एक आदिवासी स्कूल-अध्यापिका और मानव अधिकार कार्यकर्त्ता,
सोनी सोरी पर कुछ लोगों ने बुरी तरह हमला किया, उनके चहरे को ग्रीस से काला कर
दिया| अभी सोनी का दिल्ली के एक अस्पताल में इलाज चल रहा है| भले ही उनका चेहरा
विकृत और सूजा हुआ है, भले ही वह अपनी आँखें नहीं खोल पा रही हैं लेकिन उनका जज़्बा
अभी भी अटल और निडर है| सोनी अपने लोगों, बस्तर और छत्तीसगढ़ के आदिवासी, अपने
जल-जंगल-जमीन को बचाए रखने के लिए भारतीय सरकार और बहु-राष्ट्रीय कम्पनियों के
अत्याचारों के खिलाफ लम्बे समय से संघर्ष कर रही हैं|
2011 में छत्तीसगढ़ पुलिस ने सोनी पर
‘माओवादी’ होने का इलज़ाम लगाया और उन पर कई झूठे केस लगाकर उन्हें
‘राष्ट्र-विरोधी’ घोषित कर दिया| हिरासत के दौरान सोनी
को बुरी तरह मारा-पीटा गया और यंत्रणाएं दी गयी| जेल से
उन्होंने एक ज़बरदस्त ख़त लिखा जिसमें उन्होंने गुस्से और साहस से पुछा “..मुझे
करंट देकर, मुझे नंगा करके, निर्दयता से मारके, मेरे मलाशय
में पत्थर डालके- क्या नक्सलवाद ख़त्म हो जाएगा| मैं अपने
देशवासियों से जानना चाहती हूँ”| उन पर ये सारी यंत्रणाएं करने वाले अफसर, अंकित गर्ग, को
2012 में वीरता पुरस्कार दिया गया| अपनी ‘बहादुरी’, ‘निर्भयता’, ‘आत्म-बलिदान’ और
‘राष्ट्र व् भारत माँ’ की सेवा करने के लिए उन्हें पुलिस मैडल मिला|
सोनी सोरी का केस कोई अपवाद या एकलौता केस
नहीं है| कवासी हिद्मे, बस्तर से आदिवासी, पर भी नक्सली होने का आरोप लगा| उन्हें भी
बार-बार पीटा गया, उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया, और जब एक
थाने के पुलिसवालों का ‘जी भर जाता’ तो उन्हें एक जेल से दूसरी जेल भेजा गया| ऐसा
7 सालों तक चलता रहा| एक दिन ‘राष्ट्र’ के रक्षकों की ‘दिलेरी’ का नतीजा यह हुआ कि कवासी के शरीर ने उनके गर्भाशय को बाहर
निकाल दिया| असहनीय दर्द में उनके शरीर से खून बहता रहा| पहली
बार कवासी ने अपने ही हाथों से अपने गर्भाशय को अंदर डाला और दूसरी बार अपने साथी
से ब्लेड मांगकर उसे काटने की कोशिश की| कवासी की कहानी तब सामने आई जब सोनी जेल
की सज़ा काटते हुए उनसे मिली| सैकड़ों सोनियाँ और सैकड़ों हिद्मे आज भी भारत की जेलों
में बंद हैं|
1991 में कश्मीर के गाँव, कोनन
पोशपोर की महिलाओं के साथ भारतीय सेना की सबसे वरिष्ठ राइफल, चौथी
राज राइफल्स, के सैनिकों ने बलात्कार किये| 25 साल बाद
भी ये महिलाएं इंसाफ़ के इंतज़ार में हैं|
2004 में मणिपुर की महिलाओं ने इम्फाल में अनिश्चितकालीन कर्फ्यू
के खिलाफ शक्तिशाली विरोध किया | मनोरमा के बलात्कार और उनकी निर्मम हत्या के बाद इन महिलाओं
ने अपने कपड़े उतारकर असम राइफल्स के मुख्यालय के सामने खड़े होकर भारतीय सेना के
खिलाफ नारे लगाए – “भारतीय सेना हमारा बलात्कार करो, हमारा मांस
ले लो”| ‘हाशिये’ से आता उनका विरोध स्वर राष्ट्र-गर्व के बिगुल को भंग कर देता
है|
विभाजन
के दौरान भी हज़ारों महिलाओं के बलात्कार हुए| वे महिलाएं भी इतिहास से चिल्ला कर
उस हिंसा का ब्यान दे रही हैं जो भारत के जन्म, ‘स्वतन्त्र’ राष्ट्र बनने के उस
