए भाषा मात्र और भाषाई विविधता के प्रति एक सहज अपनेपन के भाव की दरकार है।
18-19वीं शताब्दी के मशहूर जर्मन चिंतक-दार्शनिक गेटे के अनुसार अपनी भाषा को समझने के लिए अन्य भाषाओं का आना ज़रूरी है। भारत की भाषाई विविधता और बड़ी संख्या में लोगों का बहुभाषी होना इस संदर्भ में एक सुयोग है। केवल इंग्लिश व हिंदी के संदर्भ में यह स्थिति कुछ हद तक शिक्षा व्यवस्था की देन है, अन्यथा यह आर्थिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान, राज्यों व राष्ट्रों की सीमाओं पर सह-अस्तित्व, घुमक्क्ड़ी/विस्थापन/पलायन आदि परिघटनाओं से निर्मित हुई है। दूसरी तरफ़, दुनियाभर की तरह भारत में भी भाषाई संकट की स्थिति बनी हुई है। संयुक्त राष्ट्र संघ के दस्तावेज़ों के अनुसार दुनिया की लगभग 7,000 भाषाओं में से तक़रीबन आधी संकटग्रस्त अवस्था में हैं। इनमें से 1,000 से कम को सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था में जगह मिली है। हर दो हफ़्तों में औसतन एक भाषा विलुप्त हो रही है। भारत के संदर्भ में लगभग 1,700 भाषाएँ (122 'प्रमुख' भाषाओं सहित, जनगणना 2001) बोली जाती हैं जिनमें से, अलग-अलग अनुमानों के अनुसार, 100-200 के बोलने वाले लोगों की संख्या 10,000 से अधिक है। शिक्षा मंत्रालय के अनुसार लगभग 70 भाषाएँ शिक्षा व्यवस्था में जगह पाती हैं।
कुछ सनातन शैक्षिक प्रश्न
शिक्षा के क्षेत्र में काम करने के नाते हमारे लिए भाषा का सवाल मुख्यतः तीन (परस्पर जुड़े हुए) आयामों को संबोधित करता है -
i. शिक्षाशास्त्र : कौन-सी भाषा किस स्तर पर माध्यम हो व कौन-सी किस स्तर पर विषय के रूप में पढ़ाई जाए?
ii. पहचान : एकल भाषी, बहुभाषी, सहज, विद्वेषी आदि
iii. सत्ता : बाज़ार/नौकरी, राजकीय कामकाज, क़ानून आदि
शिक्षा व्यवस्था के सामने भाषा संबंधी कुछ सनातन प्रश्नों रहे हैं। सैद्धांतिक स्पष्टता की माँग करते हुए भी ये सवाल उलझनों से भरे हुए हैं -
- अगर माध्यम के रूप में मातृभाषा उत्तम शिक्षाशास्त्रीय उसूल है, तो यह वरदान आख़िर केवल 'साधारण' सार्वजनिक स्कूलों (वंचित-शोषित वर्गों के बच्चों) को ही क्यों मिले? निजी स्कूलों को इससे वंचित क्यों रखा जाए? सही या ग़लत, कई दलित चिंतक मैकॉले या इंग्लिश को एक अभिशाप के रूप में नहीं, बल्कि वर्ण-व्यवस्था की जकड़न के संदर्भ में दमित वर्गों की मुक्ति व गतिशीलता के लिए अपरिहार्य साधन के रूप में देखने की वकालत करते हैं।
- क्या माता-पिता को अपने बच्चों की शिक्षा की माध्यम भाषा को चुनने का अधिकार होना चाहिए या यह एक विशेषज्ञता (शिक्षाशास्त्र) का मुद्दा है? 