लोक शिक्षक मंच 18वीं लोकसभा के चुनावों में हिस्सा लेने वाली राजनीतिक शक्तियों के समक्ष वर्तमान सार्वजनिक स्कूली शिक्षा व्यवस्था से जुड़े निम्नलिखित तथ्य और संबंधित माँगें पेश करता है। इस माँगपत्र का उद्देश्य आमजन के अलावा ख़ासतौर से उन लोगों की स्कूली शिक्षा से जुड़ी चिंताओं तथा हितों को आवाज़ देना है जो सार्वजनिक स्कूलों में काम कर रहे हैं व जिनके बच्चे इन स्कूलों में पढ़ रहे हैं। हमारा मक़सद पूरी तरह से राज्य के ख़र्चे पर चलने वाली, मज़बूत व समतामूलक समान स्कूल व्यवस्था के विचार एवं आंदोलन को आगे बढ़ाना है।
वज़ीफ़े एवं अन्य अधिकारपूर्ण सहायताएँ
अवलोकन व चिंताएँ
1. प्रारंभिक कक्षाओं में सामाजिक न्याय पर आधारित वज़ीफ़ों का पूरी तरह से बंद किया जाना वंचित तबकों से आने वाले विद्यार्थियों के साथ बहुत बड़ा धोखा है। यह एक विडंबना है कि सरकार ने इस नाइंसाफ़ी को यह कहकर उचित ठहराने की कोशिश की क्योंकि शिक्षा अधिकार अधिनियम (2009) 8वीं कक्षा तक मुफ़्त शिक्षा सुनिश्चित कर रहा है इसलिए किसी 'अतिरिक्त' सहायता की कोई ज़रूरत नहीं रह जाती है! इस ख़ात्मे के समानांतर पीएम यंग अचीवर्स स्कॉलरशिप जैसी जिन 'मेरिट/प्रतियोगिता-आधारित' स्कीमों पर ज़ोर दिया जा रहा है, वो ख़ुद पात्रों की सीमित संख्या तथा, अन्य वज़ीफ़ों की तरह, आवेदन की जटिल प्रक्रियाओं तथा शर्तों से ग्रसित हैं।
2. विभिन्न वज़ीफ़ों के लिए लगाई जाने वाली आय प्रमाण-पत्र की शर्तें मेहनतकश वर्गों के हालातों के प्रतिकूल व बहिष्करणवादी हैं। साथ ही, ये लोगों को घोर भ्रष्टाचार के आगे अपनी क़ीमती कमाई व समय की भेंट चढ़ाने को मजबूर करती हैं।
3. विद्यार्थियों के लिए वज़ीफ़ों की आवेदन प्रक्रिया को ज़बरदस्ती व अनिवार्य रूप से ऑनलाइन बनाने से आवेदन जटिल हुआ है और ख़र्च बढ़ा है। इसका सीधा नतीजा आवेदनों की घटती संख्या के रूप में सामने आया है। चूँकि एक लोकतंत्र के रहते हुए भी हम भूल जाते हैं कि सरकारों को जनता के प्रति जवाबदेह होना चाहिए, इसलिए यह रेखांकित करने की ज़रूरत है कि विद्यार्थियों या उनके परिवारों ने सरकार से वज़ीफ़ों की प्रक्रिया को अनिवार्यतः ऑनलाइन करने की माँग तो कभी की ही नहीं थी!