क्षण में उनके शरीरों पर हुआ| औपनिवेशिक शक्ति से आज़ाद भारत में भी इस हिंसा का
तांडव बार-बार हुआ- चाहे वह आपातकालीन दौर हो, 1984 के दंगे, गोधरा हत्याकांड,
गुजरात के दंगे, ऑपरेशन ग्रीन हंट, कंधमाल, या मुज़फ्फर नगर के दंगे|
आवेश
के इस दौर में जब हर कोई, दक्षिण से लेकर वाम, ‘सच्चा राष्ट्रवादी’ होने की दौड़
में लगा है तब सोनी का काला किया गया चेहरा, मनोरमा का गलियों से भुना शरीर, कवासी
का बाहर निकला गर्भाशय हमसे सवाल पूछ रहा है: क्या राष्ट्र, कोई भी राष्ट्र, कभी
किसी महिला का हो सकता है? क्या राष्ट्रों को अपने निर्माण और एकीकरण के लिए
महिलाओं पर बलात्कारों और अत्याचारों की आवश्यकता होती है? क्या महिलाओं की
ज़िंदगियों, शरीरों, और इच्छाओं पर नियंत्रण राष्ट्र और राष्ट्रवाद का आधार है?
क्या राष्ट्र की कल्पना और निर्माण में मर्दाना व् पुरुष-प्रधान विचार निहित तो
नहीं है? यह विरोधाभास नहीं तो क्या है कि संघी टोली एक तरफ तो ‘भारत माता’ की जय
के नारे लगाते हैं और दूसरी तरफ ‘माँओं’ और ‘बहनों’ को बलात्कार करने की धमकियाँ
देते हैं, यौनिक उत्पीड़न से डराते हैं|
सबसे महत्वपूर्ण है यह पूछना कि भारत ‘माता’ क्यों है? इस
राष्ट्र को जनाना क्यों बनाना? क्या भारत माता की यह संकल्पना महिलाओं को पिंजरों
में कैद तो नहीं कर देती जहाँ हम महिलाओं को काम इसके सदस्यों (पुत्रों) को जन्म
देने का रह जाता है? जहाँ हम वो ‘माँएं/बीवीयाँ/बहनें’ बनकर रह जाती हैं जिन्हें
हमेशा सुरक्षा की ज़रुरत होती है? हमें उन्हीं प्रतिमाओं में कैद कर दिया जाता है जिनकी
बहादुरी उनके आत्म-बलिदान से नापी जाती है|
राष्ट्र की इस जनाना संकल्पना में दलितों, आदिवासियों,
कामगार महिलाओं ली ज़िंदगियाँ और अनुभव अदृश्य हो जाते हैं, लीक से हटकर लगते हैं,
गलत-अपराधी लगने लगते हैं| हिंदुत्व की इस राष्ट्रीय परियोजना की आलोचना करते हुए
हमें सोचना होगा कि क्या राष्ट्रवाद कभी भी संयुक्त हो सकता है या राष्ट्र काम ही
तब करते हैं जब किसी और को ‘अन्य’ या ‘दूसरा’ बना कर अपने सामने खड़ा कर ले|
राष्ट्रों की पहचान किसी दुसरे से मुकाबला करके ही स्थापित होती है|
राष्ट्र द्वारा महिलाओं पर की गयी हिंसा ‘अपवाद’ घटनाएं
नहीं होती, यह ‘रोज़ाना’, ‘साधारण’ व् हमारे सबसे घनिष्ट व् निजी संबंधों और दायरों
में भी होती है| बड़े छुपे हुए तरीकों से हमारे परिवारों, विश्वविद्यालयों,
कार्यस्थलों, और समाज में घट रही होती है| राष्ट्र का भार महिलाएं हर रोज़ अपने
कन्धों पर उठा रही होती हैं –कड़े नियमों को मानते, अपनी आज़ादी की बलि चढ़ाते,
लगातार अपनी स्वायत्ता, अपने निर्णयों को खुद लेने के अधिकारों के लिए मोल-भाव
करते दिख रही होती हैं|
कितनी ही बार जब हमने अपने परिवारों में मुलभूत अधिकारों और
आज़ादी की मांग की है तो हमारे परिवारों ने ‘पश्चिमी’ आदर्शों से भ्रष्ट हो जाने का
ताना मारा है| चाहे वह रात को बाहर जाने की बात हो या पढ़ने/काम करने की आज़ादी हो
या अपनी मर्ज़ी से किसी को प्यार करने की इच्छा (सूची बहुत लम्बी है?)
