Sunday, 20 March 2016

अनुवादित लेख: औरतों का कोई राष्ट्र नहीं: पिंजरा तोड़ का बयान



एक आदिवासी स्कूल-अध्यापिका और मानव अधिकार कार्यकर्त्ता, सोनी सोरी पर कुछ लोगों ने बुरी तरह हमला किया, उनके चहरे को ग्रीस से काला कर दिया| अभी सोनी का दिल्ली के एक अस्पताल में इलाज चल रहा है| भले ही उनका चेहरा विकृत और सूजा हुआ है, भले ही वह अपनी आँखें नहीं खोल पा रही हैं लेकिन उनका जज़्बा अभी भी अटल और निडर है| सोनी अपने लोगों, बस्तर और छत्तीसगढ़ के आदिवासी, अपने जल-जंगल-जमीन को बचाए रखने के लिए भारतीय सरकार और बहु-राष्ट्रीय कम्पनियों के अत्याचारों के खिलाफ लम्बे समय से संघर्ष कर रही हैं|

2011 में छत्तीसगढ़ पुलिस ने सोनी पर ‘माओवादी’ होने का इलज़ाम लगाया और उन पर कई झूठे केस लगाकर उन्हें ‘राष्ट्र-विरोधी’ घोषित कर दिया| हिरासत के दौरान सोनी को बुरी तरह मारा-पीटा गया और यंत्रणाएं दी गयी| जेल से उन्होंने एक ज़बरदस्त ख़त लिखा जिसमें उन्होंने गुस्से और साहस से पुछा “..मुझे करंट देकर, मुझे नंगा करके, निर्दयता से मारके, मेरे मलाशय में पत्थर डालके- क्या नक्सलवाद ख़त्म हो जाएगा| मैं अपने देशवासियों से जानना चाहती हूँ| उन पर ये सारी यंत्रणाएं करने वाले अफसर, अंकित गर्ग, को 2012 में वीरता पुरस्कार दिया गया| अपनी ‘बहादुरी’, ‘निर्भयता’, ‘आत्म-बलिदान’ और ‘राष्ट्र व् भारत माँ’ की सेवा करने के लिए उन्हें पुलिस मैडल मिला|  

सोनी सोरी का केस कोई अपवाद या एकलौता केस नहीं है| कवासी हिद्मे, बस्तर से आदिवासी, पर भी नक्सली होने का आरोप लगा| उन्हें भी बार-बार पीटा गया, उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया, और जब एक थाने के पुलिसवालों का जी भर जातातो उन्हें एक जेल से दूसरी जेल भेजा गया| ऐसा 7 सालों तक चलता रहा| एक दिन राष्ट्रके रक्षकों की दिलेरीका नतीजा यह हुआ कि कवासी के शरीर ने उनके गर्भाशय को बाहर निकाल दिया| असहनीय दर्द में उनके शरीर से खून बहता रहा| पहली बार कवासी ने अपने ही हाथों से अपने गर्भाशय को अंदर डाला और दूसरी बार अपने साथी से ब्लेड मांगकर उसे काटने की कोशिश की| कवासी की कहानी तब सामने आई जब सोनी जेल की सज़ा काटते हुए उनसे मिली| सैकड़ों सोनियाँ और सैकड़ों हिद्मे आज भी भारत की जेलों में बंद हैं|

1991 में कश्मीर के गाँव, कोनन पोशपोर की महिलाओं के साथ भारतीय सेना की सबसे वरिष्ठ राइफल, चौथी राज राइफल्स, के सैनिकों ने बलात्कार किये| 25 साल बाद भी ये महिलाएं इंसाफ़ के इंतज़ार में हैं|

2004 में मणिपुर की महिलाओं ने इम्फाल में अनिश्चितकालीन कर्फ्यू के खिलाफ शक्तिशाली विरोध किया | मनोरमा के बलात्कार और उनकी निर्मम हत्या के बाद इन महिलाओं ने अपने कपड़े उतारकर असम राइफल्स के मुख्यालय के सामने खड़े होकर भारतीय सेना के खिलाफ नारे लगाए – “भारतीय सेना हमारा बलात्कार करो, हमारा मांस ले लो”| ‘हाशियेसे आता उनका विरोध स्वर राष्ट्र-गर्व के बिगुल को भंग कर देता है|

विभाजन के दौरान भी हज़ारों महिलाओं के बलात्कार हुए| वे महिलाएं भी इतिहास से चिल्ला कर उस हिंसा का ब्यान दे रही हैं जो भारत के जन्म, ‘स्वतन्त्र’ राष्ट्र बनने के उस क्षण में उनके शरीरों पर हुआ| औपनिवेशिक शक्ति से आज़ाद भारत में भी इस हिंसा का तांडव बार-बार हुआ- चाहे वह आपातकालीन दौर हो, 1984 के दंगे, गोधरा हत्याकांड, गुजरात के दंगे, ऑपरेशन ग्रीन हंट, कंधमाल, या मुज़फ्फर नगर के दंगे|      

आवेश के इस दौर में जब हर कोई, दक्षिण से लेकर वाम, ‘सच्चा राष्ट्रवादी’ होने की दौड़ में लगा है तब सोनी का काला किया गया चेहरा, मनोरमा का गलियों से भुना शरीर, कवासी का बाहर निकला गर्भाशय हमसे सवाल पूछ रहा है: क्या राष्ट्र, कोई भी राष्ट्र, कभी किसी महिला का हो सकता है? क्या राष्ट्रों को अपने निर्माण और एकीकरण के लिए महिलाओं पर बलात्कारों और अत्याचारों की आवश्यकता होती है? क्या महिलाओं की ज़िंदगियों, शरीरों, और इच्छाओं पर नियंत्रण राष्ट्र और राष्ट्रवाद का आधार है? क्या राष्ट्र की कल्पना और निर्माण में मर्दाना व् पुरुष-प्रधान विचार निहित तो नहीं है? यह विरोधाभास नहीं तो क्या है कि संघी टोली एक तरफ तो ‘भारत माता’ की जय के नारे लगाते हैं और दूसरी तरफ ‘माँओं’ और ‘बहनों’ को बलात्कार करने की धमकियाँ देते हैं, यौनिक उत्पीड़न से डराते हैं|
सबसे महत्वपूर्ण है यह पूछना कि भारत ‘माता’ क्यों है? इस राष्ट्र को जनाना क्यों बनाना? क्या भारत माता की यह संकल्पना महिलाओं को पिंजरों में कैद तो नहीं कर देती जहाँ हम महिलाओं को काम इसके सदस्यों (पुत्रों) को जन्म देने का रह जाता है? जहाँ हम वो ‘माँएं/बीवीयाँ/बहनें’ बनकर रह जाती हैं जिन्हें हमेशा सुरक्षा की ज़रुरत होती है? हमें उन्हीं प्रतिमाओं में कैद कर दिया जाता है जिनकी बहादुरी उनके आत्म-बलिदान से नापी जाती है|