4. वंचित तबकों का एक बड़ा वर्ग जाति प्रमाण-पत्र की शर्त पूरी नहीं कर पाता है। जिनके पास ये दस्तावेज़ होते भी हैं, वो अपने मूल स्थान से पलायन करने के चलते इन्हें अन्य राज्यों (दिल्ली) में इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं। ऐसे में वंचित वर्गों से आने वाले अधिसंख्य स्कूली विद्यार्थी वज़ीफ़ों से महरूम कर दिए जाते हैं।
5. वज़ीफ़ों (व अन्य अधिकारपूर्ण सहायताओं) के लिए विद्यार्थियों के आधार-लिंक्ड खातों की शर्त थोपना सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दाख़िल किए गए हलफ़नामों, अदालती आदेशों, संसद में दिए गए बयानों तथा क़ानून का उल्लंघन है। इससे बहुत-से ऐसे विद्यार्थियों के हक़ मारे जा रहे हैं जिनके माता-पिता, विभिन्न कारणों से बच्चों के खाते नहीं खुलवा पाते हैं। इनमें बैंकों की हतोत्साहित करने वाली नीतियाँ व प्रक्रियाएँ, इस प्रक्रिया में लगने वाली अतिरिक्त (व अनिश्चित) क़ीमत शामिल है। इसका एक नुकसान तो ये ही होता है कि खाता खुलवाने में हुई देरी के चलते उन्हें बीते सत्र/सत्रों की राशि नहीं मिलती है। मगर इससे पहले-ही एक अपूरणीय नुकसान ये हो जाता है कि 100% खातों को लेकर प्रशासनिक दबाव के चलते अकसर स्कूल, क़ानून के विरुद्ध जाकर, बिना खाते के बच्चों को दाख़िला देने से ही मना कर देते हैं! राज्य की इस नीति की ज़िद का ख़ामियाज़ा बच्चों को एक तरफ़ वज़ीफ़ों और पढ़ाई से वंचित होकर तथा दूसरी तरफ़ जेब से पैसे ख़र्च करके चुकाना पड़ रहा है। आख़िर ऐसे ही खाताधारकों से तो, जो न्यूनतम राशि जमा रखने में असमर्थ थे, बैंकों ने पाँच वर्षों में 21,000 करोड़ रुपये कमाए हैं (https://www.businesstoday.in/industry/banks/story/psbs-top-private-banks-collected-over-rs-35000-crore-in-penalties-since-2018-393528-2023-08-10)। मतलब, खातों के माध्यम से डीबीटी की नीति शायद विद्यार्थियों या उनके परिवारों को लाभ पहुँचाने के लिए कम और वित्तीय शक्तियों को लाभ देने के लिए ज़्यादा लाई गई है। डीबीटी के नाम पर आज विद्यार्थी व उनके माता-पिता आधार केंद्रों, बैंकों के ग़ैर-जवाबदेह ग्राहक सेवा केंद्रों व बैंकों के अंदर-बाहर लगी लंबी, नियमित तथा अनिश्चित परिणाम वाली लाइनों में घंटों बर्बाद करने और पैसा बहाने को मजबूर कर दिए गए हैं। कई ग्राहक सेवा केंद्रों में तमाम छोटे-से-छोटे काम के लिए अवैध शुल्क वसूला जाना आम है। इस पूरी प्रक्रिया का एक विडंबनापूर्ण नतीजा यह है कि अब अभिभावकों को अपने बच्चों के वज़ीफ़ों के लिए, जोकि मुफ़्त व बिना ख़र्चा किए मिलने चाहिए, अब अपना पैसा और वक़्त लगाना पड़ता है!
