प्रिय विद्यार्थियों,
सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था में शिक्षक होने के नाते और इसके मज़बूत व सार्वभौमिक होने को समाज में बन्धुत्व, स्वतंत्रता, न्याय और समानता के मूल्यों की प्राप्ति के लिए अनिवार्य शर्त मानने वालों के बतौर हम आपसे एक अपील करना चाहते हैं। इस अपील द्वारा हम आपको अपनी एक गम्भीर चिंता से इसलिए भी रू-ब-रू कराना चाहते हैं क्योंकि यह सम्भव है कि आपमें से कुछ, जाने-अनजाने, उन तरह-तरह की संस्थाओं व उनके कार्यक्रम का हिस्सा बनें जिनके माध्यम से इस दौर में हम पहले से ही कमज़ोर और नज़रंदाज़ सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था को खत्म करने की प्रक्रियाओं-प्रयासों को स्कूलों में तेज़ी से फैलता देख रहे हैं। कॉरपोरेट घरानों, ग़ैर-सरकारी, धार्मिक, स्वयं-सेवी, धर्मार्थ आदि संस्थाओं के 'भलाईवादी' प्रचार के लुभावने कार्यक्रमों से जो घुसपैठ अंजाम दी जा रही है उससे बुनियादी तौर पर बराबरी की समान स्कूल व्यवस्था के (शेष) स्वप्न को बिसराने व लोगों की शिक्षा के प्रति राज्य की संवैधानिक-लोकतान्त्रिक जवाबदेही ध्वस्त करने के उद्देश्यों की ही पूर्ति हो रही है। शिक्षा को हक़ की जगह राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय दान, सार्वजनिक-निजी साझेदारी (PPP) में छुपी लूट, कम्पनियों के सामाजिक दायित्व (CSR) व voucher/school choice आदि तिकड़मों से सामाजिक नहीं बल्कि एक नितांत निजी मसला बनाने की कोशिशें तेज़ की जा रही हैं। सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण और अपनी मजबूरियों के चलते कई साथियों को शायद ऐसी संस्थाओं में नौकरी करनी पड़ेगी। कुछ साथी तो एक मासूम रूमानियत से प्रभावित होकर भी, अपनी 'कुछ करने' की भावना को अमली जामा पहनाने के लिए, इन संस्थाओं से जुड़ ही नहीं जाते बल्कि खुद भी अपनी संस्थाएँ खोल लेते हैं। इन संस्थाओं का अगर बहुत उदारता से विश्लेषण किया जाये तो ये हद-से-हद इधर-उधर के 'सुधारवादी' कार्यक्रम चलाकर कुछ सदाशयी व उत्साही लोगों के लिए आत्मसंतोष प्राप्त करने का साधन हैं। मगर एक ठोस, स्थाई और समतामूलक सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था को निज-संतोष को तुष्ट करने के आधार पर नहीं बल्कि सरकार की पूरी संवैधानिक जवाबदेही की बुनियाद पर ही खड़ा किया जा सकता है। (और अंतर्राष्ट्रीय अनुभव तथा इतिहास इसके गवाह हैं।) चाहे वह K C Mahindra Education Trust और Naandi Foundation द्वारा चलाया जा रहा 'नन्हीं कली' कार्यक्रम हो (जिसके, हमारे स्कूलों में पढ़ने वाली छात्राओं व उनके अभिभावकों की झूठी और अपमानजनक छवि पर आधारित, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय दान को आमंत्रित करते प्रचार Seminar पत्रिका में देखे जा सकते हैं) या NDTV पर आने वाला Vedanta समर्थित 'हमारी बेटियाँ हमारा गौरव' अभियान, ये सभी देश के आवाम को मुँह चिढ़ा रहे हैं - शिक्षा तुम्हारी चुनी हुई लोकतान्त्रिक सरकारें मुहैया नहीं करायेंगी, वो हमारी कृपा से मिलेगी। इसी तरह Pratham, Teach for India, Magic Bus आदि के वो शिक्षा-विरोधी कार्यक्रम हैं जिनमें यह मान्यता निहित है कि मेहनतकशों-मज़दूरों के