फ़िरोज़
पिछले दिनों दो राज्यों से दो छात्राओं से जुड़ी खबरें आईं जिनसे हमें शिक्षा के अधिकार के रास्ते में उपस्थित आर्थिक-सामाजिक असमानता के अवरोध के उदाहरण मिले। ग्यारह अक्टूबर को ट्रिब्यून न्यूज़ सर्विस ने हरियाणा के सिरसा में रहने वाली ज्योति की खबर प्रकाशित की। ज्योति को इसी साल बारहवीं पास करने के बाद चौधरी देवी लाल विश्वविद्यालय में दाखिला मिला था। पढ़ने के लिए उसे घर से विश्वविद्यालय आने-जाने पर रोज़ 120 रुपये खर्च करने पड़ रहे थे - एक तरफ के 60 रुपये। ज्योति एक आम मेहनतकश परिवार से संबंध रखती है। सामाजिक रूप से ये परिवार दलित पृष्ठभूमि का है। ज़ाहिर है कि इस तरह का खर्चा वहन करना इस परिवार के बूते के बाहर ही था। तो इस तरह ज्योति की उच्च-शिक्षा पर आर्थिक अयोग्यता की पाबंदी लग गई। यूँ ज्योति कोई अकेली नहीं है - भारत में लाखों-करोड़ों बच्चे इस नाइंसाफ़ी के शिकार होते हैं और देश के विकास की चकाचौंध में यह कोई खबर नहीं बनती। मगर ज्योति की पढ़ाई छूटने की संभावना की भनक किसी तरह कुछ स्थानीय NGO को लग गई और उनसे देखा नहीं गया। उन्होंने ज्योति व उसके परिवार को तीन साल पढ़ने के लिए यात्रा पर आने वाले खर्च का हिसाब लगाकर 63,000 रुपये देने की पेशकश की घोषणा कर दी। ज्योति ने इसे यह कहते हुए ठुकरा दिया कि उसे किसी का अहसान लेकर अपनी पढ़ाई का बंदोबस्त नहीं करना है। बल्कि उसने राज्य सरकार से बस पास की माँग की। इसे उसने सरकार का फ़र्ज़ और विद्यार्थियों का हक़ बताया। यह ग़ौरतलब है कि हरियाणा में यूँ तो छात्राओं को बस पास दिया जाता है पर वर्तमान नियम इसे एक निश्चित दूरी तक सीमित करते हैं, जोकि ज्योति जैसे विद्यार्थियों की परिस्थितियों व हितों के खिलाफ है। ज्योति की माँग में यह स्पष्टता भी है कि अगर बस पास बनाने के आदेश जारी भी होते हैं तो वो सिर्फ उस अकेली के लिए नहीं होंगे बल्कि उस जैसे सभी विद्यार्थियों पर लागू होंगे। इस घटना के बारे में ताज़ा सूचना तो प्राप्त नहीं है लेकिन इतने से ही हम कुछ सबक रेखांकित कर सकते हैं। देश के मेहनतकश और वंचित-शोषित वर्गों से आने वाले विद्यार्थियों में भ्रातृत्व-बहनापे, सामूहिकता, बराबरी और इन्साफ के प्रति वो सहज जज़्बा है जोकि राज्य से संवैधानिक ज़िम्मेदारियाँ निभाने की माँग करता है। वहीं, समाज के विभिन्न वर्गों में NGO की भूमिका को लेकर यह समझ गहरा रही है कि ये मुद्दों को टुकड़ों में बाँटकर तथा लोगों को एकाकी दृष्टि देकर जनसंघर्ष, जनांदोलन और राजनीति को भटकाते हैं, कुंद करते हैं। तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि विद्यार्थी शिक्षा के अधिकार को उसके वास्तविक आयाम में समझ रहे हैं - यह सिर्फ प्रवेश और फीस का मामला नहीं है। शायद ऐसा इसलिए भी हो रहा है क्योंकि समाज के वंचित वर्गों से अब जाकर कुछ संख्या में बच्चे उच्च-शिक्षा के संस्थानों में पहुँच पा रहे हैं और वहाँ जाकर वो देख रहे हैं कि ये व्यवस्था तो उनके लिए नहीं बल्कि उन्हें बाहर रखने के लिए ही रची गई है - तो इसे व इसकी संभ्रांत मान्यताओं-सीमाओं को चुनौती देने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है।
दूसरी घटना महाराष्ट्र के लातूर ज़िले की है जहाँ 14 अक्टूबर को ग्यारहवीं कक्षा की स्वाति ने इसलिए खुदकुशी कर ली क्योंकि उसका परिवार उसके मासिक बस पास के 260 रुपये का खर्च उठा सकने में भी असमर्थ था। लातूर महाराष्ट्र के आठ सूखा-पीड़ित ज़िलों में से एक है और स्वाति की मौत के समाचारों में आ जाने के बाद परिवहन मंत्री ने इन ज़िलों के प्रथम वर्ष और उससे आगे के विद्यार्थियों को मुफ्त बस पास उपलब्ध कराने की घोषणा कर दी। न सिर्फ बस पास मुफ्त कराने के लिए एक विद्यार्थी को अपनी जान की क़ुरबानी देनी पड़ी, बल्कि इसके बावजूद इसे केवल सूखा-पीड़ित क्षेत्र के लिए जारी किया गया - जैसे कि कहा जा रहा हो कि एक हक़ लेने के लिए आपको मौत के मुँह में पहुँचकर अपनी पात्रता सिद्ध करनी होगी और फिर वहीं रहना होगा। (ज़ाहिर है कि राशन से लेकर वज़ीफों में पहले से ही पात्र व्यक्तियों का प्रतिशत तय करना इसी क्रूर और अतार्किक नीति