6. वज़ीफ़ों के प्रति सरकार की बेरहम व निर्लज्ज नीति का आलम ये है 2022-23 में तो विद्यार्थियों से आवेदन करवाने के बाद, माफ़ी तो दूर, बिना किसी जवाबदेही के, अल्पसंख्यक वर्गों के लिए निर्धारित वज़ीफ़े बंद करने का तुग़लकी ऐलान कर दिया गया। इन विद्यार्थियों के परिवारों से विश्वासघात करके उनके पैसों, श्रम व समय को बर्बाद किया गया।
7. स्कूलों में वज़ीफ़ों की नीति आज बड़े स्तर पर इंकार, प्रताड़ना, अन्याय व शोषण का शिकार है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने इस नाइंसाफ़ी को और तेज़ किया है। इस अलोकतांत्रिक व्यवस्था में, अपारदर्शिता व ग़ैर-जवाबदेही का नमूना पेश करते हुए, न किसी डाटा या सूचना को सार्वजनिक किया जाता है और न ही इस संबंध में कोई शिकायत निवारण तंत्र खड़ा किया गया है।
संबद्ध माँगें
1. वज़ीफ़ों व तमाम अन्य अधिकारपूर्ण सहायताओं के लिए बजट आवंटन विद्यार्थियों की कुल संख्या, विद्यार्थियों के विभिन्न वर्गों की संख्या व महँगाई दर के हिसाब से बढ़ाया जाए।
2. वज़ीफ़ों के आवेदन व वितरण प्रक्रिया को स्कूली स्तर पर विकेंद्रीकृत किया जाए।
3. विद्यार्थियों व उनके अभिभावकों को इन राशियों को हाथ में नकद प्राप्त करने अथवा खाते में प्राप्त करने का विकल्प दिया जाये। सभी स्कूली विद्यार्थियों को अपनी राशि अपने माता-पिता के खातों में प्राप्त करने का विकल्प दिया जाए।
4. वर्दी की तरह की सभी अधिकारपूर्ण सहायता नकद में न होकर ठोस वस्तु के रूप में देय होनी चाहिए।
5. सामाजिक न्याय के उसूलों के तहत दी जाने वाली छात्रवृत्तियों को संरक्षित किया जाए तथा इनमें ज़रूरत के अनुसार बढ़ोतरी की जाए। इसके लिए जाति प्रमाण-पत्रों की शर्तों को लचीला बनाया जाए।
6. पिछले वर्षों में दी व छीनी गईं तमाम छात्रवृत्तियों का सामाजिक ऑडिट किया जाए। इसकी रपट सार्वजनिक करके ख़ामियों को दूर किया जाए तथा उन सभी विद्यार्थियों को पिछले वर्षों की बकाया राशि प्रदान की जाए जिन्हें तकनीकी अथवा नीतिगत कारणों से वंचित कर दिया गया था।
पाठ्यचर्या और शिक्षणशास्त्र
अवलोकन और चिंताएँ
1. पाठ्यचर्या तेज़ी से केंद्रीकृत और सूक्ष्म रूप से नियंत्रित होती जा रही है|
2. पाठ्यचर्या को लचर बनाते हुए टुकड़ों में तोड़ा जा रहा है तथा स्कूलों व शिक्षकों को आकस्मिक और तुरत-फुरत निर्देशों के अनुपालन के लिए बाध्य किया जा रहा है I
3. शिक्षकों व विद्यार्थियों पर लगातार विभिन्न मंत्रालयों की ओर से तमाम तरह की प्रतियोगिताओं, आयोजनों (जैसे बनावटी शपथें) व अकादमिक रूप से हल्के कार्यक्रमों (जैसे परीक्षा पर चर्चा) में अनिवार्य उपस्थिति को थोपा जा रहा हैI ऐसे हस्तक्षेप बच्चों की कक्षागत पढ़ाई के लिए निर्धारित समय का हनन करते हैं और अन्य संसाधनों को बर्बाद कर रहे हैंI
4. पाठ्यचर्या से सम्बन्धित लगभग सभी आयामों, जैसे समय-सारणी, पाठ-योजना, वर्कशीट, तथा कक्षागत गतिविधियों, जैसे बच्चों की बैठक व्यवस्था, कक्षा प्रबंधन, अधिगम स्तर के आधार पर एक ही क्लास के बच्चों का समूहों में विभाजन, आंकलन आदि को केंद्रीकृत कर दिया गया हैI इस पूरी प्रक्रिया में शिक्षकों को निर्णय लेने से दूर रखा गया हैI