बच्चों की पढ़ाई तो किसी भी अप्रशिक्षित व्यक्ति की ऊर्जा व भावनाओं के सहारे कराई जा सकती है; उनके लिए सरकार को उपयुक्त योग्यता वाले शिक्षकों की व्यवस्था करने की ज़रूरत नहीं है। दूसरी तरफ़ इनका वो अधिक वास्तविक चरित्र है जिसके तहत ये मुंबई से लेकर दिल्ली तक, पंजाब से लेकर आंध्र-प्रदेश तक, सब जगह सरकारी स्कूलों को PPP, CSR आदि नीतियों के अंतर्गत 'गोद' ले रही हैं - और सरकारें बेशर्मी से इस प्रक्रिया को रफ़्तार दे रही हैं। ये संस्थायें व इनके कार्यक्रम इसलिए भी प्रतिगामी हैं क्योंकि इनकी सक्रियता से सरकार पर से ज़िम्मेदारी और दबाव दोनों का लोप होता है, लोगों में पूरी व्यवस्था को समतामूलक बनाने के लिए परिवर्तनकामी नीतियों की ज़रूरत की जगह अपने-अपने निजी लाभ के अलगाववादी, स्वार्थपरक प्रक्रियाओं के अहसास जन्मते व बल पाते हैं। बांग्लादेश जैसे देश में किये गए शोध भी इस बात को स्थापित करते हैं कि ग़ैर-सरकारी संस्थाओं की बढ़ती भूमिका का परिणाम लोगों में नागरिकता, अधिकार व सामूहिकता जैसी भावनाओं के लोप में तथा एकांगी, निज फ़ायदे की मानसिकता के विकास में प्रकट हुआ है। ज़ाहिर है कि ऐसा कोई भी 'सदाशयी' कार्यक्रम जिसका आधार निजी पूँजी पर टिका होगा, समाज में वैज्ञानिक चेतना से ओतप्रोत करने वाली शिक्षा के लिए प्रतिकूल ही सिद्ध क्योंकि वह निरपेक्ष चिंतन व राजनैतिक-सामाजिक विश्लेषण और कर्म में बाधा पहुँचायेगा। सही शिक्षा जोकि बन्धुत्व व पड़ताल करने की बौद्धिक क्षमता विकसित करने के लिए वैज्ञानिक पद्धति से नियोजित होगी, पूर्णतः सार्वजनिक वित्त पोषित व्यवस्था में ही निर्मित की जा सकती है। जिस तरह यह अपेक्षा करना बिल्कुल जायज़ है कि सरकारी स्कूल व्यवस्था में पढ़ा रहे शिक्षक सरकार की हर जन व शिक्षा विरोधी नीति के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ खड़ी करेंगे, उसी तरह हम यह भी उम्मीद करते हैं कि निजी संस्थाओं में काम कर रहे साथी अपना आलोचनात्मक चिंतन जारी रखेंगे और ज़रूरत पड़ने पर समाज के प्रति कटिबद्धता दर्शाते हुए जहाँ तक सम्भव होगा अपना विरोध दर्ज करेंगे। इसका अर्थ यह नहीं है कि सार्वजनिक स्कूली तंत्र और उसमें पढ़ा रहे शिक्षकों की उचित राजनैतिक-शिक्षाशास्त्रीय आलोचना नहीं की जानी चाहिए। बल्कि अपनी आलोचना को रोकना चाहने वाले, उसे बिना सुने-परखे ख़ारिज करने वाले न अपने पेशे से ईमानदारी बरत रहे होते हैं, न स्कूल व्यवस्था के हितों की रक्षा कर रहे होते हैं और न ही उस आवाम के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभा रहे होते हैं जिसके हितों-अधिकारों के प्रति समर्पण ही उनके अस्तित्व को औचित्य प्रदान करता है। परन्तु हमें लगता है कि ये संस्थायें अपने कार्यक्रम या तो तरस की ओछी भावना से चला रही हैं या फिर मुनाफ़ा कमाने के लिए लोगों को महज़ शिक्षा के ख़रीदार-उपभोक्ता समझ कर। दोनों ही परिस्थितियों में सब बच्चों को सम्मान से उनका हक़ - जिसकी परिभाषा ही यह है कि वह राज्य की ज़िम्मेदारी है - दिलाना सम्भव नहीं है। राजनैतिक आँकलन की परीक्षा इस सवाल की माँग करती है कि इन संस्थाओं के संचालक दूसरों, मेहनतकशों के बच्चों के लिए जो आकर्षक विकल्प प्रचारी दरियादिली से