सरकार द्वारा जिस तरीके से नोटों को बंद किया गया उसमे एक अदूरदर्शिता, अनुभवहीनता व सस्ते प्रचार पाने की ललक से अधिक कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। 9 नवम्बर की नोटबंदी से आज तक जनता की भीड़ बैंकों और एटीएम से कम होती नज़र नहीं आ रही है। प्राप्त रिपोर्टों के आधार पर लगभग 70 लोग इसमें मारे गए हैं। सरकार ने एक झटके में जनता की मेहनत की कमाई को कालाधन बना दिया। एक 70 साल के बुजुर्ग जिन्होंने अपनी पूरी जमा पूंजी को अपने बेटों से छुपा कर 1000-500 के नोटों में इसे रखा हुआ है उनकी तबीयत लगातार ख़राब चल रही है और बेटे अब इस धन को अपने खाते में जमा करने को तैयार नहीं है। इसी तरह एक आदमी उत्तर प्रदेश के एक गांव से अपनी माँ का ऑपरेशन करवाने दिल्ली आया है, अपने पैसे खाते में होने के बाबजूद निकाल नहीं पा रहा है और डॉक्टर कह रहे हैं कि जल्दी से ऑपरेशन करना जरुरी है वरना जान को खतरा हो सकता है ऐसे में यदि इसकी माँ की जान चली जाती है तो इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा। जहाँ नोटबंदी से जनता त्रस्त है और उसे इसमें भी कुछ अच्छे की उम्मीद हैं वहां सरकार ने पूंजीपतियों को कर्जमाफी देकर अपनी पक्षधरित जाहिर करके गरीब आमजन के घावों पर नमक छिड़का है। ऐसे दौर में अर्जुन, जो कि शिक्षा के विद्यार्थी हैं का लेख प्रासंगिक है संपादक
सरकार द्वारा 500 और 1000 रुपए के पुराने नोटों को बदलकर 2000 और 500 के नए नोटों को लाने का निर्णय नासमझी, बिना तैयारी, दलगत लाभ से प्रेरित और देश की
90% से अधिक जनता के प्रति गैर-जिम्मेदाराना नज़रिए को प्रस्तुत करता है| सरकार ने जिन आवश्यक समस्याओं को सुलझाने की दुहाई देते हुए यह तानाशाही फरमान जारी किया है, तफसील से विश्लेषण किया जाए तो हम देखेंगे कि यह फरमान दरअसल हाथी के दाँत का काम करता है| सरकार ने यह कहा है कि काले धन को ख़त्म करने के लिए यह फरमान जारी किया गया है लेकिन देश के बच्चे से लेकर प्रधानमंत्री तक हर शख्स को पता है कि देश का अधिकतर काला धन कहाँ है|डा० आर० रामा कुमार (TISS) के लेख के अनुसार 2015-16 में पुलिस और बैंकों द्वारा पहचानी गई देश की कुल प्रचलित करेंसी में नक़ली नोटों का प्रतिशत 500 और 1000 के नोटों के रूप में क्रमश: 0.009 और
0.002 अनुमानित था| इसमें यह भी जानना आवश्यक है कि भारतीय मिडिल क्लास परिवारों का प्रतिशत केवल 3% है| ऐसे में यह प्रश्न उठाना महत्वपूर्ण है कि यह फरमान ऐसे कितने लोगों को प्रभावित करता है जिनके पास काला धन नहीं है|
दूसरी बात जो कही जा रही है वह है कि अन्य देशों, जिनमें पाकिस्तान मुख्य है, में नक़ली नोट छापे जाते हैं जिससे 500 और 1000 के नकली नोटों की संख्या बढ़ी है| इस संदर्भ में यह जानना आवश्यक है कि नए 2000 और 500 के नोटों में ऐसा कोई विशेष फीचर नहीं है जो इसकी नक़ल होने से रोक सके| बल्कि जिस गति से तकनीक का विकास हो रहा है, यह काम और भी आसानी से किया जा सकता है तथा फेक करेंसी को बढ़ावा दे सकता है क्योंकि 500 और 1000 के नोटों की तुलना में
2000 के नोट की कीमत ज़्यादा है|
यह तो इसका अर्थशास्त्रीय पहलू था। इसके सामाजिक पहलुओं पर भी चर्चा करना आवश्यक है|
