लोकेश मालती प्रकाश
{हाल ही में संसद ने शिक्षा अधिकार कानून में संशोधन कर कानून में बच्चों को आठवीं तक फ़ेल नहीं करने की नीति को बदल दिया। अब राज्य चाहें तो बच्चों को आठवीं कक्षा से पहले भी परीक्षा लेकर फ़ेल करने का नियम बना सकते हैं। इस मामले में सरकार ने दुनिया भर के तमाम अनुभवों, शोधों और शिक्षाविदों की सलाह को ताक पर रख कर बच्चों को स्कूल में सीखने-सिखाने का बेहतर माहौल देने की बजाय उनको फ़ेल कर स्कूल से बाहर करने का आसान रास्ता चुन लिया। प्रस्तुत व्यंग्य इस मामले में हमारे सार्वजनिक व नीतिगत विमर्श की दरिद्रता को रेखांकित करता है।} संपादक
अब हम बच्चों को फ़ेल करेंगे। बिना फ़ेल किए भला पढ़ाई-लिखाई होती है? बच्चे फ़ेल होने के डर से ही पढ़ते हैं। नो- फ़ेल का मतलब है नो-पढ़ाई। सीखने-सिखाने की प्रक्रिया कष्टप्रद होनी चाहिए। यह मज़े-मज़े की पढ़ाई में बच्चे बिगड़ रहे हैं। और तो और, इससे शिक्षक भी बिगड़ रहे हैं – फ़ेल नहीं करना है तो पढ़ा कर क्या होगा! मास्टरों की पोल तभी खुलेगी जब बच्चे फ़ेल होंगे।
देश अब तक परीक्षा और फ़ेल होने के गूढ़ व दूरगामी प्रभावों को समझ नहीं सका है। इन्हें सामने लाना बेहद ज़रूरी है ताकि इस मसले पर सहीं मायने में एक सुलझी हुई व गम्भीर राष्ट्रीय बहस हो।
सबसे ज़रूरी बात तो यह है कि परीक्षा का डर बच्चों को देश का सच्चा नागरिक बनाता है। असल में,स्कूलों का सबसे बड़ा काम बच्चों को यह सिखाना है कि वे डरें -परीक्षा से, टीचर से, प्रिंसीपल से, फ़ेल होने से। नो- फ़ेल पॉलिसी से इस तरह के तमाम भय अपना प्रभाव खो रहे हैं। बच्चे बिगड़ रहे हैं। वे ढंग से डरना नहीं सीख रहे हैं।
भाषा,गणित, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, वगैरह वगैरह यह सब ऊपरी ज्ञान है जो इंसान कभी भी सीख सकता है और न भी सीखे तो कोई बहुत बड़ी बात तो नहीं। और इस नीति से पहले बच्चे यह सब अच्छे से सीख रहे थे इसका भी कोई पुख्ता सबूत नहीं। सो उसकी बात करना बेमानी है। असल बात है कि नो- फ़ेल पॉलिसी से बच्चों में स्कूलों और तालीम का डर कहीं न कहीं कमज़ोर पड़ रहा है जो देश के लिए डरावना है।
डरे हुए लोग ही देश के सबसे अच्छे नागरिक होते हैं। निडर नागरिक देश के लिए खतरा होते हैं। आजकल के पैमाने पर तो वे देशद्रोही हैं। नागरिकों का निडर हो जाना राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डाल देगा। देश की एकता और अखण्डता चरमराने लगेगी। मिसाल के लिए,अगर खाकी वर्दी का ख़ौफ़ न हो तो अराजकता नहीं आ जाएगी? अभी तो बस अपराधियों के हौसले बुलंद हैं कल को हर ऐरे-गैरे के हौसले आसमान छूने लगेंगे।
