Wednesday, 18 November 2015

नो-डिटेंशन नीति को हटाने का निर्णय शिक्षा, स्कूल व सामाजिक व्यवस्था के प्रति ग़लत समझ का नमूना

आठवीं कक्षा तक नो-डिटेंशन नीति को हटाने का निर्णय लेकर दिल्ली सरकार ने अधिगम (सीखने), शिक्षा, स्कूल व सामाजिक व्यवस्था के प्रति अपनी ग़लत समझ का सबूत दिया है। बच्चों में सीखने के स्तर को सुधारने हेतु 'फेल होने का डर' न तो वास्तव में एक कारगर उपाय है और न ही इस विचार को उसूलन सही माना जा सकता है। यह कहना कि इसकी माँग शिक्षकों व अभिभावकों द्वारा की जा रही थी, महज़ मक्कारी व ग़ैर-ज़िम्मेदारी है। वैसे भी, लोकतान्त्रिक व्यवस्था में लोगों की माँगों को किन्हीं उदात्त मूल्यों व आदर्शों पर खरा उतरना होता है। फिर किसी विषय विशेष से जुड़े मुद्दे पर एक राय बनाने के लिए उस क्षेत्र के विशेषज्ञों, शोधकर्ताओं आदि से सलाह करना भी लोकतंत्र को क़ानून-संविधान, तथ्य-तर्क, ज्ञान-सिद्धांत व नैतिकता के धरातल पर सुविचारित बनाने का एक तरीका है जिसे नज़रंदाज़ करना खुद लोकतंत्र के लिए घातक होगा। 
यह कहना कि 'डर' के बिना बच्चे सीख नहीं सकते, शिक्षकों के कर्म और शिक्षाशास्त्र पर अविश्वास जताना है। फेल करने की नीति को दोबारा अमल में लाने से मेहनत-मज़दूरी करने वाले वर्गों के बच्चों, उसमें भी खासतौर से लड़कियों, के स्कूल से बेदखल होने की संभावना बढ़ जाएगी क्योंकि हमारी आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था उन्हें एक बेगानी व निष्फल शिक्षा व्यवस्था में अतिरिक्त साल लगाने का खर्चा उठाने की मोहलत नहीं देती है। साथ ही, विशेष ज़रूरतों वाले बच्चों (CWSN) के लिए भी इस पहले से पराई स्कूल व्यवस्था में प्रवेश पाना और टिके रहना और मुश्किल हो जाएगा। हम फिर प्रवेश परीक्षा और पास/फेल की उन प्रक्रियाओं के सहारे शिक्षा के स्तर को सुधारने का आग्रह पाल रहे हैं जोकि ऐतिहासिक रूप से हाशिये पर धकेल दिए गए समूहों के बच्चों के लिए सदमा पहुँचाने वाली, भेदभाव बरतने वाली व खुद तमाम विसंगतियों से ओतप्रोत रही हैं।
            हमें यह भी पूछने की ज़रूरत है कि सरकार यह कैसे सुनिश्चित करने जा रही है कि अनुत्तीर्ण घोषित बच्चों को सीखने के लिए उचित माहौल मिले और उनमें से किसी का भी स्कूल न छूटे। आखिर शिक्षा अधिकार क़ानून देश के बच्चों को आठवीं कक्षा तक पढ़ने का जो मामूली व भ्रामक हक़ देता है, सरकार के पास उसे ही सुनिश्चित करने के क्या उपाय हैं?
