राजस्थान सरकार ने अपने स्कूलों को विभिन्न निजी संस्थाओं को सार्वजनिक निजी साझेदारी की नीति के अंतर्गत देने का प्रस्ताव किया है और इस सन्दर्भ में लोगों से सुझाव आमंत्रित किया है । मंच की ओर से इस प्रस्ताव के विरोध स्वरूप यह पत्र वहाँ के शिक्षा विभाग को दिया गया है
संपादक
Øe lañ लो॰शि॰म॰/01/मई/2015 fnukad
% 30&05&2015
लोक शिक्षक मंच , राजस्थान सरकार की स्कूली शिक्षा के लिए
सार्वजनिक-निजी साझेदारी की नीति (ड्राफ़्ट) से अपना विरोध दर्ज करता है। प्रस्ताव का विरोध करने के लिए हमारे पास कई मजबूत कारण हैं जिन्हें हम आपके सामने रख रहें हैं -
1-
निराधार दावे व शिक्षा की सतही
समझ : भाग 1.1 में राज्य द्वारा बढ़ते ख़र्च व सरकारी स्कूलों के
गिरते स्तर के बारे में जो दावे किये गए हैं वो निराधार हैं। उनके पक्ष में कोई
सार्वजनिक रपट, आँकड़ें आदि प्रस्तुत न करके इस गंभीर विषय पर सरकार बिना तथ्यों के फ़ैसला लेने
का ख़तरा उठा रही है। इसी तरह, निजी स्कूलों के परीक्षा परिणामों का निराधार गुणगान न सिर्फ़ अनुचित है बल्कि
शिक्षा की सतही व ग़लत समझ दर्शाता है जबकि स्कूलों का उद्देश्य एक समतामूलक समाज
के निर्माण में योगदान देना है जिसके लिए निजी स्कूलों का समाजविरोधी चरित्र
उन्हें सर्वथा अनुपयुक्त बनाता है।
2-
विफलता की स्वीकारोक्ति : भाग 1.2 में यह कहना कि सरकारी स्कूलों के प्रबंधन को सुधारने के लिए इन्हें निजी संचालकों के हाथों
में देना ज़रूरी है, सरकार द्वारा अपनी विफलता की स्वीकारोक्ति है। यह अफ़सोस की बात है कि इसकी
पड़ताल ज़रूरी नहीं समझी गई कि आख़िर अगर पहले सरकारी स्कूल, सरकार के ही दावे के अनुसार, बेहतर थे तो किन कारणों
से और फिर क्यों इनमें गिरावट आई। बजाय इसके कि सरकार वस्तुस्थिति का अध्ययन करके
प्रशासन सुधारने का संकल्प लेती, सरकार ने अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ने का आसान रास्ता अपनाने का फ़ैसला किया
है। शिक्षा जैसे जनाधिकार के मुद्दे पर यह एक अलोकतान्त्रिक निर्णय है।
3-
सलाह-सुझाव की प्रक्रिया खानापूर्ति : भाग 2 से प्रतीत होता है कि सरकार अब नए स्कूल खोलने की नीयत नहीं रखती है। साथ ही
जिस ढाँचागत प्रतिबद्धता की बात PPP को सफलता से कार्यान्वित करने के लिए की गई है, वह सरकार की सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था के प्रति नदारद दिखती है। इससे साफ़ होता है कि सरकार ने एकतरफा व अन्यायपूर्ण ढंग से निजी संचालकों के स्कूलों
को सफल और सार्वजनिक व्यवस्था के स्कूलों को असफल सिद्ध करने का मन पहले ही बना लिया है। ऐसे में
लोकतान्त्रिक सलाह-सुझाव की प्रक्रिया खानापूर्ति का भान देती है।
4-
शिक्षा के बाजारीकरण को
प्रोत्साहन : भाग 4.2 फ़ीस देने वाले 60% विद्यार्थियों के संबंध में कहता है कि उनकी फ़ीस क़ानून के अंतर्गत निर्धारित
होगी जबकि सच्चाई तो यह है कि फ़ीस नियमन को लेकर कोई क़ानून है ही नहीं। साफ़ है कि
यह निजी संचालकों को शिक्षा का व्यापार करके निर्बाध व कुटिलता से मुनाफ़ा कमाने
देने की तैयारी है।
5-
वंचित-शोषित तबकों के अधिकारों पर हमला : भाग 4.3 यह घोषित करके कि स्कूलों में शिक्षकों से लेकर अन्य
कर्मचारियों को नियुक्त करने के लिए निजी संचालक स्वतंत्र होंगे और सरकार की इसमें
कोई जवाबदेही नहीं होगी, साफ़ करता है कि इन स्कूलों में संविधानसम्मत सामाजिक न्याय के आरक्षण का पालन नहीं
होगा। इसके फलस्वरूप सार्वजनिक क्षेत्र में बराबरी के अवसर और सिकुड़ जाएँगे।
राजस्थान जैसे राज्य में जहाँ अभी सामाजिक न्याय की प्राप्ति हेतु परिस्थितियाँ
चुनौतीपूर्ण हैं, यह वंचित-शोषित तबकों के अधिकारों पर बड़ा कुठाराघात होगा।
6-
माध्यम भाषा चुनने का विकल्प देना गलत : इसी भाग में स्कूली शिक्षा की माध्यम भाषा चुनने का विकल्प निजी संचालक की इच्छा पर छोड़कर सरकार
ने शिक्षा की ग़लत समझ का परिचय दिया है। तमाम शिक्षास्त्रीय अनुशंसाओं व संविधान तक में मातृभाषा को अच्छी शिक्षा का अनिवार्य साधन
माना गया है। यह नीति इस सिद्धांत की अनदेखी करती है।
7-
अपारदर्शिता : भाग 7.0 निजी संचालकों के चयन के लिए किसी भी तरह के मापदंडों का हवाला नहीं देता है।
इस अपारदर्शिता व गोपनीयता की आहट के चलते पूरी प्रक्रिया संदेह के घेरे में आ जाती है और धाँधली, पक्षपात व मनमर्ज़ी की आशंका जगाती
है।
इन्हीं सब कारणों से शिक्षा में PPP की नीति विश्वभर में असफल हुई है और जनविरोध झेल रही
है। असल में किसी भी लोकतान्त्रिक सरकार को संविधान के श्रेष्ठ आदर्शों व मूल्यों
के अनुसार सभी बच्चों के लिए पूरी तरह सरकार द्वारा वित्त-पोषित समान स्कूल व्यवस्था खड़ी
करने की नीयत और नीति दिखानी चाहिए, शिक्षा को निजी हाथों में सौंपने की नहीं।
मैं उम्मीद करता हूँ कि शिक्षा, सामाजिक न्याय, सरकार की छवि व समानता के हितों की रक्षा हेतु इस
प्रस्तावित नीति पर लोकतान्त्रिक पुनर्विचार करके इसे ख़ारिज करेंगे / करेंगी ।
सधन्यवाद
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