2014 में जब सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटका सरकार के कन्नड़ को माध्यम के रूप में अनिवार्य करने के निर्णय के विरुद्ध फ़ैसला सुनाया तो उसने इसे अभिभावकों के अधिकारक्षेत्र का विषय बताया। ज़ाहिर है कि सरकार के इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ कुछ निजी स्कूल व अभिभावक अदालत गए थे। चयन के अधिकार पर टिकी उनकी प्रमुख दलील यह थी कि सरकार यह तय नहीं कर सकती कि अमुक बच्चे की मातृभाषा क्या है। यानी, जिसे सरकार कन्नड़ भाषी बताकर कन्नड़ को माध्यम के रूप में ला रही है, वो ख़ुद (उसका अभिभावक) कह रहा/रही है कि वो तो अंग्रेज़ीभाषी है (या कन्नड़भाषी तो नहीं है)! ऐसे में सरकार के सामने एक विकल्प यह था कि वो मातृभाषा-माध्यम के शिक्षाशास्त्रीय उसूल को पीछे हटाकर राज्य के सांस्कृतिक संरक्षण का उद्देश्य पेश करती।
उधर जब 2019-20 में आंध्र-प्रदेश सरकार ने अपने सभी स्कूलों को इंग्लिश मीडियम करने का फ़ैसला किया तो इसके विरोध में जो कार्यकर्ता व संगठन अदालत गए उन्होंने शिक्षाशास्त्रीय दलील पेश की, यानी इंग्लिश मीडियम मातृभाषा सिद्धांत का उल्लंघन है। हाई कोर्ट ने शिक्षाशास्त्रीय उसूल को वैध ठहराते हुए राज्य सरकार के आदेश को निरस्त कर दिया। हालाँकि यह मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है और राज्य सरकार को कोई तात्कालिक राहत नहीं मिली है। ज़मीनी स्थिति के बारे में जानकारी जुटाने की ज़रूरत है।
इसी कड़ी में यह भी रोचक है कि तमाम नीतियों, दस्तावेज़ों और क़ानूनों के बावजूद 'तब से लेकर आज तक' चाहे वो केंद्र सरकार के अधीन चलने वाले ख़ास स्कूल हों या फिर विभिन्न राज्यों में खुल रहे प्रचारित विशिष्ट स्कूल हों, सरकारों ने असल में 'आम के लिए मातृभाषा' और 'ख़ास के लिए इंग्लिश' की नीति लागू की है। और-तो-और, कन्नड़ की नैतिक दुहाई देने वाली कर्नाटका सरकार भी इसका अपवाद नहीं थी! एक तरफ़ उत्तर-प्रदेश सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति के आने के एक साल के अंदर अपने 15,000 स्कूलों को इंग्लिश मीडियम में बदलने की 'आकर्षक' घोषणा की, तो दूसरी तरफ़ दिल्ली में सभी दलों के शासनकाल में न सिर्फ़ इंग्लिश मीडियम को विशिष्ट स्कूलों के लिए लागू किया गया है, बल्कि अन्य 'साधारण' स्कूलों में भी इंग्लिश मीडियम के ख़ास सैक्शंस खड़े करने की नीति निरपेक्ष रूप से लागू रही है।
इस तमाम बहस-मुबाहिसे का उद्देश्य इंग्लिश को 'विदेशी' या 'अग्रहणीय' स्थापित करना नहीं है। इसके विपरीत, शायद हमारी जटिल परिस्थितियाँ एक समझौते की माँग करती हैं जो मातृभाषा को श्रेष्ठ व उचित शिक्षाशास्त्रीय उसूल के रूप में तो दर्ज करता है, मगर साथ ही, अन्य राजनीतिक कारणों से, इंग्लिश को माध्यम के रूप में अपनाने को मजबूर है। भारतीय विविधता के संदर्भ में ये बेहद विवेकपूर्ण तथा संभवतः समझौतावादी समाधान की ओर इशारा करते हैं। 'न हमारी, न तुम्हारी' वाला कुछ ऐसा ही समझौता जैसा कि राजभाषा के विषय में इंग्लिश को लागू करते रहकर किया गया है।
हम, शिक्षकों की ज़िम्मेदारी
