लोक शिक्षक मंच ने आठ फरवरी को दोपहर डेढ़ बजे दिल्ली विश्वविद्यालय के केंद्रीय शिक्षा संस्थान में हाल ही में अरुणाचल प्रदेश के नौजवान छात्र नीदो तानियम की दिल्ली में एक नस्लीय हिंसा के परिणामस्वरूप हुई मौत के संदर्भ में राष्ट्रीयता एवं नस्लवाद पर एक विरोध-सह-चर्चा सभा का आह्वान किया था। सभा की शुरुआत दिवंगत नौजवान को श्रद्धांजलि देकर हुई। उसके बाद सब उपस्थित साथियों ने अपने-अपने विचार साझा किये। सार प्रस्तुत है -
1) एक साथी के द्वारा संदेह व्यक्त करने के बावजूद सभा ने आम राय से यह सहमती जताई कि इस तरह की लगातार होती हिंसा को आक्रामक राष्ट्रवाद और नस्लवाद के प्रभाव के माध्यम से समझा जाना चाहिए। हमें दोनों के ख़िलाफ़ निरंतर लड़ना होगा। यह रेखांकित किया गया कि इस हिंसा का विरोध राष्ट्रवाद के दायरे या नैतिकता में रहकर करना बिलकुल नाजायज़ और आत्मघाती है।
2) उपरोक्त दोनों बिंदुओं को 'मुख्यधारा' की संकल्पना के आग्रह से देखें तो वर्चस्वशाली संस्कृति व राजनीति में नस्लीय हिंसा निहित है। ज़रूरत है कि 'मुख्यधारा' को ही कटघरे में खड़ा किया जाए।
3) नस्लीय हिंसा को अन्य सभी प्रकार की हिंसा के साथ देखना होगा - जातीय, पितृसत्तात्मक, साम्प्रदायिक, विकलांग-विरोधी आदि। जहाँ एक होगी वहाँ अन्यों का होना अवश्यम्भावी है। इसलिए एक साथ इन सबके ख़िलाफ़ लड़ने की ज़रूरत है, इन्हें एक दूसरे से काटा नहीं जा सकता।
4) वो पूर्वाग्रह जिनपर यह हिंसा आधारित है, बाज़ारवादी मीडिया से भी बल पाते हैं। इनमें फ़िल्मों, विज्ञापनों से लेकर अखबारी कवरेज भी शामिल है। शिक्षा में भी 'मुख्यधारा' के नाम पर बहुत सी संस्कृतियों का अपमानजनक प्रस्तुतिकरण अथवा अदृश्यकरण असंवेदनशीलता को तीखा करता है। शिक्षकों को विशेषकर अपने कर्मक्षेत्रों में इसके प्रति सक्रीय होने की ज़रूरत है।
5) इस पर विचार किया गया कि इस तरह की हिंसा कैसे वर्ग-आधारित आर्थिक व्यवस्था का भी स्वाभाविक परिणाम है और कैसे पूँजीवादी ताक़तें इसे मेहनतकशों की वर्गीय चेतना को उबरने न देने के लिए और राष्ट्रीय-स्तर पर मज़दूर वर्ग की एकता को तोड़ने के लिए भी मीडिया के ज़रिये इस्तेमाल करती हैं।
6) वहीं दिल्ली में नस्लीय भेदभाव के दंश को दशकों से झेल रहे एक साथी का कहना था कि अधिकतर पीड़ित इसके दैनिक आयाम की विभीषिका को नज़रअंदाज़ करते आये हैं। इसका कारण प्रशासन व स्थानीय राजनैतिक नेतृत्व के प्रति अविश्वास भी है। ( वो अपने मन को यह कहकर दिलासा देते हैं कि शायद दुर्व्यवहार करने वाले नासमझ हैं! ) अर्थात, हिंसा बहुत व्यापक है पर केवल कभी-कभार ही इसे सार्वजनिक बहस की नज़रों में लाया जाता है। इस हिंसा का आर्थिक आधार होने के विचार को रोचक बताते हुए भी उन्होंने कहा कि अनुभव की बुनियाद पर वो इसके नस्लीय पक्ष को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते।
सभा ने संकल्प लिया कि सभी साथी अपने-अपने कार्यस्थलों पर नस्लीय व अन्य सभी प्रकार की प्रत्यक्ष और परोक्ष हिंसा के विरुद्ध आवाज़ बुलंद करते रहेंगे तथा मानवीय संवेदना विकसित करने का सांगठनिक काम भी करते रहेंगे। यह फ़ैसला भी किया गया कि मंच द्वारा ऐसे छात्र/नौजवान समूह के साथ मिलकर समझ व आगे की कार्यनीति बनाई जाए जो इस प्रश्न पर अपनी अस्मिता के आधार पर भी निरंतर अधिक गहराई से जूझ रहे हैं।
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