5. स्कूलों और शिक्षकों के लिए अपनी शैक्षणिक चिंताओं और ज़रूरतों के अनुसार चीज़ों को व्यवस्थित करने और खुद कार्य करने की सम्भावनाओं के कम होते जाने से उनकी पहचान एवं एजेंसी धूमिल हो रही हैI खेल, वाद-विवाद, पर्यावरण विज्ञान आदि स्कूल और शिक्षण के अभिन्न तत्व नौकरशाही के आदेशों के कारण लुप्त होते जा रहे हैंI इन सब बातों ने शिक्षकों को अपनी कक्षाओं में अजनबी बना दिया है और अपने पेशे के साथ निभाई जाने वाली जिम्मेदारी से दूर कर दिया हैI शिक्षकों और स्कूलों का अपने काम पर से नियन्त्रण ख़त्म होता जा रहा हैI बड़ी संख्या में शिक्षक और स्कूल प्रमुख अपने आप को असहाय पा रहे हैं तथा ‘बर्नआउट’ का शिकार हो रहे हैंI विडंबना यह है कि इन परिस्थितियों में स्कूल और शिक्षक एससीईआरटी और एनसीईआरटी जैसे निकायों द्वारा उपलब्ध कराए जा रहे भौतिक संसाधनों का सार्थक और रचनात्मक उपयोग करने की स्थिति में भी नहीं हैंI केन्द्रकरण के साए में हमारे स्कूल लगातार बौद्धिक रूप से मंद होने की ओर बढ़ रहे हैंI
6. तुच्छ एवं संकीर्ण राजनीति से प्रेरित होकर पाठ्यचर्या से किसी ज्ञान/तथ्य विशेष को हटाना और जोड़ना विद्यार्थियों में वैज्ञानिक स्वभाव को विकसित करने के व्यापक शैक्षिक उद्देश्य पर एक हमला हैI इन उदाहरणों में विकास का सिद्धांत, औद्योगिक क्रांति, विभाजन को समझना आदि हिस्सों का विलोपन शामिल हैI
7. व्यावसायिक पाठ्यक्रमों का चरित्र और उन्हें सार्वजानिक स्कूलों में लागू करना कामकाजी वर्गों और ऐतिहासिक रूप से हाशिये पर पड़े समूहों के विद्यार्थियों के हितों के विरुद्ध हैI ये पाठ्यक्रम ना केवल शिक्षा-विरोधी और श्रमिक-विरोधी हैं, बल्कि वास्तव में कार्य-आधारित शिक्षा को जिस तरह से जमीन पर व्यवस्थित किया जाना चाहिए, उसके बिलकुल विपरीत हैंI काम में बराबरी, स्वतंत्रता और गरिमा के उसूलों का सम्मान करके विद्यार्थियों को तैयार करने के बजाय वोकेशनल कोर्सों की इस नीति का उद्देश्य पहले से ही वंचित वर्गों को उच्च-शिक्षा की परिधि से बाहर धकेलना और उन्हें औद्योगिक एवं वाणिज्यिक आकाओं की मुनाफाखोरी के लिए सस्ते व आज्ञाकारी श्रम में बदलना हैI
स्कूलों में काम करने की परिस्थितियाँ - प्रौद्योगिकी, डिजिटलीकरण, डेटा और संसाधन
अवलोकन और चिंताएँ
1. अधिकारों और न्याय के मुद्दों को दरकिनार करते हुए और असली ज़रूरतों को जांचे बिना, स्कूल के लगभग सभी पहलुओं को डिजिटल किया जा रहा है। इनमें दिन-प्रतिदिन का प्रशासन, शिक्षण, प्रवेश और छात्रवृत्ति के लिए आवेदन प्रक्रियाएं, पाठ्यचर्या/सह-पाठ्यचर्या संबंधी गतिविधियों की रिपोर्ट, निरंतर और अकसर दोहराव वाली डेटा-एंट्री आदि शामिल हैं। इस डिजिटल, डेटा आपूर्ति के अधिकांश हिस्से का औचित्य समझ से परे तथा गैर-उत्पादक है। इससे न केवल शिक्षकों के स्वास्थ्य और व्यक्तिगत समय और संसाधनों पर भारी नकारात्मक असर पड़ता है, बल्कि पढ़ाने के लिए उपलब्ध समय का भी भारी नुकसान होता है। समय की बचत और दक्षता का जो दावा शुरु में डिजिटल कामकाज के पक्ष में किया गया था, वह झूठा साबित हुआ है। शिक्षक ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं; उनका काम दोगुनी-चौगुनी रफ़्तार से बढ़ता जा रहा है जबकि इन कार्यों के लिए अतिरिक्त हाथ या संसाधन मुहैया नहीं कराए जा रहे हैं।
