फ़िरोज़
जब मैं लखनऊ में था तो उन्ही दिनों उत्तर-प्रदेश बोर्ड के परिणाम घोषित किये गए थे. अखबार में कुछ ख़बरें पढ़ने को मिलीं . 'Teachers blame the CCE pattern ( introduced by the UP board in 2010-11) for improved performance of private schools.' ये वहां के ToI में 9 जून को एक खबर का शीर्षक था . इस रिपोर्ट में UP माध्यमिक शिक्षक संघ के सचिव का ये बयान भी छपा था कि private schools में लगभग सभी विद्यार्थियों को स्कूल-स्तर की परीक्षा में पूरे अंक दिए जाते हैं क्योंकि इसमें शिक्षा-माफिया उनसे पैसे ऐंठ कर उन्हें सफलता सुनिश्चित कराता है . हांलाकि रिपोर्ट के अनुसार तीनों तरह के स्कूलों के परिणाम प्रतिशत में 1-2 % का ही अंतर था . एक और रिपोर्ट ( ToI, जून 6 ) में उन्हीं शिक्षक प्रतिनिधि का ये कथन छपा था कि अब समाजवादी पार्टी के सत्ता में वापिस आने से स्कूलों में नक़ल बहुत बढ़ गयी है .
यहाँ अपनी तरफ से में दो अवलोकन रख रहा हूँ, बिना ये दावा किये कि इनका कोई सीधा सम्बन्ध उपरोक्त रिपोर्टों से है . UP में अधिकतर स्थापित व आधुनिक पेशों की तरह शिक्षक संघों की कमान भी द्विज कहे जाने वाले जाति-समूहों के पास है . दूसरी ओर, यहाँ शिक्षकों व आम लोगों की भी ये मान्यता आपको अक्सर सुनने को मिलेगी कि यहाँ स्कूल की पढ़ाई और परीक्षा का स्तर CBSE से कहीं कठिन है . ऐसा वे एक गर्व तथा श्रेष्ठता के भाव से ही कहते हैं .यहाँ ये तथ्य भी मौज़ू हो सकता है कि NCERT की हाल ही की राष्ट्रीय उपलब्धि रिपोर्ट में UP के प्राथमिक कक्षा के विद्यार्थियों का स्तर लगभग सबसे ऊपर पाया गया है .
अब मैं दिल्ली के सरकारी स्कूलों के सुधरते बोर्ड परिणामों के सन्दर्भ में अपने कुछ साथियों के अनुभव प्रस्तुत करूँगा . यहाँ हमें याद रखना चाहिए कि दिल्ली सरकार ने, जिसमें मुख्यमंत्री खासतौर से शामिल हैं, इन तेज़ी से सुधरे परिणामों का काफी प्रचार किया है और इन्हें चुनावी लाभ के लिए भी इस्तेमाल करने की कोशिश की है . साथ ही,जिस बात की ओर ये अनुभव इशारा करते हैं वो कोई राज़ नहीं है, बल्कि जगजाहिर है .एक मित्र ने बताया कि प्रिन्सिपल्स की एक औपचारिक बैठक में शिक्षा अधिकारी ने उनसे कहा कि वे उस स्कूल के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करेंगे जिसका परिणाम कम आएगा, बल्कि कार्रवाई उस स्कूल के खिलाफ होगी जहाँ उक्त स्कूल का बोर्ड केंद्र पड़ा होगा . ( बाद में सुनने में आया कि उस अधिकारी के क्षेत्र में सबसे बढ़िया परिणाम रहने के कारण उसे पुरस्कार-स्वरूप शैक्षिक-सम्मलेन के लिए विदेश भेजा गया ! ) एक अन्य साथी ने बताया कि इस बार परिणाम में सुधार होने पर उनकी प्रिंसिपल ने इस बात पर राहत जताई कि उन्हें अधिकारियों के साथ होने वाली बैठक में कम-से-कम सबसे पीछे की पंक्ति में बैठने पे मजबूर करके बेइज्ज़त तो नहीं किया जायेगा . ( साफ़ है कि इस घटिया व्यवस्था में कुछ लोगों को तो हमेशा ज़लील होना पड़ेगा क्योंकि सभी अग्रणी नहीं हो सकते और वैसे भी इसका उद्देश्य ही अपमानित व भयभीत करके चाटुकार तथा ग़ुलाम तैयार करना है .) ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है . आलम ये है कि जहाँ शिक्षक बोर्ड केन्द्रों पर नियम के विरुद्ध जाकर विद्यार्थियों से संपर्क स्थापित करने को उनका 'मनोबल' बढ़ाना कहते हैं, वहीं अधिकतर विद्यार्थी ऐसी 'मदद' को अनुचित मानने की संज्ञानात्मक व भावनात्मक क्षमता खो चुके हैं . अगर ये इतना गंभीर मुद्दा नहीं होता तो हम निश्चित ही उस साथी के अनुभव पे हँस सकते थे जिन्होंने देखा कि प्रिंसिपल के द्वारा एक विषय के परिणाम पे चिंता जताने पर एक शिक्षिका ने बहुत ही गंभीरता से ये कहते हुए 'ज़िम्मेदारी' ली कि उनकी दोस्त बोर्ड केंद्र पड़ने वाले स्कूल में पढ़ाती है !
यहाँ मैं उपरोक्त दृष्टान्तों का विश्लेषण नहीं करूँगा . वर्ग, जाति, राजनीति- चुनावी व वृहत - आदि सन्दर्भों में इन अवलोकनों को समझा जा सकता है . आपसे मेरा मुख्य सवाल यह है कि वो कौन सी परिस्थितियाँ व कारक हैं जिनके चलते UP और दिल्ली के शिक्षक संगठनों में इस बात पर इतना अंतर है कि जहाँ एक इसका खुलकर विरोध कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ एक समझौतापरस्त, आत्मसमर्पण वाली चुप्पी और मिलीभगत है . क्या ऐसा ही फर्क हरियाणा के शिक्षक संगठनों के सन्दर्भ में भी है, जोकि न सिर्फ स्कूलों के निजीकरण के खिलाफ तथा PPP के प्रस्ताव को रद्द करने के लिए आंदोलनरत हैं, बल्कि साथ ही प्राथमिक स्कूलों में मूलभूत सुविधाओं जैसे पानी, बेंचों की व्यवस्था आदि के लिए भी संघर्षरत दिखते हैं ? क्या इन दोनों अंतरों में कोई सम्बन्ध है ?
इसी सन्दर्भ में टाइम्स ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट को भी पढ़ा जा सकता है। रिपोर्ट को पढने के लिए निचे दिए गये लिंक को क्लिक करें .
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