Thursday, 24 December 2015

कहानी: हरामखोर


राजेश आज़ाद
प्राथमिक शिक्षक

रामफल शर्मा जी आज कुछ जल्दी ही स्कूल पहुँच गए हैं। कल उनकी फैक्टरी पर कुछ मजदूरों ने बवाल कर दिया था। उसी को सुलटाने के चक्कर में वो स्कूल से जल्दी ही निकल गए थे। आज जल्दी आकर पूरे हक़ से हाजरी पूरी की और सीधे प्रार्थना सभा में चले गए।
शर्मा मास्टर जी अपनी कक्षा में बैठे ऊँघ रहे हैं। कल पूरी रात उन्होंने समाचार चैनल पर समाचार देखते हुए बितायी है। कल याक़ूब मेमन की फाँसी की सजा पर सुप्रीम कोर्ट में पूरी रात सुनवाई चली है और जब तक उसको फाँसी न दिला दी तब तक उन्हें नींद न आ पायी। बच्चे क्लास में उछल-कूद मचा रहे हैं और बार-बार कभी पानी पीने के लिए तो कभी शौचालय जाने के लिए पूछने के लिए मास्टर जी को झकझोर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि मास्टर जी आज ही इतने सुस्त हैं। वो अक्सर ही कक्षा में ऊँघते हुए पाए जाते हैं। यदि कोई साथी टोक दे तो गर्व मिश्रित अंगड़ाई लेते हुए बोलते हैं, “अपनी फैक्टरी अब काफी अच्छी चल रही है। स्कूल तो मैं आप लोगों से मिलने आ जाता हूँ। आप लोग तो जानते ही हैं कि मेरे पास कितना काम है।"
मास्टर जी का शिक्षण कौशल भी साथी शिक्षकों के बीच मज़ाक का विषय बना रहता है। उनकी कक्षा के बच्चों को नाम लिखना आए या नहीं पर सबको ये बात रटी हुई है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। मास्टर जी कक्षा में पहुँचते ही गाइड खोलकर उसमें से पूरा बोर्ड भर देते हैं और अपनी फ़ैक्टरी का हिसाब-किताब लेकर बैठ जाते हैं। अब यह बच्चों पर है कि वे बोर्ड पर से कितना ग्रहण कर पाते हैं।
हाँ, एक काम में मास्टर जी का कोई तोड़ नहीं है - किसी भी विषय पर चर्चा के समय वो पूरे स्टाफ के लिए चाय-समोसे का प्रबंध अपने खर्चे पर करवाते हैं। आज भी मास्टर जी ने गोपाल को बुलाने के लिए बच्चे को भेजा, और उसको 500 रुपए का नोट थमाते हुए चाय-समोसे का इंतजाम करने का फरमान सुनाते हुए बोले, “गोपाल, आज कुछ मिठाई का भी इंतजाम करना।" हालाँकि गोपाल कभी भी मास्टर जी से कुछ पूछता नहीं है,पर आज हिम्मत करके उसने पूछ ही लिया, “सर, कोई खुशखबरी है क्या?” मास्टर जी रहस्यमयी मुस्कुराहट के साथ बोले, “जा लेकर तो आ फिर बताऊँगा।”  