राष्ट्र की इस जनाना संकल्पना में दलितों, आदिवासियों, कामगार महिलाओं ली ज़िंदगियाँ और अनुभव अदृश्य हो जाते हैं, लीक से हटकर लगते हैं, गलत-अपराधी लगने लगते हैं| हिंदुत्व की इस राष्ट्रीय परियोजना की आलोचना करते हुए हमें सोचना होगा कि क्या राष्ट्रवाद कभी भी संयुक्त हो सकता है या राष्ट्र काम ही तब करते हैं जब किसी और को ‘अन्य’ या ‘दूसरा’ बना कर अपने सामने खड़ा कर ले| राष्ट्रों की पहचान किसी दुसरे से मुकाबला करके ही स्थापित होती है|    

राष्ट्र द्वारा महिलाओं पर की गयी हिंसा ‘अपवाद’ घटनाएं नहीं होती, यह ‘रोज़ाना’, ‘साधारण’ व् हमारे सबसे घनिष्ट व् निजी संबंधों और दायरों में भी होती है| बड़े छुपे हुए तरीकों से हमारे परिवारों, विश्वविद्यालयों, कार्यस्थलों, और समाज में घट रही होती है| राष्ट्र का भार महिलाएं हर रोज़ अपने कन्धों पर उठा रही होती हैं –कड़े नियमों को मानते, अपनी आज़ादी की बलि चढ़ाते, लगातार अपनी स्वायत्ता, अपने निर्णयों को खुद लेने के अधिकारों के लिए मोल-भाव करते दिख रही होती हैं|
कितनी ही बार जब हमने अपने परिवारों में मुलभूत अधिकारों और आज़ादी की मांग की है तो हमारे परिवारों ने ‘पश्चिमी’ आदर्शों से भ्रष्ट हो जाने का ताना मारा है| चाहे वह रात को बाहर जाने की बात हो या पढ़ने/काम करने की आज़ादी हो या अपनी मर्ज़ी से किसी को प्यार करने की इच्छा (सूची बहुत लम्बी है?)

जब ज्योति सिंह केस के बाद जस्टिस वर्मा रिपोर्ट ने वैवाहिक बलात्कार को अपराधिक घोषित करने का सुझाव दिया तो संसदीय standing committee ने, वेंकैया नायडू की अध्यक्षता में, इस सुझाव को मानने से इनकार कर दिया| उनका कहना था कि अगर वैवाहिक बलात्कार को कानून के दायरे में ला खड़ा किया तो महान भारतीय परिवार का ढांचा टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा| तो क्या ‘भारतीय’ परिवार और शादियाँ वैवाहिक बलात्कार के दम पर ही खड़ी हैं? हम सभी को पता है कि कैसे जो महिलाएँ न्यायालयों में यौनिक शोषण के खिलाफ न्याय की उम्मीद से जाती हैं उनका अपमान किया जाता है, उन्हें शर्मिंदा महसूस कराया जाता है| उनसे ऐसे सवाल किया जाते हैं जैसे तो वे ‘आदर्श’ भारतीय महिला की कसौटी पर खरी नहीं उतरीं|

हरियाणा के पूर्व OSD (ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी) जवाहर यादव ने कहा, “JNU में विरोध करती महिलाओं को मैं यही कहना चाहता हूँ कि इनसे बेहतर तो वैश्याएँ हैं जो अपना शरीर बेचती हैं लेकिन देश नहीं”| यह सोच दर्शाती है कि राष्ट्रवाद की परिभाषा के केंद्र में है- पितृसत्ता और ब्राह्मणवाद| हर समय हमें किसी ना किसी डब्बे में डाल दिया जाता है- ‘अच्छी’ या ‘बुरी’ औरतें, ‘राष्ट्र-विरोधी/माओवादी’ या ‘राष्ट्रवादी’ औरतें, इज्ज़तदार या बाज़ारू औरतें, ‘अच्छी बच्ची/विद्यार्थी’ या ‘नमकहराम बेटियाँ’| एक सेक्सवर्कर जिसका श्रम ब्राह्मणवादी नैतिकता एवं परिवार मूल्यों को भंग करता है उs पर धिक्कार है| एक स्वंतत्र महिला जो सोचती है, सवाल करती है, विरोध करती है, लड़ती है, वो इस राष्ट्र की सुरक्षा के लिए ‘घातक’ है| विशेषत: तब जब यह महिला आदिवासी, दलित, मुसलमान, मज़दूर हो और ज़ोर से अपनी आवाज़ उठा रही हो| ऐसी औरतें 19वीं शताब्दी में ऊँची जाति के पुरुषों द्वारा तैयार की गयी राष्ट्रवाद की मर्दाना और पुरुष-प्रधान पटकथा को नकारती हैं| पारिवारिक जीवन और अलगाव के पिंजरों को नकारती हैं जिनमें इनकी आवाज़ें बंधी हुई थीं|   

तुम्हारी सरहदें और सीमाएं हम महिलाओं की अंतरराष्ट्रीय एकता और सामूहिकरण को रोक नहीं सकतीं| हमारी कल्पनाएँ नाच रही हैं, सितारों की धूल की तरह, चुड़ैलों के जादू-टोने की तरह|   


अनुवादित लेख: रोहित वेमुला को किसने मारा?


आनंद तेलतुम्बड़े

रोहित वेमुला, हैदराबाद विश्वविद्यालय के 26 वर्षीय दलित पीएचडी स्कॉलर ने अपने आत्महत्या पत्र में किसी, दोस्त या दुश्मन, को उसकी मौत के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया। इसका इस्तेमाल उसके हत्यारों ने उनकी बेगुनाही का दावा करने के लिए किया।  

वह कार्ल सगान की तरह लिखना और ब्रह्मांड की खोज में अपनी कल्पना को उड़ान देना चाहता था वह अपनी अंतरात्मा की गहराई तलाश रहा था, इस जाति-ग्रसित समाज में एक दलित की पीड़ित अंतरात्मा जो अस्तित्व की निरर्थकता के निष्कर्ष पर जा पहुंची। उसकी मौत से यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि आत्महत्या खुद की हत्या करना नहीं है; बल्कि विशिष्ट हालातों में हुई मौत है, जिसमें परम्पराएं, रीति-रिवाज व संस्थाएं शामिल हैं, ऐसी मौत जो हत्यारों के चेहरों पर पर्दा डाल देती है|

रोहिके विशिष्ट हालात विश्वविद्यालय परिसर में उस जुगाडू टेंट के रूप में मौजूद हैं जिसमें हॉस्टल से निकाले जाने के बाद वह और उसके 4 साथी पिछले 12 दिनों से रह रहे थे। उसकी स्थिति आत्म-सम्मान के लिए चल रहे संघर्ष में भी ज़िन्दा है, जो उसके बाद भी चल रहा है। 18 दिसंबर को उप-कुलपति को लिखा मर्मभेदी ख़त, अपने दोस्तों के सामने 27वें जन्मदिन की पार्टी ना दे पाने का बोझ (जो कुछ ही दिन दूर था), उसकी माँ को आखिरी फ़ोन, जिसे उसने एक गहरा संकेत देते हुए बीच में ही काट दिया। इतनी जानकारी काफी है पर्दा हटाने के लिए, हत्या के लिए ज़िम्मेदार हालातों और संभवत: लोगों को दुनिया के सामने लाने के लिए।  