2. शिक्षकों की कामकाजी परिस्थितियों में डिजिटल तरीके से थोपा जा रहा यह आपातकाल अकसर शिक्षकों को फ़ोटो, वीडियो और डेटा के हेरफेर का सहारा लेने के लिए मजबूर करता है, जो प्रशासन के इस तरीके में अंतर्निहित है।
3. शिक्षकों को अपनी कक्षा की सीसीटीवी निगरानी (जिसमें अब माता-पिता के फोन पर लाइव फीड प्रदान करना शामिल है), बायोमेट्रिक हाज़िरी, (असुरक्षित ऐप्स पर) सेल्फी के माध्यम से उपस्थिति दर्ज करने की अनिवार्यता और (अपना और परिवार के सदस्यों का) खुले में शौच न करने का हलफ़नामा देने जैसे असंख्य अपमानों का सामना करना पड़ रहा है।
4. यह स्थिति प्रशासन द्वारा आरटीआई द्वारा मांगी गई जानकारी या डेटा लोगों के साथ साझा करने से वस्तुतः इनकार करने से और भी जटिल हो गई है। सरकार हमसे डाटा भरवाती रहती है लेकिन जनता को सूचना की एक बूंद भी नहीं देती।
5. शोधकर्ताओं और पत्रकारों को भौतिक रूप से संस्थानों में जाने या जमीनी स्तर पर तथ्य जमा करने की अनुमति नहीं मिलती। केवल चुनिंदा (गलत) जानकारी के वो टुकड़े ही जनता के सामने रखे जाते हैं जो प्रचारवादी हितों के अनुकूल होते हैं।
6. भर्ती में हमेशा देरी के कारण, अधिकांश स्कूलों में शिक्षण/गैर-शिक्षण कर्मचारियों की कमी रहती है। न केवल रिक्त शिक्षण पदों को भरने की सख्त जरूरत है, बल्कि शिक्षकों पर बढ़ते शैक्षणिक और गैर-शैक्षणिक कार्यभार के अनुसार कर्मचारियों की नियमित भर्ती बढ़ाने की भी सख्त जरूरत है, ताकि स्कूलों में ऐसा छात्र-शिक्षक अनुपात स्थापित किया जा सके जिससे वंचित तबकों के बच्चों को ज़रूरी शैक्षणिक सहायता मिल सके।
शिक्षा का अधिकार
अवलोकन एवं चिंताएँ
1. 'आउटकम्ज़' ('क्या सीखा?' को जाँचने-परखने के बंधे हुए व संकुचित पैमाने) पर बढ़ता हुआ व सनक की हद तक के ज़ोर का अवश्यंभावी नतीजा FLN (आधारभूत साक्षरता एवं गणना) के नाम पर लिए गए नीतिगत उपायों में सामने आया है। इनकी जड़ें एक तरफ़ एसडीजी के वैश्विक एजेंडे और दूसरी तरफ़ 'प्रथम' और उस जैसी अन्य बाज़ारवादी, शिक्षा-विरोधी, कॉरपोरेट संस्थाओं व एनजीओ में हैं। इन शक्तियों से प्रेरित व संचालित नीतियों ने शिक्षा व विशेषकर उन बच्चों के हक़ों का, जोकि सार्वजनिक स्कूलों में पढ़ते हैं तथा जिनका बहुलांश वंचित पृष्ठभूमियों से आता है, बेहद नुकसान किया है। इसी 'आउटकम्ज़' आधारित FLN के तहत शिक्षा अधिकार अधिनियम के बाल-हितैषी व शैक्षिक रूप से उपयुक्त नो डिटेंशन के प्रावधान को हटाया गया है। इसके बाद उम्र के अनुसार प्रवेश के प्रावधान का हटाया जाना भी तय था। छठी कक्षा में इसकी शुरुआत हो चुकी है; और वर्तमान नीति के तहत इसका अन्य कक्षाओं तक विस्तार होना निश्चित है। बच्चों को उसी पुराने ढर्रे पर पटक दिया गया है - अगर तुम स्कूल नहीं गए हो या स्कूल ने तुम्हें प्रवेश नहीं दिया है, अगर तुम नहीं सीख रहे हो या स्कूल में तुम्हें सिखाने के लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ नहीं हैं, तो इसके ज़िम्मेदार तुम ख़ुद हो; अब भुगतो!
