सोचने और सवाल खड़े करने की आज़ादी के खिलाफ किए जा रहे फ़ासीवादी हमलों के विरुद्ध एकजुट हों। विश्वविद्यालय की स्वायत्ता को बचाने और मजबूत करने के लिए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ (जेएनयूएसयू ) के कल (2 मार्च) के संसद मार्च को हम अपना समर्थन देते हैं और साथियों से अपील करते हैं कि इसमें अधिक से अधिक संख्या में पहुंचे। हम इस मुद्दे पर पिछले कुछ दिनों में आए दो लेखों का अनुवाद साझा कर रहे हैं। हमें उम्मीद है कि इन लेखों से इस मुद्दे पर एक बेहतर समझ बनाने में मदद मिलेगी।
संपादक
विद्यार्थी होने का मतलब
सवाल पूछना, नकारने का साहस दिखाना, बहस करना, संदेह करना - यह विश्वविद्यालय जीवन का मूलतत्व था
विकास पाठक
सोलह साल पहले जब वाजपेयी सरकार इतिहास की पाठ्यपुस्तकें फिर से लिखने की तैयारी कर रही थी, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय छात्र संघ ने एक सम्बोधन आयोजित किया जिसमें अनुभवी इतिहासकार सुमित सरकार ने सरकार के क़दम पर सवाल खड़े किये।
मैं उस वक़्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का कार्यकर्ता था और वहाँ एक अन्य विद्यार्थी के साथ उन प्रोफेसर से प्रश्न पूछने गया। हमें अपना मौक़ा तब मिला जब उस समय के छात्र संघ के अध्यक्ष सैयद नासिर हुसैन ने हमें सवाल-जवाब करने की अनुमति दी। मुख्य रूप से वामपंथी श्रोताओं में कुछ हँसी फ़ैल गयी। मगर 23 साल के नौजवानों के रूप में हमने प्रोफेसर को ग़लत साबित करने की भरसक कोशिश की, और उन्होंने मुस्कुराहट तथा बड़प्पन के भाव के साथ जवाब दिया।
अगले दिन, अपने विरोध को बढ़ाने की दिशा में, हमने प्रोफेसर सरकार के तर्कों के विरुद्ध एक हस्ताक्षरित जवाब लिखा। केंद्र के वाम में स्थित स्थापित सत्ता का यह सीधा नकार बहादुरी महसूस कराने वाला कार्य था। उस दिन, सामाजिक विज्ञान के केंद्र के भवन के बाहर मैं वाम झुकाव रखने वाले एक नामी प्रोफेसर से मिला। उन्होंने मुझसे कुछ यूँ कहा - "मुझे तुम्हारे लेख में कुछ समस्या नज़र आती है, मगर [अकादमिक] बहसें इसी तरह की जाती हैं।"
आज जब इस विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों पर 'राष्ट्र-विरोधी' होने के आरोप लगाये जा रहे हैं तो ऐसे में उस [नैतिक] माहौल को याद करना काम का है जिससे उसने मुझे परिचित कराया। हमारा संसार विचारों की लड़ाइयों का था; असहमतियों और जवाबों का संसार। बाज़ी मारना एक बौद्धिक छलाँग था। बाज़ी हारना हमें कुढ़ता हुआ छोड़ता था।
क्या यह लम्बा चला? हाँ, हममें से उनके लिए जिन्होंने कैम्पस छोड़ने के बाद राजनीति को अपनाया। बाक़ी बहुत से लोगों के लिए कैम्पस पर रहना विचारधाराओं का एक रोमांस था, एक के साथ जुड़ना और उसे पूरी तरह से परखना, बौद्धिक रूप से मज़बूत महसूस करना। और इस प्रक्रिया में सीखना।
जो राजनैतिक पक्ष कोई JNU में लेता है वो कुछ वर्षों के बाद धुँधले पड़ जाते हैं। कुछ वाम झुकाव वाले विद्यार्थी प्रशासनिक सेवक बन जाते हैं,अन्य संयुक्त राज्य अमरीका या यूरोप जाकर पढ़ाते हैं, कुछ बैंकर बन जाते हैं। अ. भा. वि. प. के कार्यकर्ताओं की यात्रा भी जारी रहती है, और वो विभिन्न पेशों में चले जाते हैं, बीते समय को सीखने की प्रक्रिया तथा जज़्बाती विचारों के एक दौर के रूप में याद करते हुए।