इस केस का विस्तृत ब्यौरा सार्वजनिक है| ABVP HCU के अध्यक्ष नंदनम सुशील कुमार पर एक कथित हमला हुआ, जिसके लिए 5 दलित छात्रों को, जिनमें से एक रोहि था, सज़ा दी गयी। यह हमला आज तक साबित नहीं हो पाया है। बल्कि धिकारिक रिपोर्ट, डॉक्टर की जांच, और गवाहों ने यह स्थापित किया कि ऐसा कोई हमला नहीं हुआ था। फिर भी दलित विद्यार्थियों को सज़ा दी गयी। इसके बाद प्रशासन के निरंतर उतार-चढ़ावों ने यह साबित कर दिया कि जाति पूर्वाग्रहों, विश्वविद्यालय के बाहर से दबाव और प्रशासन की अकुशलता ने मिलकर कैसे खेल खेला।

इस हादसे को मोदी सरकार के श्रम और रोज़गार मंत्री, बंडारू दत्तात्रेय, के ख़त ने नया मोड़ दे दिया।  HRD मंत्री स्मृति रानी को लिखे इस ख़त में बंडारू ने HCU को जातिवादी, अतिवादी, और राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों का अड्डाबताया और आवश्यक कार्रवाकी मांग की। बंडारू ने अम्बेडकर विद्यार्थी एसोसिएशन (ASA) द्वारा याकूब मेमन की फांसी के खिलाफ प्रदर्शन को उनकी राष्ट्र विरोधी गतिविधियों का सबूत बताया।  
ईरानी के विवादग्रस्त दफ्तर (जिसके अनुसार शायद HRD का अर्थ है हिंदुत्व रिसोर्स डेवलपमेंट’) ने सांकेतिक ढ़ंग से उप-कुलपति को लिखा, उसी तरह जिस तरह IIT मद्रास में अम्बेडकर पेरियार स्टडी सर्किल को प्रतिबंधित किया गया था और जिसके बाद देश-भर में प्रदर्शन हुए।  

MHRD से एक-के-बाद-एक चार ख़त भेजने से यह समझा जा सकता है कि VC पर विद्यार्थियों के खिलाफ कदम उठाने को लेकर कितना दबाव बना होगा। मंत्री से मिले इस सहयोग ने आंतरिक तौर पर जातिवादी प्रशासन को ऐसी सज़ा देने के लिए उत्साहित किया जो विश्वविद्यालय के सन्दर्भ में मौत की सज़ा से कम नहीं थी। बिना हॉस्टल, प्रशासन इमारतों में घुसे, सार्वजानिक जगहों को इस्तेमाल करे और अन्य विद्यार्थियों से बात करे शोधार्थी कैसे रह सकते हैं? इन सबका मतलब ही शोधार्थी की मृत्यु होता है।

निष्कासन के बाद ये विद्यार्थी हैदराबाद की ठिठुरती ठण्ड में बाहर ही रहने लगे लेकिन फिर भी VC को अपने दुराचार की गंभीरता का एहसास नहीं हुआ| दिसंबर 18 को रोहि ने VC पर ख़त में दलित छात्रों और ABVP के बीच झगड़े में व्यक्तिगत दिलचस्पी लेने का इल्ज़ाम लगाया था।  उसने व्यंग्यात्मक  ढंग से HCU में दलित छात्रों की स्थिति उजागर की और लिखा कि VC को दाखिले के समय ही दलित छात्रों को ज़हर और फांसी का फंदा दे देना चाहिए और उसके जैसे विद्यार्थियों के लिए इच्छामृत्यु का प्रबंध कर देना चाहिए।    

यह ख़त किसी भी ज़िम्मेदार व्यक्ति के लिए विद्यार्थी की मानसिक दशा को गंभीरता से लेने का कारण  हो सकता था, ऐसा विद्यार्थी जो निरंतर उत्पीड़न और गरीबी के कारण स्वयं को निरुपाय महसूस कर रहा था और जिसे जुलाई से वज़ीफ़ा भी नहीं मिला था।  इसी वज़ीफ़े से वह गुंटूर में अपनी माँ और छोटे भाई को मदद करता था।   
  
एक तरफ तो सरकार बाबासाहेब अम्बेडकर की 125वीं जन्मतिथि पर खर्चा करने का दिखावा करके अपनी छवि निर्मित करने की कोशिश कर रही है ताकि दलितों को कांग्रेस से खींचकर अपनी तरफ कर सके। दूसरी तरफ सरकार उन सभी स्वतंत्र व मूलभूत बातों को दबा देना चाहती है जिनके लिए अम्बेडकर खड़े थे| अम्बेडकर ने प्राथमिक शिक्षा के बनिस्बत उच्च शिक्षा को इसलिए महत्व दिया क्योंकि उनका मानना था कि उच्च शिक्षा ही जनमानस में वो आलोचनात्मक नज़रिया और नैतिक शक्ति पैदा कर सकती है जिससे ताकतवर तत्वों के जातीय पूर्वाग्रहों को चुनौती दी जा सके।  

जैसे पूरी दुनिया में असहमति व्यक्त करने वाले मुसलमान युवाओं को आतंकवादी घोषित करना आसान है, वैसे ही दलित-आदिवासी युवाओं पर अतिवादी, जातिवादी और राष्ट्र-विरोधी होने का ठप्पा लगा देना भी आसान है।    

भारतीय जेलें ऐसे निर्दोष युवाओं से भरी पड़ी हैं जिन पर सालों से राजद्रोह और गैरकानूनी गतिविधियों में हिस्सा लेने का इल्ज़ाम है| जिस आक्रामक रूप से भाजपा संस्थाओं, विशेषत: उच्च शिक्षा संस्थानों, के भगवाकरण में लगी है उससे यह पूर्वाभास लगाया जा सकता है कि आने वाले वर्षों में अभी और रोहि बनाए जाएंगे 

वे लोग जो चुपचाप इस घृणित प्रक्रिया, भारत की बहुवादी संरचना के टूटने और ब्राह्मणवादी प्रभुत्व की पुनर्स्थापना को दर्शक बने देख रहे हैं, वे भी उतने ही दोषी हैं जितने कि वे जो प्रत्यक्ष रूप से इसमें शामिल हैं।  

तेलतुम्बड़े लोकतांत्रिक अधिकारों की सुरक्षा समिति के साथ नागरिक अधिकार कार्यकर्ता व लेखक हैं।






