#मीटू ने हमें अपने बच्चों से बात शुरु करने का एक सुनहरा मौक़ा प्रदान किया है
शैलजा सेन (द इंडियन ऐक्सप्रेस, दिसंबर 1, 2018)
एक 14 साल के लड़के ने, जिससे मैं हाल-ही में मिली थी, ऐलान किया, "अगर आप [लड़कों] किसी लड़की के साथ नहीं हैं तो आपको समलैंगिक समझा जायेगा!" उसने आगे बताया कि कैसे उसकी सचमुच में जोड़ी बनाने की इच्छा नहीं थी, मगर क्योंकि आपको स्वयं को मर्द सिद्ध करना है, इसलिए इसका और कोई उपाय नहीं था। क्योंकि मैं इस 'मर्द बनने' के मामले को जानने की जिज्ञासू थी, उसने मुझे लड़कों के बड़े होने की एक दहलीज पार करने की उस रस्म का संक्षिप्त परिचय दिया जिससे होकर उनमें से कम-से-कम कुछ का ग़ुज़रना अपेक्षित था।
सर्वप्रथम, इसकी एक भाषा थी - लड़कियों को 'चिक्स' कहा जाता है; जो 'स्लट' ['बदचलन' औरत के लिए इस्तेमाल होने वाला दुर्वचन] स्वयं को 'उधर बाहर प्रस्तुत करतीं' वो 'हो' (वेश्या के लिए एक दुर्वचन) थीं; और "thot" का मायने था "दैट हो ओवर देयर" या यहाँ तक कि "थर्स्टी हो ओवर देयर"। इसमें "आक्रामक पॉर्न" देखने का ज़िक्र था, और ओरल सैक्स से जुड़ी अवश्यंभावी हाई स्कूली तल्लीनता।
क्या आपको यह भाषा आपत्तिजनक लगी? क्या इस छोटे लड़के को ऐसी बेफ़िक्री से, बिना किसी असहजता के बात करते हुए देखकर मैं अचंभित थी? यक़ीनन।
हालाँकि, जो चीज़ मुझे सबसे ज़्यादा महसूस हुई वो 'मर्द दिखने' और फ़िट होने की चाह में भरसक प्रयास कर रहे इस लड़के के प्रति करुणा थी। वो मुझसे पहली बार अपने भ्रमों के बारे में बात कर रहा था क्योंकि उसे लगता था कि उनकी "नासमझी" की वजह से उसका अपने माता-पिता से बात करना व्यर्थ था।
हम अपने लड़कों से इन नाज़ुक मुद्दों पर बात करने से बचते क्यों हैं? जैसा कि 13 साल के एक लड़के की माँ ने मुझे बताया, "मैं जानती हूँ कि वो नेट पर पॉर्न देख रहा है, मगर मैं उससे इस बारे में बात नहीं कर सकती।" एक अन्य पिता ने इसे यह कहकर ख़ारिज कर दिया कि लड़के तो लड़के रहेंगे। यह स्तंभ लिखते हुए मैंने अपने दोस्तों, परिवारजनों और कुछ चिकित्सा ग्राहकों के बीच एक अनौपचारिक सर्वे किया और उनसे पूछा कि क्या उन्होंने अपने बच्चों के साथ #मीटू पर चर्चा की थी। जवाब "नहीं" से लेकर "सोचा भी नहीं कि मुझे इसकी ज़रूरत थी", "वो बहुत छोटे हैं", "वो इतने बड़े हैं कि अपना मत ख़ुद बना सकें", "समय नहीं मिला" तक मिले। बहुत कम लोगों ने "हाँ"में जवाब दिया और इनमें से अधिकांश ने अपनी बेटियों से बात की थी। और जब उन्होंने किया भी, तो यह अधिकतर #मीटू से जुड़ी ख़बरों पर चर्चा के रूप में था या यहाँ तक कि मज़ाक के तौर पर भी।
अपने बच्चों व युवाओं के साथ #मीटू पर मेरी कुछ बेहद सार्थक चर्चाएँ हुई हैं और किसी अन्य चीज़ के मुक़ाबले मैंने उनसे कहीं अधिक सीखा है।
अभिभावकों के रूप में हम क्या कर सकते हैं? क्या ऐसे तरीक़े हैं जिनसे हम अपने लड़कों को इन लैंगिक मुद्दों के बारे में और अधिक संवेदनशील व जागरूक बना सकते हैं?