निडर लोग सवाल उठाने लगेंगे। सोचने लगेंगे और अपने लिए फ़ैसले लेने की जुर्रत करेंगे। अगर ऐसा हुआ तो संविधान की कसमें खाकर बनी सरकारें क्या करेंगी? इतनी लम्बी-चौड़ी-फैली शासन व्यवस्था,नेता, मंत्री, अफ़सर – ये सब क्या करेंगे? यह सब इसी लिए तो है कि लोकतंत्र का लोक फ़ैसले लेने का काम तंत्र (और उसके नियंताओं) पर छोड़ दे। बड़ी मेहनत से यह सब खड़ा किया गया है।
नो-फ़ेल पॉलिसी से ये सारा ताना-बाना ही बिखरने की कगार पर आ सकता है। पता नहीं किसी ने अब तक यह तर्क क्यों नहीं दिया मगर नो-फ़ेल पॉलिसी महज़ तालीम का नहीं देश की हिफाज़त का, राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला है।
कम-से-कम भाजपा से उम्मीद थी कि वह इस पक्ष की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित करती ताकि इस नीति पर वाकई एक गंभीर और सार्थक राष्ट्रीय बहस हो सके। इतने विकट राष्ट्रवादियों से ऐसी भूल हो जाना अपनेआप में बेहद खतरनाक संकेत है। मोदी जी को इसके लिए नैतिक आधार पर तत्काल इस्तीफा देना चाहिए। (चूंकि नैतिक आधार पर इस्तीफा देने का नैतिकता से कोई असल सम्बन्ध नहीं होता इसलिए इसमें कोई मुश्किल नहीं।)
मेरा तो यह भी मानना है कि नो-फ़ेल पॉलिसी देश की परम्परा के साथ भी खिलवाड़ कर रही है। (संस्कृति रक्षक दल के लोग यहाँ भी चूक गए। हद है!)। जब हम बच्चों को परीक्षा के मैदान में उतारते हैं तो उनको समझ में आता है कि उनका असल तारणहार भगवान ही है। परीक्षा के मौसम में लोगों की ईश्वर भक्ति बढ़ जाती है। अास्था मजबूत हो जाती है। जैसे गर्मी में लू चलती है वैसे ही परीक्षा के मौसम में भक्ति और ईश्वर प्रेम की सामूहिक लहर चलती है।
फिर जो परीक्षा में पास होते हैं वे ईश्वर को धन्यवाद देते हैं और जो फ़ेल होते हैं वे अपने भाग्य को कोसते हैं। होनी को कौन टाल सकता है! नियति के लिखे को कौन बदल सकता है! और फिर पिछले जन्मों के कर्म भी तो अपना कमाल दिखाएँगे ही! जी हाँ, फ़ेल होना पूर्व-जन्म के कर्मों का फल है। फ़ेल होने वाले पूर्व-जन्मों के पापी हैं। उनको सज़ा मिलनी ही चाहिए।
देश की शिक्षा व्यवस्था इतने सालों से यह काम बखूबी कर रही है। नो-फ़ेल पॉलिसी शिक्षा व्यवस्था के इस पारलौकिक उद्देश्य के साथ खिलवाड़ है। अगर स्कूल फ़ेल नहीं करेंगे तो आने वाली नस्लों का ईश्वर, भाग्य और पूर्व-जन्म के कर्मों के फल जैसी सनातन धारणाओं से विश्वास उठ जाएगा। देश की संस्कृति खतरे में पड़ जाएगी।
फ़ेल होने की व्यवस्था का विभागीय अनुशासन को मजबूत करने में भी अहम योगदान होता है। जब ढेर सारे बच्चे फ़ेल होते हैं तो अधिकारी मास्टरों को नोटिस जारी करते हैं। कारण बताओ कि तुम्हारी कक्षा के इतने बच्चे कैसे फ़ेल हुए?
नोटिस का कारण-वारण जानने से कोई लेना-देना नहीं। जान कर भी क्या करना? विधि के विधान से छेड़छाड़ कौन कर सकता है?