Wednesday, 9 March 2016

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस: मायने, चुनौतियाँ व सवाल


आज जब संस्कृति के बहुत-से पक्षों की तरह महिला दिवस को भी पूँजीवाद व बाज़ार की ताक़तें अपने चंगुल में लेने की कोशिशें कर रही हैं, यह ज़रूरी है कि इसके जनवादी मूल और इतिहास को फिर से याद तथा स्थापित किया जाये। इतिहास की एक व्याख्या के अनुसार इस दिवस की जड़ें बीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों में संयुक्त राज्य अमरीका में चले आंदोलनों में ढूँढी जा सकती हैं। यह वो समय था जब श्वेत पृष्ठभूमि की सुविधा-सम्पन्न, मध्यम-वर्गीय और अमीर महिलायें अपने मत देने के राजनैतिक अधिकार की माँग रख रही थीं। इन महिलाओं का आग्रह उस वक़्त और व्यवस्था पर काबिज़ वर्ग-नस्ल के हितों के अनुकूल। अपने लिए वोट का अधिकार माँगते हुए उन्होंने दलील दी कि श्वेत, शिक्षित व संपत्तिवान होने के आधार पर उनका दावा मज़बूत है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार इस विभाजनकारी माँग के बरक़्स महिला मज़दूर संगठनों ने 8 मार्च 1908 को न्यू यॉर्क में एक ज़ोरदार जुलूस निकाला। इन महिला मज़दूर संगठनों की माँग थी कि सभी महिलाओं को, चाहे वो श्वेत हों या अश्वेत, शिक्षित हों या अशिक्षित, संपत्तिवान हों या सम्पत्तिहीन, मत देने का बराबर का राजनैतिक हक़ होना चाहिए। इस लोकतान्त्रिक व क्रांतिकारी आयोजन को बाद में, 1910 में, अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी महिला सम्मेलन में कामगार महिला दिवस के रूप में प्रस्तावित किया गया। यह भी महत्वपूर्ण है कि रूसी बोल्शेविक क्रांति की एक चिंगारी 8 मार्च 1917 को सड़कों पर उतरी महिला मज़दूरों के आंदोलन से प्राप्त हुई थी जब प्रथम विश्व-युद्ध की विभीषिका के संदर्भ में 'रोटी और शान्ति' की माँग तथा नारे के साथ महिलाएँ महँगाई व युद्ध के ख़िलाफ़ एकजुट हुईं थीं। बीसवीं सदी में समाजवादी मुल्क़ों की स्थापना के साथ-साथ इस दिवस को एक व्यापक पहचान मिलती गई और फिर अंततः 1977 में आकर संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इसे मान्यता दे दी। ज़ाहिर है कि महिला आंदोलन का आधार एक तरफ़ पितृसत्ता को चुनौती देते हुए पुरुषों के समान राजनैतिक हक़ों को प्राप्त करने की लड़ाई में था, तो दूसरी तरफ़ यूनियन बनाने, काम के घंटे कम करने, वेतन बढ़ाने, कार्य-परिस्थितियाँ बेहतर करने जैसी मज़दूर माँगों के समाजवादी संघर्षों व आदर्श के चरित्र में था। 
अन्य देशों का इतिहास यह भी बताता है कि जब अधिकतर शिक्षक महिलायें थीं और अधिकारी पुरुष तो पितृसुलभ फ़ैसले थोपना आम बात थी। महिलाओं को शादी करने पर नौकरी से निकाल दिया जाता था, फिर यह हक़ जीतने पर उन्हें गर्भ ठहरने पर निकाला जाने लगा, और इस लड़ाई को जीतने के बाद उन्हें असमान वेतन पर रखा जाने लगा। ये सभी संघर्ष शिक्षक संगठनों की सामूहिक ताक़त से लड़े गए। अगर आज भी निजी स्कूलों में महिला शिक्षक कई हक़ों से महरूम हैं तो इसका एक कारण इन संस्थानों का अलोकतांत्रिक, मुनाफ़ाखोर चरित्र है और दूसरा कारण साथियों के संगठित होने के रास्ते में उपस्थित परेशानियाँ हैं। हालाँकि स्वयं सार्वजनिक व्यवस्था में, जिसमें हमारे स्कूल भी शामिल हैं, बढ़ते ठेकाकरण व अनियमतीकरण ने महिलाओं की आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा तथा पूर्व में जीते गए अधिकारों के सामने एक गंभीर ख़तरा पैदा कर दिया है। 
स्कूलों व व्यापक समाज में भी हम दो विपरीत लगने वाले व्यवहार देख सकते हैं - एक तरफ़ लड़कियों को 'गुड़िया', 'नन्हीं कली', 'लाडली', 'लक्ष्मी', 'देवी' आदि कहकर बुलाना और दूसरी तरफ़ औरतों को निशाना बनाती भद्दी गालियाँ। मगर शायद यह विरोधाभास नहीं है बल्कि उस मानसिकता का सहज परिणाम है जिसमें लड़कियों को नाज़ुक व सुरक्षा के दायरे के पिंजरे में क़ैद करके देखा जाता है। इसी मानसिकता के फलस्वरूप हम स्कूलों तक में छात्र-छात्राओं से अलग-अलग अपेक्षाएँ रखते हैं, उनसे अलग-अलग ढंग से पेश आते हैं और उन्हें अलग-अलग तरह की ज़िम्मेदारियाँ सौंपते हैं। राज्य के स्तर पर भी यह रूढ़िवादी रवैया उन्हें अलग-अलग तरह के विषय पढ़ने के मौक़े उपलब्ध कराने में साफ़ उजागर होता है। फिर हमारे कार्यक्रमों में बाज़ार द्वारा परोसी जा रही लड़कियों के प्रति अपमानजनक रचनायें भी शामिल होती हैं जिसे लड़कियों को आत्मसात कराकर अपनी पराधीनता, अपने दोयम दर्जे में गर्व/ख़ुशी महसूस करना सिखाया जाता है। अक़्सर हमारे कार्यक्रमों में, चाहे वो अनौपचारिक हों या सरकारी स्तर के औपचारिक, छात्राओं को (ही) स्वागत, गान आदि में प्रदर्शन की वस्तु की तरह इस्तेमाल किया जाता है। इन कार्यक्रमों में हम जाने-अनजाने रंग-रूप के भेदभावपूर्ण व बाज़ारवादी मूल्यों को बढ़ावा दे रहे होते हैं। इसी कड़ी में, इसे नज़रंदाज़ करते हुए कि ऐतिहासिक रूप से धर्म व राज्य की सत्ता का पुरुष-प्रधान चरित्र लोकतांत्रीकरण की राह में एक बाधा है, हम रीति-रिवाजों, सांस्कृतिक मान्यताओं आदि पर सवाल नहीं उठाते हैं। क्या 'पराई होना', 'डोली में विदा होना', 'दो घरों की इज़्ज़त होना' जैसी पितृसत्तात्मक व रूढ़िबद्ध छवियों को प्रश्नांकित किये बिना बराबरी की बात करना सार्थक है? क्या लड़कियाँ 'बेटी', 'पत्नी', 'माँ', 'बहन', 'बहू' के अलावा कोई स्वतंत्र वजूद नहीं रखतीं? आख़िर हमें सुरक्षा की कीमत चारदीवारी की क़ैद में रहकर क्यों चुकानी होगी जब हमारे सामने आज़ादी और बराबरी के खुले आसमान की मंज़िल है?      
लैंगिक पूर्वाग्रहों तथा रूढ़ियों के संदर्भ में शायद हमें स्कूलों के अंदर अपने कामों, ज़िम्मेदारियों व नेतृत्व की भूमिकाओं को लेकर भी विचार करने की ज़रूरत है। क्या हम अपने आचरण, अपनी स्कूली व्यवस्था में समानता और लोकतान्त्रिक व्यवहार को अपनाये बिना अपने विद्यार्थियों में ये मूल्य संप्रेषित कर सकते हैं? क्या हमें POCSO जैसे क़ानूनों की पर्याप्त जानकारी है? क्या हमारे स्कूलों में, कार्यालयों में यौन-उत्पीड़न की घटनाओं, शिकायतों को सम्बोधित करने के लिए क़ानून-सम्मत समितियाँ हैं? क्या हम उन्हें ज़रूरी मानते हैं? क्या यूनियन में शिक्षिकाओं की भागीदारी व प्रतिनिधित्व का वर्तमान स्तर और स्वरूप इसके लोकतान्त्रिक चरित्र पर कुछ प्रश्न खड़े नहीं करता है?
                      असल में, एक स्तर पर, औरतों को सस्ते व सुविधाजनक श्रम के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है। जनगणना से लेकर तमाम तरह के सर्वे में कितनी आसानी से हम अपने घर का सारा काम करने वाली महिला को Housewife/'काम नहीं करती' के ख़ानों में डाल देते हैं! राज्य मशीनरी भी मिड-डे-मील से लेकर आँगनवाड़ी तक का समाज का महत्वपूर्ण काम औरतों के श्रम के सहारे अनियमित व सस्ते तरीके से निपटा देती है। वहीं हमारी छात्रायें अपने घरों का काम करने के साथ-साथ बचपन से ही - विडंबना देखिये! - 'चूड़ी बनाने' जैसे शोषणकारी श्रम में पिसने लगती हैं। यही व्यवस्था उनके बड़े होने पर फिर उन्हें सस्ते श्रम के रूप में कारखानों व कम्पनियों के मालिकों के मुनाफ़े के लिए इस्तेमाल करती है। 
आज जब महिला दिवस पर 'कमाल की औरत' या 'होनहार औरत' की छवि परोसी जा रही है, हमें यह याद करने की ज़रूरत है कि यह Women's Day है, Woman's Day नहीं। अर्थात यह दिन औरतों का सामूहिक दिवस है, अकेली औरत का उत्सव नहीं, जैसा कि मुख्यधारा के मीडिया में प्रस्तुत किया जा रहा है।नारी की मुक्ति में सबकी मुक्ति है और सबकी मुक्ति में नारी की मुक्ति है। नारी आंदोलन को ताक़त देने वाले, बहनापे के गीत के बोलों में  
                   दरिया की क़सम 
                   मौजों की क़सम 
                   ये ताना-बाना बदलेगा 
                   तू ख़ुद को बदल
                   तू ख़ुद को बदल 
                   तब ही तो ज़माना बदलेगा 
                       