शिक्षा में सभी के लिए बराबरी के हक़ और स्तर को सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में स्थित असमानता को धराशायी किये बग़ैर हासिल नहीं किया जा सकता है। ऐसे में, यहाँ तक कि समान स्कूल व्यवस्था की बात भी किये बग़ैर, यह दावा करना कि नो-डिटेंशन नीति को फिर से लागू करने से शिक्षा का स्तर बढ़ जाएगा, एक क्रूर मज़ाक व धोखा है। यह सच है कि राज्य द्वारा बिना समुचित वित्त-संसाधन उपलब्ध कराए, बिना ज़रूरी नियुक्तियाँ करे और, सबसे बढ़कर, बिना मेहनतकश वर्गों के पक्ष में राजनैतिक प्रतिबद्धता के बच्चों को फेल करने की नीति का भी उसी तरह नाकाम होना तय है जिस तरह फेल न करने की नीति अपने एकाकी स्वरूप में नाकाम रही। फिर भी, फेल न करने की नीति के पक्ष में कम-से-कम इतना तो कहा जा सकता है कि यह वर्तमान व्यवस्था के रहते भले ही क्रांतिकारी न हो मगर शिक्षास्त्रीय दृष्टि से प्रगतिशील और सामाजिक दृष्टि से संवेदनशील है। 
           सरकार का यह फैसला अप्रत्याशित नहीं है और पीड़ितों को ही दोष देने की मानसिकता पर आधारित है। यह एक ऐसी बाल-विरोधी भावना है जिसे हम सरकार के शीर्ष से आये और अखबारों में प्रमुखता से छपे उन प्रस्तावों में भी देख चुके हैं जिनमें कुछ अपराधों के लिए वयस्कों की तरह सज़ा देने के लिए आरोपी की उम्र घटाकर 15 वर्ष करने की वकालत की गई है। जब अधिकारों को सीमित करने या हटाने को सुधार और सुरक्षा के उपायों के तौर पर पेश किया जाने लगे तो हमें समझ लेना चाहिए कि विमर्श खतरनाक तथा जनविरोधी रुख अख्तियार कर चुका है। ज़ाहिर है कि जब बच्चे फेल करके ग़ैर-अकादमिक प्रवृत्ति/योग्यता वाले घोषित कर दिए जाएँगे तो उनके लिए दो ही विकल्प छोड़े जाएँगे - या तो स्कूल छोड़कर बाल-मज़दूरी करो या फिर कौशल-विकास के लिए वोकेशनल कोर्स में नाम लिखाओ। दोनों ही स्थितियों में श्रम के शोषण को लेकर ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है।मतलब, आपका अकादमिक सफर यहीं खत्म होता है। आज भी सरकारी स्कूलों में आठवीं के बाद की कक्षाओं में एक बार फेल कर दिए गए विद्यार्थियों को उनके अपने नियमित स्कूल से धक्के देकर बाहर निकालकर ओपन स्कूल में नाम लिखाने को मजबूर करने की घोषित-अघोषित नीति अमल में लाई जा रही है। व्यवस्था के दर्शन और व्यवहार की यह कड़वी सच्चाई डिटेंशन को फिर से लागू करके स्तर सुधारने के दावे की पोल खोलने के लिए काफी है। 
लोक शिक्षक मंच दिल्ली सरकार द्वारा नो-डिटेंशन नीति हटाने के फैसले को अनुचित मानते हुए इस नीति को लागू रखने की माँग करता है। इस संबंध में मंच आँगनवाड़ी से लेकर उच्च-शिक्षा संस्थानों तक को पर्याप्त संसाधन मुहैया कराने व समाजवाद के लिए अनिवार्य समान स्कूल व्यवस्था लागू करने की माँग को भी दोहराता है।       

