राजेश आज़ाद
प्राथमिक अध्यापक
मैं कुछ दिनों से काफी परेशान हूँ। ये परेशानी व्यक्तिगत भी है और सामाजिक-शैक्षणिक भी है। मोनू ने मेरी कक्षा से पाँचवीं पास की है और वो फिलहाल नौवीं में पढ़ रहा है। मेरा यह विद्यार्थी मुझे हर वीरवार को मेरे इलाके में ही लगने वाले साप्ताहिक बाज़ार में धनिया बेचता हुआ मिल जाता है। अब सवाल यह है कि मैं उसे धनिया बेचते हुए देखना बर्दाश्त क्यों नहीं कर पाता हूँ। मोनू के बारे में याद करता हूँ तो याद आता है कि वह स्कूल को कई प्रतियोगितायें जितवाने वाला एक अच्छा धावक था और पढ़ाई-लिखाई में भी ठीक था। उसने अभी तक पढ़ाई नहीं छोड़ी है यह तो मेरे लिए संतुष्टि का विषय है पर उसका इस 14-15 साल की उम्र में ही कमाने लग जाना मुझे बर्दाश्त नहीं होता है....निराशा में घिरने के बाद मैं यहाँ तक सोचने लगता हूँ कि यदि मोनू या उस जैसे मेरे विद्यार्थियों की नियति यही है तो क्यों नहीं मैं उन्हें केवल गणित विषय तक ही सीमित रखूँ जो कि उनके काम में उपयोगी रहेंगे, क्यों उन्हें भारत का इतिहास और भूगोल पढ़ाकर उनका समय बर्बाद करता हूँ। एक शिक्षक साथी से इस विषय पर बातचीत करके कुछ समाधान निकालने का निरर्थक प्रयास किया। उनका सोचना था कि हमारे विद्यार्थियों में से यदि कोई इस तरह के काम अपनी मर्ज़ी से करता है तो इतना परेशान होने की बात नहीं है, पर मेरा सवाल है कि क्या इस समाज में कोई अपनी मर्ज़ी से इस तरह के पेशे को चुनेगा और क्या हमारे विद्यार्थियों के पास चुनने की आज़ादी है? मेरे पास अपने लिए एक ही सवाल है कि मैं अपने शैक्षणिक पेशे में संतुष्टि किसे मानूँ। मोनू के स्कूल की छुट्टी हो जाने के बाद बाज़ार में रात 11 बजे तक सब्जियाँ बेचने में लग जाने के बाद भी अगले दिन स्कूल में नागा न करने को और शिक्षा पाने के संघर्ष को जारी रखने को?
मोनू या मेरे हर विद्यार्थी के पास क्या कोई सपना है? जो शिक्षा किसी संभ्रांत विद्यालय के विद्यार्थियों को बेहतर रोजगार दिला पाने में सक्षम हो पा रही है वही शिक्षा उन्हें क्या दे रही है? जब उन्हें अपना पारंपरिक व्यवसाय ही करना है तो फिर वे स्कूलों में अपना समय बर्बाद क्यों करें?
जब मैंने अपनी कक्षा के विद्यार्थियों से पूछा कि वो कहाँ तक पढ़ना चाहते हैं और क्या बनना चाहते हैं, तो इसपर अधिकतर बच्चों ने बताया कि वे बारहवीं तक पढ़कर डॉक्टर बनना चाहते हैं। 'बारहवीं तक' इसलिए क्योंकि अधिकतर को उससे आगे की पढ़ाई की जानकारी नहीं है; आगे की पढ़ाई के बारे में बात करने पर वो कॉलेज में पढ़ने की इच्छा जताते हैं। पर आज की स्थिति में मेरे इन मासूम विद्यार्थियों को ये पता नहीं है कि सरकार ने - जिसे कि इन बच्चों के माँ-बाप ने 'अच्छे दिनों' की उम्मीद में चुना है - फैसला ले लिया है कि इन बच्चों को स्कूलों में वोकेशनल शिक्षा ही दी जाएगी। यानि कि अब ये बच्चे खाना बनाना, सिलाई-कढ़ाई और इस तरह के विषय ही पढ़ेंगे जिन्हें पढ़कर वो कॉलेज में दाखिला तो नहीं ले पाएंगे। अब ये तो पूरी तरह से तय हो गया है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को ऊंचा सोचने की अनुमति नहीं है, उनके पर स्कूलों में ही क़तर दिये जाएंगे। इस साल के अंत तक तो इन गरीब मासूम बच्चों के लिए सरकार एक और सौगात लेकर आ रही है। वह दिसम्बर के महीने में शिक्षा को विश्व व्यापार संगठन का हिस्सा बनाने जा रही है जिससे यदि ये लड़-भिड़ कर कॉलेज तक पहुँच भी गए तो भी उनको शिक्षा से बाहर ही रहना पड़ेगा क्योंकि इसको खरीदने की औकात इनके माँ-बाप की होगी नहीं।
अब मेरे पास रास्ता क्या है? क्या इसी तरह बच्चों को गुलामी के लिए तैयार करूँ और हर सप्ताह मोनू को देखकर उससे नज़रें चुराऊँ या फिर अपने विद्यार्थियों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करने वाली सत्ता के खिलाफ लोगों को लामबंद करके हल्ला बोल दूँ?
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