आठवीं कक्षा तक नो-डिटेंशन नीति को हटाने का निर्णय लेकर दिल्ली सरकार ने अधिगम (सीखने), शिक्षा, स्कूल व सामाजिक व्यवस्था के प्रति अपनी ग़लत समझ का सबूत दिया है। बच्चों में सीखने के स्तर को सुधारने हेतु 'फेल होने का डर' न तो वास्तव में एक कारगर उपाय है और न ही इस विचार को उसूलन सही माना जा सकता है। यह कहना कि इसकी माँग शिक्षकों व अभिभावकों द्वारा की जा रही थी, महज़ मक्कारी व ग़ैर-ज़िम्मेदारी है। वैसे भी, लोकतान्त्रिक व्यवस्था में लोगों की माँगों को किन्हीं उदात्त मूल्यों व आदर्शों पर खरा उतरना होता है। फिर किसी विषय विशेष से जुड़े मुद्दे पर एक राय बनाने के लिए उस क्षेत्र के विशेषज्ञों, शोधकर्ताओं आदि से सलाह करना भी लोकतंत्र को क़ानून-संविधान, तथ्य-तर्क, ज्ञान-सिद्धांत व नैतिकता के धरातल पर सुविचारित बनाने का एक तरीका है जिसे नज़रंदाज़ करना खुद लोकतंत्र के लिए घातक होगा।
यह कहना कि 'डर' के बिना बच्चे सीख नहीं सकते, शिक्षकों के कर्म और शिक्षाशास्त्र पर अविश्वास जताना है। फेल करने की नीति को दोबारा अमल में लाने से मेहनत-मज़दूरी करने वाले वर्गों के बच्चों, उसमें भी खासतौर से लड़कियों, के स्कूल से बेदखल होने की संभावना बढ़ जाएगी क्योंकि हमारी आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था उन्हें एक बेगानी व निष्फल शिक्षा व्यवस्था में अतिरिक्त साल लगाने का खर्चा उठाने की मोहलत नहीं देती है। साथ ही, विशेष ज़रूरतों वाले बच्चों (CWSN) के लिए भी इस पहले से पराई स्कूल व्यवस्था में प्रवेश पाना और टिके रहना और मुश्किल हो जाएगा। हम फिर प्रवेश परीक्षा और पास/फेल की उन प्रक्रियाओं के सहारे शिक्षा के स्तर को सुधारने का आग्रह पाल रहे हैं जोकि ऐतिहासिक रूप से हाशिये पर धकेल दिए गए समूहों के बच्चों के लिए सदमा पहुँचाने वाली, भेदभाव बरतने वाली व खुद तमाम विसंगतियों से ओतप्रोत रही हैं।
हमें यह भी पूछने की ज़रूरत है कि सरकार यह कैसे सुनिश्चित करने जा रही है कि अनुत्तीर्ण घोषित बच्चों को सीखने के लिए उचित माहौल मिले और उनमें से किसी का भी स्कूल न छूटे। आखिर शिक्षा अधिकार क़ानून देश के बच्चों को आठवीं कक्षा तक पढ़ने का जो मामूली व भ्रामक हक़ देता है, सरकार के पास उसे ही सुनिश्चित करने के क्या उपाय हैं?