Monday, 2 November 2015

पर्चा: विश्व व्यापार संगठन (WTO) से शिक्षा को बचाएँ!

लोक शिक्षक मंच द्वारा एक से पन्द्रह  नवम्बर तक WTO में शिक्षा को शामिल करने के प्रस्ताव के खिलाफ अभियान का पर्चा 
हमने देखा है पहली कक्षा में बच्चों को उत्साह से स्कूल में दाखिला लेते हुए
हमने देखा है उन्हें कभी आठवीं कभी दसवीं कभी ग्यारहवीं में स्कूल पूरा ना कर पाते हुए
हमने उन्हें बारहवीं के बाद कॉलेज में दाखिले के लिए भागते-दौड़ते भी देखा है
कॉलेज के दरवाजे बंद देखकर अनियमित शिक्षा के अवसर समेटते भी देखा है
हमने छोटी-छोटी नौकरियों के लिए उन्हें भटकते देखा है
हर नौकरी में अपनी मेहनत को कम दाम पर बेचते देखा है.......

दिसंबर 2015 में भारत सरकार द्वारा WTO  के साथ कुछ ऐसे प्रस्तावों को अंतिम रूप देने की संभावना है जिनके तहत भारत की उच्च शिक्षा में दूरगामी व खतरनाक बदलाव होंगे| ये प्रस्ताव UPA सरकार ने 2005 में ही WTO के सामने रख दिए थे| NDA सरकार उन्हीं प्रस्तावों को आगे बढ़ाने में लगी है| अगर WTO के व्यापार सम्बन्धी नियम भारत की उच्च शिक्षा में लागू हो गये तो  ये शिक्षा को पूरी तरह से बाजार की वस्तु बना देंगे।

कल हमारे स्कूलों और कॉलेजों में जो चुनौतियां दस्तक देने वाली हैं, यह उसी खतरे की घंटी है|

विश्व व्यापार संगठन (WTO) क्या है?

WTO एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था है जिसकी स्थापना 1995 में हुई थी । इसका मुख्यालय स्विट्ज़रलैंड में है। भारत को मिलाकर दुनिया के 161 देश इसके सदस्य हैं। यह सदस्य देशों के बीच विश्व व्यापार के लिए नियम-कानून तय करती है। यह नए व्यापार समझौते तैयार करने और उन्हें लागू करने का काम करती है। इसके दायरे में खेती, पेयजल, स्वास्थ्य, राशन आदि भी आते हैं। कहने को सभी सदस्य देश बराबर अधिकार रखते हैं मगर इसमें अमीर देशों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का ही दबदबा रहता है।

अगर भारत सरकार ने दिसम्बर में होने वाली WTO की बैठक में अपने शिक्षा के प्रस्तावों को अमली जामा पहना दिया तो -