1. हमें अपने घरों और स्कूलों में अपने लड़कों के साथ लैंगिक राजनीति के संदर्भ में ताक़त पर बात करने की ज़रूरत है। बच्चों को "पुरुष और महिला बराबर हैं" का पाठ पढ़ाना बेमानी है, जबकि वो चारों ओर से पितृसत्ता से घिरे हैं। अपने बच्चों से बातचीत शुरु करने के अवसर के रूप में #मीटू एक बेहतरीन मौक़ा है। केवल एकबारगी नहीं, बल्कि विभिन्न उम्र व पड़ावों पर लगातार। अपने किशोरावस्था के लड़कों से पूछिए कि वो इसके बारे में क्या सोचते हैं। उन्हें नैतिकता के तराज़ू पर तौले या शर्मिंदा किये बिना सुनिए, तब भी जबकि आपको लगे कि वो सैक्सिस्ट या उपेक्षापूर्ण हैं। अगर आपको ये चर्चा असहज करती है तब भी ठीक है, क्योंकि वास्तविक होने के लिए इस विषय पर सभी चर्चाएँ असहज ही होंगी। उभरते शोध परिणाम व्यापक रूप से यह बताते हैं कि जो लड़के अपनी भावनाओं के संपर्क में रहते हैं और जिन्हें इसके बारे में बात करने के सुरक्षित अवसर मिलते हैं, वो अपने व्यवहार को अधिक कारगर ढंग से नियंत्रित कर पाते हैं।
2. उन्हें कहिये कि वो एक लड़की के दृष्टिकोण को समझें व उसे जानने की पहल करें। मेरी 17-वर्षीय बेटी ने हमें एक पारिवारिक बातचीत में बताया, "जब मैं अकेले बाहर होती हूँ तब मैं कभी भी पूरी तरह-से आज़ाद नहीं होती हूँ - मेट्रो में, सड़कों पर चलते हुए, कॉलोनी में साइकिल चलाते वक़्त। लड़कियों के बतौर हमें इस भय के साथ जीना सिखाया जाता है, जोकि इस समय मेरा अभिन्न अंग है। मुझे नहीं लगता कि मैं कभी इससे उबर पाऊँगी।" एक अन्य किशोरी ने, पारिवारिक चिकित्सा के एक सत्र में, साझा किया कि उससे जुड़ी शर्म व कलंक के मारे कैसे वह बचपन में अपने साथ हुए यौन शोषण पर ख़ामोश रही। "तुमने मुझपर विश्वास ही नहीं किया होता, तो फ़ायदा ही क्या था?" जब उसके भाई ने उसे यह कहते हुए सुना तो उसके शब्दों के सच को महसूस करके वह रो पड़ा।
3. हर बच्चे को यह मंत्र सीखने की ज़रूरत है, "यह शरीर तुम्हारा है, तुम फ़ैसला करो।" कम उम्र के लड़कों को सहमति के मायने समझने में मदद करने के लिए आप दो अलग-अलग कथानकों की एक छोटी-सी नाटिका खेल सकते हैं जिसमें आप एक दूर के पुरुष रिश्तेदार (अंकल) की भूमिका निभा सकते हैं। पहले कथानक में आप उन्हें खींचकर बाहों में ले लें व दूसरे में आप उनसे पूछें, "क्या मैं तुम्हें गले लगा लूँ?" और अगर वो साफ़तौर से "हाँ" कहें तो आप उन्हें गले लगाएँ तथा अगर वो "नहीं" कहें तो शालीनता से इसे स्वीकार करें। नाटिका के बाद उनसे बात करें कि उन्हें कौन-सी स्थिति में अधिक आश्वस्त महसूस हुआ और किसमें उन्हें लगा कि उन्हें एक वस्तु मानकर उनकी मर्ज़ी या आवाज़ को दरकिनार किया गया। जैसा कि एक 18-वर्षीय युवक ने मुझे बताया, "जब आप पूछते हैं तो चीज़ें साफ़ हो जाती हैं; तब बीच की आशंका या शायद का ख़याल नहीं रहता है। "