                   तू चुप रहकर 
                   जो सहती रही 
                   तब क्या यह ज़माना बदलेगा 
                   तू बोलेगी 
                   मुँह खोलेगी 
                   तब ही तो ज़माना बदलेगा  

Tuesday, 1 March 2016

सोचने और सवाल खड़े करने की आज़ादी के खिलाफ किए जा रहे फ़ासीवादी हमलों के विरुद्ध एकजुट हों

सोचने और सवाल खड़े करने की आज़ादी के खिलाफ किए जा रहे फ़ासीवादी हमलों के विरुद्ध एकजुट हों। विश्वविद्यालय की स्वायत्ता को बचाने और मजबूत करने के लिए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ (जेएनयूएसयू ) के कल (2 मार्च) के संसद मार्च को हम अपना समर्थन देते हैं और साथियों से अपील करते हैं कि इसमें अधिक से अधिक संख्या में पहुंचे। हम इस मुद्दे पर पिछले कुछ दिनों में आए दो लेखों का अनुवाद साझा कर रहे हैं। हमें उम्मीद है कि इन लेखों से इस मुद्दे पर एक बेहतर समझ बनाने में मदद मिलेगी। 
संपादक 
विद्यार्थी होने का मतलब 
सवाल पूछना, नकारने का साहस दिखाना, बहस करना, संदेह करना - यह विश्वविद्यालय जीवन का मूलतत्व था
विकास पाठक 

