लोक शिक्षक मंच द्वारा एक से पन्द्रह नवम्बर तक WTO में शिक्षा को शामिल करने के प्रस्ताव के खिलाफ अभियान का पर्चा
हमने
देखा है पहली कक्षा में बच्चों को उत्साह से स्कूल में दाखिला लेते हुए
हमने
देखा है उन्हें कभी आठवीं कभी दसवीं कभी ग्यारहवीं में स्कूल पूरा ना कर पाते हुए
हमने
उन्हें बारहवीं के बाद कॉलेज में दाखिले के लिए भागते-दौड़ते भी देखा है
कॉलेज
के दरवाजे बंद देखकर अनियमित शिक्षा के अवसर समेटते भी देखा है
हमने
छोटी-छोटी नौकरियों के लिए उन्हें भटकते देखा है
हर
नौकरी में अपनी मेहनत को कम दाम पर बेचते देखा है.......
दिसंबर 2015 में
भारत सरकार द्वारा WTO के साथ कुछ ऐसे प्रस्तावों
को अंतिम रूप देने की
संभावना है जिनके तहत भारत की उच्च शिक्षा में दूरगामी व खतरनाक
बदलाव होंगे| ये प्रस्ताव UPA सरकार ने 2005 में ही WTO के सामने रख दिए थे| NDA सरकार उन्हीं प्रस्तावों को आगे बढ़ाने में लगी
है| अगर WTO के व्यापार सम्बन्धी नियम भारत की उच्च शिक्षा में लागू हो गये तो ये शिक्षा को पूरी तरह से बाजार की वस्तु बना देंगे।
कल हमारे स्कूलों
और कॉलेजों में जो चुनौतियां दस्तक देने वाली हैं, यह उसी खतरे
की घंटी है|
विश्व व्यापार संगठन (WTO)
क्या है?
WTO एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था है जिसकी
स्थापना 1995 में हुई थी । इसका मुख्यालय स्विट्ज़रलैंड में है। भारत को मिलाकर
दुनिया के 161 देश इसके सदस्य हैं। यह सदस्य देशों के बीच विश्व व्यापार के लिए
नियम-कानून तय करती है। यह नए व्यापार समझौते तैयार करने और उन्हें लागू करने का
काम करती है। इसके दायरे में खेती, पेयजल, स्वास्थ्य, राशन आदि भी आते हैं। कहने को सभी सदस्य
देश बराबर अधिकार रखते हैं मगर इसमें अमीर देशों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का ही
दबदबा रहता है।
अगर भारत सरकार
ने दिसम्बर में होने
वाली WTO की बैठक में अपने शिक्षा के प्रस्तावों को अमली जामा पहना दिया तो -
v इन देशों के कॉरपोरेट घराने या अन्य शिक्षा व्यापारी यहाँ कॉलेज, विश्वविद्यालय, अन्य तकनीकी एवं पेशेवर
संस्थाएं खोल सकेंगे। विदेशी कंपनियों द्वारा जो कॉलेज व विश्वविद्यालय यहाँ खोले
जाएँगे उन्हें व्यावसायिक मुनाफ़ा कमाने की पूरी छूट होगी| मतलब वे यहाँ शिक्षा
संस्थानों के नाम पर दुकानें खोलेंगे जिनमें शिक्षा भी वैसे ही बिकेगी जैसे
दुकानों में महंगे कपड़े बिकते हैं| आओ और अपनी औकात के हिसाब से
खरीद लो और अगर नहीं खरीद
सकते तो चलते बनो| ग़रीब, अनुसूचित जाति/जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक, विकलांग और हाशिये पर धकेल दिए गए अन्य समूह इन संस्थानों में नहीं
पहुँच पाएँगे, क्योंकि फीस, वजीफा, दाखिला व अन्य सुविधाओं में संविधान के सामाजिक न्याय के उसूल लागू नहीं