मास्टर जी बेचैनी से आधी छुट्टी का इंतज़ार कर रहे हैं क्योंकि आज उनके पास बोलने का काफी मसाला है। हालाँकि पहले वो आधी छुट्टी का इंतज़ार भी नहीं करते थे मगर पिछले दिनों स्कूल में कुछ बदतमीज़ युवा शिक्षकों ने जॉइन किया है जो उन्हें टोक देते हैं। अब इस उम्र में किसी को क्या मुँह लगाना! उन्होने पूरी रात समाचार चैनल पर याक़ूब से जुड़ी हर खबर को अच्छी तरह से देखते हुए बितायी है और उन्हें लगता है कि आज वो युवा शिक्षकों के उस उस समूह को पटखनी देंगे जो हर बात पर उनका विरोध करते हैं। अरे, समूह क्या है, एक-दो नए लौंडे है, बिलकुल संस्कारहीन,न वरिष्ठों की शर्म, न उम्र का लिहाज।
मास्टर जी जिस भी दिन स्कूल समय से पहुँचते हैं, प्रार्थना सभा में जरूर उपस्थित रहते हैं। प्रार्थना में उनकी नज़र हरेक बच्चे पर होती है। सुबह यदि किसी बच्चे ने गायत्री मंत्र आँखें खोल कर बोल दिया तो वो गुस्सा हो जाते हैं। इसलिए बच्चे मास्टर जी के सामने हमेशा आँखें बंद करके रखते हैं क्योंकि एक भी गलती होने पर मास्टर जी विद्यार्थियों और शिक्षकों दोनों की 15 मिनट की नैतिक शिक्षा पर कक्षा ले लेते हैं। मास्टर जी का मानना है कि सुबह की प्रार्थना सभा से ही बच्चे संस्कारी और देश-प्रेमी होंगे, जिसका कि समाज में अभी अभाव हो चला है।
आधी छुट्टी की घंटी बजी और स्कूल में खाना बांटा जाने लगा तो मास्टर जी ने भी अपनी कक्षा को खाना लेने के लिए भेजा। हालाँकि मास्टर जी को कभी भी मिड डे मील योजना पसंद नहीं आई क्योंकि उन्हें लगता है कि यह योजना बच्चों में मुफ्तखोरी को प्रोत्साहित करती है। यही नहीं, स्कूल में किताब-कॉपी, वर्दी बांटे जाने के भी वो प्रबल विरोधी हैं। कुछ बुदबुदाते हुए शर्मा जी स्टाफ-रूम की ओर चले। अभी वो ठीक से वहाँ पहुँचे भी नहीं थे कि उनकी कक्षा का एक बच्चा अपने पिता के साथ उनके सामने प्रकट हो गया। बच्चे को उसके पिता के साथ देखकर मास्टर जी के चेहरे पर ऐसे भाव आए जैसे कि काली बिल्ली ने उनका रास्ता काट दिया हो। बाप ने मास्टर जी को नमस्ते किया और बोला, “क्या बच्चों की वर्दी आई है?” इतना सुनना था कि मास्टर जी आपे से बाहर हो गए। सरकार का इतना कीमती पैसा इस तरह बर्बाद होते देखना उन्हें गवारा न था। मास्टर जी ने बच्चे के पिता को क्या बुरा-भला कहा इसकी खबर तो नहीं पता चली पर स्टाफ-रूम में घुसते ही उनके पहले शब्द थे, “सरकार ने स्कूल शिक्षा देने के लिए खोले हैं या हरामखोरी को बढ़ावा देने के लिए?"   