विद्यार्थियों के बतौर हम JNU को एक ऐसे सुरक्षित स्थान की तरह देखते थे जहाँ विचारों के संसार से ग़ुज़रा जा सकता है; जहाँ हम यह तय कर सकते थे कि दुनिया की क्या समझ बनाई जाये और किसी तरह अपने निशान छोड़े जायें। जहाँ हम महसूस करते थे कि हम क्रांतिकारी ढंग से सोच सकते हैं और ज्ञान की सरहदों को फैला सकते हैं।
कारगिल युद्ध के चरम पर मैंने पेरियार हॉस्टल में अचिन वनायक द्वारा सम्बोधित एक जन सभा में शिरकत की, हालाँकि मेरे पैर में फ्रैक्चर था। प्रोफेसर वनायक ने बड़े ही शिद्दत से कहा कि पोखरन-2 'भारतीय लोगों की बुद्धिमता की बेइज़्ज़ती थी'। वामपंथी छात्रों ने हामी भरी लेकिन अ. भा. वि. प. के कार्यकर्ताओं के चेहरे ग़ुस्से से लाल हो गए।
अपने विरोध को कारगिल में मारे जा रहे सैनिकों के प्रति एक आवश्यक श्रद्धांजलि मानते हुए, मैंने फिर चुनौती स्वीकार की। 'आपका भाषण भारतीय लोगों की भावनाओं का अपमान है', मेरे यह कहने पर अ. भा. वि. प. सदस्यों ने समर्थन में तालियाँ बजाईं और वार्डन ने, जोकि सभा की अध्यक्षता कर रहे थे, मुझे शांत होने का इशारा किया। मैं शांत होकर बैठ गया मगर मुझे लगा कि मैंने 'राष्ट्र के प्रति' अपना कर्तव्य निभा दिया था।
अगले दिन वार्डन दोपहर के वक़्त मेरे कमरे में आये और कुर्सी पर बैठ गए। यह कहते हुए कि वो मेरे राष्ट्रवादी आवेग की क़दर करते हैं, उन्होंने प्रोफेसर वनायक का बचाव किया: "अचिन एक अच्छा इंसान है जोकि हमेशा से परमाणुकरण-विरोधी रहा है", उन्होंने कहा। वार्डन का इस तरह मुझ से संवाद करने का अंदाज़ मुझे छू गया। मैंने सर हिलाया और वार्डन - अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन के विद्वान - एक मुस्कुराहट लिए चले गए।
कई वामपंथी विद्यार्थी अपने विचारों को लेकर जज़्बाती थे, कुछ कैम्पस मज़दूरों के हक़ों के मुद्दे भी उठाते थे। आज से कुछ साल पहले जब मैं एक पत्रकार के बतौर एक खाटी JNU मुद्दे पर रिपोर्ट करने दोबारा कैम्पस गया तो मैंने उन सरगर्म दिनों को याद किया: एक पक्की मार्क्सवादी विद्यार्थी अपने वार्डन के खिलाफ इसलिए भूख हड़ताल पर बैठी थी क्योंकि उसका कहना था कि वार्डन ने हॉस्टल में सफाई का काम करने वाली महिला का बकाया मेहनताना नहीं अदा किया था। विद्यार्थी को हॉस्टल खाली करने का नोटिस मिला मगर वो डिगी नहीं तथा SFI (स्टूडेंट फ़ेडरेशन ऑफ इंडिया) ने उसे समर्थन दिया। वो सफाईकर्मी महिला के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाना चाहती थी।
हममें से बहुतों के लिए JNU सिर्फ एक ऐसी जगह नहीं थी जहाँ बेहतरीन प्रोफेसर हमें पढ़ाते थे, बल्कि वह जगह थी जहाँ हमने नागरिकता के सबक सीखे। अपने विचारों के बेहतर होने के प्रति विश्वस्त, हम कुछ नज़रियों से जुड़ जाते थे। मगर यह हमें 'दूसरे' [नज़रिये] के संदर्भ में अपने नज़रिये के बारे में पढ़ने को मजबूर करता था, जिस प्रक्रिया में हम शिक्षित होते थे। विचारधारा पर रतजगी चर्चायें असामान्य नहीं थीं - राष्ट्रवाद या इसके आधुनिक स्वरूपों पर, श्रमिक वर्गों के बीच वैश्विक गठबंधनों की संभावना पर।
हम उन्हें अपने कमरों में ठहराने जैसे कार्यों से, अगर उन्हें हॉस्टल में स्थान नहीं मिला हो, नए विद्यार्थियों से दोस्ती करने को महत्व देते थे। यक़ीनन, उम्मीद होती थी कि वो हमारे नज़रिये में मतांतरित हो जायेंगे!
