Friday, 24 July 2015

खबर : प्राइवेट स्‍कूलों का राष्‍ट्रीयकरण क्‍यों जरूरी?

“भारत में निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का कानून लागू है। सरकारी कार्यालयों में चाय पहुंचाते बच्चों को देख कर ये बखूबी जाना जा सकता है कि हमारे देश में ये कानून किस तरह लागू है। शिक्षा न तो निशुल्क है और न ही अनिवार्य। निजी विद्यालयों में मोटी फीस वसूलते हैं, सरकारी विद्यालय भी किसी न किसी बहाने कुछ पैसा वसूल ही लेते हैं।”
दुनिया के सभी विकसित देशों व कई विकासशील देशों ने भी 99-100 प्रतिशत तक साक्षरता की दरें हासिल कर ली हैं। भारत में आधे बच्चे विद्यालय स्तर की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते। यहां सबसे बड़ी दिक्कत है समान शिक्षा प्रणाली का न होना और उसके साथ पड़ोस के विद्यालय की अवधारणा को लागू न करना। यदि ये दोनों बातें लागू होती हैं तो सभी बच्चों को लगभग एक गुणवत्ता वाली शिक्षा हासिल करने का अवसर उपलब्ध होगा। दुनिया के जिन देशों ने 99 या 100 प्रतिशत साक्षरता की दर हासिल कर ली है उसमें बड़ा योगदान इन अवधारणाओं का है।

एक समान शिक्षा प्रणाली नहीं
भारत में अब दो तरह की शिक्षा व्यवस्थाएं हैं - एक पैसे वालों के लिए जो अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में पढ़ाते हैं तो दूसरी गरीब लोगों के लिए जो अपने बच्चे सरकारी विद्यालय में भेजते हैं जहां पढ़ाई ही नहीं होती। यही लोग उच्च शिक्षा के लिए सरकारी संस्थानों जैसे भारतीय प्राद्योगिकी संस्थान या भारतीय प्रबंध संस्थान में दाखिला लेना पसंद करते हैं क्योंकि इस स्तर पर मान्यता है कि निजी महाविद्यालयों या विश्वविद्यालयों में गुणवत्ता नहीं। इससे साफ है कि गुणवत्ता का ताल्लुक निजी या सरकारी से नहीं, इच्छा शक्ति से है।
इस तरह शिक्षा विषमता को बढ़ा देती है। गरीब का बच्चा जिसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिलती अपनी शिक्षा के आधार पर अपना विकास नहीं कर पाता। इसलिए ज्यादातर गरीबों के बच्चे शिक्षा व्यवस्था से ही बाहर हो जाते हैं। अंग्रेजी और कम्प्यूटर का ज्ञान इन बच्चों को स्पष्ट दो वर्गों में विभाजित कर संविधान में दिए गए समानता के अधिकार का मखौल उड़ाता है।
शिक्षा पूरी करने में गरीबों के लिए एक बड़ी बाधा कुपोषण भी है। जनवरी 2013 में प्रधान मंत्री ने एक रपट जारी करते हुए कहा कि यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है भारत में आधे बच्चे कुपोषित हैं। अब यदि प्रधानमंत्री ही शिकायत करने लगें तो समाधान कौन ढूंढेगा? यह राजनीतिक इच्छा शक्ति का स्पष्ट प्रमाण है।
अमरीका जैसे घोर पूंजीवादी देश में विद्यालय स्तरीय शिक्षा पड़ोस के विद्यालय में पूरी होती है जिसका संचालन स्थानीय निकाय करता है। यहां कोई शुल्क नहीं लगता बल्कि किताबें, यूनिफॉर्म और घर से आने-जाने के लिए बस का खर्च भी विद्यालय ही वहन करता है। सबसे बड़ी बात है कि सभी बच्चों के लिए एक समान शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध रहती है। जो काम दुनिया के कई विकसित एवं विकासशील देशों ने कर दिखाया है वह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र क्यों नहीं कर रहा?