4. अतिक्रमण व हदों को समझने के लिए लड़कों को यह जानने की ज़रूरत है कि इनमें चार तत्व शामिल हैं - सहमति, ताक़त की बराबरी, उम्र का लिहाज़ एवं संदर्भ (स्थान)। आप इसे एक उदाहरण से समझा सकते हैं। मान लीजिये कि एक स्कूल बस में बारहवीं कक्षा के एक लड़के ने छठी कक्षा की एक लड़की को उसकी सहमति से छुआ है, तब भी तीन कारणों से यह अतिक्रमण की श्रेणी में आयेगा - ताक़त की बराबरी (वह काफ़ी बड़ा है), यह उस लड़की की उम्र के लिहाज़ से उचित नहीं है और इस बर्ताव का संदर्भ ग़लत है।
5. इस बात की चर्चा करें कि कैसे भाषा ताक़त से इस क़दर उलझी हुई है और कैसे "स्लट", "हो" या "थॉट" जैसे शब्द शर्मिंदा करने वाली उस संस्कृति को बढ़ावा देते हैं जिसका सामना महिलाओं को करना पड़ता है। आप अपने अनुभव भी साझा कर सकते हैं क्योंकि यह सीखना समृद्ध करता है। एक माँ का यह बताना कि कॉलेज की पुरुष-वर्चस्व वाली कक्षा में उसे कितना असहज लगा था या सड़क पर सुनी किसी टिप्पणी को साझा करना उन्हें लड़कियों के प्रति अधिक समानुभूतिपूर्ण बनाएगा। जब लड़के समानुभूति विकसित करेंगे, केवल तब ही वो लिंगभेद जैसे मुद्दों को समझ पायेंगे और जान पायेंगे कि लड़की होने के क्या मतलब हैं व अश्लील तथा भद्दी टिप्पणियों व चुटकुलों का असर क्या होता है।
6. उन्हें मीडिया के विश्लेषण से परिचित करायें ताकि वो हमारी फ़िल्मों, प्रचारों व मीडिया में महिलाओं के प्रत्यक्ष व परोक्ष वस्तुकरण को भेद पायें। जब मेरे बच्चे छोटे थे तब हम मिलकर यह खेल खेला करते थे जहाँ हम यह भेद जानने की कोशिश करते थे कि प्रचारक हमें बेवक़ूफ़ बनाकर कौन-सा सामान ख़रीदने को फुसला रहे थे।
7. यह बहुत ज़रूरी है कि वो, अपनी उम्र के स्तर के मुताबिक़, पॉक्सो अधिनियम में परिभाषित क़ानूनी निहितार्थ समझें, जिनके अनुसार, ग़लत या सही, यौन संबंध बनाने पर 18 साल से कम उम्र के बच्चों पर भी मुक़दमा चलाया जा सकता है, भले ही उसमें सहमति रही हो या नहीं।
समस्या कहीं बाहर नहीं है, हम सब समस्या का हिस्सा हैं और पितृसत्ता की संस्कृति के शोरबे में तैर रहे हैं। तो वो क्या है जो हमें अभिभावकों, शिक्षकों व चिंतित व्यक्तियों के रूप में करना चाहिए? मेरे लिए इसका जवाब सरल है - संस्थागत स्तर पर मज़बूत करने वाला न्याय जो सबके लिए इंसाफ़ और ज़ख़्म भरने को तवज्जो देता है। इसे समझने के लिए #मीटू अहम था, लेकिन अब हमें #वीटू जैसे एक एकजुटता के आंदोलन की ओर आगे बढ़ने की ज़रूरत है।
(डॉ. सेन एक थेरेपिस्ट हैं और बाल व किशोर मानसिक स्वास्थ्य संस्थान, चिल्ड्रन फ़र्स्ट की सह-संस्थापक हैं।)
(द इंडियन ऐक्सप्रेस से साभार)
No comments:
Post a Comment