“भारत में निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का कानून लागू है। सरकारी कार्यालयों में चाय पहुंचाते बच्चों को देख कर ये बखूबी जाना जा सकता है कि हमारे देश में ये कानून किस तरह लागू है। शिक्षा न तो निशुल्क है और न ही अनिवार्य। निजी विद्यालयों में मोटी फीस वसूलते हैं, सरकारी विद्यालय भी किसी न किसी बहाने कुछ पैसा वसूल ही लेते हैं।”
दुनिया के सभी विकसित देशों व कई विकासशील देशों ने भी 99-100 प्रतिशत तक साक्षरता की दरें हासिल कर ली हैं। भारत में आधे बच्चे विद्यालय स्तर की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते। यहां सबसे बड़ी दिक्कत है समान शिक्षा प्रणाली का न होना और उसके साथ पड़ोस के विद्यालय की अवधारणा को लागू न करना। यदि ये दोनों बातें लागू होती हैं तो सभी बच्चों को लगभग एक गुणवत्ता वाली शिक्षा हासिल करने का अवसर उपलब्ध होगा। दुनिया के जिन देशों ने 99 या 100 प्रतिशत साक्षरता की दर हासिल कर ली है उसमें बड़ा योगदान इन अवधारणाओं का है।
एक समान शिक्षा प्रणाली नहीं
भारत में अब दो तरह की शिक्षा व्यवस्थाएं हैं - एक पैसे वालों के लिए जो अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में पढ़ाते हैं तो दूसरी गरीब लोगों के लिए जो अपने बच्चे सरकारी विद्यालय में भेजते हैं जहां पढ़ाई ही नहीं होती। यही लोग उच्च शिक्षा के लिए सरकारी संस्थानों जैसे भारतीय प्राद्योगिकी संस्थान या भारतीय प्रबंध संस्थान में दाखिला लेना पसंद करते हैं क्योंकि इस स्तर पर मान्यता है कि निजी महाविद्यालयों या विश्वविद्यालयों में गुणवत्ता नहीं। इससे साफ है कि गुणवत्ता का ताल्लुक निजी या सरकारी से नहीं, इच्छा शक्ति से है।
इस तरह शिक्षा विषमता को बढ़ा देती है। गरीब का बच्चा जिसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिलती अपनी शिक्षा के आधार पर अपना विकास नहीं कर पाता। इसलिए ज्यादातर गरीबों के बच्चे शिक्षा व्यवस्था से ही बाहर हो जाते हैं। अंग्रेजी और कम्प्यूटर का ज्ञान इन बच्चों को स्पष्ट दो वर्गों में विभाजित कर संविधान में दिए गए समानता के अधिकार का मखौल उड़ाता है।
शिक्षा पूरी करने में गरीबों के लिए एक बड़ी बाधा कुपोषण भी है। जनवरी 2013 में प्रधान मंत्री ने एक रपट जारी करते हुए कहा कि यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है भारत में आधे बच्चे कुपोषित हैं। अब यदि प्रधानमंत्री ही शिकायत करने लगें तो समाधान कौन ढूंढेगा? यह राजनीतिक इच्छा शक्ति का स्पष्ट प्रमाण है।
अमरीका जैसे घोर पूंजीवादी देश में विद्यालय स्तरीय शिक्षा पड़ोस के विद्यालय में पूरी होती है जिसका संचालन स्थानीय निकाय करता है। यहां कोई शुल्क नहीं लगता बल्कि किताबें, यूनिफॉर्म और घर से आने-जाने के लिए बस का खर्च भी विद्यालय ही वहन करता है। सबसे बड़ी बात है कि सभी बच्चों के लिए एक समान शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध रहती है। जो काम दुनिया के कई विकसित एवं विकासशील देशों ने कर दिखाया है वह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र क्यों नहीं कर रहा?