लखनऊ में 31 बच्चों को नहीं मिला दाखिला
भारत में 1968 में कोठारी आयोग ने समान शिक्षा प्रणाली एवं पड़ोस के विद्यालय की अवधारणा को लागू करने की सिफारिश की थी। किंतु तब से लेकर अब तक सभी सरकारों ने उसे नजरअंदाज किया है। 2009 में मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हुआ जिसने कमजोर तबकों के परिवारों के बच्चों को सभी विद्यालयों में 25 प्रतिशत आरक्षण देने की व्यवस्था की। पहले तो सरकारें इस प्रावधान को क्रियान्वित करने में गम्भीर नहीं थीं। अब निजी विद्यालय कानून के इस प्रावधान की काट निकालने की तमाम कोशिश कर रहे हैं।
लखनऊ के बेसिक शिक्षा अधिकारी ने 2015-16 शैक्षणिक सत्र के लिए दिनांक 6 अप्रैल, 2015 को 31 गरीब परिवारों के बच्चों को शहर के जाने माने विद्यालय सिटी मांटेसरी स्कूल में मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009, के अंतर्गत प्रत्येक विद्यालय में 25 प्रतिशत गरीब परिवारों के बच्चों हेतु आरक्षण के प्रावधान के तहत दाखिले का आदेश किया। सिटी मांटेसरी स्कूल ने बच्चों को दाखिला देने के बजाए न्यायालय में याचिका दायर करने का निर्णय लिया। वह बच्चों को दाखिला न देने के तमाम कारण गिना रहा है। पहले तो वह कह रहा है कि उसके पास जगह की कमी है क्योंकि उसने पहले ही जितनी क्षमता थी उतने दाखिले ले लिए हैं। फिर वह सवाल कर रहा है कि बच्चों के घर के पास एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय व कुछ निजी विद्यालय भी हैं तो दाखिले का आदेश सिटी मांटेसरी स्कूल में ही क्यों किया गया?
उ.प्र. सरकार के इस वर्ष के शासनादेश के मुताबिक एक वार्ड को पड़ोस माना गया है। शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत गरीब परिवारों के बच्चों को आरक्षण का लाभ पड़ोस के विद्यालय में ही मिलेगा। जो सरकारी विद्यालय बच्चों के घर के पास में है वह उनके वार्ड में नहीं जबकि सिटी मांटेसरी की इंदिरा नगर शाखा उसी वार्ड में स्थित है। शासनादेश के अनुसार सरकारी विद्यालय में यदि कक्षा 1 में 40 से ज्यादा बच्चों का दाखिला हो चुका है तभी आप निजी विद्यालयों में दाखिले का दावा कर सकते हैं। उपर्युक्त सरकारी विद्यालय में 52 बच्चों का दाखिला हो चुका है। न्यायालय ने सिटी मांटेसरी स्कूल द्वारा खड़े किए गए सवालों का जवाब शिक्षा विभाग से मांगा है। उसने दाखिले पर कोई रोक नहीं लगाई और न ही स्थगनादेश दिया है। इसके वाबजूद सिटी मांटेसरी बच्चों को दाखिला नहीं दे रहा।
सिटी मांटेसरी विद्यालय जिसकी 20 शाखाओं में करीब 47,000 बच्चे पढ़ते हैं, दुनिया के सबसे बड़े विद्यालय की जिसे गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड ने मान्यता दी है, 31 गरीब बच्चों को दाखिला न देने के लिए जगह की कमी होने का बहाना बना रहा है। सिटी मांटेसरी यह भी कह रहा है कि सरकार एक बच्चे को पढ़ाने का जो रु. 450 प्रति माह का खर्च देने वाली है वह कम है।

निजी विद्यालयों का राष्ट्रीयकरण जरूरी      
इससे बड़ा मजाक क्या होगा कि पूरे उत्तर प्रदेश के सभी जिलों के बेसिक शिक्षा अधिकारियों ने मिल कर अभी तक करीब तीन हजार से थोड़ा कम ही बच्चों का दाखिला कराया है। इतने थोड़े से बच्चों का दाखिला करा कर सरकार हर गरीब बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने की अपनी जिम्मेदारी कैसे पूरी करेगी? ऐसी व्यवस्था में सरकार को निजी विद्यालयों का राष्ट्रीयकरण करके उनको समान शिक्षा प्रणाली की व्यवस्था के तहत संचालित करना चाहिए। इन विद्यालयों में शिक्षण कार्य का प्रबंधन भले ही निजी हाथों में हो किंतु प्रशासनिक संचालन सरकार को अपने हाथों में ले लेना चाहिए ताकि सरकार अपने हिसाब से गरीब बच्चों को यहां पढ़ा सके।
सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर के हिसाब से भारत दुनिया में अग्रणी देशों में है किंतु सामाजिक मानकों के हिसाब से हमारी गिनती सबसे पिछड़े देशों में होती है। दक्षिण एशिया में आजादी के समय सामाजिक मानकों की दृष्टि से श्रीलंका के बाद हमारा स्थान था। अब पाकिस्तान को छोड़ बाकी सभी देश हमसे आगे निकल गए हैं।
( आउटलुक हिंदी से साभार )

खबर : अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के दबाव में सरकारों ने सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था को बरबाद करने का एजेंडा लागू किया