शिक्षा में सभी के लिए बराबरी के हक़ और स्तर को सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में स्थित असमानता को धराशायी किये बग़ैर हासिल नहीं किया जा सकता है। ऐसे में, यहाँ तक कि समान स्कूल व्यवस्था की बात भी किये बग़ैर, यह दावा करना कि नो-डिटेंशन नीति को फिर से लागू करने से शिक्षा का स्तर बढ़ जाएगा, एक क्रूर मज़ाक व धोखा है। यह सच है कि राज्य द्वारा बिना समुचित वित्त-संसाधन उपलब्ध कराए, बिना ज़रूरी नियुक्तियाँ करे और, सबसे बढ़कर, बिना मेहनतकश वर्गों के पक्ष में राजनैतिक प्रतिबद्धता के बच्चों को फेल करने की नीति का भी उसी तरह नाकाम होना तय है जिस तरह फेल न करने की नीति अपने एकाकी स्वरूप में नाकाम रही। फिर भी, फेल न करने की नीति के पक्ष में कम-से-कम इतना तो कहा जा सकता है कि यह वर्तमान व्यवस्था के रहते भले ही क्रांतिकारी न हो मगर शिक्षास्त्रीय दृष्टि से प्रगतिशील और सामाजिक दृष्टि से संवेदनशील है।
सरकार का यह फैसला अप्रत्याशित नहीं है और पीड़ितों को ही दोष देने की मानसिकता पर आधारित है। यह एक ऐसी बाल-विरोधी भावना है जिसे हम सरकार के शीर्ष से आये और अखबारों में प्रमुखता से छपे उन प्रस्तावों में भी देख चुके हैं जिनमें कुछ अपराधों के लिए वयस्कों की तरह सज़ा देने के लिए आरोपी की उम्र घटाकर 15 वर्ष करने की वकालत की गई है। जब अधिकारों को सीमित करने या हटाने को सुधार और सुरक्षा के उपायों के तौर पर पेश किया जाने लगे तो हमें समझ लेना चाहिए कि विमर्श खतरनाक तथा जनविरोधी रुख अख्तियार कर चुका है। ज़ाहिर है कि जब बच्चे फेल करके ग़ैर-अकादमिक प्रवृत्ति/योग्यता वाले घोषित कर दिए जाएँगे तो उनके लिए दो ही विकल्प छोड़े जाएँगे - या तो स्कूल छोड़कर बाल-मज़दूरी करो या फिर कौशल-विकास के लिए वोकेशनल कोर्स में नाम लिखाओ। दोनों ही स्थितियों में श्रम के शोषण को लेकर ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है।मतलब, आपका अकादमिक सफर यहीं खत्म होता है। आज भी सरकारी स्कूलों में आठवीं के बाद की कक्षाओं में एक बार फेल कर दिए गए विद्यार्थियों को उनके अपने नियमित स्कूल से धक्के देकर बाहर निकालकर ओपन स्कूल में नाम लिखाने को मजबूर करने की घोषित-अघोषित नीति अमल में लाई जा रही है। व्यवस्था के दर्शन और व्यवहार की यह कड़वी सच्चाई डिटेंशन को फिर से लागू करके स्तर सुधारने के दावे की पोल खोलने के लिए काफी है।
लोक शिक्षक मंच दिल्ली सरकार द्वारा नो-डिटेंशन नीति हटाने के फैसले को अनुचित मानते हुए इस नीति को लागू रखने की माँग करता है। इस संबंध में मंच आँगनवाड़ी से लेकर उच्च-शिक्षा संस्थानों तक को पर्याप्त संसाधन मुहैया कराने व समाजवाद के लिए अनिवार्य समान स्कूल व्यवस्था लागू करने की माँग को भी दोहराता है।
2 comments:
Well argued leaflet. It argues both on pedagogical as-well-as administrative grounds. If State is not willing to spend what is needed it is bound to choose wrong pedagogical standing. Leaflet rightly explains blame the victim theory. As State has not been providing conducive teaching-learning atmosphere and burden of this non-support is being beard by the victims themselves. Leaflet also contextualised the retention policy in new initiatives taken by the State in the name of skill development. It is a new war strategy against already deprived sections of the Indian society to bar them from liberal education.
Very good and convincing presentation. Let us join hands and work together. Let us enlighten, enrich and empower each other. We need to win small battles to keep our war against injustice on. I need your help, association and support to use the space available in Delhi Assembly. Pankaj Pushkar, MLA, Timarpur Delhi (pls mail or SMS me at pankaj.pushkar@gmail.com, 8882225066)
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