खड़े कर रहे हैं क्या वही अपने वर्ग के बच्चों के लिए भी प्रस्तावित करेंगे। इन संस्थाओं द्वारा प्रचारित आलोचना का चरित्र पेशागत हस्तक्षेप के लिए अकादमिक सहयोग करना नहीं है और न ही सार्वजनिक स्कूलों की व्यवस्था को मज़बूत करना है। इसी का परिणाम है कि आज इनकी रपटों को आधार-कवच बनाकर, विश्व-बैंक आदि से वित्तीय-राजनैतिक ताक़त प्राप्त करके, देशभर में सरकारी स्कूलों को निजी संस्थाओं के हवाले करने की नीति पर अमल किया जा रहा है। हम इस कड़वी हक़ीक़त को स्वीकारते हैं कि इस दौर में जबकि जल-जंगल-ज़मीन और ज्ञान पर नवउदारवादी हमले बढ़ रहे हैं, कल हममें से कुछ को भी पूँजीवाद की किसी प्रायोजित, अगुवा संस्था में आजीविका कमाने के लिए काम करना पड़े या फिर जिन स्कूलों में हम पढ़ा रहे हैं उनकी बागडोर ही ऐसी किसी निजी संस्था को सौंप दी जाये। तो यह अपील सिर्फ़ आपसे संवाद करने का प्रयास नहीं है बल्कि ख़ुद से भी एक जवाब माँगती है। ये संस्थायें व इनके मालिकान - RTE क़ानून के उस प्रावधान की तरह जिसमें निजी स्कूलों को प्रथम कक्षा में 25% प्रवेश 'कमज़ोर तबक़ों' के बच्चों के लिए आरक्षित करना है - लोगों से साफ़-साफ़ कह रहे हैं, "तुम बराबरी की शिक्षा की बात मत करो, उसे भूल जाओ; हम तुममें से कुछ के लिए एक कामचलाऊ इंतज़ाम कर देंगे। वो इंतज़ाम हमारे अपने बच्चों के लायक़ तो नहीं होगा पर उससे तुम्हारा सिर्फ़ काम ही नहीं चलेगा बल्कि तुम्हारी लॉटरी लग जाएगी।" (क्योंकि इस असमान, अलगाववादी, बहुपरती व्यवस्था में वो दोयम दर्जे के अवसर भी सबको नहीं दिए जा सकते इसलिए निरपेक्ष दिखने वाली लॉटरी प्रणाली से अधिकाँश की छँटनी करके शांति बरक़रार रखी जाएगी।) ऐसा नहीं कहा जा सकता कि सरकारी व्यवस्था से इतर किसी को, व्यक्तिगत या सांगठनिक तौर पर, शिक्षा में योगदान देने का या भूमिका निभाने का हक़ नहीं है। निश्चित ही यह एक संवैधानिक अधिकार व मानव समुदाय में उपजने वाली साहचर्य की सहज अभिव्यक्ति है। इसे समाज को संगठित करने, चेतना जगाने, सार्वजनिक पदों पर काम करने वालों से निरंतर हिसाब-जवाब माँगने, लोगों के सामने निजी संस्थाओं के जनविरोधी चरित्र को उजागर करने और राज्य पर उचित दबाव डालने जैसे कामों पर इस्तेमाल करना जायज़ होगा। पर एक बेहूदा स्तर के असमान समाज और गणतंत्र को समर्पित राज्य-व्यवस्था में किसी भी तरह शिक्षा में सरकार की ज़िम्मेदारी बाँटने के नाम पर उसे दायित्व मुक्त करने, निजी तत्वों की भूमिका बढ़ाने व उनके द्वारा भलाई-ख़ैरात करके कर बचाने, नाम या पुण्य कमाने और अनालोचनात्मक चेतना निर्मित करके साम्राज्यवादी-पूँजीवादी वर्चस्व क़ायम रखने की नीयत को राजनैतिक रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
इस विषय पर आप निम्नलिखित सामग्री देख सकते हैं
To hell with good intentions - Ivan Illich
Bangladesh's Achievements in Social Development Indicators - EPW, November 2, 2013
एक तयशुदा मौत - मोहित राय
एन.जी.ओ. - एक खतरनाक साम्राज्यवादी कुचक्र - राहुल फाउंडेशन
स्कूलों का एनजीओकरण - लोक शिक्षक मंच
2 comments:
बहुत सही विश्लेषण। पूर्ण सहमति।
शुक्रिया साथी
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