फ़िरोज़
पिछले दो-चार दिनों में दो अलग-अलग घटनाओं ने हमारे सामने मानवाधिकार के नृशंस उल्लंघन के उदाहरण प्रस्तुत किये। शिक्षक होने के नाते दोनों हिंसक घटनाओं ने हमारे समक्ष इस देश की शिक्षा व्यवस्था के चरित्र व नाकामी पर ही नहीं बल्कि बच्चों के अस्तित्व मात्र के बारे में भी एक बार फिर गंभीर सवाल खड़े कर दिए।
दादरी में हुई सामूहिक हत्या ने एक ओर समाज में फैले नफरत के बीजों को लेकर चिंता में डाला तो दूसरी ओर इसने साम्प्रदायिकता, क़ानून-न्याय, तर्कशीलता जैसे मुद्दों से जूझने में काफी हद तक शिक्षा की असफलता को भी बयाँ किया। आखिर इस बात के क्या मायने हैं कि हमलावरों में अधिकतर के नौजवान और 'पढ़े-लिखे' रहे होने की खबरें हैं? वहीं आस्था की 'भावनाओं' से उपजी यह हिंसा हमें उन लोगों से सवाल पूछने को भी मजबूर करती है जिनके अनुसार धर्म व संस्कृति की कमी के कारण समाज में अनैतिकता बढ़ रही है। क्या नैतिकता में साहस, तर्कशीलता, विवेक, व्यैक्तिक स्वतंत्रता, सत्यता, इन्साफ, संयम आदि मूल्य नहीं आते? हम यह भी जानते हैं कि इस घटना के बाद एक हिंसा पर्दे के पीछे अंजाम दी जाती रहेगी। चाहे वो जातिगत उत्पीड़न की वारदातें हों या भाषाई, क्षेत्रीय अथवा धार्मिक पहचान के आधार पर हुए क़त्लेआम, हर बार निशाने पर रहे समुदाय के बच्चों को विस्थापन और स्कूल छूट जाने का परिणाम भुगतना पड़ता है। प्रभावित इलाक़े के स्कूलों का माहौल बदल जाता है। समाज की अन्यायपूर्ण व्यवस्था को लेकर वहाँ का समझौतावादी वातावरण और दमघोटू व वीभत्स हो जाता है। संबंध नए रंग-रूप ले लेते हैं। 'कुछ' बच्चे आना ही बंद कर देते हैं। शिक्षा अधिकार क़ानून के बावजूद। लड़कियों का स्कूल छूट जाता है। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ की नेकनीयती के बावजूद। इस तरह की हिंसा स्थानीय सार्वजनिक स्कूलों के साझे चरित्र को खत्म कर देती है। लोग 'अपने-अपने' सुरक्षित इलाक़ों में जाकर बसने और सिमट कर रहने को मजबूर हो जाते हैं तो सार्वजनिक स्कूल की लोकतांत्रिक संभावनाएँ भी कमज़ोर पड़ जाती हैं। असुरक्षित लोग अपने बच्चों के लिए 'अपने' स्कूल खोजने-खोलने लगते हैं। ऐसे हिंसक समाज और संस्कृति की स्वाभाविक परिणति सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था के क्षरण में होगी।
दूसरी घटना मुनाफे के मूल्य पर चलाए जा रहे निजी स्कूलों की हिंसा को उजागर करती है। तेलंगाना राज्य के करीमनगर ज़िले के ब्रिलियंट मॉडल स्कूल की दसवीं कक्षा में पढ़ने वाले एक विद्यार्थी ने इसलिए खुदकुशी कर ली क्योंकि उसे स्कूल प्रशासन द्वारा फीस नहीं जमा कर पाने पर सार्वजनिक रूप से अपमानित किया जा रहा था। स्कूल प्रशासन ने उन बच्चों को चिन्हित करके कक्षा के बाहर खड़े रहने की सज़ा दी और आने वाली परीक्षाओं में बैठने नहीं देने की धमकी भी दी। हमारे अपने (प्राथमिक) स्कूलों में कई बच्चे ऐसे हैं जोकि निजी स्कूल छोड़कर आए हैं। उनसे भी बात करने पर यह पता चलता है कि उन स्कूलों ने इस मासूम उम्र में ही उन्हें उनकी औक़ात जानने की शिक्षा बखूबी दे दी है। कई बच्चे बताते हैं कि उन्हें व उनके माता-पिता को फीस न देने या देर से देने पर वहाँ सबके सामने बेइज़्ज़त किया जाता था। फीस व स्कूल प्रशासन के व्यवहार को वे स्कूल छोड़ने का मुख्य कारण बताते हैं। शायद नई शिक्षा नीति को तैयार करने के लिए हो रहे अभूतपूर्व देशव्यापी विचार-विमर्श में लोगों के ये मत/अनुभव भी स्थान पाएँ। वैसे इस संदर्भ में क़ानून का दामन बिलकुल पाक-साफ़ है - शिक्षा अधिकार अधिनियम निजी स्कूलों की पहली कक्षा में प्रवेश ले रहे कुल बच्चों की 25 फीसदी संख्या को ग़रीबी के आधार पर आठवीं तक पढ़ने का सुनहरा अवसर उपलब्ध कराता है और ये छात्र इसकी कोई शर्त पूरी नहीं करता था। अनुभव व उसूल दोनों के धरातल पर ये साफ़ है कि राज्य द्वारा वित्त-पोषित और सबके लिए पूर्णतः मुफ्त शिक्षा के संस्थानों के बिना सब बच्चों को भेदभावरहित, समान और गरिमापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराना सम्भव नहीं है। जिन स्कूलों में फीस देने वाले विद्यार्थियों के साथ इस बाबत हिंसा की जाए कि वो समय पर फीस नहीं दे पाए, तो फिर वहाँ कानूनन फीस देने से मुक्त विद्यार्थियों के प्रति कैसी हिंसा व्याप्त होगी? आखिर फीस और शिक्षा का संबंध ही क्या है? इस संदर्भ में दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले कुछ देश के छात्रों की एक सवाल पर प्रतिक्रिया का ज़िक्र करना प्रासंगिक है। जब उनसे उनके देश में स्कूलों में ली जाने वाली फीस के बारे में पूछा गया तो उनमें से कई असमंजस में पड़ गए क्योंकि उन्हें प्रश्न ही समझ नहीं आया। फीस लेने वाले स्कूल की संकल्पना ही उन्हें विचित्र लगी। बहुत समझाने पर उन्होंने बताया कि उनके देश में स्कूली शिक्षा सबके लिए मुफ्त है। खैर, बजाय इन देशों के उदाहरण सामने रखने के जिन्होंने सभी बच्चों के लिए एक मज़बूत और मुफ्त सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था खड़ी की है हम उन देशों और मुक्त बाजार की उन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं से अभिभूत होकर नीति-निर्माण कर रहे हैं जिनके लिए स्कूल एक धंधा है, शिक्षा एक बिकाऊ माल है, सब विद्यार्थी-अभिभावक समान रूप से चयन का अधिकार रखने वाले खरीदार हैं और राज्य राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पूँजी का दलाल है।
सम्पूर्ण दक्षिण एशिया में तर्कवादियों पर बढ़ रहे हमलों, तकनीक को साधे धार्मिक असहिंष्णुता के खूनी रथ और पूँजी की कसती अमानवीयता के बीच एक साझी हिंसा का रिश्ता है। इन्हें विभिन्न मंचों से, कई तौर-तरीकों से, एक साथ चुनौती देने की ज़रूरत है।शिक्षा इन क्रूरताओं का निशाना है तो यह हमारा औज़ार भी है।
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