कुछ दिन पहले जनसत्ता व दैनिक जागरण में एक चार पंक्तियों की, छोटी सी खबर आई थी कि करूणानिधि ने तमिलनाडु के सरकारी स्कूलों में प्रथम कक्षा से शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी करने के फैसले का विरोध किया है. उसके बाद, मेरी नज़र में, इस महत्वपूर्ण खबर पर न तो अखबारों ने रिपोर्टिंग की और न ही कोई सम्पादकीय टिपण्णी की।
करुणानिधि द्वारा तमिलनाडु के सरकारी स्कूलों में शिक्षण माध्यम अंग्रेजी करने का विरोध करना एक विचारात्मक और साहसिक कदम है. उनका यह तर्क सही है कि एक बेगानी भाषा में स्वाध्याय की संभावना कम हो जाती है. मगर यह तर्क हर बेगानी भाषा के लिए लागू होगा , चाहे वो एक संथाली भाषी बच्चे के लिए हिंदी हो या फिर कश्मीरी भाषी के लिए उर्दू . करुणानिधि इस गंभीर परन्तु तेज़ी से अनदेखा किये जा रहे नीतिगत परिवर्तन पर प्रश्न इसलिए भी खड़ा कर सके क्यूंकि वो स्वयं साहित्यकार हैं और सांस्कृतिक पहचान की राजनीति से जुड़े रहे हैं . अफ़सोस तो इस बात का है कि इस विषय पर शिक्षकों की ओर से कोई हस्तक्षेप व बहस दिखाई नहीं देती . एक प्राथमिक शिक्षक होने के नाते मेरा न सिर्फ वैचारिक विश्वास है कि शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए बल्कि कक्षाई अनुभव भी यह बताता है कि बच्चे उसी में बेहतर समझ बनाते हैं . अंग्रेजी अब पहली कक्षा से ही अधिकतर राज्यों के सरकारी स्कूलों में पढ़ाई जा रही है पर इसे माध्यम बनाने से सतही व लोकप्रचलित समझ का परिचय मिलता है . जनमानस का इस ओर दबाव समझ आता है क्योंकि प्रशासन , सरकार , व्यापार , न्यायपालिका आदि क्षेत्रों में अंग्रेजी का वर्चस्व कायम रख के हम लोगों से मातृभाषा का बीड़ा उठाने को कहेंगे तो दोगले ही कहलायेंगे . ज़रूरत इस बात की है कि न केवल सरकारी स्कूलों से बल्कि निजी स्कूलों से भी अंग्रेजी को माध्यम के रूप से हटाया जाये , सभी क्षेत्रों में जनमानस की भाषाओं को जगह दी जाये और अंग्रेजी की सांस्कृतिक पूँजी की औपचारिक -अनौपचारिक अनिवार्यता समाप्त की जाये तथा शिक्षा को समझ, संघर्ष और अस्मिता के चश्मों से देखा जाये, हीन-भावना, नक़ल और मात्र फूहड़ सफलता के कोणों से नहीं . एक सामयिक प्रश्न तो यह भी है कि जब शिक्षा का अधिकार कानून साफ़ कहता है की शिक्षा मातृभाषा में दी जाएगी, जहाँ तक संभव हो, तो फिर दिल्ली में हिंदी, उर्दू व पंजाबी और तमिलनाडु में तमिल की जगह कौन सी असंभव परिस्थिति सरकारों को अंग्रेजी को माध्यम बनाने को मजबूर कर रही है. मुझे लगता है कि इसका बड़ा जवाब भारत के वर्चस्व-प्राप्त वर्गों व जातियों की ऊँच-नीच और पदानुक्रम की व्यवस्था तथा संस्कृति में आस्था है . अंग्रेजी उनके लिए आज एक लोकस्वीकृत पैमाना है कुछ की श्रेष्ठता व विशिष्टता की व्यवस्था को बनाये रखने का . यह भारत के सत्ताधारी समूहों की मानसिक बीमारी का भी परिचायक है .
फ़िरोज़ अहमद
No comments:
Post a Comment