भोपाल। शिक्षाविद डॉ. अनिल सद्गोपाल ने कहा है कि सन 1991 में वैश्वीकरण की घोषणा के बाद से अंतर्राष्ट्रीय पूंजी और उसकी विभिन्न एजेंसियों (यथा, विश्व बैंक, आइ.एम.एफ, डी.एफ.आइ.डी. व अन्य) के दबाव में केंद्र व राज्य सरकारों ने सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था को बदहाल व बरबाद करने का एजेंडा लागू किया। इसके तहत डी.पी.ई.पी व सर्व शिक्षा अभियान जैसी स्कीमों के जरिए सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता गिराई गई जिससे गरीब तबके के लोग भी अपने बच्चों को वहां पढ़ाने से कतराने लगें। इस तरह सरकारी स्कूल व्यवस्था की विश्वसनीयता मिट्टी में मिलाई गई ताकि निजी स्कूलों के अबाध मुनाफे का बाजार खोला जा सके।
डॉ. सद्गोपाल आज एक प्रेस वार्ता में संवाददाताओं से बात कर रहे थे। शिक्षा में गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) की भूमिका के मुद्दे पर इस प्रेस-वार्ता का आयोजन शिक्षा अधिकार मंच, भोपाल द्वारा किया गया था। मंच की तरफ से इसे शिक्षाविद डॉ. अनिल सद्गोपाल (सदस्य, अध्यक्ष-मंडल, अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच), शैलेंद्र शैली (सीपीआई),आशीष स्ट्रगल (ए.आइ.एस.एफ.), विजय कुमार(आर.वाइ.एफ.आइ.) ने संबोधित किया।
वक्ताओं ने कहा कि शिक्षा अधिकार कानून, 2009 दरअसल सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। ये कानून बच्चों को अच्छी व मुफ्त शिक्षा का अधिकार नहीं देता बल्कि कारपोरेट घरानो और उनके गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) को महंगी शिक्षा के माध्यम से मनमाने ढंग से मुनाफा कमाने का अधिकार देता है। यह एक विडंबना है कि जिस अंतरराष्ट्रीय पूंजी के दबाव में सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था को बदहाल और बरबाद किया गया उसी पूंजी की विभिन्न एजेंसियों द्वारा पोषित एनजीओ मध्य प्रदेश में भी अपने पांव पसार रहे हैं और कथित तौर पर सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाने की बात कर रहे हैं। ऐसे में प्रदेश की जनता स्वाभाविक तौर पर यह पूछेगी कि आखिर यह खेल क्या है और इन एनजीओ का असल मकसद क्या है?
मंच से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कहा कि सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाने के नाम पर ये एनजीओ ‘शिक्षा अधिकार कानून, 2009’ के प्रावधानों को ‘अच्छी तरह लागू करने’ की वकालत करते हैं। जबकि इस कानून की असलियत यह है कि इसके जरिए,जिस भेदभावपूर्ण, गैर-बराबर और बहुपरती शिक्षा व्यवस्था के कारण देश के बहुसंख्यक गरीबों, दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों व हाशिए पर धकेले गए अन्य समुदायों के बच्चे शिक्षा से वंचित किए गए हैं, उसी व्यवस्था को न सिर्फ जारी रखा गया है, बल्कि कानूनी जामा भी पहनाया है;सरकारी स्कूलों के लिए घटिया मानदंड रख कर उन्हे हमेशा दोयम दर्जे का बनाए रखने का इंतजाम किया गया है;वंचित तबकों के बच्चों के लिए निजी स्कूलों में ‘25 फिसदी कोटे’ के बहाने सार्वजनिक धन को निजी हाथों में सौंपने रास्ता खोला गया है जबकि यह धन सरकारी स्कूलों के बेहतरीकरण के लिए इस्तेमाल होना था;सरकारी स्कूलों के शिक्षकों से तमाम गैर-शैक्षणिक काम करवाने को पूरी तरह वैधानिक कर दिया गया है जबकि निजी स्कूलों के शिक्षक इस बाध्यता से मुक्त रखे गए हैं;बच्चों से कला, संगीत, खेलकूद और कंप्यूटर सीखने के अधिकार को छीन कर ‘राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, 2005’ का भी उल्लंघन किया गया है, जबकि ये सारी सुविधाएं देश के संपन्न तबके के बच्चों को अभिजातीय व महंगे स्कूलों में पैसे देकर मिलती हैं;बिना पूर्णकालिक हेडमास्टर और पर्याप्त शिक्षकों के भी सरकारी स्कूल चलाने की छूट सरकार को मिल गई है; निजी स्कूलों को अभिभावकों से बेरोकटोक पैसा वसूल कर मुनाफा कमाने की पूरी छूट मिल गई है। यही नही इस मुनाफे को पूरी तरह ‘टैक्स-फ्री’ रखा गया है। (स्कूल शिक्षकों के वेतन पर तो आयकर है लेकिन स्कूल के मालिकों के मुनाफों पर नही!);
वक्ताओं ने कहा कि सरकारी स्कूलों को लगातार बदहाल कर उनकी तालाबंदी/विलयन/नीलामी/आउटसोर्सिंग आदि के माध्यम से निजी हाथों में सौंपने के दरवाजे वैधानिक तौर पर खोल दिए गए हैं। पूरे देश के अलग-अलग प्रदेशों में यह धड़ल्ले से हो रहा है। फिर भी ये एनजीओ शिक्षा अधिकार कानून, 2009 के प्रावधानों को ‘अच्छी तरह लागू करने’ की वकालत करते हैं! क्या इसलिए कि इनके अपने बच्चे इन बदहाल होते सरकारी स्कूलों में नही पढ़ते? या फिर क्या इसलिए कि ये एनजीओ उसी अंतरराष्ट्रीय पूंजी द्वारा पोषित हैं जिसने पिछले 25 साल में सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था को बदहाल और बरबाद करवाया और शिक्षा को आज मुनाफाखोरी का बाजार बना दिया है? उन्होंने कहा कि सच्चाई यह है कि ये एनजीओ शिक्षा के अधिकार की लड़ाई लड़ने के लिए नहीं, बल्कि इसके उलट ऐसी जमीनी लड़ाइयों को भ्रामक तर्कों में उलझाकर और फौरी राहत के नाम पर कुछ समझौते कराकर जनता को उसके अधिकार से वंचित रखने के लिए और इस तरह मुनाफाखोरी की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए काम कर रहे हैं। और इसी काम के लिए अंतरराष्ट्रीय पूंजी इन्हे अपने मुनाफे की लूट का एक हिस्सा देकर खुद ही खड़ा करती है। दरअसल ये एनजीओ जिस कानून को ‘अच्छी तरह लागू करने’ की वकालत कर रहे हैं उस कानून के शिक्षा-विरोधी नवउदारवादी स्वरूप के कारण शिक्षा अधिकार मंच, भोपाल पिछले चार सालों से विरोध कर रहा है और भोपाल के लोग इस दौरान दो बार इस कानून की प्रतियां विरोध-स्वरूप जला चुके हैं और इस कानून की जगह पूरी तौर पर मुफ्त और सरकार द्वारा वित्त-पोषित ‘समान स्कूल व्यवस्था’ स्थापित करने वाले कानून की मांग करते रहे हैं।