v  इन देशों के कॉरपोरेट घराने या अन्य शिक्षा व्यापारी यहाँ कॉलेज, विश्वविद्यालय, अन्य तकनीकी एवं पेशेवर संस्थाएं खोल सकेंगेविदेशी कंपनियों द्वारा जो कॉलेज व विश्वविद्यालय यहाँ खोले जाएँगे उन्हें व्यावसायिक मुनाफ़ा कमाने की पूरी छूट होगी| मतलब वे यहाँ शिक्षा संस्थानों के नाम पर दुकानें खोलेंगे जिनमें शिक्षा भी वैसे ही बिकेगी जैसे दुकानों में महंगे कपड़े बिकते हैं| आओ और अपनी औकात के हिसाब से खरीद लो और अगर नहीं खरीद सकते तो चलते बनो|  ग़रीब, अनुसूचित जाति/जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक, विकलांग और हाशिये पर धकेल दिए गए अन्य समूह इन संस्थानों में नहीं पहुँच पाएँगे, क्योंकि फीस, वजीफा, दाखिला व अन्य सुविधाओं में संविधान के सामाजिक न्याय के उसूल लागू नहीं होंगे। भारत के सभी शैक्षिक संस्थान WTO के नियमों के अधीन होंगे और किसी भी शिकायत के लिए भारत की संसद व अदालत को दखल देने तक का अधिकार नहीं होगा। मतलब देश के ज़्यादातर बच्चों के लिए ये कॉलेज वैसे ही सपनों की तरह  होंगे जैसे आज मुट्ठीभर महंगे इंटरनेशनल स्कूल हैं|
v   दरअसल निजी कॉलेजों का असर सरकारी कॉलेजों पर यूँ पड़ेगा कि उनको मिलने वाले पैसे/अनुदान धीरे-धीरे कम कर दिए जाएंगे और यूनिवर्सिटी अपना खर्चा विद्यार्थियों की फीसें बढ़ाकर पूरा करेंगी| साम्राज्यवादी ताक़तें WTO द्वारा भारत पर यह दबाव बनाएँगी कि सरकारी संस्थानों को मिलने वाली सब्सिडी कम हो ताकि उनकी शिक्षा का धंधा फल–फूल सके। जब तक सरकारी कॉलेज महंगे या बर्बाद नहीं कर दिए जाएंगे तब तक इन निजी कॉलेजों की दुकान कैसे चलेगी? अभी हाल ही में UGC ने गैर-NET स्कालरशिप को बंद करने का निर्णय लेकर इसी दबाव का प्रमाण दिया है| साथ ही विज्ञान के शोध-संस्थानों को दिये जाने वाले फंड में कटौती करने और उन्हें स्वयं फंड जुगाड़ने के लिए कंपनियों की जरूरतों के हिसाब से काम करने के आदेश सरकार जारी कर चुकी है। सरकार शिक्षा से हाथ खींचकर WTO में जाने के पूर्व संकेत दे रही है।
v  इन संस्थानों में पढ़ने के लिए कर्जा लेना पड़ेगा। इसका मतलब है कि शिक्षा पर हमारे बच्चों का न हक़ होगा और न ही वह सरकारों की ज़िम्मेदारी रह जाएगी। कर्ज़ लेकर शिक्षा पाना कोई समाधान नहीं है। दुनियाभर में विद्यार्थी व उनके परिवार कर्ज़ के जाल में फंसते जा रहे हैं| हमारे देश में लाखों किसानों की आत्महत्यायें भी कर्ज़ के इस घिनौने जाल का सबूत हैं। दूसरी तरफ जो महंगी फीस और भारी कर्ज़ लेकर शिक्षा हासिल कर भी पाएगा उससे हम समाज के प्रति किस वफादारी की उम्मीद रख सकते हैं?  
v  WTO के हस्तक्षेप से शिक्षा के चरित्र में भी ज़बरदस्त बदलाव होंगे| WTO  की माँग के अनुसार अपने शिक्षा संस्थानों को ढालने का मतलब होगा पूंजीवादी हितों के हिसाब से पाठ्यक्रम, शिक्षण व मूल्यांकन को बनाना| WTO पूंजीपतियों का एजेंट है और वह उन्हीं विषयों और रिसर्च को समर्थन देगा जिससे उन्हें अधिक से अधिक मुनाफा होगा। साहित्य, कला, दर्शन, समाजशास्त्र जैसे विषयों की जगह, जिनमें समाज के प्रति समझ, संवेदना व संघर्षशीलता विकसित करने की संभावना होती है, समाज से विमुख करने वाले विषयों का ज्ञान महत्वपूर्ण हो जाएगा| बाजार को व्यक्तित्व के पूर्ण विकास से कोई सरोकार नहीं है बल्कि बाजार केवल उन कौशलों को विकसित करने की ज़रूरत समझता है जो मजदूर को मशीन में बदलकर पूँजीपतियों के लिए अधिक से अधिक मुनाफा कमा कर दे सकें देखा जाए तो शिक्षा का चरित्र ही नहीं शिक्षा का पूरा उद्देश्य ही बदल जाएगा|

हमें क्या करना होगा?

एक बार WTO के साथ करार हो जाएगा तो भारत की शिक्षा नीति भारत की जनता से ज्यादा WTO को जवाबदेह होगी| हम बहुत सी चीज़ों के लिए बाध्य हो जाएँगे । यह देश की जनता की स्वायत्तता पर सीधा हमला है और ग़ुलामी का नया रूप है| यूरोपियन यूनियन अफ्रीकन यूनियन के साथ बहुत से देश WTO को शिक्षा बेचने से पहले ही मना कर चुके हैं|  हमें भी पूरी ताकत के साथ भारत सरकार को दिसंबर में यह गठबंधन करने से रोकना होगा और इसके खिलाफ देश भर में चल रहे संघर्षों के साथ खड़ा होना होगा|


लोक शिक्षक मंच आपसे आह्वान करता है कि
·         WTO के खिलाफ देशभर में चल रही मुहिम से जुड़ें ।
·         शिक्षा को खरीदने-बेचने का सामान बनाने का विरोध करें ।
·         भारत सरकार से माँग करें कि WTO को दिए प्रस्ताव को वापिस ले ।


WTO शिक्षा छोड़ो !! भारत छोड़ो !!