Tuesday, 22 December 2015

शिक्षक डायरी: मोनू धनिया बेचता है !!!


राजेश आज़ाद
प्राथमिक अध्यापक 

मैं कुछ दिनों से काफी परेशान हूँ। ये परेशानी व्यक्तिगत भी है और सामाजिक-शैक्षणिक भी है। मोनू ने मेरी कक्षा से पाँचवीं पास की है और वो फिलहाल नौवीं में पढ़ रहा है। मेरा यह विद्यार्थी मुझे हर वीरवार को मेरे इलाके में ही लगने वाले साप्ताहिक बाज़ार में धनिया बेचता हुआ मिल जाता है। अब सवाल यह है कि मैं उसे धनिया बेचते हुए देखना बर्दाश्त क्यों नहीं कर पाता हूँ। मोनू के बारे में याद करता हूँ तो याद आता है कि वह स्कूल को कई प्रतियोगितायें जितवाने वाला एक अच्छा धावक था और पढ़ाई-लिखाई में भी ठीक था। उसने अभी तक पढ़ाई नहीं छोड़ी है यह तो मेरे लिए संतुष्टि का विषय है पर उसका इस 14-15 साल की उम्र में ही कमाने लग जाना मुझे बर्दाश्त नहीं होता है....निराशा में घिरने के बाद मैं यहाँ तक सोचने लगता हूँ कि यदि मोनू या उस जैसे मेरे विद्यार्थियों की नियति यही है तो क्यों नहीं मैं उन्हें केवल गणित विषय तक ही सीमित रखूँ जो कि उनके काम में उपयोगी रहेंगे, क्यों उन्हें भारत का इतिहास और भूगोल पढ़ाकर उनका समय बर्बाद करता हूँ। एक शिक्षक साथी से इस विषय पर बातचीत करके कुछ समाधान निकालने का निरर्थक प्रयास किया। उनका सोचना था कि हमारे विद्यार्थियों में से यदि कोई इस तरह के काम अपनी मर्ज़ी से करता है तो इतना परेशान होने की बात नहीं है, पर मेरा सवाल है कि क्या इस समाज में कोई अपनी मर्ज़ी से इस तरह के पेशे को चुनेगा और क्या हमारे विद्यार्थियों के पास चुनने की आज़ादी है? मेरे पास अपने लिए एक ही सवाल है कि मैं अपने शैक्षणिक पेशे में संतुष्टि किसे मानूँ। मोनू के स्कूल की छुट्टी हो जाने के बाद बाज़ार में रात 11 बजे तक सब्जियाँ बेचने में लग जाने के बाद भी अगले दिन स्कूल में नागा न करने को और शिक्षा पाने के संघर्ष को जारी रखने को?
मोनू या मेरे हर विद्यार्थी के पास क्या कोई सपना है? जो शिक्षा किसी संभ्रांत विद्यालय के विद्यार्थियों को बेहतर रोजगार दिला पाने में सक्षम हो पा रही है वही शिक्षा उन्हें क्या दे रही है? जब उन्हें अपना पारंपरिक व्यवसाय ही करना है तो फिर वे स्कूलों में अपना समय बर्बाद क्यों करें?
जब मैंने अपनी कक्षा के विद्यार्थियों से पूछा कि वो कहाँ तक पढ़ना चाहते हैं और क्या बनना चाहते हैं, तो इसपर अधिकतर बच्चों ने बताया कि वे बारहवीं तक पढ़कर डॉक्टर बनना चाहते हैं। 'बारहवीं तक' इसलिए क्योंकि अधिकतर को उससे आगे की पढ़ाई की जानकारी नहीं है; आगे की पढ़ाई के बारे में बात करने पर वो कॉलेज में पढ़ने की इच्छा जताते हैं। पर आज की स्थिति में मेरे इन मासूम विद्यार्थियों को ये पता नहीं है कि सरकार ने - जिसे कि इन बच्चों के माँ-बाप ने 'अच्छे दिनों' की उम्मीद में चुना है - फैसला ले लिया है कि इन बच्चों को स्कूलों में वोकेशनल शिक्षा ही दी जाएगी। यानि कि अब ये बच्चे खाना बनाना, सिलाई-कढ़ाई और इस तरह के विषय ही पढ़ेंगे जिन्हें पढ़कर वो कॉलेज में दाखिला तो नहीं ले पाएंगे। अब ये तो पूरी तरह से तय हो गया है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को ऊंचा सोचने की अनुमति नहीं है, उनके पर स्कूलों में ही क़तर दिये जाएंगे। इस साल के अंत तक तो इन गरीब मासूम बच्चों के लिए सरकार एक और सौगात लेकर आ रही है। वह दिसम्बर के महीने में शिक्षा को विश्व व्यापार संगठन का हिस्सा बनाने जा रही है जिससे यदि ये लड़-भिड़ कर कॉलेज तक पहुँच भी गए तो भी उनको शिक्षा से बाहर ही रहना पड़ेगा क्योंकि इसको खरीदने की औकात इनके माँ-बाप की होगी नहीं। 
अब मेरे पास रास्ता क्या है? क्या इसी तरह बच्चों को गुलामी के लिए तैयार करूँ और हर सप्ताह मोनू को देखकर उससे नज़रें चुराऊँ या फिर अपने विद्यार्थियों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करने वाली सत्ता के खिलाफ लोगों को लामबंद करके हल्ला बोल दूँ?
   