शिक्षकों के सामने ऐसे अनेक मौके होते हैं जब हम भाषा के सवाल पर न्यायोचित व्यवहार कर सकते हैं। जैसे, हम स्कूलों में बच्चों के प्रवेश फ़ॉर्म भरते हुए उनके माता-पिता से यह पूछें कि उनके बच्चे की मातृभाषा क्या है, नाकि, जैसा कि चलन है, 'नाम-पता देखकर' ख़ुद ही हिंदी/उर्दू/पंजाबी भर दें। उनके आदतन 'हिंदी', 'उर्दू' कहने पर हम, अधिक आश्वस्त होने के लिए (और उन्हें सूचित करने के लिए भी) उनसे यह पूछ सकते हैं कि उनके घर पर, उदाहरण के लिए, मैथिली, भोजपुरी, गढ़वाली, कुमाउँनी, मगही, अवधि आदि में से कौन-सी भाषा बोली जाती है। (हालाँकि यह भी सच है कि नियुक्तियों की कमी व ग़ैर-शैक्षणिक दायित्वों की अधिकता के चलते फ़ॉर्म भरने जैसे इन कामों में शिक्षकों पर अकसर काम व समय का इतना दबाव होता है कि सभी मर्यादाओं व सिद्धांतों को बरतना मुश्किल हो जाता है।)
यही सवाल तब भी खड़ा होता है जब हम छठी कक्षा में प्रवेश ले रहे विद्यार्थियों के फ़ॉर्म्स में तीसरी भाषा के विकल्प के तौर पर उनकी रुचि को दर्ज करते हैं। भले ही स्कूल में माध्यम भाषा या विषय के रूप में भाषाई विकल्प पूर्वनिर्धारित और सीमित होते हैं, फिर भी हमें याद रखना होगा कि तथ्यों को दर्ज करना भी एक अकादमिक-शैक्षणिक ज़िम्मेदारी है।
तो क्या हुआ अगर स्कूल में मैथिली भाषा को जगह नहीं मिली, कम-से-कम हमने तो इस तथ्य को दर्ज करके अपने विद्यार्थियों, इतिहास व शिक्षण के प्रति अपना फ़र्ज़ निभाया कि स्कूल के कितने विद्यार्थियों की मातृभाषा मैथिली थी। स्कूलों में हम आने वाले समय के लिए इतिहास के दस्तावेज़ भी रच रहे होते हैं। यही जवाबदेही हम शिक्षकों की जनगणना जैसे दायित्वों में लोगों की पहचान से जुड़े प्राथमिक तथ्यों को उनसे पूछकर और पूरी ईमानदारी से भरते हुए निभाते हैं।
इसके अलावा, शिक्षकों के एक वर्ग में भाषा के कुछ तथ्यों के प्रति अफ़सोसनाक अनभिज्ञता दिखाई देती है। जैसे - हिंदी को हमारी राष्ट्रभाषा मानना और विद्यार्थियों को भी यही बताना जबकि हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं राजकीय भाषा है; भाषा और धर्म के बीच सीधा व अनिवार्य संबंध खींचना; भाषा व बोली में (श्रेष्ठता के आधार पर) भेद करना; भाषा और लिपि के बीच सीधा व अनिवार्य संबंध खींचना; तथाकथित शुद्धता को भाषा की श्रेष्ठता का पैमाना मानना व बनाना; (युवा व नव-विकसित) हिंदी को अन्य (पुरानी) भाषाओं की बड़ी बहन मानना-बताना; भाषाई खिचड़ीपन की हक़ीक़त को नकारना आदि। ऐसी तमाम ग़लतफ़हमियों को दूर करने की सख़्त ज़रूरत है। भाषा का समाजशास्त्र भी है, जो हमें बताता है कि बहिष्करण केवल इंग्लिश की औपनिवेशिक सत्ता के सहारे ही नहीं, बल्कि हिंदी/संस्कृत/उर्दू तथा बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सभी भाषाओं के सहारे एक तरफ़ राज और दूसरी तरफ़ बहिष्करण किया गया है।
लगभग सभी भाषाओं के भीतर विविधता रही है, आंतरिक द्वंद्व रहे हैं। हमारी इन्हीं अपनी प्रिय भाषाओं में जातिसूचक व महिला-विरोधी शब्दावली, गालियों, मुहावरों की भरमार है। ज़रूरत अपनी भाषाओं से 'अन्य' भाषाओं के, विदेशी शब्द बाहर करने की नहीं है, ज़रूरत है सभी भाषाओं से इन मानव-विरोधी तत्वों की शिनाख़्त करने की, इनका त्याग करने की।
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