सोलह साल पहले जब वाजपेयी सरकार इतिहास की पाठ्यपुस्तकें फिर से लिखने की तैयारी कर रही थीजवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय छात्र संघ ने एक सम्बोधन आयोजित किया जिसमें अनुभवी इतिहासकार सुमित सरकार ने सरकार के क़दम पर सवाल खड़े किये। 
मैं उस वक़्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का कार्यकर्ता था और वहाँ एक अन्य विद्यार्थी के साथ उन प्रोफेसर से प्रश्न पूछने गया। हमें अपना मौक़ा तब मिला जब उस समय के छात्र संघ के अध्यक्ष सैयद नासिर हुसैन ने हमें सवाल-जवाब करने की अनुमति दी। मुख्य रूप से वामपंथी श्रोताओं में कुछ हँसी फ़ैल गयी। मगर 23 साल के नौजवानों के रूप में हमने प्रोफेसर को ग़लत साबित करने की भरसक कोशिश कीऔर उन्होंने मुस्कुराहट तथा बड़प्पन के भाव के साथ जवाब दिया। 
अगले दिनअपने विरोध को बढ़ाने की दिशा मेंहमने प्रोफेसर सरकार के तर्कों के विरुद्ध एक हस्ताक्षरित जवाब लिखा। केंद्र के वाम में स्थित स्थापित सत्ता का यह सीधा नकार बहादुरी महसूस कराने वाला कार्य था। उस दिनसामाजिक विज्ञान के केंद्र के भवन के बाहर मैं वाम झुकाव रखने वाले एक नामी प्रोफेसर से मिला। उन्होंने मुझसे कुछ यूँ कहा - "मुझे तुम्हारे लेख में कुछ समस्या नज़र आती हैमगर [अकादमिक] बहसें इसी तरह की जाती हैं।"
आज जब इस विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों पर 'राष्ट्र-विरोधीहोने के आरोप लगाये जा रहे हैं तो ऐसे में उस [नैतिक] माहौल को याद करना काम का है जिससे उसने मुझे परिचित कराया। हमारा संसार विचारों की लड़ाइयों का थाअसहमतियों और जवाबों का संसार। बाज़ी मारना एक बौद्धिक छलाँग था। बाज़ी हारना हमें कुढ़ता हुआ छोड़ता था। 
क्या यह लम्बा चलाहाँहममें से उनके लिए जिन्होंने कैम्पस छोड़ने के बाद राजनीति को अपनाया। बाक़ी बहुत से लोगों के लिए कैम्पस पर रहना विचारधाराओं का एक रोमांस थाएक के साथ जुड़ना और उसे पूरी तरह से परखनाबौद्धिक रूप से मज़बूत महसूस करना। और इस प्रक्रिया में सीखना। 
जो राजनैतिक पक्ष कोई JNU में लेता है वो कुछ वर्षों के बाद धुँधले पड़ जाते हैं। कुछ वाम झुकाव वाले विद्यार्थी प्रशासनिक सेवक बन जाते हैं,अन्य संयुक्त राज्य अमरीका या यूरोप जाकर पढ़ाते हैंकुछ बैंकर बन जाते हैं। अ. भा. वि. प. के कार्यकर्ताओं की यात्रा भी जारी रहती हैऔर वो विभिन्न पेशों में चले जाते हैंबीते समय को सीखने की प्रक्रिया तथा जज़्बाती विचारों के एक दौर के रूप में याद करते हुए।   
विद्यार्थियों के बतौर हम JNU को एक ऐसे सुरक्षित स्थान की तरह देखते थे जहाँ विचारों के संसार से ग़ुज़रा जा सकता हैजहाँ हम यह तय कर सकते थे कि दुनिया की क्या समझ बनाई जाये और किसी तरह अपने निशान छोड़े जायें। जहाँ हम महसूस करते थे कि हम क्रांतिकारी ढंग से सोच सकते हैं और ज्ञान की सरहदों को फैला सकते हैं। 
कारगिल युद्ध के चरम पर मैंने पेरियार हॉस्टल में अचिन वनायक द्वारा सम्बोधित एक जन सभा में शिरकत कीहालाँकि मेरे पैर में फ्रैक्चर था। प्रोफेसर वनायक ने बड़े ही शिद्दत से कहा कि पोखरन-2 'भारतीय लोगों की बुद्धिमता की बेइज़्ज़ती थी'। वामपंथी छात्रों ने हामी भरी लेकिन अ. भा. वि. प. के कार्यकर्ताओं के चेहरे ग़ुस्से से लाल हो गए। 
अपने विरोध को कारगिल में मारे जा रहे सैनिकों के प्रति एक आवश्यक श्रद्धांजलि मानते हुएमैंने फिर चुनौती स्वीकार की। 'आपका भाषण भारतीय लोगों की भावनाओं का अपमान है', मेरे यह कहने पर अ. भा. वि. प. सदस्यों ने समर्थन में तालियाँ बजाईं और वार्डन नेजोकि सभा की अध्यक्षता कर रहे थेमुझे शांत होने का इशारा किया। मैं शांत होकर  बैठ गया मगर मुझे लगा कि मैंने 'राष्ट्र के प्रतिअपना कर्तव्य निभा दिया था।  
अगले दिन वार्डन दोपहर के वक़्त मेरे कमरे में आये और कुर्सी पर बैठ गए। यह कहते हुए कि वो मेरे राष्ट्रवादी आवेग की क़दर करते हैंउन्होंने प्रोफेसर वनायक का बचाव किया: "अचिन एक अच्छा इंसान है जोकि हमेशा से परमाणुकरण-विरोधी रहा है"उन्होंने कहा। वार्डन का इस तरह मुझ से संवाद करने का अंदाज़ मुझे छू गया। मैंने सर हिलाया और वार्डन - अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन के विद्वान - एक मुस्कुराहट लिए चले गए। 
कई वामपंथी विद्यार्थी अपने विचारों को लेकर जज़्बाती थेकुछ कैम्पस मज़दूरों के हक़ों के मुद्दे भी उठाते थे। आज से कुछ साल पहले जब मैं एक पत्रकार के बतौर एक खाटी JNU मुद्दे पर रिपोर्ट करने दोबारा कैम्पस गया तो मैंने उन सरगर्म दिनों को याद किया: एक पक्की मार्क्सवादी विद्यार्थी अपने वार्डन के खिलाफ इसलिए भूख हड़ताल पर बैठी थी क्योंकि उसका कहना था कि वार्डन ने हॉस्टल में सफाई का काम करने वाली महिला का बकाया मेहनताना नहीं अदा किया था। विद्यार्थी को हॉस्टल खाली करने का नोटिस मिला मगर वो डिगी नहीं तथा SFI (स्टूडेंट फ़ेडरेशन ऑफ इंडिया) ने उसे समर्थन दिया। वो सफाईकर्मी महिला के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाना चाहती थी।   
