लोक शिक्षक मंच, दिल्ली के
मुख्यमंत्री श्री अरविंद केजरीवाल द्वारा 28 जनवरी को दिल्ली
सरकार के स्कूलों में आयोजित मेगा पीटीएम के अवसर पर दिए गए दलगत प्रचारी संबोधन
पर कड़ा ऐतराज़ और रोष ज़ाहिर करता है। कार्यक्रम के संदर्भ में स्कूलों में उपस्थित
विद्यार्थियों, उनके अभिभावकों तथा शहर के अन्य नागरिकों से उनकी
पार्टी के पक्ष में और नाम लेकर अपने राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी के ख़िलाफ़ वोट देने की
अपील करके मुख्यमंत्री ने अपने प्रोपागैंडा युक्त भाषण से न सिर्फ़ सार्वजनिक
स्कूलों तथा अपने पद की मर्यादा को कुचलने का काम किया है, बल्कि तमाम संवैधानिक
उसूलों की भी धज्जियाँ उड़ा दी हैं।
साफ़ है कि
चाहे वो लोगों का डाटा इकट्ठा करना हो या फिर अबतक सामान्य व सहज ढंग से होते आये
कार्यक्रमों को मेगा आयोजनों में बदलना, सरकार की इन नीतियों से सत्ता का
केन्द्रीकरण बढ़ रहा है तथा वो और निरंकुश हो रही है। इन क़वायदों का उद्देश्य न
जनहित है और न ही लोकतंत्र को मज़बूत करना। दरअसल, मेगा पीटीएम के बहाने यह
शिक्षक-अभिभावक सभाओं को सत्ता पक्ष द्वारा अपने क्षुद्र स्वार्थों के लिए अगवा
करने की खुली साज़िश है। शिक्षक-अभिभावक संघ के रूप में जिस संस्था को शिक्षकों व
अभिभावकों के विचार-विमर्श व मेलजोल का मंच होना चाहिए और जिसकी सभाएँ व कार्यक्रम
आयोजित करने का फ़ैसला स्कूली स्तर पर, स्कूल की ज़रूरत के अनुसार होना चाहिए, मेगा पीटीएम सरीख़े सरकारी आदेशों
द्वारा उसे दलगत प्रचार के लिए बंधक बनाया जा रहा है। यही नहीं, निजी स्वार्थ के इस काम में सार्वजनिक
फ़ंड्स व टेक्नोलॉजी का मनचाहा इस्तेमाल किया जा रहा है। ऐसे में हम इन दोनों ही
क्षेत्रों में सरकार की उपलब्धियों व आदेशों को संदेह से ही नहीं बल्कि जन व
शिक्षा विरोधी नीति के रूप में देखते हैं। सभी स्कूलों में नेताओं के प्रसारण का
अनिवार्य इंतज़ाम करने व इश्तेहार लगाने के आदेशों को लागू करने में जनता की
ख़ून-पसीने की कमाई की बेहिसाब बर्बादी होती है। वो भी एक ऐसे काम में जो न सिर्फ़
जनहित में नहीं है, बल्कि असल
में शिक्षा-विरोधी है और ख़ालिस रूप से दलगत, चुनावी प्रचार व सत्ता की राजनीति से
प्रेरित है। स्कूलों में 'दिल्ली
सरकार द्वारा 11,000 कमरों का निर्माण' का ऐलान
करते जो बोर्ड्स लगाये गए थे वो कोई जनहित संबंधित घोषणा नहीं थी बल्कि
स्व-विज्ञापन था, वो भी एक ऐसे काम का जो अभी शुरु भी नहीं हुआ है|
मुख्यमंत्री
द्वारा सरकारी स्कूलों के प्राँगण व शिक्षक-अभिभावक संघ के मंच का अपने चुनावी
प्रचार के लिए इस्तेमाल करना न केवल स्कूलों व पीटीएम के दलगत रूप से निर्पेक्ष
चरित्र पर सीधा हमला है, बल्कि यह
उन नागरिकों के साथ भी एक भद्दा मज़ाक व धोखा है जिन्हें ऐसे कार्यक्रमों में अपने
समय व दिहाड़ी की क़ीमत चुकाकर आना पड़ता है। इस तरह के छल का एक दुष्परिणाम
अभिभावकों व अन्य नागरिकों के बीच सार्वजनिक स्कूलों व शिक्षकों पर से भरोसा उठने
में भी प्रकट होगा। ऐसे आयोजनों के अनुभव के चलते वो कैसे यक़ीन करेंगे कि स्कूल
में उन्हें जायज़ उद्देश्य व काम से बुलाया जा रहा है? दूसरी तरफ़, इस कार्यक्रम के आयोजन के माध्यम से
दलगत प्रचार के लिए सिर्फ़ सरकारी स्कूलों के संसाधन, समय व स्थान का ही नहीं, बल्कि शिक्षकों व अन्य कर्मचारियों के
