Friday, 24 July 2015

खबर : अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के दबाव में सरकारों ने सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था को बरबाद करने का एजेंडा लागू किया

भोपाल। शिक्षाविद डॉ. अनिल सद्गोपाल ने कहा है कि सन 1991 में वैश्वीकरण की घोषणा के बाद से अंतर्राष्ट्रीय पूंजी और उसकी विभिन्न एजेंसियों (यथा, विश्व बैंक, आइ.एम.एफ, डी.एफ.आइ.डी. व अन्य) के दबाव में केंद्र व राज्य सरकारों ने सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था को बदहाल व बरबाद करने का एजेंडा लागू किया। इसके तहत डी.पी.ई.पी व सर्व शिक्षा अभियान जैसी स्कीमों के जरिए सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता गिराई गई जिससे गरीब तबके के लोग भी अपने बच्चों को वहां पढ़ाने से कतराने लगें। इस तरह सरकारी स्कूल व्यवस्था की विश्वसनीयता मिट्टी में मिलाई गई ताकि निजी स्कूलों के अबाध मुनाफे का बाजार खोला जा सके।
डॉ. सद्गोपाल आज एक प्रेस वार्ता में संवाददाताओं से बात कर रहे थे। शिक्षा में गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) की भूमिका के मुद्दे पर इस प्रेस-वार्ता का आयोजन शिक्षा अधिकार मंच, भोपाल द्वारा किया गया था। मंच की तरफ से इसे शिक्षाविद डॉ. अनिल सद्गोपाल (सदस्य, अध्यक्ष-मंडल, अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच), शैलेंद्र शैली (सीपीआई),आशीष स्ट्रगल (ए.आइ.एस.एफ.), विजय कुमार(आर.वाइ.एफ.आइ.) ने संबोधित किया।
वक्ताओं ने कहा कि शिक्षा अधिकार कानून, 2009 दरअसल सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। ये कानून बच्चों को अच्छी व मुफ्त शिक्षा का अधिकार नहीं देता बल्कि कारपोरेट घरानो और उनके गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) को महंगी शिक्षा के माध्यम से मनमाने ढंग से मुनाफा कमाने का अधिकार देता है। यह एक विडंबना है कि जिस अंतरराष्ट्रीय पूंजी के दबाव में सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था को बदहाल और बरबाद किया गया उसी पूंजी की विभिन्न एजेंसियों द्वारा पोषित एनजीओ मध्य प्रदेश में भी अपने पांव पसार रहे हैं और कथित तौर पर सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाने की बात कर रहे हैं। ऐसे में प्रदेश की जनता स्वाभाविक तौर पर यह पूछेगी कि आखिर यह खेल क्या है और इन एनजीओ का असल मकसद क्या है?
मंच से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कहा कि सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाने के नाम पर ये एनजीओ ‘शिक्षा अधिकार कानून, 2009’ के प्रावधानों को ‘अच्छी तरह लागू करने’ की वकालत करते हैं। जबकि इस कानून की असलियत यह है कि इसके जरिए,जिस भेदभावपूर्ण, गैर-बराबर और बहुपरती शिक्षा व्यवस्था के कारण देश के बहुसंख्यक गरीबों, दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों व हाशिए पर धकेले गए अन्य समुदायों के बच्चे शिक्षा से वंचित किए गए हैं, उसी व्यवस्था को न सिर्फ जारी रखा गया है, बल्कि कानूनी जामा भी पहनाया है;सरकारी स्कूलों के लिए घटिया मानदंड रख कर उन्हे हमेशा दोयम दर्जे का बनाए रखने का इंतजाम किया गया है;वंचित तबकों के बच्चों के लिए निजी स्कूलों में ‘25 फिसदी कोटे’ के बहाने सार्वजनिक धन को निजी हाथों में सौंपने रास्ता खोला गया है जबकि यह धन सरकारी स्कूलों के बेहतरीकरण के लिए इस्तेमाल होना था;सरकारी स्कूलों के शिक्षकों से तमाम गैर-शैक्षणिक काम करवाने को पूरी तरह वैधानिक कर दिया गया है जबकि निजी स्कूलों के शिक्षक इस बाध्यता से मुक्त रखे गए हैं;बच्चों से कला, संगीत, खेलकूद और कंप्यूटर सीखने के अधिकार को छीन कर ‘राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, 2005’ का भी उल्लंघन किया गया है, जबकि ये सारी सुविधाएं देश के संपन्न तबके के बच्चों को अभिजातीय व महंगे स्कूलों में पैसे देकर मिलती हैं;बिना पूर्णकालिक हेडमास्टर और पर्याप्त शिक्षकों के भी सरकारी स्कूल चलाने की छूट सरकार को मिल गई है; निजी स्कूलों को अभिभावकों से बेरोकटोक पैसा वसूल कर मुनाफा कमाने की पूरी छूट मिल गई है। यही नही इस मुनाफे को पूरी तरह ‘टैक्स-फ्री’ रखा गया है। (स्कूल शिक्षकों के वेतन पर तो आयकर है लेकिन स्कूल के मालिकों के मुनाफों पर नही!);
वक्ताओं ने कहा कि सरकारी स्कूलों को लगातार बदहाल कर उनकी तालाबंदी/विलयन/नीलामी/आउटसोर्सिंग आदि के माध्यम से निजी हाथों में सौंपने के दरवाजे वैधानिक तौर पर खोल दिए गए हैं। पूरे देश के अलग-अलग प्रदेशों में यह धड़ल्ले से हो रहा है। फिर भी ये एनजीओ शिक्षा अधिकार कानून, 2009 के प्रावधानों को ‘अच्छी तरह लागू करने’ की वकालत करते हैं! क्या इसलिए कि इनके अपने बच्चे इन बदहाल होते सरकारी स्कूलों में नही पढ़ते? या फिर क्या इसलिए कि ये एनजीओ उसी अंतरराष्ट्रीय पूंजी द्वारा पोषित हैं जिसने पिछले 25 साल में सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था को बदहाल और बरबाद करवाया और शिक्षा को आज मुनाफाखोरी का बाजार बना दिया है? उन्होंने कहा कि सच्चाई यह है कि ये एनजीओ शिक्षा के अधिकार की लड़ाई लड़ने के लिए नहीं, बल्कि इसके उलट ऐसी जमीनी लड़ाइयों को भ्रामक तर्कों में उलझाकर और फौरी राहत के नाम पर कुछ समझौते कराकर जनता को उसके अधिकार से वंचित रखने के लिए और इस तरह मुनाफाखोरी की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए काम कर रहे हैं। और इसी काम के लिए अंतरराष्ट्रीय पूंजी इन्हे अपने मुनाफे की लूट का एक हिस्सा देकर खुद ही खड़ा करती है। दरअसल ये एनजीओ जिस कानून को ‘अच्छी तरह लागू करने’ की वकालत कर रहे हैं उस कानून के शिक्षा-विरोधी नवउदारवादी स्वरूप के कारण शिक्षा अधिकार मंच, भोपाल पिछले चार सालों से विरोध कर रहा है और भोपाल के लोग इस दौरान दो बार इस कानून की प्रतियां विरोध-स्वरूप जला चुके हैं और इस कानून की जगह पूरी तौर पर मुफ्त और सरकार द्वारा वित्त-पोषित ‘समान स्कूल व्यवस्था’ स्थापित करने वाले कानून की मांग करते रहे हैं।


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