हममें से बहुतों के लिए JNU सिर्फ एक ऐसी जगह नहीं थी जहाँ बेहतरीन प्रोफेसर हमें पढ़ाते थेबल्कि वह जगह थी जहाँ हमने नागरिकता के सबक सीखे। अपने विचारों के बेहतर होने के प्रति विश्वस्तहम कुछ नज़रियों से जुड़ जाते थे। मगर यह हमें 'दूसरे' [नज़रिये] के संदर्भ में अपने नज़रिये के बारे में पढ़ने को मजबूर करता थाजिस प्रक्रिया में हम शिक्षित होते थे। विचारधारा पर रतजगी चर्चायें असामान्य नहीं थीं - राष्ट्रवाद या इसके आधुनिक स्वरूपों परश्रमिक वर्गों के बीच वैश्विक गठबंधनों की संभावना पर। 
हम उन्हें अपने कमरों में ठहराने जैसे कार्यों सेअगर उन्हें हॉस्टल में स्थान नहीं मिला होनए विद्यार्थियों से दोस्ती करने को महत्व देते थे। यक़ीननउम्मीद होती थी कि वो हमारे नज़रिये में मतांतरित हो जायेंगे!
हमारी बहसें पर्चों की सामग्री भी बनती थीं जहाँ वाम और दक्षिण एक-दूसरे को जवाब देते थे। मैं कुछ वर्षों तक अ. भा. वि. प. की पर्चा समिति का अध्यक्ष रहा। पर्चागीरी चुनावों के ठीक पहले अपने चरम पर पहुँच जाती थी जिसे विद्यार्थी एक चुनाव समिति के माध्यम से संयोजित करते थे। 
खर्चा बचाने के लिए पोस्टर हाथों से बनाये जाते थे। विद्यार्थियों के पैनल वोट माँगने कैम्पस में पैदल घूमते थेजबकि विभिन्न संगठन केवल प्रत्याशियों की सब्सिडाइज़्ड (सस्ती) चाय व लंच का कीमत चुकाते थे। पैसे उड़ाना हारने का निश्चित तरीका था - JNUवाले किसी भी तरह के धनबल के दिखावे को हिक़ारत से देखते थे। 
जैसे-जैसे चुनाव पास आते थे वैसे-वैसे आमसभाओं की बैठकें होती थीं और आखीर में रात में सवाल-जवाब के सत्र के साथ अध्यक्षीय बहस आयोजित होती थी। इसमें समर्थकों के प्रोत्साहन व ढोलों तथा विपक्षियों के हतोत्साहन व तंग करने के बीच विद्यार्थी अपने ध्येय के पक्ष में तीव्र दलीलें देते थे। कुछ भाषण बेहद मँझे हुए और विद्वतापूर्ण होते थेयह चरितार्थ करते हुए कि अगर उसे धन और बाहुबल से मुक्त माहौल में आयोजित किया जाये तो विद्यार्थी राजनीति कितनी बौद्धिक हो सकती है।    
हँसी-मज़ाक के क्षण भी होते थे। अ. भा. वि. प. के एक मुसलमान प्रत्याशी से RSS के एक मुसलमान सदस्य का नाम बताने को कहा गया। थोड़ा ठहरकर उसने जवाब दिया: "मैं!" हर साल एक ऐसा निर्दलीय प्रत्याशी होता था जो बाक़ी सबसे असहमति जताता था और सम्पूर्ण राजनैतिक पटल पर खूब हँसी उत्पन्न करता था। 
कुछ सवाल भौंचक कर देने वाले होते थे। भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) समर्थित AISA के एक प्रत्याशी ने इस सदी के पहले दशक के शुरुआती वर्षों में अ. भा. वि. प. के अध्यक्षीय प्रत्याशी से पूछा कि 1907 में अपनी डायरी में भाई परमानंद नेजोकि बाद में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष हुएहिन्दू-मुसलमान समस्या को सुलझाने के लिए पंजाब के बँटवारे का सुझाव क्यों दिया था। किसी को इस बारीक जानकारी का पता नहीं था और इसने उपस्थित श्रोताओं में काफी [चर्चा का] शोर पैदा किया।  
मगर कभी-कभी विचारों की दुनिया को झड़पों से झटके लगते थे। उदाहरण के लिए तब जब 1999 में आरक्षण की मात्रा बढ़ाने की प्रगतिशील प्रवेश नीति का वाम ने समर्थन और दक्षिण ने विरोध किया। कुछ वामपंथी भी इस नीति के खिलाफ हो गए और दलित विद्यार्थियों ने उन्हें 'ब्राह्मणवादीकरार दिया। अंततः दक्षिण व वाम के बीच में कुछ हिंसा हुई जिसके परिणामस्वरूप अ. भा. वि. प. के चंद कार्यकर्ताओं तथा SFI के सबसे प्रमुख कार्यकर्ता को निष्कासित कर दिया गया। बाद में विद्यार्थियों को अदालत से राहत मिल गयी। 
JNU के विचारों के संसार का एक खराब पक्ष भी था। विचारों के इस युद्ध से कार्यकर्ताओं के बीच के रिश्तों को नुकसान पहुँचता था। अ. भा. वि. प. और SFI के कार्यकर्ता आपस में न के बराबर बातचीत करते थे। एक दूसरे के खिलाफ शिकायतों का सिलसिला भी चलता थाजो कभी-कभी बेमतलब की होती थीं। NSUI के एक कार्यकर्ता ने एक बार यह पूछ कर मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या हम अपने व्यक्तिगत जीवन में लोकतान्त्रिक हुए बिना सचमुच में लोकतान्त्रिक हो सकते हैं। 
यह विद्यार्थी राजनीति राष्ट्र को बदलती नहीं है और न ही उसे किसी तरह का तात्कालिक नुकसान पहुँचाती है। मगर ये निश्चित ही एक महत्वपूर्ण दूरगामी लाभ देती हैं: ये समाज को नागरिकों की एक ऐसी पीढ़ी प्रदान करती हैं जोकि राजनीति के संसार, इतिहाससमाज, अर्थशास्त्र व संकल्पनाओं से उलझना-निपटना सीख चुकी है। 
विश्वविद्यालय की राजनीति इसी के लिए अस्तित्व रखती है। ऐसे लोगों को तैयार करने के लिए जो सोचते-विचारते हैं। यह राष्ट्र को नुकसान नहीं पहुँचाता है: बहस करने वाला समाज एक स्वस्थ और ज़िंदा समाज होता है। 
(द हिन्दू के संडे मैगज़ीन से साभार )