8 नवम्बर की रात, जब से यह फरमान जारी हुआ है, से लेकर अब तक इस फरमान के कारण तकरीबन 55 लोगों की मौत हो चुकी है जिनमे अधिकतर गरीब थे| यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि अगर गरीब, बेसहारा और हाशिये पर स्थित लोगों की मौत के बाद ही इस देश में तथाकथित सुधार आ सकते हैं और काला धन वापस लाया जा सकता है तो सबसे पहले उन लोगों को मौत के घाट उतरना चाहिए जिन्हें ऐसे बदलाव बहुत आवश्यक लगते हैं और जो गरीब लोगों की मौत को ‘विकास’ और बदलाव के नाम पर सही ठहराते हैं|
आज इस फरमान ने देश के गरीब तबके को सैकड़ों मीटर की रेंगती और अक्सर निष्फल जाती लाइनों में जबरन खड़ा कर दिया है और अगर हम खुद इन लाइनों में खड़े होंगे तो पता चलेगा कि इनमें ज़्यादातर रिक्शेवाले, फल-सब्जी बेचने वाले, कूड़ा उठाने वाले, स्कूल-कॉलेजों से अनुपस्थित विद्यार्थी, देहाड़ी पर काम करने वाली मेहनतकश महिलायें जिनकी मज़दूरी 400-500 से अधिक नहीं है तथा ऐसे लोग हैं जिनके परिवारजन अस्पतालों में भर्ती हैं। ये लोग 2-3 दिनों तक लाइनों में लगकर अपनी ख़ून-पसीने की मेहनत से कमाये गए पैसे के लिए मरने पर मजबूर कर दिए गए हैं|
जबरन लाइन में लगवाए जाना और स्वेच्छा से लाइन में खड़े होने में वही अंतर है जो स्वेच्छा से सेक्स करने और बलात्कार में है|
एक तरफ देश में 500 करोड़ की शादियाँ हो रही हैं और अनेकों घटनाएं सामने आ रही हैं जिनसे साफ़ ज़ाहिर होता है कि सरकार की मंशा और फरमान के कार्यान्वयन में कितनी पारदर्शिता बर्ती गई है और दूसरी तरफ देश का मज़दूर वर्ग अपनी दैनिक कमाई छोड़कर लाइनों में लगा है, उसके बच्चे भूखे हैं, डॉक्टर इलाज के लिए पैसे नहीं स्वीकार कर रहे हैं|
इस वक़्त देश एक तरह की तानाशाही से गुज़र रहा है जिसमें गरीब जनता कीड़े-मकौड़ों के समान है और इनके मरने से सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता| बल्कि इसे भी देश के विकास में मील का पत्थर ही समझा जाएगा और यह ‘क्लीन इंडिया’ का एक महत्वपूर्ण अंग होगा|
अगर ऐसा नहीं है तो क्यों सरकार ने आगामी समस्याओं के लिए कोई तैयार नहीं की थी? गरीब बस्तियों में खाने की सुविधा क्यों मुहैया नहीं करवाई गई? परिवहन को गरीब जनता के लिए मुफ्त क्यों नहीं किया गया? उनके बच्चों को मरने के लिए क्यों छोड़ दिया गया?
ये सभी सवाल पूछे जाने ज़रूरी हैं|
कुछ लोग यह कह रहे हैं कि जब देश के जवान हमारी सुरक्षा के लिए दिन-रात भूखे रह सकते हैं तो फिर हम लाइनों में क्यों नहीं खड़े हो सकते| हमारा पहला सवाल तो यह है कि जवान भूखे और बुरे हालातों में काम करने पर मजबूर ही क्यों हैं?
अगर जवानों की भूखमरी को राष्ट्रवाद का दर्जा देकर गरीबों की भूखमरी को राष्ट्रवादी ठहराया जाएगा तो राष्ट्रवाद एक खतरनाक खेल से ज़्यादा कुछ नहीं है |
दूसरी बात, देश की गरीब जनता की तुलना आर्मी के जवानों से करना अपनेआप में अल्पविकसित मानसिकता को दर्शाता है क्योंकि इस देश की गरीब जनता ने
ATM और बैंकों की लाइनों में खड़े होकर मरना स्वयं नहीं चुना है जबकि जवान आर्मी की भर्ती के लिए स्वेच्छा से अर्जियाँ देते हैं और कठिन परीक्षाएँ पास करते हैं|
मिडिल क्लास चाहे माने या ना माने, उसकी देशभक्ति उसे निचली कतार का सैनिक नहीं बनाती| अक्सर गरीब लोग अन्य रोज़गार के साधनों के अभाव में आर्मी में जाते हैं|
अगर रिक्शेवालों की देशभक्ति की तुलना सैनिकों की देशभक्ति से की जाती है तो यह तथाकथित देशभक्ति पर अपने-आप में प्रश्नचिन्ह है जिसका जवाब देना तथाकथित राष्ट्रभक्तों के बस में नहीं है|
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