Tuesday, 14 July 2015

ग़रीबों के बर्ताव को सुधारने की शिक्षा

30 जून के द हिन्दू में 'टीचिंग द पुअर टू बिहेव' शीर्षक से जी संपत (संपथ?, G Sampath) का एक लेख छपा था। प्रस्तुत है उसके लगभग पूरे हिस्से का नज़दीकी अनुवाद। 
विश्व बैंक (वर्ल्ड बैंक) की 2015 की वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट (डब्लू डी आर) का शीर्षक है 'मानस, समाज और व्यवहार' (माइंड, सोसायटी एंड बिहेवियर)। इस सवाल का जवाब कि आखिर एक बैंक को इनसे क्या मतलब है, दो शब्दों का है: व्यवहार-संबद्ध अर्थशास्त्र (बिहेवियरल इकोनोमिक्स)। इस रपट में विश्व बैंक सरकारों को विकास की नीतियों में व्यवहार-संबद्ध अर्थशास्त्र अपनाने की सलाह पर बल देता है। रपट इस बात को दर्ज करती है कि अबतक सार्वजनिक क्षेत्र में अपनाई जाने वाली नीतियों का विश्लेषणात्मक आधार वो सामान्य अर्थशास्त्रीय सिद्धांत रहे हैं जिनमें यह मान्यता है कि व्यक्ति अपने सर्वश्रेष्ठ हित के अनुसार तार्किक आर्थिक कर्ता के रूप में व्यवहार करते हैं। मगर असल दुनिया में लोग अक़्सर अतार्किक तरीके से व्यवहार करते हैं और हमेशा अपने सर्वश्रेष्ठ आर्थिक हित के अनुसार बर्ताव नहीं करते। 

