लोक शिक्षक मंच, जोकि शिक्षकों, विद्यार्थियों और शिक्षा के शोधार्थियों का संगठन है, दिल्ली सरकार द्वारा स्कूलों के सभी कमरों में सीसीटीवी लगाने की घोषणा की कड़ी शब्दों में निंदा करता है। साल के शुरु होते ही दिल्ली सरकार द्वारा घोषणा की गयी कि स्कूलों के सभी कमरों में सीसीटीवी कैमरे लगाये जायेंगे। मुख्यमंत्री ने बयान दिया कि इससे बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित होगी और अभिभावकों को कक्षाओं का सीधा प्रसारण उपलब्ध होगा जिससे वो पढ़ाई पर भी नज़र रख पायेंगे।
यह
योजना न सिर्फ़ शिक्षक-विरोधी है बल्कि मूलतः शिक्षा व स्कूलों की ग़लत समझ पर भी
आधारित है। स्कूल आकादमिक स्थल हैं जिनमें शिक्षक एक बौद्धिक-नैतिक ज़िम्मेदारी के
साथ काम करते हैं और बच्चे एक खुले माहौल में सीखते हैं। चाहे यह शिक्षकों पर नज़र
रखने के लिए हो या बच्चों पर, कक्षा
में कैमरे लगाने का मतलब शिक्षकों व बच्चों पर अविश्वास करना और उन्हें अपमानित
करना है। कैमरे की उपस्थिति प्रायः जो डर व दबाव पैदा करती है वो बेहतर शिक्षण-अधिगम
के प्रतिकूल है। यह शिक्षा का मशीनीकरण करेगा और शिक्षण प्रक्रिया को प्रदर्शनमुख
बनाएगा। हमारे स्कूलों में शारीरिक दंड का गिरता चलन और इसके प्रति बदला रवैया यह
बताता है कि हिंसा के प्रश्न को पुलिसिया निगरानी से नहीं बल्कि
सांस्कृतिक-राजनैतिक बदलाव से निपटना होगा। ऐसा भी नहीं है कि स्कूलों में बच्चों
या शिक्षकों के बीच जो तरह-तरह की समस्याएँ आती हैं उनसे जूझने के लिए हमारे पास
सिर्फ़ तथाकथित अपराधी की पहचान करने और उसे पकड़ने के ही विकल्प रहते हैं। स्कूलों
में अगर समस्यायेँ हैं भी तो हम उनका अपराधिकरण करके उनसे पुलिस की तरह नहीं
निपटते बल्कि अपने विवेक, मानवीकरण और संवाद का इस्तेमाल
करते हैं। शिक्षक होने के नाते हमारे पास कई बारीक, शिक्षागत
और परिपक्व तौर-तरीक़े होते हैं। केवल अपराधी को पकड़ने वाले उपायों पर ज़ोर देने से
हम कभी भी यह पड़ताल नहीं कर पायेंगे कि आख़िर वो कौन-सी परिस्थितियाँ हैं जिनसे कुछ
किशोरों के व्यवहार में एक ख़ास संकट व्यक्त हो रहा है या इस संकट का चरित्र और मूल
क्या है। फिर हर सीसीटीवी फ़ूटेज व्यापक संदर्भ से कटा होता है और क्षणभर या घटना
विशेष के विडियो पर फ़ोकस करके उन परिस्थितियों को हमारी नज़रों से ओझल कर दिया जाता
है जो उसके लिए ज़िम्मेदार हैं। एक तरफ़ हम शिक्षकों को सुरक्षा और जवाबदेही के नाम
पर मकड़जाल में फंसाया जा रहा है, दूसरी तरफ़ जनता को सुधार के
सब्ज़बाग़ दिखाये जा रहे हैं।
क्या
सरकार यह कहना चाहती है कि उसके स्कूलों के हर विद्यार्थी के अभिभावक के पास
स्मार्ट-फ़ोन होना चाहिए? क्या कक्षा
का लाइव-फ़ीड देने से इस संभावना को पूरी तरह नकारा जा सकता है कि छात्र-छात्राओं
के उठने-बैठने तथा निजी व उन्मुक्त पलों के विडियो का दुरुपयोग नहीं होगा? क्या सरकार को यह अधिकार है कि वो उन बच्चे-बच्चियों की विडियो
रिकॉर्डिंग करके उसे प्रसारित कर दे जो एक विश्वास के तहत उसके स्कूलों में आ रहे
हैं? हमारे घर-परिवारों से भी हिंसक घटनाओं की खबरें आती
रहती हैं, तो क्या कल हम सभी घरों में कैमरे लगाकर उनका लाइव
फ़ूटेज सार्वजनिक करने का उपाय अपनाएँगे? ख़ुद विद्यार्थियों, विशेषकर छात्राओं द्वारा आपसी चर्चा में इसे बिग बॉस रूपी जासूसी की तरह
देखा जा रहा है। जिस दमघोंटू सामाजिक माहौल से छात्राएँ आती हैं उस संदर्भ में
उन्हें स्कूलों से विश्वास और सहयोग की ज़रूरत है न कि और अधिक निगरानी की। इसकी संभावना
प्रबल है कि जब कक्षाओं में विद्यार्थियों की गतिविधियाँ उनके अभिभावकों की नज़रों