का उदाहरण है।) स्वाति कुछ दिनों से कॉलेज इसलिए नहीं गई थी क्योंकि पैसों की कमी की वजह से उसका बस पास फिर से जारी नहीं हुआ था। एक दिन उसकी माँ ने उधार लेकर उसे कॉलेज भेजा। (यह स्पष्ट नहीं है कि उन्होंने एक दिन का किराया उधार लिया या फिर मासिक पास की रक़म।) अपने अंतिम नोट में स्वाति ने तीन-चार बातें लिखीं। वह रोज़-रोज़ का आर्थिक दबाव नहीं झेल पा रही थी। उसने लिखा कि वो अपने माता-पिता की कड़ी खेतिहर मेहनत को बेकार जाते देख रही थी और ईश्वर की निर्दयिता पर बहुत ग़ुस्सा थी। उसने यह भी लिखा कि उसके नहीं रहने से दहेज को लेकर उसके माता-पिता की चिंता तो आधी हो जाएगी। (वो अपने माता-पिता की दो बेटियों में से थी।) अपने पिता के बारे में उसने लिखा कि उसे याद नहीं कि आखरी बार वो कब हँसे थे। शिक्षा को कर्ज़े के नव-उदारवादी 'उपाय' (हथकंडे) के हवाले करने की मंशा रखने वालों के लिए इस त्रासदी में एक ही सबक है - पहले ही कर्ज़े के नीचे दबे मगर अभी ज़िंदा बचे लोगों को कैसे कर्ज़े के माध्यम से ग़ुलाम बनाया जाए या फिर उनको मरने पर मजबूर करके उनकी सम्पत्ति ज़ब्त की जाए। एक अखबार में यह भी छपा कि महाराष्ट्र के एक सिख संगठन ने उसके परिवार को उसकी बहन की, जोकि दूरस्थ प्रणाली से पढ़ रही है, तीन साल की पढ़ाई के खर्चे का सहयोग करने का प्रस्ताव दिया है। इसी संगठन के एक पदाधिकारी का यह बयान भी उसी खबर में छपा कि अमीर-ग़रीब के बीच इतनी असमानता कभी नहीं थी। यहाँ हम व्यैक्तिक सदाशयता की सीमा से एक बार फिर परिचित होते हैं। ग़ैर-बराबरी को एक ऐतिहासिक संदर्भ में देखने का दावा करने के बावजूद ये सहायता एक तात्कालिकता में फँस कर समस्या की जड़ को और अदृश्य बना देती है।
दोनों ही उदाहरण शिक्षा पाने के लिए यात्रा पर आने वाले खर्च की वर्ग-संगत समस्या को प्रस्तुत करते हैं। दिल्ली में भी हम देखते हैं कि जहाँ एक ओर निजी स्कूलों के विद्यार्थियों के लिए केवल निजी बसें ही नहीं खुद DTC की सरकारी बसें धड़ल्ले से सेवा प्रदान करती हैं, वहीं सरकारी स्कूल के विद्यार्थी कहीं घंटों का इंतज़ार कर रहे होते हैं, कहीं अपने परिवार की सीमित और महँगाई में सिकुड़ती आय का भारी हिस्सा स्कूल-कॉलेज आने-जाने पर लगाने को विवश हैं और कहीं मीलों पैदल चलकर या खतरनाक ढंग से लटककर सफर कर रहे हैं व अपनी इस 'बदतमीज़ी' पर गालियाँ भी खा रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में यह हैरानी की बात नहीं है कि लाखों बच्चे या तो पढ़ाई बीच में ही छोड़ने को या ओपन नाम के शिक्षा संस्थानों में नाम लिखाने को मजबूर कर दिए जाते हैं। दिल्ली में तो DTC ने बाक़ायदा वर्ष 2006 के बाद खुले शिक्षा संस्थानों के विद्यार्थियों को बस पास जारी न करने का निर्णय लिया था। जिन विद्यार्थियों के पास बनते भी हैं वो भी सार्वजनिक बसों की भारी कमी के कारण हर महीने यात्रा पर मोटी रक़म खर्च को मजबूर हैं। मेट्रो की चमक-धमक में यह बात नज़रंदाज़ की जा रही है कि कॉलेज के विद्यार्थियों के लिए चलने वाली U-Special बसें लगभग बंद कर दी गई हैं, विद्यार्थी बस पास वातानुकूलित बसों में मान्य नहीं हैं और मेट्रो सस्ती नहीं है। नॉन-नेट वज़ीफ़ा बंद करने और उच्च-शिक्षा को विश्व-व्यापार की मुनाफाखोरी के लिए WTO के तहत सौंपने के फैसलों के संदर्भ में ज्योति का आह्वान और स्वाति का बलिदान विद्यार्थियों के संघर्षों को एक प्रेरणा व गतिशीलता प्रदान करता है। हमारी माँग यहाँ से शुरु होगी कि हर विद्यार्थी को उसके स्कूल-कॉलेज आने-जाने के लिए मुफ्त यात्रा का अधिकार है। यह शिक्षा के अधिकार का ही हिस्सा है और इसमें सभी प्रकार के सार्वजनिक वाहन शामिल हैं। खासतौर से स्कूली व अन्य वर्दीधारी विद्यार्थियों के लिए तो इसके लिए किसी पास की भी ज़रूरत नहीं होनी चाहिए - उनकी वर्दी, उनका पहचान-पत्र, उनके चढ़ने-उतरने के स्थान ही उनका पास हैं। मगर हमारे संघर्ष की परिणीति उस दुनिया के निर्माण में होगी जो बंधुत्व और सामूहिकता के ऐसे ताने-बाने में रचा होगा जिसमें हर सार्वजनिक सेवा-ज़रूरत मुफ्त होगी।
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