जब ज्योति सिंह केस के बाद जस्टिस वर्मा रिपोर्ट ने वैवाहिक
बलात्कार को अपराधिक घोषित करने का सुझाव दिया तो संसदीय standing committee ने, वेंकैया
नायडू की अध्यक्षता में, इस सुझाव को मानने से इनकार कर दिया| उनका कहना था कि अगर
वैवाहिक बलात्कार को कानून के दायरे में ला खड़ा किया तो महान भारतीय परिवार का
ढांचा टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा| तो क्या ‘भारतीय’ परिवार और शादियाँ वैवाहिक बलात्कार
के दम पर ही खड़ी हैं? हम सभी को पता है कि कैसे जो महिलाएँ न्यायालयों में यौनिक
शोषण के खिलाफ न्याय की उम्मीद से जाती हैं उनका अपमान किया जाता है, उन्हें
शर्मिंदा महसूस कराया जाता है| उनसे ऐसे सवाल किया जाते हैं जैसे तो वे ‘आदर्श’
भारतीय महिला की कसौटी पर खरी नहीं उतरीं|
हरियाणा
के पूर्व OSD (ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी) जवाहर यादव ने कहा, “JNU में विरोध करती
महिलाओं को मैं यही कहना चाहता हूँ कि इनसे बेहतर तो वैश्याएँ हैं जो अपना शरीर
बेचती हैं लेकिन देश नहीं”| यह सोच दर्शाती है कि राष्ट्रवाद की परिभाषा के केंद्र में है- पितृसत्ता और ब्राह्मणवाद| हर समय
हमें किसी ना किसी डब्बे में डाल दिया जाता है- ‘अच्छी’ या ‘बुरी’ औरतें, ‘राष्ट्र-विरोधी/माओवादी’
या ‘राष्ट्रवादी’ औरतें, इज्ज़तदार या बाज़ारू औरतें, ‘अच्छी बच्ची/विद्यार्थी’ या
‘नमकहराम बेटियाँ’| एक सेक्सवर्कर जिसका श्रम ब्राह्मणवादी नैतिकता एवं परिवार
मूल्यों को भंग करता है उs पर धिक्कार है| एक स्वंतत्र महिला जो सोचती है, सवाल
करती है, विरोध करती है, लड़ती है, वो इस राष्ट्र की सुरक्षा के लिए ‘घातक’ है|
विशेषत: तब जब यह महिला आदिवासी, दलित, मुसलमान, मज़दूर हो और ज़ोर से अपनी आवाज़ उठा
रही हो| ऐसी
औरतें 19वीं शताब्दी में ऊँची जाति के पुरुषों द्वारा तैयार की गयी राष्ट्रवाद की
मर्दाना और पुरुष-प्रधान पटकथा को नकारती हैं| पारिवारिक जीवन और अलगाव के पिंजरों
को नकारती हैं जिनमें इनकी आवाज़ें बंधी हुई थीं|
तुम्हारी सरहदें और सीमाएं हम महिलाओं की अंतरराष्ट्रीय
एकता और सामूहिकरण को रोक नहीं सकतीं| हमारी कल्पनाएँ नाच रही हैं, सितारों की धूल
की तरह, चुड़ैलों के जादू-टोने की तरह|