में रहेंगी तो वो अपने बच्चे-बच्चियों की पढ़ाई ही नहीं बल्कि दोस्ती, बातचीत, आपसी व्यवहार और मेल-मिलाप पर और भी
प्रतिकूल दबाव डालने की स्थिति में होंगे। हमारे परिवारों का सामंती-पितृसत्तात्मक
चरित्र कक्षा के सीसीटीवी फ़ूटेज से और मज़बूत होगा जोकि विशेषकर लड़कियों की आज़ादी
और सीमित करेगा। स्कूलों में विद्यार्थियों को एक ऐसा सार्वजनिक स्थल मिलता है
जहाँ वो जाति-धर्म की जकड़नों से परे जाकर आधुनिकता से प्रेरित मित्रता गढ़ सकते
हैं। सीसीटीवी से स्कूलों की संस्कृति और भूमिका और अधिक प्रतिक्रियावादी तथा छात्र/छात्रा
विरोधी हो जाएगी।
कैमरों
का इस्तेमाल जेलों में क़ैदियों की निगरानी रखने के लिए किया जाता है। यह इन्सानों
की गरिमा पर एक निष्ठुर व निरंकुश सत्ता का हमला है जिसे हम शिक्षक स्वीकार नहीं
कर सकते हैं। चाहे वो हिंसा का सवाल हो या शिक्षा के तथाकथित स्तर का, इनकी जड़ें समाज के अमानवीय ढाँचे और
संस्कृति में हैं। निजी स्कूलों के अनुभव बताते हैं कि प्रशासन द्वारा कैमरे का
इस्तेमाल स्कूलों में भी उसी तरह से होता है जिस तरह दुकानों व कारख़ानों में
कर्मचारियों/मज़दूरों के शोषण के लिए होता है – कहीं कुर्सी पर बैठने पर रोक लगा दी
जाती है, कहीं कपड़ों पर सवाल खड़े कर दिये जाते हैं। सीसीटीवी
लगाने से यह सत्ता मज़बूत ही होगी। अगर सरकार को समाज के कमज़ोर-मेहनतकश वर्गों की
सुरक्षा की इतनी ही चिंता होती तो वो उन कारख़ानों की अमानवीय व ग़ैर-कानूनी
परिस्थितियों पर नज़र रखती जिनमें मज़दूरों का शोषण होता है। फिर शायद बवाना में उन
दर्जनों महिलाओं व बच्चों की मौत नहीं हुई होती जो कारखाने की आग में जलकर राख हो
गए। रहा स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा का सवाल तो महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, भारत सरकार, की एक रिपोर्ट के अनुसार स्कूल बच्चों
के लिए आज भी सबसे सुरक्षित स्थल हैं।
ज़रूरत
इस बात की है कि स्कूलों में सभी पदों पर नियमित नियुक्तियाँ की जाएँ, एक भय व शोषण मुक्त संस्कृति का निर्माण
किया जाए और बच्चों व महिलाओं की सुरक्षा से जुड़े क़ानूनों – POCSO (The Protection of Children from Sexual Offences Act), 2012 और POSH (Sexual Harassment of Women at
Workplace Act), 2013 – को लागू करके उनके प्रावधानों के प्रति
जागरूकता बढ़ाई जाये। शिक्षा विभाग के सभी स्तरों पर शोषण-विरोधी समितियों का गठन
किया जाये। जहाँ सरकार जनता का इतना पैसा ऐसे उपकरण पर ख़र्च करके निजी कंपनियों को
मुनाफ़ा दिलाने पर उतारू है वहाँ यह पूछने की भी जरूरत है कि वो कौन-से अन्य तरीक़े
हो सकते हैं जिनसे स्कूलों में बेहतर ढंग से एक स्वस्थ माहौल बनाया जा सके। यह तो
ऐसा है कि हम एक समस्या से जूझने के लिए उससे बड़ी एक अन्य समस्या खड़ी कर लें।
सीसीटीवी
का यह बेहूदा प्रस्ताव सरकार के इस दावे को भी ख़ारिज करता है कि उसका शिक्षा-दर्शन
व नीति केंद्र सरकार से अलग या अधिक प्रगतिशील है। सच तो यह है कि चाहे वो स्कूलों
की रैंकिंग करना हो या school of excellence के नाम से शिक्षा में ग़ैर-बराबरी की एक और परत बनाकर अपनी सार्वजनिक
ज़िम्मेदारी से पलटना हो, दिल्ली सरकार की नीतियाँ कहीं से भी
केंद्र सरकार की मंशाओं से जुदा नज़र नहीं आती हैं। ये सभी उदाहरण साबित करते हैं
कि केंद्र सरकार की तरह ही दिल्ली सरकार की शिक्षा नीतियाँ भी नवउदारवाद की चाकरी
कर रही हैं।
लोक
शिक्षक मंच आपसे अपील करता है कि दिल्ली सरकार की इन शिक्षा विरोधी नीतियों के
खिलाफ लामबंद होकर पुरजोर विरोध करें।
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