व्यवहार-संबद्ध अर्थशास्त्र मनोविज्ञान, नृविज्ञान, समाजशास्त्र व संज्ञानात्मक विज्ञान की मदद लेकर लोगों के सोचने और निर्णय लेने के तरीकों के बारे में और अधिक यथार्थवादी मॉडल बनाता है। जहाँ ये निर्णय आर्थिक दृष्टिकोण से ग़लत हैं, सरकारें वहाँ नागरिकों को सही निर्णय लेने की तरफ नीतियों के सहारे हल्के-से धकेल कर हस्तक्षेप कर सकती हैं। 
                                 ऐसा लग सकता है कि इन सब बातों में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है। मगर समस्या तब पैदा होती है जब हम देखते हैं कि व्यवहार-संबद्ध अर्थशास्त्री अपना ध्यान सिर्फ ग़रीबों के बर्ताव पर देते हैं। आज की तारीख में ऐसा कोई सबूत नहीं है जिसके आधार पर कहा जा सके कि ग़रीबी उन्मूलन के लिए ग़रीबों के व्यवहार को नियंत्रित करना अर्थ के शीर्ष पर कब्ज़ा जमाए तबकों के व्यवहार को नियंत्रित करने से बेहतर विकल्प है। निश्चित है कि शीर्ष पर विराजमान वर्ग के व्यवहार को पूरी तरह तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता है - विशेषकर 2008 के आर्थिक संकट के बाद तो बिल्कुल नहीं। 
इस अर्थशास्त्र की दूसरी मान्यता यह है कि ग़रीब अमीर से कम समझदार हैं - इसे शोध पर आधारित एक नई 'खोज' की तरह प्रस्तुत किया जाता है और रपट भी इसे जुगाली करके पूर्णतः उगलती है। यह एक खतरनाक और राजनैतिक रूप से ग़लत विचार है। ज़ाहिर है कि इसे सीधे शब्दों में बयान नहीं किया गया है। इसे यूँ बयान किया गया है कि 'ग़रीबी का संदर्भ' व्यक्ति के मानसिक संसाधनों को कम कर देता है जिसके परिणामस्वरूप वो, खासतौर से उनकी तुलना में जो इस संदर्भ में स्थित नहीं हैं, एक खराब निर्णय लेने वाला साबित होता है। 
इन मान्यताओं का समर्थन करने के लिए कई शोध अध्ययनों को उद्धृत किया गया है। रपट में उल्लिखित एक ऐसा ही अध्ययन भारतीय गन्ना किसानों पर किया गया था जोकि वर्ष में एक बार, फसल कटाई के बाद, आय प्राप्त करते हैं। यह पाया गया कि किसानों का आमदनी से पहले का आई क्यू स्कोर बाद के स्कोर से दस अंक कम था! अर्थात, आदर्श स्थिति में उन्हें फसल कटाई से पहले महत्वपूर्ण वित्तीय निर्णय नहीं लेने चाहिए। व्यवहार पर ग़रीबी से पड़ने वाले असर के बारे में इस अंतर्दृष्टि से नीति निर्माण के लिए निहितार्थ तय होते हैं। उदाहरण के लिए, राज्य द्वारा कैश को 'उचित समय' पर या प्राप्तकर्ताओं के तर्कसंगत व्यवहार दर्शाने की शर्त पर ट्रांसफर किया जा सकता है।
रपट पूर्ण विश्वास से कहती है कि ग़रीबी से मानस का निर्माण होता है। इस मान्यता के बाद आज के चोटी के व्यवहार-संबद्ध अर्थशास्त्रियों के लिए यह स्थापित करना मुश्किल नहीं रह जाता कि ग़रीब इसलिए ग़रीब हैं क्योंकि उनकी ग़रीबी उन्हें ऐसे तरीकों से सोचने व बर्ताव करने से रोकती है जो उन्हें ग़रीबी से बाहर ले जा सकते हैं। 
इस प्रकार ग़रीबी-उन्मूलन का केंद्र व उसकी ज़िम्मेदारी राज्य द्वारा नीति बनाने, रोज़गार, शिक्षा व स्वास्थ्य उपलब्ध कराने से हटकर ग़रीबों के व्यवहार-परिवर्तन पर डाल दी जाती है। ग़रीबी के संरचनात्मक कारण - बढ़ती असमानता व बेरोज़गारी - और पूँजी के मालिकों का व्यवहार इस बहस से ग़ायब कर दिए जाते हैं, तथा सार्वजनिक क्षेत्र की नीति की चिंता का विषय नहीं रह जाते।
इस संदर्भ में यह याद रखना वाजिब होगा कि 80 के दशक से शुरु होकर व 90 के दशक तक सम्मान और वित्तीय समर्थन हासिल करने तक अर्थशास्त्र की इस समझ का शास्त्रीय विकास नवउदारवाद के उठान के समानांतर चला है। इस क्षेत्र के सभी प्रमुख अर्थशास्त्रियों को इस रपट में बहुतायत से उद्धृत किया गया है। 
सामाजिक-आर्थिक समस्याओं के लिए बाजार के नेतृत्व वाले समाधानों को प्रस्तुत करना नवउदारवादी सोच का एक आधारभूत उसूल है। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि अक़्सर ग़रीबी बाजार की विफलता का ही लक्षण होती है। मुक्त-बाजार के विचारक ग़रीबी व अन्य सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का कारण राज्य के हस्तक्षेप से बाजार में उत्पन्न विकार को ही मानते हैं। विश्व बैंक की रपट को शक्ल देने वाले अर्थशास्त्रियों को इसी आधार पर चुना जाता है कि वो इस सिद्धांत में विश्वास रखते हों। 