बात यह है कि नोटिस से मास्टरों के मन में भय पनपता है और उन पर विभाग का और अधिकारियों का दबदबा मजबूत होता है। नो-फ़ेल पॉलिसी इस विभागीय व्यवस्था के साथ खिलवाड़ कर रही है।
कुछ बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्टों का कहना है कि बच्चों को सिखाने की व्यवस्था होनी चाहिए न कि फ़ेल करने की। ये लोग सीखने के लिए स्कूलों में उन्मुक्त वातावरण की वकालत करते हैं। स्कूलों में लाइब्रेरी, सीखने-सिखाने के बेहतर तरीकों और बढ़िया सामग्री, खेल-कूद के सामान, कम शिक्षक-छात्र अनुपात, आकर्षक जगह आदि जैसी चीज़ों की बात करते हैं। कहते हैं कि सरकार तालीम पर पैसा ज़्यादा खर्च करे। शिक्षकों को बेहतर शिक्षा दे। सीखने की प्रक्रिया में बच्चों को मज़ा आना चाहिए। वगैरह वगैरह। लम्बी लिस्ट है। ऐसी गैर-ज़रूरी बातों की लिस्ट आमतौर पर लम्बी ही होती है ताकि असल मुद्दों से ध्यान भटक जाए।
इन फालतू बातों को छोड़िए। सबसे पहले तो ऐसे लोगों की जाँच होनी चाहिए। ये या तो खुद गुमराह हैं या देश को गुमराह कर रहे हैं। जो बातें देश के नागरिकों को सीखनी चाहिए वह तो स्कूल सिखा रहे हैं। बाकी रट-पिट कर डाक्टरी, इंजीनियरी आदि कि पढ़ाई भी थोड़े बहुत कर ही लेते हैं। उससे देश का काम चल ही रहा है (हम महाशक्ति ऐसे ही बन गए हैं क्या!)।
स्कूल क्या कोई सर्कस है कि वहाँ बच्चों को मज़ा आना चाहिए? उन्मुक्त वातावरण के चलते जेएनयू देशद्रोहियों का अड्डा बन गया और आप स्कूलों को भी वैसा ही बनाना चाहते हैं? आप चाहते क्या हैं? स्कूलों का काम डरी हुई राष्ट्रभक्त क़ौम पैदा करना है न कि उन्मुक्त ख़यालों के देशद्रोही व अराजक तत्व।
सरकार तालीम पर ज़्यादा खर्च करे?क्यों करे? जिनके भाग्य में पढ़ाई लिखी ही नहीं है उन पर खर्च करना देश के पैसे की बरबादी है। बल्कि इस एंगल से देखें तो बच्चों को फ़ेल करना राष्ट्रीय बचत के लिए ज़रूरी है। पैसा बचेगा तभी तो रॉफेल आएगा। देश बम बनाएगा। दुश्मनों को डराएगा। राष्ट्रवाद की भावना मजबूत होगी।
तो जो लोग बिना डर की तालीम की बात कर रहे हैं वे तो देश की सुरक्षा और संस्कृति के सबसे बड़े दुश्मन हैं। यह भी सवाल उठता है कि हमारी इतनी मुकम्मल शिक्षा व्यवस्था के बावजूद ऐसे तर्क देने वाले कहाँ से आ जाते हैं। इनके शिक्षा विरोधी और राष्ट्र विरोधी विचारों का स्रोत क्या है? इन्हें कौन फंड दे रहा है? द नेशन वॉन्ट्स टू नो!
अंत में इतना ही कहना है कि असफलता ही सफलता की सीढ़ी है। जो असफल नहीं होगा वह कभी सफल भी नहीं होगा। जो परीक्षा में फ़ेल नहीं होगा वह ज़िन्दगी में पास नहीं होगा। फ़ेल होना ही सबसे बड़ी सीख है। देश के नौनिहालों को फिर से फ़ेल करने की सरकार की मुहिम में उम्मीद है राज्य सरकारें और देश का प्रबुद्ध वर्ग सभी असहमतियों को एक तरफ रख कर एकजुट हो जाएगा। यह नए साल का सबसे बड़ा तोहफ़ा होगा जो हम अपने बच्चों को देंगे।
(samkaleenjanmat.in से साभार)
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