श्रम का भी अवैधानिक व अनैतिक दोहन किया गया। सरकारी कर्मचारी के रूप में शिक्षकों
को बंधुआ मानकर, एक
प्रशासनिक आयोजन के बहाने से वस्तुतः उनसे जबरन एक दलीय कार्यक्रम के लिए काम लिया
गया है। शिक्षकों
ने दर्ज किया कि कैसे उन्हें उनकी समझ और सहमति के ख़िलाफ़ दलगत प्रचार के लिए
इस्तेमाल किए जाने का अपमानजनक एहसास हुआ| ऐसे क़दम निष्पक्ष कार्यपालिका के
संवैधानिक मूल्य पर चोट करते हैं| बार-बार यह दबाव बनाकर कि सरकारी कर्मचारी होने के नाते हम प्रत्येक विभागीय
आदेश मानने के लिए बाध्य हैं, हमें अनुचित आदेशों का पालन करने के लिए विवश नहीं किया जा सकता| साथ ही, ऐसे आयोजनों से विद्यार्थियों की पढ़ाई
का अपूर्णीय नुक़सान हुआ है। लगातार होते ऐसे आयोजनों से होने वाले शैक्षिक नुक़सान
से बेपरवाही शिक्षा के प्रति सरकार की गंभीरता का छद्मावरण उघाड़ देती है।
चाहे वो
प्रधानमंत्री के तयशुदा कथानक का अनिवार्य प्रसारण हो या फिर मुख्यमंत्री का
विद्यार्थियों के माध्यम से दलगत चुनावी अपील करना, स्पष्ट है कि सत्ताधारी ताक़तें, सभी नैतिक-संवैधानिक मूल्यों को ताक़ पर
रखकर, सार्वजनिक
स्कूलों को अपने निजी स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करने पर आमादा हैं। एक तरफ़ तो यह
हमारे सामने मुख्यधारा की चुनावी राजनीति के घटिया स्तर का उदाहरण पेश करता है, वहीं दूसरी तरफ़ यह चलन न सिर्फ़ हमारे
स्कूलों व शिक्षा की गरिमा और स्वायत्तता पर कुठाराघात कर रहा है, बल्कि लोकतंत्र की जड़ें भी खोखली कर
रहा है। एक ओर प्रधानमंत्री के साथ बच्चों के बीच एक सार्वजनिक कार्यक्रम को उनकी
किताब की सेल्समैनशिप से जोड़ दिया जाता है और बच्चों से उनके नाम का सामूहिक जाप
कराया जाता है, दूसरी ओर
एक सरकारी कार्यक्रम में मुख्यमंत्री अभिभावकों को उनके बेटों के भविष्य की
भावनात्मक दुहाई देते हुए अपनी पार्टी के प्रचारक की भूमिका निभाते हैं। ज़ाहिर है
कि जनकोष से और सरकारी स्थलों पर आयोजित इन कार्यक्रमों से वर्तमान व भावी
मतदाताओं में ओछे प्रचार का काम लिया जा रहा है। स्कूलों को इस तरह से राजनेताओं व
सत्ताधारी दल के निजी प्रचार के स्थल में बदल दिए जाने को इस दौर में सार्वजनिक व
संवैधानिक संस्थानों को कमज़ोर-बर्बाद करने वाले हमलों की कड़ी में देखने की ज़रूरत
है। यह आचरण या तो राजनैतिक अपरिपक्वता दर्शाता है या फिर निर्लज्जता। दोनों ही
स्थितियों में देश के शीर्ष नेतृत्व का यह बेहूदा व्यवहार लोकतंत्र के लिए बेहद
ख़तरनाक है। छल-बल से बच्चों के बीच अपनी या अपने दल की हीरोनुमा छवि स्थापित करना
राजनैतिक अश्लीलता है। जब यह कृत्य संवैधानिक मापदंडों के विरुद्ध जाकर और
सार्वजनिक संसाधनों को इस्तेमाल करके किया जाये तब सत्ता का यह तानाशाही दुरुपयोग
एक अपराध भी हो जाता है।
हम माँग
करते हैं कि
- · स्कूलों को चुनावी व दलगत प्रचार के लिए इस्तेमाल करने पर तत्काल व पूर्णतः रोक लगाई जाए।
- · स्कूलों पर केंद्रीकृत कार्यक्रम व आयोजन थोपना तथा उन्हें अनिवार्य बनाना बंद किया जाए।
- · स्कूलों के स्थानिक चरित्र व स्वायत्तता की इज़्ज़त व हिफ़ाज़त की जाए।
हम शिक्षक साथियों व लोकतांत्रिक
मूल्यों तथा सार्वजनिक शिक्षा की गरिमा में यक़ीन रखने वाले तमाम लोगों से अपील
करते हैं कि वे स्कूलों को दलगत व चुनावी प्रचार के लिए इस्तेमाल करने वाले आदेशों, व्यवहारों तथा आयोजनों का विरोध करें।