उदाहरण के तौर पर, 2000-01 की रपट का, जिसका शीर्षक था 'ग़रीबी पर प्रहार' (अटैकिंग पॉवर्टी), मूल ड्राफ्ट रवि कांबूर (Ravi Kanbur) द्वारा तैयार किया गया था जिन्हें जोसफ स्टिग्लिट्ज़ (Joseph Stiglitz) लाये थे। इस ड्राफ्ट में मुक्त बाजार के सुधारों से पहले ग़रीबों के लिए सामाजिक सुरक्षा ढाँचे खड़े करने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया गया था। उल्लेखनीय है कि इन दोनों ही महानुभावों को रपट के आने से पहले ही विश्व बैंक बाहर का रास्ता दिखा चुका था! अंतिम रपट में सामाजिक सुरक्षा के ढाँचों को पहले खड़ा करने की जगह श्रम-सुधारों के साथ खड़ा करने की बात दर्ज की गई! 
विश्व बैंक के इतिहास के इस उल्लेख का प्रयोजन यह दर्शाना है कि मुक्त-बाजार विचारधारा को अपनाने से विश्व बैंक के अर्थशास्त्रियों को एक 'संज्ञानात्मक कर' चुकाना पड़ता है जिसके चलते वो ग़रीबी को ऐसे कोणों से नहीं देख पाते जिनसे इस विचारधारा का विरोधाभास हो। 
मुक्त बाजार के संदर्भ में कीन्स (Keynes) के सामाजिक सुरक्षा उपायों को सार्वजनिक नीति के एजेंडे से हमेशा के लिए बहिष्कृत किया जा सकता है। मगर इससे बढ़ती असमानता से उपजने वाले सामाजिक और राजनैतिक परिणामों से निपटने की समस्या जस-की-तस बनी रहती है। बढ़ता असंतोष राजनैतिक अस्थिरता पैदा कर सकता है। आखिर बाज़ारों के काम करने के लिए और उसमें बिकने वाली वस्तुओं के नियमित व निर्बाध प्रवाह को सुनिश्चित करने के लिए यह ज़रूरी है कि बहिष्कृत जन को तमीज़ से रहना सिखाया जाए। यही वो बिंदु है जहाँ व्यवहार-संबद्ध अर्थशास्त्र प्रवेश करके मदद करता है। 
                              ग़रीबों के व्यवहार को बदलने के लिए उसे समझना ज़रूरी है। यही वो समझ है जिसे व्यवहार-संबद्ध अर्थशास्त्री सूत्रों में बाँधकर ज्ञान का रूप देने का वादा कर रहे हैं। रपट अवश्य ही स्वीकारती है कि अमीर, अर्थशास्त्री और विश्व बैंक के कर्मचारी भी संज्ञानात्मक भ्रम में मुब्तिला हो सकते हैं। 
मगर अपने 230 पृष्ठों में रपट कहीं व्यवहार-संबद्ध अर्थशास्त्र से प्रेरित नीतिगत हस्तक्षेप का एक भी ऐसा काल्पनिक उदाहरण तक प्रस्तुत नहीं करती जिसका निशाना, उदाहरणार्थ, अरबपति निवेशक हों। इसके बावजूद कि ग़रीबों की तुलना में यह एक ऐसा वर्ग है जो किसी देश की आर्थिक दशा व दिशा पर कहीं अधिक प्रभाव रखता है। एक ग़रीब किसान के वित्तीय निर्णयों को नज़दीक से नियंत्रित करने से कहीं ज़्यादा फायदेमंद और निश्चित परिणाम इन निवेशकों के व्यवहार को बदलने से प्राप्त हो सकते हैं। (उदाहरण के लिए, उन्हें ऐसे नियंत्रित करके कि वो अपनी अरबों की पूँजी सट्टा बाजार में लगाने के बजाए उत्पादक क्षेत्र में लगाएँ।)
इस पूरी रपट में व्यवहार (behaviour) और कर्म (action) की संकल्पनाओं के समान इस्तेमाल से एक भ्रामक समझ व्याप्त है। 'व्यवहार' की शब्दावली अपने मूल और सटीक रूप में जानवरों के संदर्भ में और वस्तुओं के वैज्ञानिक अवलोकनों में प्रयुक्त होती है। व्यवहारों का अध्ययन पैटर्न तलाशने के लिए किया जाता है। जिस हद तक इंसान भी जानवर हैं उस हद तक यह कहा जा सकता है कि वो भी व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। मगर जो चीज़ उन्हें इंसान बनाती है वह उनकी व्यवहार के पैटर्न से परे जाने की ही क्षमता है। अन्य शब्दों में, उनके कर्म करने की क्षमता।
राजनैतिक सिद्धांतकार हाना अरेन्ड्ट (Hannah Arendt) अपनी कृति द ह्यूमन कंडीशन में तीन प्रकार की गतिविधि की बात करती हैं - श्रम, कार्य और कर्म। इन तीनों में जो चीज़ कर्म को रेखांकित करती है वह इसका राजनैतिक चरित्र है। जब व्यवहार-संबद्ध अर्थशास्त्र ग़रीबी को 'संज्ञानात्मक कर' की तरह निरूपित करता है तो वह 'कर्म', अर्थात ग़रीब की राजनैतिक क्रिया को सूत्र से खारिज करता है। 
जैसे-जैसे लोकतान्त्रिक राष्ट्र-राज्य अपने वजूद को भूमंडलीय वित्तीय बाजार, WTO जैसी अलोकतांत्रिक संस्थाओं और GATTS जैसे व्यापर समझौतों के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए पुनरानुकूलित कर रहे हैं वैसे-वैसे वे अनिवार्यतः अपने ही नागरिकों की आकांक्षाओं के प्रति कम ज़िम्मेदार होते जाएँगे। चूँकि खुला दमन हमेशा सबसे कामयाब या सस्ता नीतिगत विकल्प नहीं होता है इसलिए आर्थिक रूप से बहिष्कृत वर्गों को वैचारिक स्तर पर पालतू बनाने के तौर-तरीके ढूँढना लाज़मी हो गया है। ग़रीबों के मानस और व्यवहार पर केंद्रित ज़ोर इसी चिंता का परिणाम है।
जिस हद तक व्यवहार-संबद्ध अर्थशास्त्र ग़रीबी में स्थित लोगों पर अपना ध्यान केंद्रित करता है - और यही धारा इस वर्ष की वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट में हावी है - यह नवउदारवाद के राजनैतिक प्रबंधन के तरकश का सबसे नया तीर ही है। 