होंगे। भारत के सभी शैक्षिक संस्थान WTO
के
नियमों के अधीन होंगे और किसी भी शिकायत के लिए भारत की संसद व अदालत को दखल देने
तक का अधिकार नहीं होगा। मतलब देश के ज़्यादातर बच्चों के लिए ये कॉलेज
वैसे ही सपनों की तरह होंगे जैसे आज मुट्ठीभर
महंगे इंटरनेशनल स्कूल हैं|
v दरअसल निजी कॉलेजों का असर
सरकारी कॉलेजों पर यूँ पड़ेगा कि उनको मिलने वाले पैसे/अनुदान
धीरे-धीरे कम कर दिए जाएंगे और यूनिवर्सिटी अपना खर्चा विद्यार्थियों की फीसें
बढ़ाकर पूरा करेंगी| साम्राज्यवादी
ताक़तें WTO द्वारा भारत पर यह दबाव बनाएँगी कि
सरकारी संस्थानों को मिलने वाली सब्सिडी कम हो ताकि उनकी शिक्षा का धंधा फल–फूल सके। जब तक सरकारी कॉलेज महंगे
या बर्बाद नहीं कर दिए जाएंगे तब तक इन निजी कॉलेजों की दुकान
कैसे चलेगी? अभी हाल ही में UGC ने गैर-NET स्कालरशिप
को बंद करने का निर्णय लेकर
इसी दबाव का प्रमाण दिया है| साथ ही विज्ञान के शोध-संस्थानों को दिये
जाने वाले फंड में कटौती करने और उन्हें स्वयं फंड जुगाड़ने के लिए कंपनियों की
जरूरतों के हिसाब से काम करने के आदेश सरकार जारी कर चुकी है। सरकार शिक्षा से हाथ
खींचकर WTO में
जाने के पूर्व संकेत दे रही है।
v इन संस्थानों में पढ़ने के लिए कर्जा
लेना पड़ेगा। इसका मतलब है कि शिक्षा पर हमारे बच्चों का न हक़ होगा और न ही वह
सरकारों की ज़िम्मेदारी रह जाएगी। कर्ज़ लेकर शिक्षा पाना कोई
समाधान नहीं है। दुनियाभर में विद्यार्थी व उनके परिवार कर्ज़ के
जाल में फंसते जा रहे हैं| हमारे
देश में लाखों किसानों की आत्महत्यायें भी कर्ज़ के इस घिनौने जाल का सबूत हैं।
दूसरी तरफ जो महंगी फीस और भारी कर्ज़ लेकर शिक्षा हासिल कर भी पाएगा उससे हम समाज
के प्रति किस वफादारी की उम्मीद रख सकते हैं?
v WTO के हस्तक्षेप से शिक्षा के चरित्र में भी ज़बरदस्त बदलाव होंगे| WTO की माँग के अनुसार अपने शिक्षा संस्थानों को
ढालने का मतलब होगा पूंजीवादी
हितों के हिसाब से पाठ्यक्रम, शिक्षण व मूल्यांकन को बनाना| WTO पूंजीपतियों का
एजेंट है और वह उन्हीं विषयों और रिसर्च को समर्थन देगा जिससे उन्हें अधिक से अधिक मुनाफा होगा। साहित्य, कला, दर्शन, समाजशास्त्र जैसे विषयों
की जगह, जिनमें
समाज के प्रति समझ, संवेदना व संघर्षशीलता विकसित करने की संभावना
होती है, समाज से विमुख करने वाले विषयों का ज्ञान महत्वपूर्ण हो जाएगा| बाजार को व्यक्तित्व के पूर्ण विकास
से कोई सरोकार नहीं है बल्कि
बाजार केवल उन कौशलों को विकसित करने की ज़रूरत
समझता है जो मजदूर
को मशीन में बदलकर पूँजीपतियों के लिए अधिक से अधिक मुनाफा कमा कर दे सकें। देखा
जाए तो शिक्षा का चरित्र ही नहीं शिक्षा का पूरा उद्देश्य ही बदल जाएगा|
हमें क्या करना होगा?