हमारी बहसें पर्चों की सामग्री भी बनती थीं जहाँ वाम और दक्षिण एक-दूसरे को जवाब देते थे। मैं कुछ वर्षों तक अ. भा. वि. प. की पर्चा समिति का अध्यक्ष रहा। पर्चागीरी चुनावों के ठीक पहले अपने चरम पर पहुँच जाती थी जिसे विद्यार्थी एक चुनाव समिति के माध्यम से संयोजित करते थे।
खर्चा बचाने के लिए पोस्टर हाथों से बनाये जाते थे। विद्यार्थियों के पैनल वोट माँगने कैम्पस में पैदल घूमते थे, जबकि विभिन्न संगठन केवल प्रत्याशियों की सब्सिडाइज़्ड (सस्ती) चाय व लंच का कीमत चुकाते थे। पैसे उड़ाना हारने का निश्चित तरीका था - JNUवाले किसी भी तरह के धनबल के दिखावे को हिक़ारत से देखते थे।
जैसे-जैसे चुनाव पास आते थे वैसे-वैसे आमसभाओं की बैठकें होती थीं और आखीर में रात में सवाल-जवाब के सत्र के साथ अध्यक्षीय बहस आयोजित होती थी। इसमें समर्थकों के प्रोत्साहन व ढोलों तथा विपक्षियों के हतोत्साहन व तंग करने के बीच विद्यार्थी अपने ध्येय के पक्ष में तीव्र दलीलें देते थे। कुछ भाषण बेहद मँझे हुए और विद्वतापूर्ण होते थे, यह चरितार्थ करते हुए कि अगर उसे धन और बाहुबल से मुक्त माहौल में आयोजित किया जाये तो विद्यार्थी राजनीति कितनी बौद्धिक हो सकती है।
हँसी-मज़ाक के क्षण भी होते थे। अ. भा. वि. प. के एक मुसलमान प्रत्याशी से RSS के एक मुसलमान सदस्य का नाम बताने को कहा गया। थोड़ा ठहरकर उसने जवाब दिया: "मैं!" हर साल एक ऐसा निर्दलीय प्रत्याशी होता था जो बाक़ी सबसे असहमति जताता था और सम्पूर्ण राजनैतिक पटल पर खूब हँसी उत्पन्न करता था।
कुछ सवाल भौंचक कर देने वाले होते थे। भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) समर्थित AISA के एक प्रत्याशी ने इस सदी के पहले दशक के शुरुआती वर्षों में अ. भा. वि. प. के अध्यक्षीय प्रत्याशी से पूछा कि 1907 में अपनी डायरी में भाई परमानंद ने, जोकि बाद में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष हुए, हिन्दू-मुसलमान समस्या को सुलझाने के लिए पंजाब के बँटवारे का सुझाव क्यों दिया था। किसी को इस बारीक जानकारी का पता नहीं था और इसने उपस्थित श्रोताओं में काफी [चर्चा का] शोर पैदा किया।
मगर कभी-कभी विचारों की दुनिया को झड़पों से झटके लगते थे। उदाहरण के लिए तब जब 1999 में आरक्षण की मात्रा बढ़ाने की प्रगतिशील प्रवेश नीति का वाम ने समर्थन और दक्षिण ने विरोध किया। कुछ वामपंथी भी इस नीति के खिलाफ हो गए और दलित विद्यार्थियों ने उन्हें 'ब्राह्मणवादी' करार दिया। अंततः दक्षिण व वाम के बीच में कुछ हिंसा हुई जिसके परिणामस्वरूप अ. भा. वि. प. के चंद कार्यकर्ताओं तथा SFI के सबसे प्रमुख कार्यकर्ता को निष्कासित कर दिया गया। बाद में विद्यार्थियों को अदालत से राहत मिल गयी।