लखनऊ में 31 बच्चों को नहीं मिला दाखिला
भारत में 1968 में कोठारी आयोग ने समान शिक्षा प्रणाली एवं पड़ोस के विद्यालय की अवधारणा को लागू करने की सिफारिश की थी। किंतु तब से लेकर अब तक सभी सरकारों ने उसे नजरअंदाज किया है। 2009 में मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हुआ जिसने कमजोर तबकों के परिवारों के बच्चों को सभी विद्यालयों में 25 प्रतिशत आरक्षण देने की व्यवस्था की। पहले तो सरकारें इस प्रावधान को क्रियान्वित करने में गम्भीर नहीं थीं। अब निजी विद्यालय कानून के इस प्रावधान की काट निकालने की तमाम कोशिश कर रहे हैं।
लखनऊ के बेसिक शिक्षा अधिकारी ने 2015-16 शैक्षणिक सत्र के लिए दिनांक 6 अप्रैल, 2015 को 31 गरीब परिवारों के बच्चों को शहर के जाने माने विद्यालय सिटी मांटेसरी स्कूल में मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009, के अंतर्गत प्रत्येक विद्यालय में 25 प्रतिशत गरीब परिवारों के बच्चों हेतु आरक्षण के प्रावधान के तहत दाखिले का आदेश किया। सिटी मांटेसरी स्कूल ने बच्चों को दाखिला देने के बजाए न्यायालय में याचिका दायर करने का निर्णय लिया। वह बच्चों को दाखिला न देने के तमाम कारण गिना रहा है। पहले तो वह कह रहा है कि उसके पास जगह की कमी है क्योंकि उसने पहले ही जितनी क्षमता थी उतने दाखिले ले लिए हैं। फिर वह सवाल कर रहा है कि बच्चों के घर के पास एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय व कुछ निजी विद्यालय भी हैं तो दाखिले का आदेश सिटी मांटेसरी स्कूल में ही क्यों किया गया?
उ.प्र. सरकार के इस वर्ष के शासनादेश के मुताबिक एक वार्ड को पड़ोस माना गया है। शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत गरीब परिवारों के बच्चों को आरक्षण का लाभ पड़ोस के विद्यालय में ही मिलेगा। जो सरकारी विद्यालय बच्चों के घर के पास में है वह उनके वार्ड में नहीं जबकि सिटी मांटेसरी की इंदिरा नगर शाखा उसी वार्ड में स्थित है। शासनादेश के अनुसार सरकारी विद्यालय में यदि कक्षा 1 में 40 से ज्यादा बच्चों का दाखिला हो चुका है तभी आप निजी विद्यालयों में दाखिले का दावा कर सकते हैं। उपर्युक्त सरकारी विद्यालय में 52 बच्चों का दाखिला हो चुका है। न्यायालय ने सिटी मांटेसरी स्कूल द्वारा खड़े किए गए सवालों का जवाब शिक्षा विभाग से मांगा है। उसने दाखिले पर कोई रोक नहीं लगाई और न ही स्थगनादेश दिया है। इसके वाबजूद सिटी मांटेसरी बच्चों को दाखिला नहीं दे रहा।
सिटी मांटेसरी विद्यालय जिसकी 20 शाखाओं में करीब 47,000 बच्चे पढ़ते हैं, दुनिया के सबसे बड़े विद्यालय की जिसे गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड ने मान्यता दी है, 31 गरीब बच्चों को दाखिला न देने के लिए जगह की कमी होने का बहाना बना रहा है। सिटी मांटेसरी यह भी कह रहा है कि सरकार एक बच्चे को पढ़ाने का जो रु. 450 प्रति माह का खर्च देने वाली है वह कम है।
निजी विद्यालयों का राष्ट्रीयकरण जरूरी
इससे बड़ा मजाक क्या होगा कि पूरे उत्तर प्रदेश के सभी जिलों के बेसिक शिक्षा अधिकारियों ने मिल कर अभी तक करीब तीन हजार से थोड़ा कम ही बच्चों का दाखिला कराया है। इतने थोड़े से बच्चों का दाखिला करा कर सरकार हर गरीब बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने की अपनी जिम्मेदारी कैसे पूरी करेगी? ऐसी व्यवस्था में सरकार को निजी विद्यालयों का राष्ट्रीयकरण करके उनको समान शिक्षा प्रणाली की व्यवस्था के तहत संचालित करना चाहिए। इन विद्यालयों में शिक्षण कार्य का प्रबंधन भले ही निजी हाथों में हो किंतु प्रशासनिक संचालन सरकार को अपने हाथों में ले लेना चाहिए ताकि सरकार अपने हिसाब से गरीब बच्चों को यहां पढ़ा सके।
सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर के हिसाब से भारत दुनिया में अग्रणी देशों में है किंतु सामाजिक मानकों के हिसाब से हमारी गिनती सबसे पिछड़े देशों में होती है। दक्षिण एशिया में आजादी के समय सामाजिक मानकों की दृष्टि से श्रीलंका के बाद हमारा स्थान था। अब पाकिस्तान को छोड़ बाकी सभी देश हमसे आगे निकल गए हैं।
( आउटलुक हिंदी से साभार )