Tuesday, 1 December 2015

शिक्षा के हक़ के पक्ष में दो छात्राओं के संघर्ष और बलिदान की दास्तान

फ़िरोज़ 

पिछले दिनों दो राज्यों से दो छात्राओं से जुड़ी खबरें आईं जिनसे हमें शिक्षा के अधिकार के रास्ते में उपस्थित आर्थिक-सामाजिक असमानता के अवरोध के उदाहरण मिले। ग्यारह अक्टूबर को ट्रिब्यून न्यूज़ सर्विस ने हरियाणा के सिरसा में रहने वाली ज्योति की खबर प्रकाशित की। ज्योति को इसी साल बारहवीं पास करने के बाद चौधरी देवी लाल विश्वविद्यालय में दाखिला मिला था। पढ़ने के लिए उसे घर से विश्वविद्यालय आने-जाने पर रोज़ 120 रुपये खर्च करने पड़ रहे थे - एक तरफ के 60 रुपये। ज्योति एक आम मेहनतकश परिवार से संबंध रखती है। सामाजिक रूप से ये परिवार दलित पृष्ठभूमि का है। ज़ाहिर है कि इस तरह का खर्चा वहन करना इस परिवार के बूते के बाहर ही था। तो इस तरह ज्योति की उच्च-शिक्षा पर आर्थिक अयोग्यता की पाबंदी लग गई। यूँ ज्योति कोई अकेली नहीं है - भारत में लाखों-करोड़ों बच्चे इस नाइंसाफ़ी के शिकार होते हैं और देश के विकास की चकाचौंध में यह कोई खबर नहीं बनती। मगर ज्योति की पढ़ाई छूटने की संभावना की भनक किसी तरह कुछ स्थानीय NGO को लग गई और उनसे देखा नहीं गया। उन्होंने ज्योति व उसके परिवार को तीन साल पढ़ने के लिए यात्रा पर आने वाले खर्च का हिसाब लगाकर 63,000 रुपये देने की पेशकश की घोषणा कर दी। ज्योति ने इसे यह कहते हुए ठुकरा दिया कि उसे किसी का अहसान लेकर अपनी पढ़ाई का बंदोबस्त नहीं करना है। बल्कि उसने राज्य सरकार से बस पास की माँग की। इसे उसने सरकार का फ़र्ज़ और विद्यार्थियों का हक़ बताया। यह ग़ौरतलब है कि हरियाणा में यूँ तो छात्राओं को बस पास दिया जाता है पर वर्तमान नियम इसे एक निश्चित दूरी तक सीमित करते हैं, जोकि ज्योति जैसे विद्यार्थियों की परिस्थितियों व हितों के खिलाफ है। ज्योति की माँग में यह स्पष्टता भी है कि अगर बस पास बनाने के आदेश जारी भी होते हैं तो वो सिर्फ उस अकेली के लिए नहीं होंगे बल्कि उस जैसे सभी विद्यार्थियों पर लागू होंगे। इस घटना के बारे में ताज़ा सूचना तो प्राप्त नहीं है लेकिन इतने से ही हम कुछ सबक रेखांकित कर सकते हैं। देश के मेहनतकश और वंचित-शोषित वर्गों से आने वाले विद्यार्थियों में भ्रातृत्व-बहनापे, सामूहिकता, बराबरी और इन्साफ के प्रति वो सहज जज़्बा है जोकि राज्य से संवैधानिक ज़िम्मेदारियाँ निभाने की माँग करता है। वहीं, समाज के विभिन्न वर्गों में NGO की भूमिका को लेकर यह समझ गहरा रही है कि ये मुद्दों को टुकड़ों में बाँटकर तथा लोगों को एकाकी दृष्टि देकर जनसंघर्ष, जनांदोलन और राजनीति को भटकाते हैं, कुंद करते हैं। तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि विद्यार्थी शिक्षा के अधिकार