2. इन बदलावों का मतलब है कि स्कूलों की सभी तरह के बच्चों के लिए तैयार रहने की ज़िम्मेदारी निभाने के बदले, यह बच्चों की ज़िम्मेदारी है कि वो, इस देश में मौजूद तमाम तरह की अन्यायपूर्ण सामाजिक परिस्थितियों के बावजूद, 'स्कूल के लिए फ़िट' रहें। एक तरफ़, ज़रूरी स्थान, कमरों, शौचालयों, प्रशिक्षित शैक्षिक व सहायक कर्मियों की उपलब्धता सुनिश्चित किए बग़ैर, बच्चों को पूर्व-प्राथमिक कक्षाओं में प्रवेश देने की बात की जा रही है; दूसरी तरफ़ स्कूलों को यह संदेश दिया जा रहा है कि शिक्षकों के पदों की गणना वैधानिक रूप से निर्धारित पीटीआर के अनुसार नहीं, बल्कि विद्यार्थियों की औसत उपस्थिति के धूर्ततापूर्ण आँकड़े से की जाएगी!
3. मगर इन सबके पहले, बच्चों के हक़ों का दमन उस वक़्त ही हो जाता है जब उन्हें इस बिना पर प्रवेश देने से मना कर दिया जाता है कि उनके आधार पर दर्ज पता दिल्ली का नहीं है या उनके पास खाता नहीं है या उनके दस्तवेज़ों में किसी नाम की स्पेलिंग मेल नहीं खाती है। जो विद्यार्थी इस सबके बावजूद दसवीं-बारहवीं तक पहुँच पाते हैं, उनके रास्ते में किताबों जैसी मूलभूत सामग्री की अनुपलब्धता, महँगाई व सीबीएसई की बढ़ती फ़ीस खड़ी हो जाती हैं। इस प्रकार, असुरक्षित व प्रवासी पृष्ठभूमियों के बच्चे बढ़ते क्रम में बेदख़ली का शिकार हो रहे हैं और उन्हें 'ओपन स्कूलिंग' व्यवस्था के सहारे छोड़ा जा रहा है, जोकि हक़ीक़त में उनकी आगे की एवं नियमित शिक्षा की संभावना को सीमित कर देती है।
समग्र माँगें
1. आज शिक्षक ये कहने को मजबूर है - 'मुझे पढ़ाने नहीं दिया जा रहा है। मैं शिक्षण का अधिकार और गरिमापूर्ण व अर्थपूर्ण शिक्षण की आज़ादी मांगता/माँगती हूँ।'
2. सार्वजनिक स्कूलों के बीच व उनके अंदर असमानता की तमाम परतों को ख़त्म किया जाए। विशेष व सामान्य स्कूलों की श्रेणियों का असंवैधानिक तथा शिक्षा एवं बाल विरोधी भेद ख़त्म करके सभी सार्वजनिक स्कूलों को समानुपातिक संसाधन व महत्व दिया जाए।
3. स्कूलों पर डिजिटल तानाशाही थोपना बंद की जाए। यह सुनिश्चित किया जाए कि ऐसे कोई निर्देश/आदेश जारी न हों जिनके पालन में विद्यार्थियों व शिक्षकों की निजता, अंतःकरण की आज़ादी, गरिमा तथा स्वास्थ्य का हनन निहित हो।
4. आपातकालिक व फ़ौरी आदेश भेजना व जवाब माँगना बंद किया जाए।
5. स्कूली समय के बाद दिए जाने वाले कामों के, विशेषकर डिजिटल प्रकार के, आदेशों पर रोक लगाई जाए। अन्यथा इन कामों के लिए ओवरटाइम अथवा संपूरक/अर्जित अवकाश दिए जाएँ। स्कूलों से जुड़े प्रशासनिक/सार्वजनिक काम में शिक्षकों को अपने निजी डिजिटल उपकरणों का इस्तेमाल करने के लिए मजबूर करने के एवज़ में पर्याप्त डिजिटल भत्ता दिया जाए।