JNU के विचारों के संसार का एक खराब पक्ष भी था। विचारों के इस युद्ध से कार्यकर्ताओं के बीच के रिश्तों को नुकसान पहुँचता था। अ. भा. वि. प. और SFI के कार्यकर्ता आपस में न के बराबर बातचीत करते थे। एक दूसरे के खिलाफ शिकायतों का सिलसिला भी चलता था, जो कभी-कभी बेमतलब की होती थीं। NSUI के एक कार्यकर्ता ने एक बार यह पूछ कर मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या हम अपने व्यक्तिगत जीवन में लोकतान्त्रिक हुए बिना सचमुच में लोकतान्त्रिक हो सकते हैं।
यह विद्यार्थी राजनीति राष्ट्र को बदलती नहीं है और न ही उसे किसी तरह का तात्कालिक नुकसान पहुँचाती है। मगर ये निश्चित ही एक महत्वपूर्ण दूरगामी लाभ देती हैं: ये समाज को नागरिकों की एक ऐसी पीढ़ी प्रदान करती हैं जोकि राजनीति के संसार, इतिहास, समाज, अर्थशास्त्र व संकल्पनाओं से उलझना-निपटना सीख चुकी है।
विश्वविद्यालय की राजनीति इसी के लिए अस्तित्व रखती है। ऐसे लोगों को तैयार करने के लिए जो सोचते-विचारते हैं। यह राष्ट्र को नुकसान नहीं पहुँचाता है: बहस करने वाला समाज एक स्वस्थ और ज़िंदा समाज होता है।
(द हिन्दू के संडे मैगज़ीन से साभार )
अघोषित आपातकाल? राज्य दमन – जेनयू विद्यार्थियों से हौंडा मज़दूरों तक
नयन ज्योति
हम जेनयू के साथ खड़े हैं| राज्य के दमन एवं विद्यार्थियों को चिन्हित कर-करके उन पर आरोप लगाने के खिलाफ अपनी आवाज़ उठा रहे हैं| ‘विचारों के मतभेद’ के अधिकार के लिए अपनी आवाज़ उठा रहे हैं| 18 फरवरी को 15,000 से ज़्यादा लोगों ने दिल्ली में यह स्पष्ट किया कि जेनयू में जो चल रहा है वो उसी कड़ी का हिस्सा है जिसमें HCU के रोहिथ वेर्मूला की दलित-विरोधी प्रशासन ने बीजेपी के दबाव में आकर संस्थानिक हत्या कर दी, FTII विद्यार्थियों की सोच और अभिव्यक्ति को काबू करने के लिए दक्षिणपंथियों ने हमले किये और गत समय में प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की हत्या की गयी|
जिस समय बीजेपी सरकार-पुलिस-प्रशासन-आरएसएस की सड़कों पर मौजूद सेना प्रगतिशील आवाज़ों को डराने और चुप कराने में लगी है, उसी समय हरियाणा-राजस्थान बॉर्डर पर हज़ारों मज़दूरों पर कहीं ज़्यादा भयंकर दमन जारी है|
भाजपा शासित हरियाणा और राजस्थान की सरकारों की संयुक्त पुलिस मजदूरों के घरों पर छापे मार रही है, मार-पीट रही है, उन्हें गिरफ्तार कर रही है और अगर कोई भी व्यक्ति हौंडा के कामगार जैसा दिखाई पड़ रहा है या उनके समर्थन में दिख रहा है तो उसे खदेड़ रही है| राजस्थान के अलवर और हरियाणा के रेवाड़ी व् गुडगाँव जिलों में ऐसा ही चल रहा है|
HONDA के 4,000 मजदूरों में से सैकड़ों को या तो गिरफ्तार कर लिया गया है और/या वे लापता हैं| 350 को चोटें आई हैं और 50 गंभीर हालत में हैं| मोदी के #MakeInIndia के केंद्र में स्थित संपूर्ण DMIC बेल्ट पुलिस छावनी में तब्दील हो चुकी है जहाँ आपातकालीन स्थिति मौजूद है| इस आपातकालीन स्थिति को सामान्य स्थिति बनाने के लिए हरियाणा मुख्य मंत्री ने यह घोषित किया है कि औद्योगिक पार्क्स में ज़्यादा पुलिस स्टेशन बनाए जाएंगे|
16 फरवरी को HONDA में क्या हुआ?