को उसके वास्तविक आयाम में समझ रहे हैं - यह सिर्फ प्रवेश और फीस का मामला नहीं है। शायद ऐसा इसलिए भी हो रहा है क्योंकि समाज के वंचित वर्गों से अब जाकर कुछ संख्या में बच्चे उच्च-शिक्षा के संस्थानों में पहुँच पा रहे हैं और वहाँ जाकर वो देख रहे हैं कि ये व्यवस्था तो उनके लिए नहीं बल्कि उन्हें बाहर रखने के लिए ही रची गई है - तो इसे व इसकी संभ्रांत मान्यताओं-सीमाओं को चुनौती देने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है। 
दूसरी घटना महाराष्ट्र के लातूर ज़िले की है जहाँ 14 अक्टूबर को ग्यारहवीं कक्षा की स्वाति ने इसलिए खुदकुशी कर ली क्योंकि उसका परिवार उसके मासिक बस पास के 260 रुपये का खर्च उठा सकने में भी असमर्थ था। लातूर महाराष्ट्र के आठ सूखा-पीड़ित ज़िलों में से एक है और स्वाति की मौत के समाचारों में आ जाने के बाद परिवहन मंत्री ने इन ज़िलों के प्रथम वर्ष और उससे आगे के विद्यार्थियों को मुफ्त बस पास उपलब्ध कराने की घोषणा कर दी। न सिर्फ बस पास मुफ्त कराने के लिए एक विद्यार्थी को अपनी जान की क़ुरबानी देनी पड़ी, बल्कि इसके बावजूद इसे केवल सूखा-पीड़ित क्षेत्र के लिए जारी किया गया - जैसे कि कहा जा रहा हो कि एक हक़ लेने के लिए आपको मौत के मुँह में पहुँचकर अपनी पात्रता सिद्ध करनी होगी और फिर वहीं रहना होगा। (ज़ाहिर है कि राशन से लेकर वज़ीफों में पहले से ही पात्र व्यक्तियों का प्रतिशत तय करना इसी क्रूर और अतार्किक नीति का उदाहरण है।) स्वाति कुछ दिनों से कॉलेज इसलिए नहीं गई थी क्योंकि पैसों की कमी की वजह से उसका बस पास फिर से जारी नहीं हुआ था। एक दिन उसकी माँ ने उधार लेकर उसे कॉलेज भेजा। (यह स्पष्ट नहीं है कि उन्होंने एक दिन का किराया उधार लिया या फिर मासिक पास की रक़म।) अपने अंतिम नोट में स्वाति ने तीन-चार बातें लिखीं। वह रोज़-रोज़ का आर्थिक दबाव नहीं झेल पा रही थी। उसने लिखा कि वो अपने माता-पिता की कड़ी खेतिहर मेहनत को बेकार जाते देख रही थी और ईश्वर की निर्दयिता पर बहुत ग़ुस्सा थी। उसने यह भी लिखा कि उसके नहीं रहने से दहेज को लेकर उसके माता-पिता की चिंता तो आधी हो जाएगी। (वो अपने माता-पिता की दो बेटियों में से थी।) अपने पिता के बारे में उसने लिखा कि उसे याद नहीं कि आखरी बार वो कब हँसे थे। शिक्षा को कर्ज़े के नव-उदारवादी 'उपाय' (हथकंडे) के हवाले करने की मंशा रखने वालों के लिए इस त्रासदी में एक ही सबक है - पहले ही कर्ज़े के नीचे दबे मगर अभी ज़िंदा बचे लोगों को कैसे कर्ज़े के माध्यम से ग़ुलाम बनाया जाए या फिर उनको मरने पर मजबूर करके उनकी सम्पत्ति ज़ब्त की जाए। एक अखबार में यह भी छपा कि महाराष्ट्र के एक सिख संगठन ने उसके परिवार को उसकी बहन की, जोकि दूरस्थ प्रणाली से पढ़ रही है, तीन साल