6. शिक्षकों को सोचने-समझने, कक्षाओं की तैयारी करने व अपने विद्यार्थियों से संवाद करने के लिए पर्याप्त समय दिया जाए।
7. शिक्षकों को पढ़ने-लिखने, अपने विचार सार्वजनिक करने तथा संगठित होकर अपनी माँगों के लिए लड़ने का मौलिक व नैसर्गिक अधिकार है। इसमें क़ानूनी/ग़ैर-क़ानूनी व प्रशासनिक रोड़े अटकाने के बदले इसकी इज़्ज़त की जाए।
8. विभिन्न मंत्रालयों व निजी संस्थाओं के आदेशों/कार्यक्रमों के बहाने से स्कूलों का समय बर्बाद करना, उनके कैलेंडर तथा दिनचर्या के साथ खिलवाड़ करना एवं उन्हें अवैज्ञानिक, अतार्किक, प्रतिगामी व विभाजनकारी एजेंडा के लिए इस्तेमाल करना बंद किया जाए।
9. पाठ्यचर्या में वस्तुपरकता, वैज्ञानिकता, उदार मानवीय बोध तथा गहराई, व शिक्षण में शिक्षकीय एजेंसी की परिस्थितियाँ सुनिश्चित की जाएँ।
10. 8वीं तक फ़ेल न करने वाली नीति को पुनर्स्थापित किया जाए; अथवा यह सुनिश्चित किया जाए कि किसी भी बच्चे की नियमित पढ़ाई न छूटे। FLN/मिशन बुनियाद जैसे कार्यक्रमों की तर्ज पर पाठ्यचर्या और शिक्षकों की पेशागत स्वायत्तता पर हमला करना बंद किया जाए।
11. सार्वजनिक स्कूलों में मज़दूर वर्ग व ऐतिहासिक रूप से वंचित समूहों के हितों के ख़िलाफ़ तथा शिक्षा-विरोधी वोकेशनल कोर्स थोपने की नीति बंद की जाए।
12. प्रारंभिक स्तर पर बिना शर्त प्रवेश देकर तथा उच्चतम स्तर तक मुफ़्त व नियमित शिक्षा की गारंटी देकर ऐतिहासिक रूप से वंचित तबकों तथा मज़दूर वर्गों से आने वाले बच्चों की शिक्षा को सुलभ किया जाए। शिक्षा के संवैधानिक हक़ को 12वीं कक्षा/18 वर्ष तक बढ़ाया जाए।
13. सहायक स्टाफ़ की भर्ती को निजी कंपनियों के हवाले करके अथवा पाठ्यचर्या व शिक्षक प्रशिक्षण को एनजीओ के हाथों में सौंपकर स्कूली व्यवस्था के प्रत्यक्ष-परोक्ष निजीकरण करने की प्रक्रिया पर रोक लगाई जाए।
14. काम की बढ़ती माँग व व्यक्तिगत छुट्टियों की जायज़ परिघटना के मद्देनज़र काग़ज़ी मापदंडों से परे जाकर 5-10% 'अतिरिक्त' नियमित/स्थाई श्रेणी के पदों को सृजित किया जाए ताकि किसी भी स्कूल में शिक्षकों व अन्य कर्मियों की कोई कमी न हो।
15. विकास एवं स्वच्छता के नाम पर स्कूलों में और स्कूलों के कंक्रीट-निर्माण की अपव्ययी, भ्रष्टाचार-प्रेरित, बेसिर-पैर की तथा पर्यावरण-जीवन विरोधी, घातक सनक पर रोक लगाई जाए। यह सुनिश्चित किया जाए कि सभी स्कूली परिसर खुले, पर्यावरणीय रूप से सुगम, हरे-भरे, प्राकृतिक रौशनी व हवा की आवाजाही से परिपूर्ण, हों; तथा बच्चों के खेलने व अन्य उन्मुक्त क्रियाओं के लिए कच्चे मैदानों से युक्त हों।
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