अघोषित आपातकाल? राज्य दमन – जेनयू विद्यार्थियों से हौंडा मज़दूरों तक
नयन ज्योति
हम जेनयू के साथ खड़े हैं| राज्य के दमन एवं विद्यार्थियों को चिन्हित कर-करके उन पर आरोप लगाने के खिलाफ अपनी आवाज़ उठा रहे हैं| ‘विचारों के मतभेद’ के अधिकार के लिए अपनी आवाज़ उठा रहे हैं| 18 फरवरी को 15,000 से ज़्यादा लोगों ने दिल्ली में यह स्पष्ट किया कि जेनयू में जो चल रहा है वो उसी कड़ी का हिस्सा है जिसमें HCU के रोहिथ वेर्मूला की दलित-विरोधी प्रशासन ने बीजेपी के दबाव में आकर संस्थानिक हत्या कर दी, FTII विद्यार्थियों की सोच और अभिव्यक्ति को काबू करने के लिए दक्षिणपंथियों ने हमले किये और गत समय में प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की हत्या की गयी| 
जिस समय बीजेपी सरकार-पुलिस-प्रशासन-आरएसएस की सड़कों पर मौजूद सेना प्रगतिशील आवाज़ों को डराने और चुप कराने में लगी है, उसी समय हरियाणा-राजस्थान बॉर्डर पर हज़ारों मज़दूरों पर कहीं ज़्यादा भयंकर दमन जारी है|
भाजपा शासित हरियाणा और राजस्थान की सरकारों की संयुक्त पुलिस मजदूरों के घरों पर छापे मार रही है, मार-पीट रही है, उन्हें गिरफ्तार कर रही है और अगर कोई भी व्यक्ति हौंडा के कामगार जैसा दिखाई पड़ रहा है या उनके समर्थन में दिख रहा है तो उसे खदेड़ रही है| राजस्थान के अलवर और हरियाणा के रेवाड़ी व् गुडगाँव जिलों में ऐसा ही चल रहा है|
HONDA के 4,000 मजदूरों में से सैकड़ों को या तो गिरफ्तार कर लिया गया है और/या वे लापता हैं| 350 को चोटें आई हैं और 50 गंभीर हालत में हैं| मोदी के #MakeInIndia के केंद्र में स्थित संपूर्ण DMIC बेल्ट पुलिस छावनी में तब्दील हो चुकी है जहाँ आपातकालीन स्थिति मौजूद है| इस आपातकालीन स्थिति को सामान्य स्थिति बनाने के लिए हरियाणा मुख्य मंत्री ने यह घोषित किया है कि औद्योगिक पार्क्स में ज़्यादा पुलिस स्टेशन बनाए जाएंगे|
16 फरवरी को HONDA में क्या हुआ?
16 फरवरी की सुबह HMSI (हौंडा मोटरसाइकिल और स्कूटर इंडिया, प्राइवेट लिमिटेड) की पेंट दुकान में एक सुपरवाइजर एक ठेका मजदूर को गालियाँ दे रहा था और पीट रहा था क्योंकि वह ओवरटाइम करने से मना कर रहा था| दरअसल यह मज़दूर कई दिनों से ओवरटाइम करने के कारण बीमार चल रहा था| जिस घटना घटी उस दिन ओवरटाइम करने से मना करने पर सुपरवाइजर ने उसका गला पकड़ लिया और उस पर हमला किया| मैनेजमेंट और श्रम विभाग, फैक्ट्री के अन्दर और बाहर, ऐसे दमनकारी नियंत्रण का इस्तेमाल अक्सर करते हैं लेकिन इस बार मज़दूरों ने साथ आकर इस घटना का विरोध करने का फैसला किया| काम बंद कर दिया गया और शिफ्ट A के 2000 मज़दूर- नियमित-ठेका-प्रशिक्षार्थी-अपरेंटिस- फैक्ट्री के अन्दर शांतिप्रिय ढ़ंग से बैठ गए और शिफ्ट B-C के 1000 से ज़्यादा मज़दूर फैक्ट्री के गेट पर जमा हो गए| मज़दूरों के अन्दर कई बातों को गुस्सा उबल रहा था- अगस्त 2015 से ख़त्म होता यूनियन बनाने का अधिकार, बढ़ता काम का दबाव, बंधुआ मज़दूरी , बिगड़ते काम के हालात, बाउंसर का दमन आदि| मैनेजमेंट और अलवर श्रम विभाग ने पहले चार यूनियन नेताओं को निलंबित किया था और 2 को नौकरी से बर्खास्त, जिसमें यूनियन अध्यक्ष नरेश कुमार शामिल थे| कॉन्ट्रैक्ट मज़दूरों को नियंत्रण में रखने के लिए 500 बाउंसर और रखे गए|       
16 फरवरी को कंपनी मैनेजमेंट ने तुरंत 4 मज़दूरों को बर्खास्त किया, 8 को निलंबित किया और 5, जिसमें मजदूर नेता नरेश कुमार और राजपाल शामिल थे, को मैनेजमेंट ने बात-चीत के लिए बुलाया| 2012 में मारुती सुज़ुकी की तरह ही कंपनी बाउंसर ने मज़दूरों को पीटा और स्थानीय प्रशासन अच्छी-खासी राजस्थान पुलिस के साथ आया| अचानक शाम 7 बजे बिना किसी उकसाहट के पुलिस ने अत्यधिक कड़ी कार्यवाही करनी शुरू की| मज़दूरों को पीटा, भगाया, बुरी तरह मारा और प्लांट और इलाके का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया| सैकड़ों मज़दूरों को गंभीर चोटें आयीं| उन्हें उनके किराए के निवास-स्थानों तक खदेड़ा गया और कई प्रवासी मज़दूर राज्य के इस आतंक को देखकर ‘फरार’ हो गए| फ़ोन लगने बंद हो गए और पूरा Tapuhara इलाका पुलिस नियंत्रण में आ गया, एक अघोषित अपातकाल की तरह| 
राजस्थान की वसुंधरा राजे और हरियाण की खट्टर की भाजपा सरकार के अंतर्गत पुलिस ने हाथ मिला लिए| 17 फरवरी की सुबह, जब सैकड़ों मज़दूर धरुहेरा में इकठ्ठा होने शुरू हुए- क्योंकि वे Tapuhara नहीं जा सकते थे- तो हरियाणा पुलिस ने उन्हें फ़ौरन हिरासत में ले लिया| 44 गिरफ्तार मज़दूरों को तिजारा कोर्ट में ‘तथाकथित’ पेश किया गया (डर के माहौल के कारण उनकी तरफ से कोई वकील नहीं था) और पूरी तरह से फर्जी केस में उन्हें जेल भेज दिया गया जैसे DCP की ‘हत्या के प्रयास’ करने में, दंगा करने और लूट मचाने के केस में| Tapuhara के हौंडा मोटरसाइकिल और स्कूटर इंडिया लिमिटेड के 4000 मज़दूरों पर यह दमन आजी भी जारी है और भीड़ भड़काने वाली मीडिया ने इस हादसे की रिपोर्टिंग बिल्कुल दबा दी है|
19 फरवरी को हौंडा के हज़ारों श्रमिकों ने गुडगाँव, मानेसर, Dharuhera बावल, नीमराना, Tapuhara के लाखों श्रमिकों के साथ फैक्ट्री के स्तर पर सहयोग दिखाया| संघर्षरत यूनियन के साथ मिलकर मज़दूर गुडगाँव में इकठ्ठे हुए|
8000 मज़दूर 8 किलोमीटर चलकर फरीदाबाद रोड पर हौंडा मुख्यालय पहुंचे जहाँ उन्होंने कैंप लगाया| हम जाट आरक्षण मुद्दे पर हुए दंगों में उजड़े इलाकों से गुज़रे और कॉर्पोरेट के हक में काम करने वाली हरियाणा और राजस्थान की भाजपा सरकार के खिलाफ नारे लगाए: ‘राज्य का आतंक मुर्दाबाद’, ‘मज़दूर विरोधी मोदी सरकार मुर्दाबाद’ और रैली में सवाल पूछे गए, “क्या अब हम मज़दूर भी राष्ट्र-विरोधी हैं?”
बिन्दुओं को जोड़ते हुए
इससे केन्द्रीय सरकार की असली योजना स्पष्ट हो जाती है- स्वार्थी नफ़रत फैलाना और समाज में मौजूद किसी भी प्रगतिशील बल को ख़त्म करना ताकि ऐसा माहौल पैदा किया जा सके जिसमें भीषण परिस्थितियों में काम कर रहे असंख्य मज़दूरों का बेदर्दी से दमन किया जा सके| यह 1975 से कैसे अलग है, जब 1974 की रेलवे कामगारों की स्ट्राइक और फरीदाबाद-कानपूर के कामगारों की हड़ताल की श्रंखला का दमन और विभिन्न मत रखने वाली आवाज़ों का दमन साथ-साथ हुआ, जैसे किसानों, गुजरात और बिहार के विद्यार्थियों, मीडिया, वकील, बुद्धिजीवी आदि का दमन| अगर इनमें कोई फर्क है तो यह कि कॉर्पोरेट-राज्य और RSS द्वारा निर्देशित उग्र हिंदुत्व राष्ट्रवाद का जो गठबंधन आज है वो पहले से भी ज़्यादा भीषण है|
वे हम पर पूरे होश-हो-हवास, सुनियोजित ढ़ंग से हमला कर रहे हैं और अब यह पूछने का समय नहीं है कि “वे ऐसा कैसे कर सकते हैं?” हमें अपने अलग-अलग क्षेत्रों से निकलकर सामूहिक संघर्ष तैयार करना होगा| उत्पीड़न तुम्हारी सुविधा है और संघर्ष हमारा अधिकार|
साथ में खड़े हों, संघर्ष को आगे बढ़ाएं
नयनज्योति कार्यकर्ता है और दिल्ली विश्वविद्यालय का विद्यार्थी है