( द हिन्दू , 30 जून, 2015 से साभार )
           

Thursday, 9 July 2015

प्रेस विज्ञप्ति :स्कूलों में दाखिले के लिए आधार कार्ड अनिवार्य करने के संदर्भ में

प्रति                                                       दिनांक : 04 जुलाई, 2015
संपादक

विषय : दिल्ली सरकार के स्कूलों में दाखिले के लिए आधार कार्ड अनिवार्य करके सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना के संदर्भ में ।

महोदया/महोदय,
लोक शिक्षक मंच शिक्षा के विद्यार्थियों, शोधार्थियों और शिक्षकों का एक समूह है जो सरकारी शिक्षा व्यवस्था के मजबूतीकरण के लिए प्रतिबद्ध एवं संघर्षरत हैलोक शिक्षक मंच ने बाल अधिकार संरक्षण आयोग, दिल्ली के समक्ष सरकारी स्कूलों में  बच्चों की प्रवेश प्रक्रिया को लेकर एक शिकायत की थीसरकारी स्कूलों में प्रशासन के आदेशों के दबाव में विभिन्न कक्षाओं में प्रवेश के लिए बच्चों व उनकी माताओं के आधार कार्ड की प्रति और बच्चे के बैंक खाते का ब्यौरा माँगा जा रहा है। इस ग़ैर-कानूनी माँग के कारण न सिर्फ अभिभावकों को परेशानी हो रही है, उनका समय व धन बर्बाद हो रहा है, उन्हें धक्के खाने पड़ रहे हैं बल्कि बच्चों के सामने शिक्षा से भी वंचित होने का खतरा बढ़ गया है। शिकायत के जवाब में मंच को आयोग से पत्र संख्या C/RTE/DCPCR/15-16/06/1457 (दिनाँक 4-6-15) और शिक्षा निदेशालय का संलग्न पत्र संख्या DE 23 (540)/Sch.Br/2015/DCPCR/513 (दिनाँक 1-5-15) प्राप्त हुआ। मंच न केवल जवाब से संतुष्ट है बल्कि इसे लेकर निराश भी है।
शिक्षा निदेशालय का कहना है कि किसी को आधार कार्ड व बैंक खाता न होने के कारण दाखिले से मना न किया जाए मगर  साथ ही वह यह भी स्पष्ट करता है कि प्रवेश के समय इन्हें फॉर्म में दर्ज करना ज़रूरी है! यह  न सिर्फ़ समस्या को टरकाने का रवैया दर्शाता है बल्कि क़ानूनी स्थिति का भी मखौल उड़ाता है। यह सर्वविदित है कि बैंक खाते खोलने के लिए भी आधार कार्ड का होना कोई अनिवार्य शर्त नहीं है। इसके लिए जारी सूची में से कोई भी दस्तावेज़ प्रस्तुत किया जा सकता है। रही बात खातों को अनिवार्य रूप से आधार से जोड़ने की तो यह भी सुप्रीम कोर्ट की अवमानना ही हुई। ऐसे में आयोग व शिक्षा विभाग को ऐसे आदेशों को मानने व जारी करने के बजाए अदालत के आदेशों का हवाला देकर क़ानून की स्थिति के आलोक में आधार की अनिवार्यता से जुड़े प्रशासनिक आदेशों के ग़ैर-क़ानूनी होने की बात साफ़ करनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने बार-बार कहा है (सितंबर 2013, मार्च 2014 व मार्च 2015) कि वो आधार की शर्त लगाने वाले आदेश जारी करने वाले अधिकारियों के विरुद्ध अवमानना की कार्रवाई करेगा। 
उपरोक्त तथ्यों के संदर्भ में उस प्रशासनिक आदेश की प्रति उपलब्ध नहीं कराई गई जिसमें सक्षम अधिकारी ने वज़ीफ़े के लिए खातों को आधार संख्या से जोड़ने के आदेश जारी किये हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि आधार की अनिवार्यता संबंधी कोई लिखित आदेश असल में जारी ही नहीं किए गए हैं मगर प्रधानमंत्री से लेकर सचिव तक कुल प्रशासन मौखिक निर्देशों के बल पर इसे जबरन थोपने पर तुला हुआ है। यह प्रशासन का कानून के प्रति शर्मनाक बर्ताव दर्शाता है और संदेश देता है कि वो अपनी मनमर्ज़ी को संवैधानिक पाबंदियों से परे मानता है।