एक बार WTO के
साथ करार हो जाएगा तो भारत की शिक्षा नीति भारत की जनता से ज्यादा WTO को
जवाबदेह होगी| हम बहुत सी चीज़ों के लिए बाध्य हो जाएँगे । यह देश की जनता की
स्वायत्तता पर सीधा हमला है और
ग़ुलामी का नया रूप है| यूरोपियन यूनियन
व अफ्रीकन यूनियन के
साथ बहुत से देश WTO को शिक्षा बेचने से पहले ही मना कर चुके
हैं| हमें भी पूरी ताकत के साथ भारत
सरकार को दिसंबर में यह गठबंधन करने से रोकना होगा और इसके खिलाफ देश
भर में चल रहे
संघर्षों के साथ खड़ा होना होगा|
लोक शिक्षक मंच आपसे आह्वान करता है कि
·
WTO के खिलाफ देशभर में चल रही मुहिम से जुड़ें ।
·
शिक्षा
को खरीदने-बेचने का सामान बनाने का विरोध करें ।
·
भारत
सरकार से माँग करें कि WTO को दिए प्रस्ताव को वापिस ले ।
WTO शिक्षा छोड़ो !! भारत छोड़ो !!
6 comments:
शानदार पर्चा .
लोक शिक्षक मंच के द्वारा बहुत सार्थक प्रयास...
05 नवम्बर को सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी, सागर में लोक शिक्षक मंच के द्वारा तैयार एस पर्चे का सामूहिक वितरण एवं पाठ किया जाना तय किया गया है...साथ ही एस पर विस्तृत चर्चा शिक्षक,विद्यर्थियो एवं शोधार्थियो के बीच की जाएगी.....
इसके लिए लोक शिक्षक मंच की पूरी टीम का धन्यवाद....लाल सलाम
सरल एवं सहज लहजे में लिखा गया जन जागृति का एक सच्चा प्रयास...लोक शिक्षक मंच को इसके लिए धन्यवाद...
इस पर्चे के एक वाक्य पर पुनः सोचे - "साहित्य, कला, दर्शन, समाजशास्त्र जैसे विषयों की जगह, जिनमें समाज के प्रति समझ, संवेदना व संघर्षशीलता विकसित करने की संभावना होती है, समाज से विमुख करने वाले विषयों का ज्ञान महत्वपूर्ण हो जाएगा|" समाज से विमुख करने वाले विषयों ..ऐसा. कहना उन विषयों के साथ नाइंसाफी होगी...क्या विज्ञान,वाणिज्य,गणित विषय है ये? क्या यह विषय का दोष है ?
मेरी शुभकामनाये और साथ इस प्रयास के लिए ...
सरकार और विपक्ष दोनों पर दबाव बनाने की मुहीम जरूरी है क्योकि आज इस स्तिथि में लाने के लिए दोनों इस के लिए जिमीदार हैं...
साथ साथ क्या कोई कानूनी हस्तक्षेप किया जा रहा है इस पर ?
the question on 'subjects which alienate us from society' is valid. indeed, we shared our doubts regarding the choice of words but by then the pamphlet had been sent for printing. the original statement was, 'business english will become more important than english literature'. perhaps, we should have stuck to that articulation. moreover, though the word used is 'subjects' but what was intended to be conveyed was 'courses' instead of 'disciplines'. we have to agree that there is nothing intrinsically alienating about disciplines which reflect a sustained and deep human engagement with knowledge.
This honest,thought provoking and well articulated leaflet shall be shared as an essential reading and engaged with the M.Ed students offering Comparative and International Education paper at our Institution when they discuss the role of stakeholders like the WTO in shaping the educational systems across nations.
Thank you for the prompt and convincing clarification.
Appreciations once again for this write up.
And Yes,it gives the feeling that there is still hope and the battle is not lost.
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