16 फरवरी की सुबह HMSI (हौंडा मोटरसाइकिल और स्कूटर इंडिया, प्राइवेट लिमिटेड) की पेंट दुकान में एक सुपरवाइजर एक ठेका मजदूर को गालियाँ दे रहा था और पीट रहा था क्योंकि वह ओवरटाइम करने से मना कर रहा था| दरअसल यह मज़दूर कई दिनों से ओवरटाइम करने के कारण बीमार चल रहा था| जिस घटना घटी उस दिन ओवरटाइम करने से मना करने पर सुपरवाइजर ने उसका गला पकड़ लिया और उस पर हमला किया| मैनेजमेंट और श्रम विभाग, फैक्ट्री के अन्दर और बाहर, ऐसे दमनकारी नियंत्रण का इस्तेमाल अक्सर करते हैं लेकिन इस बार मज़दूरों ने साथ आकर इस घटना का विरोध करने का फैसला किया| काम बंद कर दिया गया और शिफ्ट A के 2000 मज़दूर- नियमित-ठेका-प्रशिक्षार्थी-अपरेंटिस- फैक्ट्री के अन्दर शांतिप्रिय ढ़ंग से बैठ गए और शिफ्ट B-C के 1000 से ज़्यादा मज़दूर फैक्ट्री के गेट पर जमा हो गए| मज़दूरों के अन्दर कई बातों को गुस्सा उबल रहा था- अगस्त 2015 से ख़त्म होता यूनियन बनाने का अधिकार, बढ़ता काम का दबाव, बंधुआ मज़दूरी , बिगड़ते काम के हालात, बाउंसर का दमन आदि| मैनेजमेंट और अलवर श्रम विभाग ने पहले चार यूनियन नेताओं को निलंबित किया था और 2 को नौकरी से बर्खास्त, जिसमें यूनियन अध्यक्ष नरेश कुमार शामिल थे| कॉन्ट्रैक्ट मज़दूरों को नियंत्रण में रखने के लिए 500 बाउंसर और रखे गए|
16 फरवरी को कंपनी मैनेजमेंट ने तुरंत 4 मज़दूरों को बर्खास्त किया, 8 को निलंबित किया और 5, जिसमें मजदूर नेता नरेश कुमार और राजपाल शामिल थे, को मैनेजमेंट ने बात-चीत के लिए बुलाया| 2012 में मारुती सुज़ुकी की तरह ही कंपनी बाउंसर ने मज़दूरों को पीटा और स्थानीय प्रशासन अच्छी-खासी राजस्थान पुलिस के साथ आया| अचानक शाम 7 बजे बिना किसी उकसाहट के पुलिस ने अत्यधिक कड़ी कार्यवाही करनी शुरू की| मज़दूरों को पीटा, भगाया, बुरी तरह मारा और प्लांट और इलाके का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया| सैकड़ों मज़दूरों को गंभीर चोटें आयीं| उन्हें उनके किराए के निवास-स्थानों तक खदेड़ा गया और कई प्रवासी मज़दूर राज्य के इस आतंक को देखकर ‘फरार’ हो गए| फ़ोन लगने बंद हो गए और पूरा Tapuhara इलाका पुलिस नियंत्रण में आ गया, एक अघोषित अपातकाल की तरह|