की पढ़ाई के खर्चे का सहयोग करने का प्रस्ताव दिया है। इसी संगठन के एक पदाधिकारी का यह बयान भी उसी खबर में छपा कि अमीर-ग़रीब के बीच इतनी असमानता कभी नहीं थी। यहाँ हम व्यैक्तिक सदाशयता की सीमा से एक बार फिर परिचित होते हैं। ग़ैर-बराबरी को एक ऐतिहासिक संदर्भ में देखने का दावा करने के बावजूद ये सहायता एक तात्कालिकता में फँस कर समस्या की जड़ को और अदृश्य बना देती है। 
दोनों ही उदाहरण शिक्षा पाने के लिए यात्रा पर आने वाले खर्च की वर्ग-संगत समस्या को प्रस्तुत करते हैं। दिल्ली में भी हम देखते हैं कि जहाँ एक ओर निजी स्कूलों के विद्यार्थियों के लिए केवल निजी बसें ही नहीं खुद DTC की सरकारी बसें धड़ल्ले से सेवा प्रदान करती हैं, वहीं सरकारी स्कूल के विद्यार्थी कहीं घंटों का इंतज़ार कर रहे होते हैं, कहीं अपने परिवार की सीमित और महँगाई में सिकुड़ती आय का भारी हिस्सा स्कूल-कॉलेज आने-जाने पर लगाने को विवश हैं और कहीं मीलों पैदल चलकर या खतरनाक ढंग से लटककर सफर कर रहे हैं व अपनी इस 'बदतमीज़ी' पर गालियाँ भी खा रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में यह हैरानी की बात नहीं है कि लाखों बच्चे या तो पढ़ाई बीच में ही छोड़ने को या ओपन नाम के शिक्षा संस्थानों में नाम लिखाने को मजबूर कर दिए जाते हैं। दिल्ली में तो DTC ने बाक़ायदा वर्ष 2006 के बाद खुले शिक्षा संस्थानों के विद्यार्थियों को बस पास जारी न करने का निर्णय लिया था। जिन विद्यार्थियों के पास बनते भी हैं वो भी सार्वजनिक बसों की भारी कमी के कारण हर महीने यात्रा पर मोटी रक़म खर्च को मजबूर हैं। मेट्रो की चमक-धमक में यह बात नज़रंदाज़ की जा रही है कि कॉलेज के विद्यार्थियों के लिए चलने वाली U-Special बसें लगभग बंद कर दी गई हैं, विद्यार्थी बस पास वातानुकूलित बसों में मान्य नहीं हैं और मेट्रो सस्ती नहीं है। नॉन-नेट वज़ीफ़ा बंद करने और उच्च-शिक्षा को विश्व-व्यापार की मुनाफाखोरी के लिए WTO के तहत सौंपने के फैसलों के संदर्भ में ज्योति का आह्वान और स्वाति का बलिदान विद्यार्थियों के संघर्षों को एक प्रेरणा व गतिशीलता प्रदान करता है। हमारी माँग यहाँ से शुरु होगी कि हर विद्यार्थी को उसके स्कूल-कॉलेज आने-जाने के लिए मुफ्त यात्रा का अधिकार है। यह शिक्षा के अधिकार का ही हिस्सा है और इसमें सभी प्रकार के सार्वजनिक वाहन शामिल हैं। खासतौर से स्कूली व अन्य वर्दीधारी विद्यार्थियों के लिए तो इसके लिए किसी पास की भी ज़रूरत नहीं होनी चाहिए - उनकी वर्दी, उनका पहचान-पत्र, उनके चढ़ने-उतरने के स्थान ही उनका पास हैं। मगर हमारे संघर्ष की परिणीति उस दुनिया के निर्माण में होगी जो बंधुत्व और सामूहिकता के ऐसे ताने-बाने में रचा होगा जिसमें हर सार्वजनिक सेवा-ज़रूरत मुफ्त होगी।