आधार को लेकर न्यायालयों में जो सवाल खड़े किये गए हैं वो इसकी अपमानित करने वाली व इंसानी गरिमा के विरुद्ध बायोमैट्रिक प्रणाली, निजता के उल्लंघन, डाटा की सुरक्षा, संसद में इसके क़ानून का पारित न होना आदि गंभीर मुद्दों से जुड़े हैं। सभी बच्चों के अधिकारों की रक्षा करना आयोग व शिक्षा विभाग का फ़र्ज़ है इसलिए इन्हें 18 साल से कम उम्र के सभी बच्चों के लिए किसी भी तरह की बायोमैट्रिक पहचान की छाप - जिसमें इंसानों को जानवरों या निर्जीव वस्तुओं की तरह चिन्हित किया जाता है - को स्वीकृति नहीं देनी चाहिए। यह अदालत के आदेशों के भी अनुकूल होगा। हमें याद रखना चाहिए कि दक्षिण अफ्रीका में गाँधी द्वारा लड़ा गया एक आंदोलन उस प्रावधान के खिलाफ था जिसके अंतर्गत सभी भारतीयों को अपनी उँगलियों के निशान पुलिस के पास दर्ज कराने थे और उन निशानों से युक्त एक पहचान-पत्र सार्वजनिक स्थलों पर धारण करना था। इस तरह के आदेशों का विरोध इसलिए भी हुआ था - और हो रहा है - क्योंकि पुलिस के पास उँगलियों की छाप दर्ज कराने का सिलसिला अपराधियों के संदर्भ में शुरु हुआ था। सबकी बायोमैट्रिक जानकारी का एक स्थाई रिकॉर्ड रखने का अभिप्राय है कि सब संदिग्ध की श्रेणी में डाल दिए गए हैं! चाहे वो बच्चे ही क्यों न हों। हम इस घिनौने विचार का विरोध करते हैं। साथ ही, जानवरों को निजताहीन प्राणी समझकर उनके मालिकों की सुविधा के लिए उन्हें गोदने आदि की जो अमानवीय परम्परा रही है, बायोमैट्रिक प्रणाली उसी तर्ज पर आधारित है। बच्चों को ऐसे प्रशासनिक आदेशों - वो भी ग़ैर-क़ानूनी - के पालन की मजबूरी के बहाने हम उनकी मासूमियत का फायदा उठाकर उन्हें आधुनिक तकनीक के मानव व स्वतंत्रता विरोधी चरित्र के खतरों से पूरी तरह अनजान बना देंगे। जब वो 18 से पहले कुछ निजी अधिकारों - जैसे शादी - से इसलिए वंचित होते हैं कि वो पर्याप्त रूप से परिपक्व नहीं हैं तब फिर इस उम्र से पहले उनकी बायोमैट्रिक पहचान दर्ज करके उन्हें जबरन (या माता-पिता की सहमति से भी) एक ऐसे अधिकार को खोने वाला निर्णय लेने पर कैसे मजबूर किया जा सकता है जो एक बार छिन गया तो फिर प्राप्त नहीं हो सकता? जिस तरह वयस्क होने से पहले किसी को क़ानून में इतना परिपक्व नहीं माना जाता है कि वो अपनी शादी या सम्पत्ति का फैसला कर पाए, उसी तरह गरिमा व निजता से जुड़ी हुई बायोमैट्रिक पहचान अपनाने  दर्ज कराने के संदर्भ में बच्चों को पूर्ण संरक्षण की ज़रूरत है, न कि जबरन या धूर्त दोहन की।
लोक शिक्षक मंच माँग करता है कि स्कूलों में प्रवेश/वज़ीफ़ा प्रक्रिया सहित बच्चों पर आधार लादने के सभी प्रशासनिक आदेशों, प्रावधानों पर तत्काल प्रभाव से पूरी तरह रोक लगाई जाए ताकि बच्चों को अपमानित करने वाली प्रक्रिया से संरक्षण मिलेउनकी गरिमा को ठेस न पहुँचे, उनके शिक्षा के अधिकार का उल्लंघन न हो और सर्वोच्च न्यायालय की भी अवमानना न होने पाए।  
                                                               
 सधन्यवाद 


रंजीता सरोज                          राजेश                                 फिरोज
सदस्य                               सदस्य                                 सदस्य
संयोजक समिति                       संयोजक समिति                         संयोजक समिति
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संलग्न :
1.   शिक्षा निदेशक, दिल्ली को लोक शिक्षक मंच का शिकायती पत्र ।
2.   बाल अधिकार संरक्षण आयोग, दिल्ली का लोक शिक्षक मंच को जवाबी पत्र ।
3.   शिक्षा निदेशालय, दिल्ली का बाल अधिकार संरक्षण आयोग, दिल्ली को जवाबी पत्र ।
4.   शिक्षा निदेशालय, दिल्ली का आधार कार्ड और बैंक खाते के संदर्भ में सर्क्युलर ।

5.   सर्वोच्च न्यायालय के आधार कार्ड के संदर्भ में विभिन्न आदेशों की प्रतियां ।