राजस्थान की वसुंधरा राजे और हरियाण की खट्टर की भाजपा सरकार के अंतर्गत पुलिस ने हाथ मिला लिए| 17 फरवरी की सुबह, जब सैकड़ों मज़दूर धरुहेरा में इकठ्ठा होने शुरू हुए- क्योंकि वे Tapuhara नहीं जा सकते थे- तो हरियाणा पुलिस ने उन्हें फ़ौरन हिरासत में ले लिया| 44 गिरफ्तार मज़दूरों को तिजारा कोर्ट में ‘तथाकथित’ पेश किया गया (डर के माहौल के कारण उनकी तरफ से कोई वकील नहीं था) और पूरी तरह से फर्जी केस में उन्हें जेल भेज दिया गया जैसे DCP की ‘हत्या के प्रयास’ करने में, दंगा करने और लूट मचाने के केस में| Tapuhara के हौंडा मोटरसाइकिल और स्कूटर इंडिया लिमिटेड के 4000 मज़दूरों पर यह दमन आजी भी जारी है और भीड़ भड़काने वाली मीडिया ने इस हादसे की रिपोर्टिंग बिल्कुल दबा दी है|
19 फरवरी को हौंडा के हज़ारों श्रमिकों ने गुडगाँव, मानेसर, Dharuhera बावल, नीमराना, Tapuhara के लाखों श्रमिकों के साथ फैक्ट्री के स्तर पर सहयोग दिखाया| संघर्षरत यूनियन के साथ मिलकर मज़दूर गुडगाँव में इकठ्ठे हुए|
8000 मज़दूर 8 किलोमीटर चलकर फरीदाबाद रोड पर हौंडा मुख्यालय पहुंचे जहाँ उन्होंने कैंप लगाया| हम जाट आरक्षण मुद्दे पर हुए दंगों में उजड़े इलाकों से गुज़रे और कॉर्पोरेट के हक में काम करने वाली हरियाणा और राजस्थान की भाजपा सरकार के खिलाफ नारे लगाए: ‘राज्य का आतंक मुर्दाबाद’, ‘मज़दूर विरोधी मोदी सरकार मुर्दाबाद’ और रैली में सवाल पूछे गए, “क्या अब हम मज़दूर भी राष्ट्र-विरोधी हैं?”
बिन्दुओं को जोड़ते हुए
इससे केन्द्रीय सरकार की असली योजना स्पष्ट हो जाती है- स्वार्थी नफ़रत फैलाना और समाज में मौजूद किसी भी प्रगतिशील बल को ख़त्म करना ताकि ऐसा माहौल पैदा किया जा सके जिसमें भीषण परिस्थितियों में काम कर रहे असंख्य मज़दूरों का बेदर्दी से दमन किया जा सके| यह 1975 से कैसे अलग है, जब 1974 की रेलवे कामगारों की स्ट्राइक और फरीदाबाद-कानपूर के कामगारों की हड़ताल की श्रंखला का दमन और विभिन्न मत रखने वाली आवाज़ों का दमन साथ-साथ हुआ, जैसे किसानों, गुजरात और बिहार के विद्यार्थियों, मीडिया, वकील, बुद्धिजीवी आदि का दमन| अगर इनमें कोई फर्क है तो यह कि कॉर्पोरेट-राज्य और RSS द्वारा निर्देशित उग्र हिंदुत्व राष्ट्रवाद का जो गठबंधन आज है वो पहले से भी ज़्यादा भीषण है|
वे हम पर पूरे होश-हो-हवास, सुनियोजित ढ़ंग से हमला कर रहे हैं और अब यह पूछने का समय नहीं है कि “वे ऐसा कैसे कर सकते हैं?” हमें अपने अलग-अलग क्षेत्रों से निकलकर सामूहिक संघर्ष तैयार करना होगा| उत्पीड़न तुम्हारी सुविधा है और संघर्ष हमारा अधिकार|
साथ में खड़े हों, संघर्ष को आगे बढ़ाएं
नयनज्योति कार्यकर्ता है और दिल्ली विश्वविद्यालय का विद्यार्थी है
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